श्रीमद्भागवत (11.17) तथा महाभारत के अनुशासन पर्व के अनुसार ⤵️
आदि सतयुग के प्रारंभ में एक ही वेद था — जिसे प्रसव वेद कहा गया।
यह वेद श्रुति के रूप में स्वयं ऋषियों के हृदय में स्फूर्त होता था। यह वचन - उपासना की बुनियाद होता था।
यह वेद संपूर्ण ज्ञान का समावेशी स्रोत था अर्थात ब्रह्म, ब्रह्म , आत्मा , कर्म, ध्यान एवं उपासना की ऊर्जा उत्पन्न करता था।
और हंस , एक धर्म था ।
त्रेतायुग आते - आते वेद त्रय हो गए और द्वापर में चार वेद हो गए । प्रसव वेद परंपरा का केंद्र ब्रह्म है । एक वेद से चार वेदों का बनाना , हर वेद के चार - चार अंगों का बनना , वेद के विकास को दर्शाता है । चार वेद - ऋग्वेद , शुक्ल और कृष्ण यजुर्वेद , सामवेद और अथर्ववेद और उनके अंग - संहिता , ब्राह्मण , आरण्यक और उपनिषदों को दूर से देखने पर उनके मार्ग अलग - अलग दिखते हैं लेकिन ऐसा है , नहीं , सबका केंद्र एक ही है और वह है - ब्रह्म , ब्रह्म से ब्रह्म में उसकी माया तथा माया से माया में संसार एवं संसार की सूचनाओं का होना। समयातीत , निर्गुण ब्रह्म से समयाधीन, त्रिगुणी माया और माया से माया में नाना प्रकार की सूचनाओं का होना का बोध कराते हैं , चार वेद एवं उनके अंग ।यहां हम चार वेदों में व्यक्त , अव्यक्त ब्रह्म की अवधारणाओं के सार को प्रस्तुत करने की कोशिश कर रहे हैं । यह विषय हमारी बुद्धि सीमा के परे का है लेकिन कोशिश तो की ही जा सकती है । चार वेदों ब्रह्म की अवधारणाओं को यहां , एक टेबल में दिया जा रहा है …
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