सांख्य दर्शन की कारिका : 1 - 2
दुःख त्रय अभिघात् जिज्ञासा तद् अपघातक हेतौ
दृष्टे स अपार्था च — एकान्त अत्यंत अभावत्
तीन प्रकारके दुःख हैं , इन दुःखों से अछूता रहने की जिज्ञासा होनी स्वाभाविक है । उपलब्ध उपायों से इन दुःखों से पूर्ण रूप से मुक्त होना संभव नहीं क्योंकि उपलब्ध साधनों से अस्थाई रूप में दुःखों से मुक्ति मिल पाती है ।
कारिका - 2
द्रष्टवत् अनुश्रविक स ह्य विशुद्धि क्षय अतिशय युक्त
तत् विपरित श्रेयां व्यक्त अव्यक्तज्ञ विज्ञानात्
अनुश्रविक उपाय ( दुःख निवारण हेतु वैदिक उपाय जैसे यज्ञ आदि करना ) भी दृश्य उपायों (अन्य उपलब्ध उपायों ) की ही भाँति हैं । वैदिक उपाय अविशुद्धि क्षय - अतिशय दोष से युक्त हैं अतः तीन प्रकार के दुखों से मुक्त बने रहने का केवल एक उपाय है और वह अव्यक्त ( प्रकृति ) और ज्ञ ( पुरुष ) का बोध होना । तीन गुणों की साम्यावस्था को अव्यक्त या मूल प्रकृति कहते हैं ।
अब ऊपर दी गई कारिका 1 और 2 को विस्तार से समझते हैं 🔽
निम्न 03 प्रकार के दुःख हैं ⤵️
# आध्यात्मिक # आधिभौतिक # आधिदैविक
1 - आध्यात्मिक दुःख (दैहिक ताप )
◆ जिस दुःख का कारण हम स्वयं होते हैं , वह आध्यात्मिक दुःख है ।बकर्म तत्त्वों एवं त्रिदोषों से मिलने वाले दुःख आध्यात्मिक दुःख होते हैं । यह दुःख मानसिक एवं शारीरिक दो प्रकार का है । इस दुःख से मनुष्य एवं देवता सभीं त्रस्त हैं । इस श्रेणी के दुःख के हेतु कामना , क्रोध , लोभ , मोह , भय , भ्रम , संदेह , आलस्य एवं अहंकार हैं , जिन्हें कर्म तत्त्व भी कहते हैं । त्रिदोष अर्थात वात, पित्त और कफ के असंतुलन से उत्पन्न शारीरिक रोगों से जो दुःख मिलता है , वह भी आध्यात्मिक दुःख ही होता है ।
बहुत कठिन है ,स्वयं के दुःख का , स्वयं को कारण समझना क्योंकि स्वयं को कारण समझते ही अहं की मृत्यु हो जाती हैं और मनुष्य या तो मानसिक डिप्रेशन में आ जाता है या फिर इंद्रियातीत आनंद में रहता है । पहली अवस्था अविद्या के कारण उत्पन्न होती है और दूसरी अवस्था तब आती है जब योगी योगाभ्यास में प्रकृतिलय एवं अस्मितालय की सिद्धि प्राप्त कर लिया होता है । प्रकृतिलय और अस्मितालय के किए पतंजलि समाधिपाद सूत्र : 17 - 19 को समझना होगा ।
2 - आधिदैविक दुःख (दैविक ताप )
जिस दुःखका कारण प्रकृति ( दैव )होती है , उस दुःख को आधि दैविक दुःख कहते हैं जैसे भूकंप , अति वृष्टि आदि जैसी घटनाओं से मिलने वाले दुःख , उस श्रेणी के दुःख हैं।
3 - आधिभौतिक दुःख (भौतिक ताप )
◆ वह दुःख जो अन्य जीवोंसे मिलता है , आधिभौतिक कहलाता है ।
श्रीमद्भागवत पुराण 1.5 में कहा गया है …
“ प्रभु समर्पित कर्म संसार में व्याप्त तीन प्रकार के तापों की औषधि होते हैं “
सांख्य दर्शन में ऊपर व्यक्त कारिका 1 और 2 कह रहे हैं , पुरुष - प्रकृति का बोध अर्थात तत्त्व जिन से तीन प्रकार के दुखों के मुक्त रहा जा सकता है ।
पतंजलि योग दर्शन कहता है , जबतक कैवल्य नहीं मिलता , चित्त केंद्रित पुरुष सुख - दुःख को भोगता रहता है और पुरुष को कैवल्य दिलाने हेतु लिंग शरीर आवागमन करता रहता है । मन , बुद्धि , अहंकार , 10 इंद्रियां और 05 तन्मात्रो के समूह को सूक्ष्म शरीर या लिंग शरीर कहते हैं जो त्रिगुणी प्रकृति के त्रिगुणी तत्त्व हैं ।
~~ ॐ ~~
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