Monday, April 20, 2015

गीतके मोती - 41

* कर्म - योग सूत्र *
# कर्म किये बिना कोई जीवधारी एक पल भी नहीं रह सकता ।
# हमारे सभीं कर्म मूलतः भोग होते हैं क्योंकि उनका आधार आसक्ति होती है ।
# कर्म दो प्रकारके होते हैं ; प्रबृत्ति परक और निबृत्ति परक ।
# प्रबृत्ति परक भोग से जोड़ता है और निबृत्ति परक योग कर्म होता है । # भोग कर्म में भोग - तत्त्वोंके प्रति होश उठाना कर्म योग साधना है ।
# सत्संगसे आसक्तिकी ऊर्जा रूपांतरित हो कर निर्विकार होती है ।
# आसक्ति रहित कर्म से नैष्कर्म्यकी सिद्धि मिलती है जो पराभक्ति में पहुंचाती है ।
# पराभक्ति प्रभुसे एकत्व स्थापित करती है। ##प्रभुसे एकत्व स्थापित होते ही प्रभु और भक्त दो नहीं रह पाते , जो बचा रहता है वह प्रभु होता है ।
#ऐसा भक्त लोगोंके लिए होता है पर अपनें लिए नहीं होता । परा भक्तके लिए कड़ - कड़ प्रभुके रूप में दिखता है ।
~~ॐ ~~

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