Tuesday, December 9, 2014

गीता मोती - 37

https://docs.google.com/file/d/0B4cdxuUAWB2VZHJ6OS1LR2N1R1U/edit?usp=docslist_api

Saturday, December 6, 2014

सुख - दुःख

गीता के मोती - 37
गीता : 18.38 + 5.22
गीता - 18.38 >
" इन्द्रिय सुख भोग काल में अमृत सा भाषता है पर उसका परिणाम बिषके सामान होता है ।"
गीता : 5.22 >
" इन्द्रिय सुख दुःख के हेतु हैं । बुद्ध पुरुष इन्द्रिय सुख में नहीं रमता ।"
* गीताके माध्यम से कर्म - योग और ज्ञान - योगके पहले चरणको प्रभु किस ढंग से प्रस्तुत कर रहे हैं , इस बात पर किया जानें वाला मनन , ज्ञान योग में उतार सकता है और इन सूत्रों की छाया में जो कर्म होंगे , वे कर्म योग की बुनियाद रख सकते हैं ।अब देखते हैं ---
** क्या है , इन्द्रिय सुख ?
पाँच ज्ञान इन्द्रियोंके अपनें - अपनें बिषय हैं ।अपनें - अपनें बिषयों में रमना , इन इन्द्रियोंका स्वभाव है । इन्द्रिय - विषय संयोग से जो उर्जा उठती है , वह उर्जा दो प्रकार में से कोई एक हो सकती है । गुणोंके प्रभावसे उपजी उर्जा भोग में पहुंचाती है जिसके सम्बन्ध में ऊपर के दो सूत्र हैं । और बिना गुणके प्रभाव में वही उर्जा न सुख की अनुभूति से गुजारता है न दुःख की अनुभूति से अपितु समभाव में रखती है । समभाव में जो होता है वह सत्य ही होता है ।
~~~ ॐ ~~~

Monday, November 17, 2014

गीता के मोती - 36

" सत्त्वं रजः तमः इति गुणाः प्रकृतिसंभवः । 
निबध्न्ति महाबाहो देहे देहिनम् अब्ययम् ।।" 
~~ गीता - 14.5 ~~
 * भावार्थ * 
 " प्रकृति के तीन गुण - सात्त्विक ,राजस और तामस,शरीर में अब्यय जीवात्मा को बाँध कर रखते हैं "
 > प्रभु श्री कृष्णके इस सूत्र पर बार -बार मनन करें ।< 
<> यदि जीवात्मा देह में तीन गुणों के कारण है तो फिर गुणातीतके देह में जीवात्माको कौन रोक कर रखता है ? इस प्रश्न के सम्बन्ध देखें , इस सन्दर्भ को :---- 
# परमहंस श्री रामकृष्ण जी प्रवचन देते समय बोलते -बोलते अपनीं रसोई में पहुँच जाया करते थे और माँ शारदा वहाँ पकौड़े आदि जो बना रही होती थी ,उसे उठा कर खाते हुए पुनः शिष्योंके मध्य आ कर प्रवचनको आगे बढ़ाते रहते थे । एक दिन एक अद्भुत घटना घटी । माँ पकौड़े बना रही थी और पकौड़े की गंध से परम हंस जी आकर्षित हो कर आ पहुँचे रसोई में और उठा लिए पकौड़े तथा खाते हुए पुनः शिष्योंके मध्य चल पड़े पर माँ कहनें लगी ," आपको सभीं पागल कहते ही हैं और इस प्रकार पकौड़े खाते हुए प्रवचन देते देख कर कोई भी आपको पागल कह सकता है ।यह बात माँ मजाक में कहा था पर परम हंस जी पकौड़ा खाना बंद कर दिया और मुस्कुराकर माँ से कहा ," जिस दिन तुम पकौड़े लेकर आओगी और मैं तुम्हारी तरफ पीठ कर लूँगा ,उस दिन के बाद तीन हफ़्तों के अन्दर मैं अपनीं देह त्याग दूंगा , खाना ही तो एक बंधन है जो आत्मा को मेरे देह में रोक रखा है लेकिन जिस दिन मेरा काम पूरा हो जाएगा ,यह बंधन भी स्वतः टूट जाएगा । 
* माँ इस बात को गंभीरता से नहीं लिया पर परमहंस जी थीक 27वें दिन वही किया जो बोल था ; माँ बुलाती रही भोजन करनें केलिए पर परमहंस चुपचाप बैठे रहे । माँ जब थाली ले के आई ,परम हंस जी उनकी ओर पीठ कर ली । माँ तो सोचती रही कि मजाक कर रहे हैं पर वे तो अपनें देहको छोड़ रहे आत्माके द्रष्टा बनें हुए थे , माँ ज्योंही उनको हिलाया ,उनका शरीर लुढक गया ।
 ** परम हंस जी कहते थे ," गुणातीत के देह में जीवात्मा तीन सप्ताह से अधिक दिन तक नहीं रहता । "
 # अब पुनः गीता सूत्र : 14.5 को समझें # 
~~~ ॐ ~~~

Tuesday, October 28, 2014

गीता के मोती - 35

# गीता - 3.27 #
 " प्रकृते: क्रियमाणानि गुणै: कर्माणि सर्वशः । 
अहंकारविमूढात्मा कर्ताहमिति मन्यते ।।" 
< शब्दार्थ < 
" प्रकृतिके गुण कर्म करते हैं ,अहंकार प्रभावित स्वयं को कर्ता मानता है " 
 <> इस श्कोल पर खूब मनन कीजिए ,मननके बाद आप भी यही कहेंगे ---- 
" गुण कर्म - कर्ता हैं , कर्ताभाव अहंकारकी छाया है ।।" 
# हम तो गुण उर्जाकी एक मशीन जैसे हैं ,जो गुण ज्यादा प्रभावी रहता है ,वैसा हमसे कर्म होता है , यह स्थिति है उनकी जो भोग में तैर रहे हैं पर योगी इन गुणोंका द्रष्टा होता है । 
# गीता -2 .28 और गीता- 14.10 को एक साथ देखिये जहाँ आपको गुण समीकरण का रहस्य मिलेगा । 
~~ ॐ ~~

Friday, October 10, 2014

गीता के मोती - 34

<> गीता : 327 + 8.17 <> 
1- गीता :3.27
 " तीन गुण कर्म करता हैं ,करता भाव अहंकार की छाया है " 
2 - गीता : 18 . 17
" कर्म होने में करता भाव का न होना , कर्मबंधन मुक्त करता है " 
<> कृष्ण जो कह रहे हैं वह कर्म - योग का फल है और हम भोग को ही परम समझनें वाले उनकी बात का भाव समझना चाहते हैं भला यह कैसे संभव हो सकता है ? होने काम्य कर्म करता का समय धन इकठ्ठा करनें और स्त्री प्रसंग में कटता है ,यह बात भागवत में शुकदेव जी परीक्षित को बता रहे हैं ।
 * कर्म एक सहज माध्यम है । 
कर्म दो प्रकार के होते हैं :--- 
* प्रबृत्ति परक कर्म निबृत्ति परक कर्म के माध्यम बन सकते हैं । गुणों के प्रभाव में जो कर्म होते हैं उहें भोग कर्म या प्रबृत्ति परक कर्म कहते हैं और ऐसे कर्म जिसके होनें में गुणों का कोई प्रभाव नहीं होता , निबृत्ति परक कर्म होते हैं। निबृत्ति परक कर्म का केंद्र भगवान होता है और प्रबृत्ति परक का केंद्र भोग होता है । 
* अहंकार भोग का मूल तत्त्व है और श्रद्धा परमात्मा के द्वार को खोलती है तथा ये दोनों तत्त्व एक साथ नहीं रहते । * अहंकार के न होने पर श्रद्धा पैदा होती है । 
~~~ ॐ ~~~

गीता के मोती - 33

<> गीता : 327 + 8.17 <> 1- गीता :3.27 " तीन गुण कर्म करता हैं ,करता भाव अहंकार की छाया है " 2 - गीता : 18 . 17 " कर्म होने में करता भाव का न होना , कर्मबंधन मुक्त करता है " <> कृष्ण जो कह रहे हैं वह कर्म - योग का फल है और हम भोग को ही परम समझनें वाले उनकी बात का भाव समझना चाहते हैं भला यह कैसे संभव हो सकता है ? होने काम्य कर्म करता का समय धन इकठ्ठा करनें और स्त्री प्रसंग में कटता है ,यह बात भागवत में शुकदेव जी परीक्षित को बता रहे हैं । * कर्म एक सहज माध्यम है । कर्म दो प्रकार के होते हैं :--- * प्रबृत्ति परक कर्म निबृत्ति परक कर्म के माध्यम बन सकते हैं । गुणों के प्रभाव में जो कर्म होते हैं उहें भोग कर्म या प्रबृत्ति परक कर्म कहते हैं और ऐसे कर्म जिसके होनें में गुणों का कोई प्रभाव नहीं होता , निबृत्ति परक कर्म होते हैं। निबृत्ति परक कर्म का केंद्र भगवान होता है और प्रबृत्ति परक का केंद्र भोग होता है । * अहंकार भोग का मूल तत्त्व है और श्रद्धा परमात्मा के द्वार को खोलती है तथा ये दोनों तत्त्व एक साथ नहीं रहते । * अहंकार के न होने पर श्रद्धा पैदा होती है । ~~~ ॐ ~~~

Sunday, September 14, 2014

गीता के मोती - 32

● गीता के मोती - 32 ●
 <> योगी कौन है ? 
 # गीता - 5.23 में प्रभु इस इस प्रश्नके सम्वन्ध में कहते हैं ,
 " काम - क्रोधके बेगको सहन करनें में जो समर्थ है ,वह 
योगी है ।" 
~ अर्थात ~ 
 " योगी काम - क्रोधका गुलाम नहीं " 
# काम - क्रोध क्या हैं ? # 
** इस सम्बन्ध में प्रभु गीता - 3.37 में कहते हैं ,
" कामः एषः क्रोधः एषः रजोगुणसमुद्भवः " 
~ अर्थात ~ 
* रजो गुणका तत्त्व , काम है और क्रोध काम का ही रूपांतरण होता है ।
 # अब आप सोचें कि : ----
 > प्रभूकी बात कितनी स्पष्ट है ? <
 > प्रभुका वचन पूर्ण रूप से संदेह रहित एवं निर्मल है । 
# योग-साधन में काम-साधना कई चरणों में की जाती है जिसका प्रारम्भ बिषय से होता है । 
> तंत्र में कुल 64 योग विधियाँ हैं जो स्वाधिस्थान चक्र पर केन्द्रित उर्जाको ऊपर की और उठाती हैं और काम उर्जाका रुख नीचे से ऊपरकी ओर करती हैं ।
 > बिषय - इन्द्रिय सम्वन्धको गहराई समझना काम में वैराग्य उत्पन्न करता है । 
~~ ॐ ~~

Thursday, August 28, 2014

गीता के मोती - 31 ( तीर्थ क्या हैं ? )

● तीर्थ क्या है ? प्रभु श्री कृष्ण अपनें चाचा अक्रूर जी के संबध में और भगवान शिव मार्कंडेय ऋषि के सम्बन्ध में जो कहते हैं , उन बातों को आप यहाँ देखें और उनमें डूबें । इन बातों का सम्बन्ध तीर्थ से है । 1 - ● भागवत : 10.48 > कंश - बधके बाद एक दिन प्रभु ,बलराम और उद्धव मथुरा में स्थित अपनें चाचा अक्रूर जीके घर गए । प्रभु वहाँ कहते हैं ," चाचाजी ! आप हमारे गुरु -हितोपदेशक हैं । चाचाजी ! केवल जलके तीर्थ तीर्थ नहीं , केवल जड़ मूर्तियाँ ही देवता नहीं , उनकी तो श्रद्धा से बहुत दिनों तक जब सेवा की जाय तब वे पवित्र करते हैं । परन्तु आप जैसे संत पुरुष तो दर्शन मात्र से पवित्र कर देते हैं " । 2- ● भागवत : 12. 8-12.10 : हिमालय के उत्तर में भृगु बंशी मृकंद ऋषि के पुत्र मार्कंडेय ऋषिका आश्रम पुष्प भद्रा नदी के तट पर , चित्रा शिला के पास था ।एक दिन मार्कंडेय ऋषि अपनें आश्रम में ध्यान में उतरे हुए थे । उधर से शिव जी - माँ पारबती गुजर रही थी । माँ मार्कंडेय के ध्यान से आकर्षित हुयी और शिव जी को वहाँ चलनें के लिए आग्रह किया । शिव जी मार्कंडेय ऋषि के सम्बन्ध में कहते हैं , " मार्कंडेय जी ! केवल जल मय तीर्थ ,तीर्थ नहीं ,केवल जड़ मूर्तियाँ ही देवता नहीं , सबसे बड़े तीर्थ और देवता तो तुम्हारे जैसे संत हैं ; क्योंकि वे तीर्थ -मूर्तियाँ बहुत दिनों में पवित्र करते हैं और आप जैसे संत दर्शन मात्र से पवित्र कर देते हैं । 3- ● भागवत : 1.4.8 > शौनक ऋषि सूत जी से कह रहे हैं ," शुकदेव जी जिस घडी जहाँ रुक जाते थे उस घडी वह स्थान तीर्थ बन जाता था लेकिन जितनी देर में एक गाय दुही जाती है उतनी ही देर से अधिक समय तक शुक देव जी कहीं नहीं रुकते थे फिर वे 18000 श्लोकों की भागवत कथा परीक्षित जी को कैसे सुनाई होगी ? " ● तीर्थ क्या हैं ? ऊपर की बातों से स्पष्ट है :-- * तीर्थ कुछ देते नहीं , अन्तः करणको निर्विकार कर देते हैं।निर्विकार अन्तः करण क्या है ? मन , बुद्धि , चित्त और अहंकार को अन्तः करण कहते हैं । निर्मल अन्तः करण में निर्मल उर्जा बहती है और निर्मल उर्जा में परमानन्द की अनुभूति होती है । * निर्मल अन्तः करण वाला संत प्रभु मय होता है और यहाँ तक कि वह मोक्ष भी नहीं चाहता । * ऐसा संत जहाँ होता है , वह स्थान उस समय तीर्थ बन जाता है ।

Sunday, August 10, 2014

गीता के मोती - 30

● दर्शन ● <> भागवत : 10.23 <> 
* वृन्दावन में यमुना तट पर गौएँ चराते हुए प्रभु - बलराम और अन्य उनके साथी काफी दूर निकल गए थे । वहाँ उनको भूख लगी । वहाँ से कुछ दूरी पर मथुरा के ब्राह्मण स्वर्ग प्राप्ति के लिए यज्ञ कर रहे थे ।जब प्रभु के निर्देशन पर ग्वाले वहाँ भोजन माँगने पहुँचे तब उन ऋषियों का कोई सकारात्मक ब्यवहार नहीं दिखा । ग्वाल - बाल पुनः प्रभु के निर्देशन पर ब्राह्मण पत्नियों के पास गए ,फिर क्या था ? पत्नियाँ चार प्रकार के भोजन लेकर स्वयं ग्वाल - बालों के संग चल पड़ी । ब्राह्मण पत्नियाँ प्रभु को भोजन कराया और जब प्रभु उनको वापिस जानें को कहा तब वे कहती हैं :--
" हे प्रभु ! श्रुतियाँ कहती हैं , जो प्रभु का दर्शन पा लेता है ,वह पुनः लौट कर संसार में कदम नहीं रखता । आप अपनें इस वेद - वाणी को यथार्थ करें । " 
 ● यज्ञ -पत्नियाँ वह कह रही हैं जो हर सिद्ध पुरुष जिसका प्रभु में बसेरा पा लेता है ,वह यही कहता है। 
● मनुष्य योनि प्राप्त करना एक सुअवसर है ,उसे खोजनें का जो प्रकृतिका संचालक है ,जो अप्रमेय है , जो सनातन है और जो निर्गुण है । 
● साकार कृष्ण में निराकार कृष्ण को जिसनें देख लिया वह और कहाँ जाना चाहेगा ? श्रुतियाँ कहती हैं :---
 * परा भक्त मोक्ष भी नहीं चाहता ,वह जहाँ और जिसमें होता है ,वह उसके लिए पर्याप्त होता है ।
 ● भागवत : 10.87 : भागवत यहाँ एक और ध्यान सूत्र देता है :-- 
* " श्रुतियाँ सगुन का निरूपण करती हैं लेकिन सगुण में जो यात्रा करता रहा ,वह एक दिन निर्गुण में सरक जाता है और तब उसके लिए यह संसार एक के फैलाव स्वरुप स्पष्ट रूप से दिखनें लगता है।" 
●● आज भागवत के दो ध्यान सूत्रों की चमक को हम - आप देखे । प्रभु हमें उस सत्मार्ग पर रखे जिससे इन दो सूत्रों की चमक में प्रभु की स्मृति बनी रहे ।
 ~~ ॐ ~~

Sunday, July 27, 2014

गीता के मोती - 29 ( भाग - 3 )

गीता अध्याय - 1 ( भाग - 3 ) # धृतराष्ट्र कुरुक्षेत्र को धर्म क्षेत्र क्यों कह रहे हैं ? 1- धृतराष्ट्र के लिए न तो यह युद्ध धर्म युद्ध है ... 2- न कृष्ण उनके लिए परमात्मा हैं ... 3- अगर गीता - ज्ञानका क्षेत्र होनें के कारण यह धर्म क्षेत्र है तो ---- * अभीं गीता गर्भ में है , उस समय कौन जनता था कि यह युद्धका अवसर गीता की जननी बननें वाला है । ** धृतराष्ट्र केलिए युद्ध पूर्व न तो गीता का कोई महत्व है न कृष्णकी कोई भक्ति है --- °° फिर धृतराष्ट्र क्यों कुरुक्षेत्रको धर्म क्षेत्र कह रहे हैं ? # अब आगे # ^ आज जिसको कुरुक्षेत्र कहा जा रहा है वह प्राचीन थानेसर बस्ती है । 1970 में जब कुरुक्षेत्र नाम का नया जिला बना तब से थानेसर शब्द मिटने लगा और कुरुक्षेत्र शब्द चमकनें लगा ।भारत पाकिस्थान बटवारे से पूर्व यह बस्ती एक गाँव जैसी थी लेकिन जब यहाँ पाकिस्तान से आकर पंजाबी बस गुए ,यस बस्ती बिकसित होनें लगी । ^ आज का कुरुक्षेत्र प्राचीन कुरु - क्षेत्र का पूर्वी किनारा है । गंगा -यमुना के मध्य का भाग कुरु राष्ट्र कहलाता था जहाँ आबादी थी । यमुना - सरस्वती के मध्यका भाग जिसमें उत्तर -दक्षिण हरियाणाका सारा भू भाग सामिल था और जहाँ आबादी न के बराबर थी और जो थी वह जंगल में रहनें वाले नागा और तक्षक प्रजाति के आदिबासी लोग थे ,इस भू भाग को कुरुक्षेत्र कहते थे । उत्तर कुरु मंगोलिया से उत्तर में साइबेरिया से आगे समुद्र तक फैला था ( यह भूगोल भागवत स्कन्ध - 5 में दिया गया है ) । <> आगे कुरुक्षेत्र के सम्बन्ध में अगले अंक में <> ~~ ॐ ~~

Friday, July 25, 2014

गीता के मोती - 28

● गीता अध्याय - 1 सार (भाग - 2 )● 
<> गीताके प्रारम्भ में धृतराष्ट्र अपनें सहयोगी संजय से
 पूछ रहे हैं :--- 
" धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः । 
मामकाः पाण्डवा : च एव किम् अकुर्वत संजय ।।"
 " हे संजय धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा वाले एकत्रित मेरे पुत्र और पाण्डव क्या किये ? " 
<> हस्तिनापुरके अंधे सम्राट धृतराष्ट्र ,कौरवों के पिता युद्धक्षेत्रके अपनें सिविर में संजयके साथ उपस्थित हैं और जब उनको यह आभाष हुआ कि युद्ध अभीं प्रारम्भ नहीं हुआ तब उनसे रहा न गया और पूछ ही बैठे की हे संजय ! युद्धकी इच्छा वाले मेरे और पाण्डुके पुत्रोंनें क्या किया ? धृतराष्ट्र युद्ध प्रारम्भ होनें के बिलम्ब को लेकर जो जिज्ञासा दिखा रहे हैं ,वह उनके अस्थिर अन्तः करणका प्रतिबिम्ब है । 
**यहाँ कुछ बातें समझते हैं :---
 1- कुरुक्षेत्र एक क्षेत्र है जहाँ महाभारत युद्ध प्रारम्भ होनें वाला है ,दोनों पक्षकी सेनायें आमनें -सामनें पूरी तैयारीके साथ खड़ी हैं । कुरुक्षेत्र कोई बस्ती नहीं ,यह एक निर्जन क्षेत्र था जिससे सरस्वती नदी बहती थी । कुरुक्षेत्र में सरस्वती तट पर पुरुरवा और उर्बशी का मिलन हुआ था । पुरुरवाके ही बंशज यदु , हस्ती , कुरु , कौरव और पांडव आदि थे ।
 2- कुरुक्षेत्रको धृतराष्ट्र धर्म क्षेत्र कह रहे हैं , यह एक सोचका बिषय है । 
^^अब गीता से हट कर भागवत के आधार पर कुछ बातें , जिनका सम्बन्ध इस श्लोक से है । 
* भागवत : 12.1-12.2 >
#  महाभारत युद्ध 1437 B.C. के आसपास हुआ होगा क्योंकि परीक्षितके जन्म से क्राइस्ट एरा प्रारंभ होनें तक का समय भागवत में यही दिया गया है और परिक्षितका जन्म ठीक युद्धके बाद हुआ था । 
* महाभारत युद्ध में 07 अक्षौहिणी सेना पांडव पक्ष की थी और 11 अक्षौहिणी सेना कौरव पक्ष की थी।
 * एक अक्षौहिणी सेना = 218 ,700 सैनिक।
 * 18 दिन के युद्ध में कुल 29,36,600 लोग मारे गए अर्थात 1,63 ,145 लोग रोजाना मर रहे थे ।
 * पांडव सेना सरस्वती नदी के पश्चिमी तट पर रुकी हुयी थी । ** आगे की चर्चा अगले अंक में ,आज इतना ही ** 
~~ ॐ ~~

Thursday, July 24, 2014

गीता के मोती - 27

● गीता अध्याय - 01 का सार भाग - 1 ● 
<> अध्याय - 1 में कुल 47 श्लोक हैं जिनमें प्रारम्भिक श्लोक धृतराष्ट्र जी का है , प्रभु इस अध्याय में चुप रहते हैं और 23-23 श्लोक अर्जुन एवं संजय के हैं ।
 ** इस अध्याय में बुद्धि - योग आधारित ध्यानके चार बिषय
 हैं । 
1- श्लोक : 1.1- धृतराष्ट्र जी का एक मात्र श्लोक । 
2- श्लोक : 1.23-1.24 - अर्जुनके रथ को दोनों सेनाओंके मध्य भीष्म एवं द्रोणाचार्य के सामनें लेजाना ।
 3- अर्जुन के श्लोक : 1.28- 1.31तक - जिनका सम्बन्ध मोहके लक्षणों से है । 
4- प्रभु का चुप रहना - एक अन्दर - बाहर से चुप ब्यक्ति ही सत को देखता है । 
# इस अध्याह की आगे की चर्चा अगले अंक में देख सकते हैं।
~~ ॐ ~~

Tuesday, July 22, 2014

गीता के मोती - 26

<> परम पद क्या है ? 
 " अब्यक्त अक्षरः इति उक्तः तम् आहु : परमाम् गतिम् । 
यम् प्राप्य न निवर्तन्ते तत् धाम परमम् मम ।।" 
~~ गीता - 8.21 ~~ 
# जिसे अब्यक ,अक्षर ,परम गति कहते हैं ....
 # जिसकी प्राप्ति आवागमन से मुक्त करती है ... 
# उसे प्रभुका परम धाम कहते हैं , यह बात गीताका ऊपर दिया गया सूत्र कह रहा है ।ध्यान से यदि इस सूत्र में प्रवेश करें तो आप देखेंगे कि यहाँ :--- 
<> अब्यक्तको ब्यक्त करनें की कोशिश की जा रही है।
अब आगे :--- 
* Lotzu कहते हैं ," सत्य एक अनुभूति है जो ब्यक्त करनें पर असत्य हो जाता है " 
 * शांडिल्य कहते हैं , सत्य अब्यक्तातीत है पर उसकी ओर इशारा किया जा सकता है और यहाँ गीता में प्रभु कृष्ण इशारा कर रहे हैं कि हे अर्जुन ! होश में आ और देख तुम्हें ऐसा मौका फिर कब मिलनें वाला है ? 
●वह जिसकी प्राप्ति उपनिषद् नेति -नेति के माध्यम से कराते हैं -● वह जिसे कर्म योगी द्रष्टा के रूप में देखता है ---
 ● वह जिसे ध्यानी परम शून्यता के रूप में देखता है- 
●मीरा- चैतन्य जैसे परा भक्त साकारके माध्यम से निराकारमें स्वयं को खोकर देखते हैं --- 
● वेद पाठी जिसे ॐ में सुनते हैं ..
 ** वह मन बुद्धि से परे की अनुभूति का नाम है परमपद जिसमें वह पहुँचता जो फिर दुबारा जन्म नहीं लेता ,
इसे कबीर कहते हैं ----
 " बूँद समानी समुद्र में --- " 
~~ ॐ ~~

Tuesday, July 15, 2014

गीता के मोती - 25

गीता - सन्दर्भ : 11.50 + 18.74 + 18.75 #
 ** ये तीनों श्लोक संजय कह रहे हैं ** 
* गीता अध्याय - 11 में कुल 55 श्लोकों में अर्जुन के 33 श्लोकों से तीन प्रश्न उठते हैं । अर्जुन एक तरफ यह भी कहते हैं कि अब मेरा संदेह -मोह समाप्त हो चुका है और साथ में दूसरी तरफ प्रश्न भी पूछते हैं । जबतक बुद्धि संदेह -अहंकार रहित है तबतक प्रश्नका उठना संभव नहीं । प्रश्न उठते हैं संदेह - अहंकार से या दोनों के सहयोग से । 
* अर्जुन प्रभुके चतुर्भुज रूप को देखते हैं । प्रभु अपनें चतुर्भुज रूप को दिखाते हैं और अपनें चतुर्भुज रूपसे सामान्य रूपमें आकर अर्जुन को आश्वासन देते हैं । अर्जुनकहते हैं : हे अच्युत ! अब मैं आपके प्रसादरूप में अपनी खोई स्मृति वापिस पा ली है और संदेहमुक्त स्थिति में आपके बचनोंका पालन करनें को तौयार हूँ । * अर्जुनकी इन बचानो को सुन कर संजय धृतराष्ट्रको बता रहे है कि ' महात्मा ' अर्जुन के इस प्रकार रोमांचित वचनों को मैं सूना
 हूँ । 
# गीता में अर्जुनके 16 प्रश्न 86 श्लोकोंके माध्यमसे हैं और इन प्रश्नोंके सन्दर्भमें प्रभु 574 श्लोकोंको बोलते हैं । # जहाँ परम प्रभु परमानन्द श्री कृष्णका सत्संग हो ।
 # जहाँ सांख्य-योग सत्संग का माध्यम हो । 
<> उस ऊर्जा - क्षेत्रमें जो श्रोतापन को प्राप्त हो गया ,वह तो महात्मा ही होगा <>
 <> श्रोतापन अर्थात प्रभु श्री कृष्ण से एकत्व स्थापित करना । जहाँ माया ब्रह्म में समा जाती है वहाँ जो होता है वह ब्रह्म ही होता है अतः परम श्रोता बननें के बाद लोगों के लिए अर्जुन हैं लेकिन अर्जुन केलिए अर्जुन कहाँ हैं ? 
 # परा भक्तिका भक्त ,परम श्रोता , महारास का नर्तक या 
नर्तिकी ,वेद मन्त्रोंका परम पाठी अपनें लिए नहीं होते , लोगों केलिये होते हैं वे तो उस उर्जा में निराकार ब्रह्मके साकार रूप होते हैं , जो उनके इस रूप को पा लिया ,वह भी ब्रह्मवित् हो गया ।।
 ~~ हरे कृष्ण ~~

Friday, July 11, 2014

गीता के मोती - 24

# साकार में निराकार # 
* गीता अपनें 13 अध्यायों में 123 श्लोकों के 309 साकार उदाहरणों के माध्यम से निराकार कृष्ण की एक झलक दिखाना चाहता है । एक हम हैं कि इस उपनिषद को पढ़ना तो दूर रहा इसे एक सड़े हुए कभीं न धुले हुए लाल कपडे में बाध कर ऊपर कहीं ताख पर ऐसे रखते हैं कि कहीं भूल कर भी इस पर हमारी नज़र न पड़े ।हम भी धन्य ही हैं ?
 * ऐसे लोग धन्य हैं और दूर्लभ भी जो गीता में अपना बसेरा बनाया हुआ है । गीता सबकी स्मृति में है लेकिन उसे ढक कर रखा गया है । गीता की स्मृति परदे के बाहर तब आती है जब कोई आखिरी श्वास भर रहा होता है ।जब परिवार में किसी को मौत अर्ध बेहोशी में ले गयी होती है , वह मुश्किल से किसी एकाध को पहचाननें में सफल होता है , चम्मच से भी गंगा जल पीनें में असफल रहता है और जब हमें ऐसा पूरा यकीन हो जाता है कि अब ये बचनें वाले नहीं तब हम उनके अपनें उनको गीता सुनाते हैं जिससे उनकी मुक्ति हो जाए । 
 * ऐसे लोग जिनकी आँखें जीवन भर दूसरों पर टिकी रही,अंत समय में कैसे प्रभु को अपनें में धारण करेंगी ? लेकिन हमारी गणित गीता की गणित से एक दम भिन्न है , हमारी गणित नें चित भी मेरा और पट बी मेरा होता है ।
 * गीता कहता है , जिस ब्यक्तिमें जो भाव उसके जीवन भर छाया रहता है , अंत समय में भी वही भाव उसे भावित करता है और अंत समय का गहरा भाव उस आखिरी श्वास भर रहे ब्यक्ति के अगले योनि को निर्धारित करता है क्योंकि देह त्याग कर जाते हुए आत्मा के साथ इन्द्रियों सहित मन भी रहता है ।
 * मन हमारी स्मृतियों का संगहालय है और सघन स्मृति उसे गति में रखती है ।
 * कपिल मुनि अपनी माँ को सांख्य - योग का ग्यासं देते समय कहते हैं : मन विकारों का पुंज है और बंधन एवं मोक्ष का माध्यम भी है । 
* ऐसे लोग दुर्लभ हैं जो जीवन भर भोग - वासना में डूबे रहे हों , अंत समय में प्रभुको याद किया हो और प्रभु उनको मुक्ति दिया
 हो । 
 * गीता कहानियों के आधार पर सत्य की खिड़की नहीं खोलना चाहता जैसे पुराण करते हैं , गीता एक सहज मार्ग दिखता है
 जो :--- 
# साकार भक्ति से निराकार भक्ति में
 # अपरा भक्ति से परा भक्ति में 
 # परा भक्ति में ज्ञान माध्यम से
 # वैराज्ञमें पहुँचाता है और इशारा करता है # कि देख इस पार को जो प्रभु का आयाम है ।। 
<> साकार से निराकार , माया से मायापति और गुणों से निर्गुण की यात्रा का नाम है --- " श्रोमद्भागवत गीता "
 ~~ ॐ ~~

Tuesday, July 8, 2014

गीता एक माध्यम है

# साकार में निराकार #
 * गीता अपनें 13 अध्यायों में 123 श्लोकों के 309 साकार उदाहरणों के माध्यम से निराकार कृष्ण की एक झलक दिखाना चाहता है । एक हम हैं कि इस उपनिषद को पढ़ना तो दूर रहा इसे एक सड़े हुए कभीं न धुले हुए लाल कपडे में बाध कर ऊपर कहीं ताख पर ऐसे रखते हैं कि कहीं भूल कर भी इस पर हमारी नज़र न पड़े ।हम भी धन्य ही हैं ? 
* ऐसे लोग धन्य हैं और दूर्लभ भी जो गीता में अपना बसेरा बनाया हुआ है । गीता सबकी स्मृति में है लेकिन उसे ढक कर रखा गया है । गीता की स्मृति परदे के बाहर तब आती है जब कोई आखिरी श्वास भर रहा होता है ।जब परिवार में किसी को मौत अर्ध बेहोशी में ले गयी होती है , वह मुश्किल से किसी एकाध को पहचाननें में सफल होता है , चम्मच से भी गंगा जल पीनें में असफल रहता है और जब हमें ऐसा पूरा यकीन हो जाता है कि अब ये बचनें वाले नहीं तब हम उनके अपनें उनको गीता सुनाते हैं जिससे उनकी मुक्ति हो जाए ।
 * ऐसे लोग जिनकी आँखें जीवन भर दूसरों पर टिकी रही,अंत समय में कैसे प्रभु को अपनें में धारण करेंगी ? लेकिन हमारी गणित गीता की गणित से एक दम भिन्न है , हमारी गणित नें चित भी मेरा और पट बी मेरा होता है ।
 * गीता कहता है , जिस ब्यक्तिमें जो भाव उसके जीवन भर छाया रहता है , अंत समय में भी वही भाव उसे भावित करता है और अंत समय का गहरा भाव उस आखिरी श्वास भर रहे ब्यक्ति के अगले योनि को निर्धारित करता है क्योंकि देह त्याग कर जाते हुए आत्मा के साथ इन्द्रियों सहित मन भी रहता है । 
 * मन हमारी स्मृतियों का संगहालय है और सघन स्मृति उसे गति में रखती है । 
* कपिल मुनि अपनी माँ को सांख्य - योग का ग्यासं देते समय कहते हैं : मन विकारों का पुंज है और बंधन एवं मोक्ष का माध्यम भी है ।
 * ऐसे लोग दुर्लभ हैं जो जीवन भर भोग - वासना में डूबे रहे हों , अंत समय में प्रभुको याद किया हो और प्रभु उनको मुक्ति दिया
 हो । 
 * गीता कहानियों के आधार पर सत्य की खिड़की नहीं खोलना चाहता जैसे पुराण करते हैं , गीता एक सहज मार्ग दिखता है 
जो :--- 
# साकार भक्ति से निराकार भक्ति में # अपरा भक्ति से परा भक्ति में 
 # परा भक्ति में ज्ञान माध्यम से # वैराज्ञमें पहुँचाता है और इशारा करता है 
 # कि देख इस पार को जो प्रभु का आयाम है ।। 
<> साकार से निराकार , माया से मायापति और गुणों से निर्गुण की यात्रा का नाम है --- 
" श्रोमद्भागवत गीता " 
~~ ॐ ~~

Saturday, June 28, 2014

गीता मोती - 23

<> गीता - 13.30 <> 
" यदा भूत पृथग्भावम् एक स्थम् अनुपश्यति
 ततः एव च विस्तारम् ब्रह्म संपद्यते तदा " 
प्रभु कह रहे हैं :---
 " जब सब प्रभु में स्थित दिखनें लगे और सब प्रभु के विस्तार रूप में दिखनें लगे तब वह ब्यक्ति ब्रह्ममें होता है " 
 अर्थात 
 "जब कोई साधक उस स्थिति में पहुँचता है जब सम्पूर्ण प्रकृति प्रभु से प्रभु में दिखनें लगती है तब वह साधक ब्रह्मवित् हो गया होता है "
 यहाँ साधनाका एक मार्ग दिखाया गया है :--- 
" माया से मायापति की अनुभूति , मनुष्य जीवनका लक्ष्य है " । गीताके इस सूत्रको अपनें ध्यानका माध्यम बनायें ।
 ~~ हरे कृष्ण ~~

Wednesday, June 18, 2014

गीता मोती - 22

<> आसक्ति ( Attachment ) भाग - 3 <> 
^^ आसक्तिके प्रति उठा होश मनुष्यके रुखको प्रभुकी ओर मोड़ देता है । 
** आसक्ति रहित कर्म से नैष्कर्म्यता की सिद्धि मिलती है । 
** नैष्कर्म्यताकी सिद्धि ज्ञान योगकी परानिष्ठा है । 
** आसक्तिरहित कर्म समत्व योग है। 
** समत्व योग वह दर्पण है जिस पर प्रभु दिखता है ।
 ** समत्व योग अभ्यास योगका फल है ।
 ** समत्व योग में कर्म अकर्म और अकर्म कर्म की तरह दिखते हैं ।यहाँ कर्म का अर्थ है भोग कर्म और अकर्म का अर्थ है वह कर्म जिसके करनें से अन्तः करण में परम प्रकाश के होनें का भाव भरता है । 
** अन्तः करण अर्थात मन ,बुद्धि और अहंकार ।
 ** अहंकार तीन प्रकारके हैं ; सात्त्विक ,राजस और तामस । 
** तामस अहंकार से महाभूतों और बिषयों का होना है , राजस अहंकार से इन्द्रियाँ हैं और सात्विक अहंकार से मन की रचना है । ** मनुष्य के अन्दर गुण अप्रभावित मन ,चेतना और जीवात्मा - तीन ऐसे तत्त्व हैं जिनका सीधा सम्बन्ध हैं सात्विक गुण से ।
 --- हरे कृष्ण ---

Monday, June 9, 2014

गीता मोती - 21

<> ब्रह्म भाग - 1 <> 
** ब्रह्म एक ऐसा शब्द है जो हिन्दू दर्शनका नाभिक
 ( nucleus ) जैसा है । सारा हिन्दू दर्शन बिषय - इन्द्रिय से प्रारम्भ होता है और ब्रह्म तक पहुँचते - पहुँचते ब्यक्त से अब्यक्त का रूप लेने लगता है और ब्रह्म एवं ब्रह्म से आगे की यात्रा पूर्ण रूप से अब्यक्त ही है जहाँ अनुभव अनुभूति में बदल जाता है और जो साधनाका यात्री है वह अव्यक्त की अनुभूति में धीरे - धीरे घुलनें लगता है ।
 ** बिषय , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि , चेतना , आत्मा , ब्रह्म और इसके आगे परम ब्रह्म या परम आत्मा तक की साधना - यात्रा कई एक पड़ाओं से गुजरती तो है लेकिन जबतक इन पड़ाओं तक सोच रहती है , तबतक वह साधक बुद्धि केन्द्रित ही रहता है और गीता में प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं :--- 
" अर्जुन ! तुम बुद्धि - योगके माध्यम से जब मन - बुद्धि से परे के आयाम में पहुँचेगा तब तुम कृष्णमय होने के आनंद में होगा ।" ** क्या है , बुद्धि - योग ? " 
** जब संसारका अनुभव इतना गहरा हो जाता है कि बुद्धिका सम्वन्ध तर्क - वितर्क से टूट जाता है और बुद्धि सात्विक रस में स्थिर हो जाती है , जहाँ कृष्णके अतिरिक्त और कुछ नहीं रहता तब वह ब्यक्ति बुद्धि योग में स्थित कहा जाता है ।"
 °° ब्रह्म के सम्वन्ध में देखें अगला अंक °° 
°°° हरे कृष्ण °°°

Sunday, June 8, 2014

गीता मोती - 20

● गीता अमृत ( आसक्ति - 3 )●
** पिछले अंक में गीताके माध्यमसे बिषय - इन्द्रिय संयोगके फलस्वरुप मनमें उस बिषय के प्रति मनन उत्पन्न होता है , इस बात को देखा गया था , अब इसके आगे की स्थितिको
देखते हैं ।
** मनुष्य में एक उर्जा है जो जीवात्माके विकिरण उर्जाके रूपमें संपूर्ण लिंग शरीरके प्रत्येक कोशिका में बहती रहती है । आत्माके विकिरणका केंद्र है ,
हृदय । हृदयसे जब यह उर्जा शरीरमें प्रवाहित होती है तब इसका जगह- जगह पर रूपांतरण होनें लगता है और यह निर्विकार उर्जा धीरे - धीरे बाहर - बाहरसे सविकार हो जाती है और इसके रूपांतरणके साथ मनुष्य योगी से भोगी में बदलता चला जाता है
** ध्यान से समझने की बात है कि जीवों में मात्र मनुष्य मूलतः योगी है लेकिन मायाके आयाम और काल के प्रभाव में यह योगी से भोगी में अर्थात मनुष्य से पशुवत  ब्याहार में बदलता रहता है ।
** हृदयसे उठी जीवात्माकी विकिरण उर्जा जब इन्द्रियों से गुजरती है तब यह गुण समीकरणके प्रभाव में निर्विकारसे सविकार हो जाती है और मनुष्य अज्ञानका गुलाम होकर पशु जैसा जीवन जीनें
लगता है ।
** शेष अगले अंक में **
~~ हरे कृष्ण ~~

Thursday, May 29, 2014

गीता अमृत ( आसक्ति भाग - 2 )

** आसक्ति ( Attachment ) भाग - 2
> गीता - 2.62-2.63 <
" प्रभु श्री कृष्ण अर्जुन को कर्म योग एवं ज्ञान योग के मूल सिद्धांत को स्पष्ट करते हुए कह रहे हैं , हे अर्जुन ! सुनो , इन्द्रियों का स्वभाव है अपनें - अपनें बिषयों की तलाश करते रहना । जब पांच ज्ञान इन्द्रियों में किसी एक को उसका बिषय मिल जाता है तब उस बिषय पर उस ब्यक्ति का मन मनन प्रारम्भ कर देता
है । सभीं इन्द्रियों का आतंरिक छोर मन से जुड़ा है और बाहरी छोर प्रकृति में स्थित बिषय की तलाश करता है ।
* मन में जब मनन प्रारम्भ होता है तब मन को बुद्धि एवं अहंकार का सहयोग भी मिलता रहता है । मनन से उस बिषय को भोगनें की कामना उठनें लगती
है ।कामना राजस गुणका एक अहम तत्त्व है ।कामना टूटने पर वही कामना की उर्जा क्रोध में बदल जाती है और क्रोधमें बुद्धि अज्ञान से भर जाती है तथा क्रोध पाप का गर्भ है ।
* क्रोध अहंकारकी ऊर्जा के सहयोग से मनुष्यको पशु से भी नीचे की स्थिति में ला देता है और उस मनुष्यका नाश दिखनें लगता है।"
~~ हरे कृष्ण ~~

Tuesday, May 20, 2014

गीता अमृत (आसक्ति भाग -1 )

** गीता गुण तत्वों की पकड़ और भोग की गाठोंके प्रति होश उठाना चाहता है । गुण तत्वों की पकड़ को समझना कर्म -योग और ज्ञान - योग दोनों का प्रथम सोपान है । कर्म योग और ज्ञान योगका प्रारम्भिक केंद्र बुद्धि है और भक्तिका प्रारम्भिक केंद्र है ,हृदय । हृदय की दुर्बलताएं ही भोग की गाठें हैं जिनको भोग तत्त्व या गुण तत्त्व भी कहते हैं ।
* भोग की गाठों का सीधा सम्बन्ध है , मनकी बृत्तियों से । 10 इन्द्रियाँ , 05 तन्मात्र ( बिषय ) , 05 प्रकार के कर्म , स्थूल शरीर और अहंकार ये 22 तत्त्व मन की बृत्तियाँ हैं ।
* 10 इन्द्रियों ,मन ,05 बिषय और तीन प्रकार के अहंकारों , उनकी गति और स्वभाव को समझना कर्म -योग एवं ज्ञान - योग के प्रारम्भिक चरण हैं जो अभ्यास -योग से मिलता है ।अभ्यास - योग में शरीर ,खान -पान , नीद , जागना , उठना ,बैठना , संगति , भाषा एवं अन्य तत्वोंके प्रति होशमय रहते हुए उनको नियंत्रण में रखना होता है ।
** अभ्यास -योग का सीधा सम्बन्ध है , पांच ज्ञान इन्द्रियों और उनके बिषयों के सम्बन्ध से । इन्द्रिय -बिषय संयोग यदि गुण तत्वों के प्रभाव में होता है तब उस बिषय के प्रति मन में आसक्ति उठती है और आसक्ति मनकी वह उर्जा है जो योग से सीधे भोग में वापिस ला देती हैं ।
● शेष अगले अंक में ●
~~ हरे कृष्ण ~~

Tuesday, May 13, 2014

गीता अमृत ( दो शब्द )

दो शब्द : जब - जब गीताके सम्बन्धमें कुछ कहना चाहता हूँ , ऐसा लगनें लगता है जैसे कोई मुझे रोक रहा हो और यह कह रहा हो कि मुर्ख ! यह क्या करनें जा रहे हो ? * क्या जो कुछ तुम लोगोंको बतानें की तैयारी कर रहे हो , उसे स्वयं ठीक -ठीक समझ पाए हो ? और समझो भी तो कैसे ? तुम्हारे पास समझनेंका कौन सा साधन है ? जिसे तुम साधन समझ बैठे हो ,वह संदेह -अहंकार आश्रित है और इन दो तत्त्वोंके होते समझना संभव नहीं ,फिर ? * क्या तुम्हें यह पक्का यकीन है कि तुम जिस बीज को बोना चाह रहे हो वह पूरी तरह से पक चुका है ? अगर पका नहीं तो उसे जल्दी में क्यों उगाना चाह रहे हो ? * इस प्रकार कुछ और मौलिक प्रश्न मेरे मन -बुद्धि पर दूब घासकी तरह छा जाते है और मैं इस सम्बन्धमें आगे नहीं चल पाता लेकिन आज हिम्मत करके दो -एक कदम चलनें की कोशिश में हूँ और उम्मीद है कि इस मूक गीता -यात्रामें आप मेरे संग प्रभु की उर्जाके रूप में रहेंगे । आइये ! अब हम और आप गीताकी इस परम शून्यताकी यात्रामें पहला कदम उठाते हैं और यदि यह पहला कदम ठीक रहा तो अगले कदम स्वतः उठते चले जायेंगे । <> गीतामें सांख्य योगके माध्यमसे कर्म-योगकी जो बातें प्रभु अर्जुनको बताते हैं , उन्हें जीवनमें अभ्यास करनेंसे सत्यका स्पर्श होता है लेकिन तर्कके आधार पर उन पर सोचना अज्ञानके अन्धकार में पहुँचाता है । <> गीता जैसा कहता है , वैसा बननेंका अभ्यास करो , गीता जिस  भोग - तत्त्वके सम्बन्ध में जो बात कहता है ,उसे अपनें जीवन में देखो और उस मार्ग पर चलो जिस मार्ग पर गीता चलाता है । <> भोगको परम समझता हुआ मनुष्य भोगके रंग में रंगता चला जा रहा है , भोगका नशा उसे किधर जाना था और किधर जा रहा है की सोचको खंडित कर देता है और भोगमें सिमटा मनुष्य आवागमनके चक्रमें उलझ कर रह जाता है । <> वह गीता प्रेमी जिसे गीता पढनेंकी कला आजाती है फिर उसकी पीठ भोग की ओर होनें लगती है , उसकी नज़रों में कृष्ण बसने लगते हैं , धीरे - धीरे वह संन्यासकी ओर सरकनें लगता है और प्रभुसे प्रभुमें अपनेंको देखता हुआ ब्रह्मवित् हो जाता है । <> गीता मनुष्यको वह उर्जा देता है जिसके प्रभावमें मनुष्य परमके रहस्यका द्रष्टा बन कर प्रभुके रहस्य में अपनेंको समेटे हुए आवागमनकी राह से मुक्त हो कर परम पद की ओर चल पड़ता है । ^^ गीता और आप जब दो एक बन जायेगे तब आपकी यह सोच कि आप गीता - यात्रा के दैरान क्या खोये ? और क्या पाए ? स्वतः निर्मूल हो उठेगी और आप बन गए होंगे निर्ग्रन्थ ।निर्ग्रन्थ होना तीर्थंकर बनाता है और तीर्थंकर प्रभुका प्रतिबिम्ब होता है । ~~ ॐ ~~

Sunday, May 11, 2014

आसक्ति से समाधि तक ( भाग - 1 )

आसक्ति से समाधि तक ( भाग - 1 ) 
 <> आसक्तिका अंत सत्संग से संभव है <> 
* भागवत : 1.2 * 
# इन्द्रिय -बिषय संयोग से मन में मनन उठता है । मनन से उस बिषय के प्रति आसक्ति बनती है । आसक्ति कामना का बीज है । कामनाके टूटने का भय क्रोध पैदा करता है और क्रोध वह उर्जा रखता है जो सर्वनाश कर सकती है #
 ~ गीता - 2.62-2.63 ~ 
<> अब आगे <>
 ^ आसक्ति का न उठना सत्संग का फल है । सत्संग प्रभु का प्रसाद है , कोई कृत्य नहीं , कृत्यों का फल है जो तब मिलता है जब :---
 * भोग बंधनों से मुक्त कर्म हो रहे हो । 
* कर्म के होनें के पीछे नकारात्मक या सकारात्मक अहंकार न छिपे हों ।
 > और <
 ऐसे भोग कर्म कर्म योग कहलाते हैं ।
 ^ जब भोग कर्म , कर्म योग बन जाते हैं तब मन मल रहित हो जाता है और एक साफ़ दर्पण सा बन जाता है जिस पर जो कुछ भी होता है वह चेतना का साकार होता है और जिसका द्रष्टा समाधि में प्रवेश कर रहा होता है ।
 ~~ ॐ ~~

Sunday, May 4, 2014

गीता मोती - 19

गीता के निम्न परम मोतीकी चमक को पहचानो । 
" युज्ज्जन् एवं सदा आत्मानं योगी नियतमानसा।
 शांतिम् निर्वाण परमाम् मत्संस्थानाम् अधिगच्छति।।
 ~~ गीता - 6.15 ~~ 
 गीताके माध्यम से प्रभु कृष्ण अशांत मन वाले अर्जुन को यह ध्यान मोती दे रहे हैं । 
" अर्जुन ! शांत और स्थिर मनवाला परम निर्वाण प्राप्त करता है। " <> प्रभुका यह सूत्र कर्म -योग और ज्ञान-योगका संगम है <> ^^ चाहे आप सीधे बुद्धि माध्यम से ज्ञान -योग को अपनाएं या फिर अज्ञान मार्ग के कर्म -योग को अपनाएं दोनों मार्ग मन स्तर तक अलग -अलग से दिखते हैं और मन से आगे कर्म - योग यमुना नदी की तरह अपना नाम खो देता है और आगे जो धारा चलती है वह ज्ञान -मार्ग की गंगा की धारा होती है । 
<> भोग से भोग में हम सब हैं और भोग अज्ञानका संकेत है । अज्ञानको समझना ही ज्ञान है और यह काम सरल और सुलभ भी है । 
<> अज्ञानको बुझा हुआ दीपक समझें और इसकी ज्योति को प्रज्वलित होनें में इसका सहयोग करे । यह आपका सहयोग आपके मन से मैत्री स्थापित करा देगा और आपका रुख हो जाएगा नर्क की ओर से परम निर्वाणकी ओर ।। 
~~ हरे कृष्ण ~~

Tuesday, April 29, 2014

एक फ़क़ीर की सोच

<> एक फ़क़ीर , सम्राटके महल - द्वार पर खड़ा सुरक्षा कर्मी से ऊँची आवाज में कुछ पूछ रहे थे । फ़क़ीर की आवाज में कुछ ऐसी कशिश थी जो सम्राट को द्ववार पर आनें को मजबूर कर दी । सम्राटकी आँखें जब फ़क़ीर की आँखों से मिली तब वह भूल ही गया कि वह सम्राट है और एक भक्त की भांति फ़क़ीर को महलके अन्दर आनें को आमंत्रित किया । * सम्राट महलके अन्दर फ़क़ीरको उचित आसन देनें केबाद पूछे ,प्रभु ! आप द्वारपालसे किस बात पर बहस कर रहे थे ? फ़क़ीर बोले ," मैं कह रहा था कि इस सराय में आज मुझे रुकना है और वह कह रहा था कि यह सराय नहीं सम्राट का महल है । " मैं इसे महल के रूप में नहीं मान रहा था और वह इसे सराय माननें को तैयार न था ,बश इतनी सी बात थी । * सम्राट बोले ," प्रभु ! यह तो मेरा महल है जिसे आप एक सराय समझ रहे हैं ,फिर तो वह द्वारपाल ठीक कह रहा था लेकिन आप यहाँ जितनें दिन चाहें रुक सकते हैं , यह मेरा भाग्य है की मेरे महल में आप जैसे फ़क़ीर के पैर पड़े हैं । * फकीर कुछ बोले नहीं ,दीवारों पर लगी उन तस्बीरों को देखते रहे जो सम्राट के पूर्बजों की थी । फ़क़ीर तस्वीरों को देखते -देखते हसने लगे । फ़क़ीर कहते हैं ,देखो ,इस तस्बीर को , कुछ साल पहले ये कहते थे कि यह मेरा महल है , फिर इस तस्बीर को देखो ,ये भी यही बात कहते थे और आज तुम उनकी कही बात को दुहरा रहे हो ,आखिर बात क्या है ? जहां लोग रहते है वह महल या घर होता है और जहां लोग आते - जाते रहते हैं उसे सराय कहते हैं ,फिर तुम समझो कि यह महल है या फिर सराय । # सम्राट फ़क़ीर के चरणों में गिर पड़ा और अगले दिन अपनें सेनापति को राज्य सौप कर फ़क़ीर के साथ हो लिया । ** सोचिये इस कथा पर ** ~~~ सत नाम ~~~

Thursday, April 24, 2014

भागवतकी कुछ मूल बातें

<> कुछ प्रमुख बातें <> 
भागवत : 12.1+ 12.2 
> परीक्षित से सन 2013के मध्यका  समय 3450 वर्ष बनता है ।परीक्षित का जन्म महाभारत युद्धके ठीक बाद का है। मेहर गढ़ सभ्यता 7000 साल ईशापूर्व की आंकी गयी है । 
भागवत 3.4.13 
° जब प्रभुके परम धाम जानेंका समयआया…
 ° जब यदु -कुलका अंत होनेको आया … 
° जब द्वारकाके समुद्रमें विलय होनेंका समय आया … 
● तब प्रभास क्षेत्रमें सरस्वती नदीके किनारे  एक पीपल-पेड़के नीचे चतुर्भुज रूपमें प्रभु श्री कृष्ण अपनें मित्र उद्धवको भागवतकी परिभाषा कुछ इस प्रकार बता रहे हैं :-- 
● कल्पके उदय होते समय मेरे नाभि कमल पर बैठे ब्रह्माको जो मैं ज्ञान दिया था , विवेकी लोग उसे श्रीमद्भागवत पुराण 
कहते हैं ,। 
* भागवत में 18000 श्लोकों हैं जो 12 स्कंधों में बिभक्त हैं । 
 * श्री शुकदेव जी परीक्षितसे भागवत में निम्न 10 बातों की चर्चा करते हैं :--- 
सन्दर्भ <> भागवत - 2.10 <> 
1- सर्ग : <> 05 महाभूत + 05 तन्मात्र + महत्तत्त्व + अहंकार + इन्द्रियों की उत्पत्ति गुणों में प्रभु द्वारा लाये गए परिवर्तन से हुयी और इनको सर्ग की संज्ञा विचारकोंनें दी ।तीन गुणोंका माध्यम प्रभु की माया है और प्रभु माया से अप्रभावित हैं । माया में कालके माध्यम से गतिका पैदा होना सर्गों के उत्पत्ति का कारण है । सर्ग मूल तत्त्व हैं जिनसे विसर्गों की रचना ब्रह्मा द्वारा बाद में की गयी । 
2- विसर्ग : <> ब्रह्माकी रचना विसर्ग कहलाती है । 
3- स्थान : <> स्थान प्रभुकी उस उर्जा - क्षेत्रका नाम है जो विनाशकी ओर कदम उठाती सृष्टिको एक मर्यादा में रखती है । 4- पोषण : <> प्रभुका भक्तों पर जो स्नेह बरसता रहता है , उसे पोषण कहते हैं । 
5- ऊति : <> कर्म - बंधन उक्ति है ।कर्मके सम्बन्ध में गीता कहता है ----- * कर्म मुक्त एक पल केलिए भी होना संभव 
नहीं - गीता - 18.11, 3.5 * कर्म विभाग - गुण विभाग वेदका प्रमुख विषय है - गीता 3.28 * कर्म कर्ता तीन गुण हैं और कर्ता भावका आना अहंकार की छाया है - गीता -3.27 * कोई कर्म ऐसा नहीं जो दोषमुक्त हो - गीता -18.40 * आसक्ति रहित कर्म ज्ञानयोग की परानिष्ठा है - गीता 18.49-18.50 ¢ - कर्म सवको मिला हुआ वह सहज माध्यम है जो राग से वैराज्ञ में पहुँचाता है और वैराज्ञ परम गतिका द्वार है ।। 
6- मन्वन्तर : <> शुद्ध भक्ति और शुद्ध धर्मका अनुष्ठान कर्ता , मन्वन्तर कहलाता है । 
7- ईशानुकथा : प्रभु की विभिन्न अवतारों की <> कथाएं ईशानुकथा कहलाती हैं । 
8- निरोध : <> जीवोंका प्रभु में लीन होना , निरोध है । 
9- मुक्ति : <> परमात्मा नें स्थिर होना , मुक्ति है । 
10- आश्रय : <> परम ब्रह्म ( जिससे और जिसमें यह सृष्टि है ) आश्रय कहलाता है । 
>> ध्यान से समझें << 
* ऊपर बतायी गयी 10 वातों को .... 
° प्रभु सृष्टि रचना से पूर्व ब्रह्माको बताया । 
° वेदव्यास अपनें पुत्र शुकदेव जीको भागवत रचना करनेंके बाद  सुनाया , उस समय शुकदेव जी 16साल से कम उम्र के थे ।
 ° सनकादि ऋषियों द्वारा भगवत कथा आनंद गंगा घाट हरिद्वार क्षेत्र में भक्ति एवं उसके पुत्रों ज्ञान , वैराज्ञ के कल्याण केलिए नारद द्वारा ब्यवस्थित यज्ञ में सुनाया गया ।
 ° प्रभु कृष्ण अपनें मित्र उद्धवको प्रभास क्षेत्र में अपनें परमधाम यात्रा के समय सुनाया ।
 ° 16 वर्षीय शुकदेव जी सम्राट परीक्षित को उनके अंत समय में सुनाया ( उस समय परीक्षित की उम्र लगभग 60 साल की रही होगी ) । 
° नैमिष आरण्य में सूत जी सौनक आदि ऋषियों को कलि युगके आगमनके समय सुनाया । 
# भागवत की मूल बातों को अपनें ध्यानका बिषय बनायें ।
 ~~ ॐ ~~

Wednesday, April 23, 2014

भागवतके कुछ मोती - 1

श्रीमद्भागवत पुराण से --- भाग -01
 <> कुछ ध्यान सूत्र <> 
1- भागवत : 1.5 > जिस चीज के खानें से जो मर्ज़ होता है उस मर्जके लिए वह वस्तु दवाका काम भी कर सकती है यदि उसका प्रयोग औषधि विधि से किया जाय । 
2- भागवत : 9.6 > ऋगवेदी सौभरि ऋषि अपनीं 50 स्त्रियों के साथ भोग में रहे और अंत में अपनें अनुभव को कुछ इस प्रकार ब्यक्त किया :--- " मोक्ष की चाह रखनें वाले को भोगी की संगति से दूर रहना चाहिए ।" 
 3- भागवत : 8.1> नैष्कर्म्य की सिद्धि ब्रह्ममय होनें की स्थिति है । 
4- भागवत : 11.13 > तीन गुणों की पकड़ बुद्धि तक सीमित है । 
5- यहाँ गीता : 14.5 + 3.37 + 3.40 को भी देखें जो कहते हैं ---- 5.1> तीन गुण आत्मा जो देह में रोक कर रखते हैं। 5.2> क्रोध काम का रूपांतरण है और काम राजस गुण का प्रमुख तत्त्व है । 5.3>काम का सम्मोहन बुद्धि तक सीमित है ,आत्मा पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता । 
6- भागवत : 3.10> ब्रह्मा प्रभुके राजस गुणी अवतार हैं। 
7- भागवत : 1.3> 11 इन्द्रियाँ +05 महाभूत ये प्रभु की 16 कलाये हैं ।
 8- भागवत : 1.5> नारद व्यास से कहते हैं : वह शास्त्र - ज्ञान अज्ञान है जो प्रभुमय न कर सकें।
 9- भागवत : 2.2> ज्ञान से चित्त की वासना नष्ट होती है । 10- भागवत : 1.2> आसक्ति का अंत सत्संग से संभव है । ~~~ रे मन कहीं और चल ~~~

Monday, April 21, 2014

गुरु प्रसाद

https://www.dropbox.com/s/c54sberr5lipttk/%E0%A4%97%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%81%20%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%A6

Tuesday, April 8, 2014

गीता दृष्टि

●गीताके मोती - 19●
* गीता एक पाठशाला है जहाँ उनको परखनें और समझनें का मौका मिलता है जिनको गुण तत्त्व या भोग तत्त्व कहते हैं जैसे आसक्ति ,कामना ,काम ,क्रोध ,लोभ ,मोह ,भय , आलस्य और अहंकार ।
* गीता कहता है , गुण तत्वों से परिचय अभ्यास योग से होता है और यह परिचय सभीं तत्वों के स्वभावों से अवगत कराता है ।
* गुण तत्वों की परख बुद्धि योग की अहम कड़ी है जो अनिश्चयात्मिका बुद्धि को निश्चयात्मिका बुद्धि में बदल कर समभाव में बसा देती है । समभाव में स्थित मन -बुद्धि एक ऐसा माध्यम बन जाते हैं जहाँ जो भी होता है वह परम सत्य ही होता है ।
* गीता की छाया में बैठना ध्यान है और ध्यानसे मनुष्य ज्ञान -विज्ञान की उर्जा से क्षेत्र एवं क्षेत्रज्ञ के रहस्य को देखता है और यह रहस्य ही सांख्य योग का केंद्र है ।
* गीता कर्म योग की गणित देता है जहाँ कर्म कर्म तत्वों की पकड़ के बिना होता है और ऐसे कर्म का केंद्र निराकार प्रभु होता है । कर्म तत्वों की पकड़ के बिना होनें वाला कर्म ध्यान है जहाँ इन्द्रियाँ अपनें -अपनें बिषयों के सम्मोहन से दूर अन्तः मुखी हो जाती है ,मन प्रभु पर केन्द्रित होता है और बुद्धि तर्क -वितर्क से परे निर्मल आइना जैसी हो उठती है जिस पर बननें वाली तस्बीर निराकार ब्रह्म की होती है जिसे इन्द्रियाँ ब्यक्त नहीं कर सकती पर उसे नक्कार भी नहीं सकती ।
* क्रोध को प्यार में ...
* अहंकार को श्रद्धा में ...
*आसक्ति -कामना को भक्ति में ...
बदलनें की उर्जा गीता में हैं ।।
~~~ हरे कृष्ण ~~~

Friday, February 21, 2014

गीता मोती - 18 , भागवत के 50 मूल सूत्र

1-भागवत : 7.15> वैदिक कर्म दो प्रकार के हैं ; प्रवित्तिपरक और निबृतपरक । निबृतपरक कर्म मनकी बृत्तियों से नियोजित नहीं होते और प्रबृत्तिपरक कर्म मन अधीन होते हैं । 2- भागवत : 7.9> मोक्षके 10 साधन हैं - मौन , ब्रह्मचर्य ,शास्त्र श्रवन ,तपस्या , स्वाध्याय , स्वधर्म , सयुक्ति शास्त्र ब्याख्या , एकांत , जप , समाधि । 3- भागवत : 8.1> कर्म में जब ब्रह्मसे एकत्व स्थापित होना नैष्कर्म की सिद्धि मिलना है । 4- गीता -18.49 > आसक्ति रहित कर्म से नैष्कर्म्य की सिद्धि मिलती है । 5- गीता - 18.50> नैष्कर्म्य की सिद्धि ज्ञान योग की परानिष्ठा है । 6- गीता -3.4> केवल कर्म त्याग से निष्कर्मता की प्राप्ति संभव नहीं । 7- गीता - 18.11> शरीरधारी पूर्ण रूपेण कर्म त्याग नहीं कर सकता । 8- गीता - 18.48> कोई ऐसा कर्म नहीं जो दोष रहित हो पर सहज कर्मों का त्याग उचित नहीं । 9- गीता - 4.23> आसक्ति - ममता रहित कर्म करता कर्म बंधनों से मुक्त होता है । 10-गीता -4 .18> कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म की सोच जब उठती है तब भोग कर्म योग बन जाता है । 11-गीता -8.3> भूत भावः उद्भवकरःविसर्गः  कर्मः । 12-गीता -3.5> मनुष्य गुणोंके प्रभाव में कर्म करता है ,एक पल भी कोई कर्म रहित नहीं रह सकता । 13-गीता -3.27> कर्म कर्ता गुण हैं ,करता भाव अहंकार की उपज है । 14-गीता-14.19>गुणोंको करता समझनें वाला द्रष्टा होता है जो ध्यान की आखिरी स्थिति और समाधि के आगमन की स्थिति होती है। 15-भागवत : 11.13> तीन गुणोंकी पकड़ इन्द्रिय ,मन और बुद्धि पर होती है और आत्मा केन्द्रित गुणातीत होता है । 16- गीता 14.5> देह में आत्मा तीन गुणों के कारण रुका हुआ होता है । 17-गीता -3.40> कामका सम्मोहन भी बुद्धि तक सीमित है । 18-गीता - 3.37> काम का रूपांतरण क्रोध है और काम राजस गुणका मूल तत्त्व है। 19-भागवत : 2.9> मैं और मेंरा का भाव गुणों की उपज है। 20-भागवत : 3.10> ब्रह्मा प्रभुका राजस गुणी अवतार है । 21-भागवत : 2.2> ज्ञान चित्तको वासना मुक्त रखता है । 22-भगवत : महतत्त्व सर्वात्मा परमात्माका चित्त है । 23-भागवत : 5.6 > योगी अपनें मन पर उतना भरोषा रखता है जितना भरोषा एक ब्याध पकडे गए हिरन पर करता है । 24-भगवत : 5.11> इन्द्रियोंका गुलाम मौत की छाया में जीता है । 25-भागवत : 2.1> मनको राजस - तामस गुणों की बृत्तियों से दूर रखना अभ्यास योग है। 26-गीता - 6.26> चंचल मन जिन - जिन बिषयों की ओर आकर्षित होता है उसे वहाँ -वहाँ से हटा कर प्रभु पर केन्द्रित रखो । 27-गीता - 6.19> वायु रहित स्थान में रखे दीपक की ज्योति की स्थिति और योगीके मन की स्थिति एक जैसी होती है । 28-गीता - 6.20> अभ्यास योग से निर्मल मन - बुद्धि वाला प्रभुमय रहता है । 29-भगवत : 8.17 > इन्द्रियों को मन के माध्यम से वुद्धि द्वारा नियंत्रित करें । 30-गीता 2.60> आसक्त इन्द्रियोंका मन गुलाम है । 31- गीता : 2.67> बिषय से आकर्षित मन इन्द्रियका गुलाम होता है । 32- गीता - 3.7> इन्द्रियोंका नियोजन मन से होना चाहिए , हठात नियोजन ठीक नहीं। 33- गीता - 3.6> मन द्वारा बिषयों से आसक्त रहना और ऊपर -ऊपर से हठात इन्द्रियों को नियंत्रित रखनें की कोशिश दम्भी बनाता है । 34- भगवत : 11.22> पूर्व अनुभव से गुजरे बिषयों पर मन भौरों की भाँति मडराता रहता है । 35- भागवत : 3.25> बंधन और मोक्ष दोनों का कारण मन है । 36- भागवत : 10.1> मन विकारोंका पुंज है । 37- भागवत : 11.22> कर्म -संस्कारोंका पुंज ,मन है । 38-भागवत : 11.13> संसारका बिलास ,मन है । 39-भागवत : 11.28> जाग्रत , स्वप्न , सुषुप्ति और तुरीय ,मन की विभिन्न अवस्थाएं हैं ; तुरीय गुणातीत मनकी वह स्थिति है जो परम सत्यको दिखाती है । 40-गीता 10.22> इन्द्रियाणां मनः अस्मि। 41-भागवत : 11.22>इन्द्रिय -बिषय संयोग मन में विकार पैदा करता है । 42-गीता -5.22> इन्द्रिय - बिषय संयोग की निष्पत्ति भोग है जिसका सुख दुःख में पहुँचाता है । 43-गीता - 18.38> इन्डिय सुख प्रारंभ में अमृत सा दिखता है पर उसका परिणाम बिष तुल्य होता है । 44-भागवत :5.13> मनकी बृत्तियाँ : 10 इन्द्रियाँ , 5 तन्मात्र , 5 प्रकारके कर्म( पांच कर्म इन्द्रियों के अपनें - अपनें कर्म हैं ) ,देह और अहंकार । 45-भागवत : 3.26> अन्यः करण की बृत्तियाँ - संकल्प , निश्चय , चिंता, अभिमान। 46-भागवत : 1.3> अन्तः करण : मन , बुद्धि ,अहंकार और चित्त । 47-भागवत : 11.22> लिंग शरीर : पञ्च कर्म , इन्द्रियाँ , मन और स्थूल देह को लिंग शरीर कहते हैं । 48-भागवत : 10.84> कर्म वासनाओं से मुक्त कर्म ,कर्म योग है । 49-भागवत : 4.8> असंतोष मोह की पहचान है । 50-भागवत : 6.5> बिना भोग - अनुभव वैराग्य में उतरना कठिन है । ~~ॐ ~~

Sunday, February 16, 2014

गीता मोती - 17 मन ध्यान

गीता मोती - 17
 * गीता श्लोक -6.26 * 
यतः यतः निश्चरति मनः चंचलं अस्थिरम् । 
ततः ततः नियम्य एतत् आत्मनि एव वशं नयेत् ।।
 भावार्थ : " यह चंचल अस्थिर मन जहाँ -जहाँ भ्रमण कर रहा हो उसे वहाँ -वहाँ से उठा कर प्रभु पर केन्द्रित रखनें का अभ्यास करते रहना चाहिए ।" 
<> मन क्या है ? <>
 1- भागवत में मन सात्त्विक अहंकार की उपज है ( कपिल का सृष्टि ज्ञान -भागवत स्कन्ध - 3 ) । 2- मन भोग और वैराज्ञके मध्य एक ऐसा ऐसा माध्यम है जो मनुष्य को एक तरफ भोग से आकर्षित रखता है और दूसरी तरफ रह -रह कर प्रभु की स्मृतिकी भी झलक दिखाता रहता है । 
<> साधनाके सभीं मार्गों का केंद्र मन है ।साधन उसे कहते हैं जो मनको गुणोंके प्रभावसे मुक्त रखे और गुणोंके प्रभावका अर्थ है भोग तत्त्वोंका सम्मोहन । 
# मन ध्यान मात्र एक ऐसा मार्ग है जो :--- 
* काम से राम में * भोग से योग में और * वैराज्ञ में प्रभूसे एकत्व स्थापित करता है । 
~~~ ॐ ~~~

Wednesday, February 5, 2014

गीता मोती -16

ऐसा ही होता है
* जनक राजा निमि को योगीश्वर तत्त्व ज्ञान में ऐसी बात बताते हैं :---
#वायु पृथ्वी से उसका गुण गंध छीन लेती है और पृथ्वी जल में रूपांतरित हो जाती है ।
# वायु जलका गुण रस को चूस लेती है और जल अग्नि में रूपांतरित हो जाता है ।
# कालका रूप अंधकार अग्निके गुण रूप को छीन लेता है और अग्नि वायु में रुपांतरित हो जाती
है ।
# आकाश वायु से उसके गुण स्पर्श को छीन लेता है और वायु आकाश में समा जाती है ।
# काल आकाश से उसका गुण शब्द छीन लेता है और आकाश तामस अहंकार में रूपांतरित हो जाता
है ।
# # पृथ्वी ,जल ,वायु , अग्नि और आकाश ये पांच महाभूत अपनें मूल तामस अहंकार में रूपांतरित हो जानें के बाद :---
1- इन्द्रियाँ और बुद्धि अपनें मूल राजस अहंकार में लीन हो जाती हैं ।
2- मन अपनें मूल सात्त्विक अहंकार में समा जाता
है , और ----
# इस तरह पांच महाभूत , पांच बिषय ,मन और बुद्धि तीन अहंकारों में लुप्त हो जाते हैं , फिर ----
क - तीन अहंकार कालके प्रभाव में महतत्त्व में लुप्त हो जाते हैं और :---
ख - महतत्त्व ब्रह्म में लीन हो जाता है , तथा ----
ग- सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ब्रह्ममय होता है ।
++ सृष्टिके अंतका यह काल चक्र आपनें देखा । ब्रह्माण्डमें कोई दृश्य और द्रष्टा नहीं रहता और जो रहता है उसे ब्रह्म कहते हैं ।
::: ॐ :::

Tuesday, February 4, 2014

गीता मोती - 15 (गीता अध्याय - 4 का सार )

Title :गीता अध्याय - 04 Content: गीता अध्याय - 04 श्लोकों को स्थिति : * अर्जुन : 01 ( 4.4) * कृष्ण : 40 * अध्याय में कुल श्लोक : 41 # तीसरे अध्याय में श्लोक - 3.36 के माध्यम से अर्जुन पूछते हैं : मनुष्य न चाहते हुए भी किससे प्रेरित हो कर पाप करता है ? * प्रभु इस सम्बन्ध में गीता श्लोक 3.37 से श्लोक 4.3 तक ( 12 श्लोक ) में कहते हैं :--- हे अर्जुन राजस गुणका मूल तत्त्व है काम और काम की असफलता का आभाष काम उर्जा को क्रोध में बदल देता है । क्रोध में मनुष्य अपनें मन - बुद्धि का संतुलन खो देता है और क्रोध उसे पाप करनें के लिए प्रेरित करता है । * गीता के अध्याय - 4 के प्रारम्भ को कामके सन्दर्भ में देखना चाहिए । * 4.1 > मैं इस अब्यय योग को सूर्य को बताया था , सूर्य अपनें पुत्र विवस्वान मनुको बताया और मनु अपनें पुत्र इक्ष्वाकु को बताया । *4.2 > परम्परागत यह योग राज ऋषियों को मिला लेकिन धीरे - धीरे पृथ्वी पर लुप्त हो गया । *4.3 > तू मेरा भक्त एवं सखा है इसलिए आज मैं यह पुरातन योग तुमको बताया जो एक गोपनीय बिषय है । <> कृष्ण किस योग की बात कह रहे हैं ? इस सम्बन्ध में गीता श्लोक 3.36 से श्लोक 4.3 तक को गंभीरता से देखना चाहिए ।इस योग का सीधा सम्वन्ध है , काम उर्जा का रूपांतरण ।कृष्ण गीता अध्याय - 3 के अंत में कहते है की कामका प्रभाव इन्द्रियों , मन और बुद्धि तक होता है लेकिन आत्मा पर इसका प्रभाव नहीं होता अतः आत्माकेन्द्रित ब्यक्ति काम के प्रभाव से परे रहता है । <> अर्जुनका चौथा प्रश्न <> * 4.4 > अर्जुन पूछ रहे हैं : सूर्य कल्पके प्रारम्भ से हैं और आप वर्तमान में हैं फिर मैं यह कैसे समझूँ कि आप इस योगको सूर्य से कहा होगा ? *4.5-4.6+2.12 : प्रभु कह रहे हैं : पहले मेरे और तेरे अनेक जन्म हो चुके हैं , तुम उनको नहीं जानता पर मैं जानता हूँ । मैं अब्यय , भूतोंका ईश्वर अपनी प्रकृति के अधीन अपनी योग माया से प्रकट होता हूँ । <> पिछले जन्मोकी स्मृति में पहुँचनेका योग बुद्ध - महावीरके समय तक साधनका एक विषय होता था ; बुद्ध इसे आलय विज्ञान और महावीर जाति स्मरण कहते थे । *4.7 + 4.8 प्रभु कह रहे हैं : जब - जब धर्म की हानि अधर्म का फैलाव होता है तब तब मैं साकार रूप में स्वयं को रचता हूँ । साधू पुरुषोके उद्धार केलिए , पापियोंके विनाशके लिए , धर्म - स्थापना केलिए मैं युग - युगमें प्रकट होता रहता हूँ । * यहाँ कुछ बाते देखते हैं * + द्वापर में कृष्ण अवतार से क्या सुधार हुआ ? क्या अधर्म घटा ? यदिक ऐसा हुआ होता तो कृष्ण के स्वधाम गमनके ठीक बाद कलियुग कैसा आजाता ? यदुकुलका नाश हुआ , द्वारका समुद्र में डूबा , हस्तिना पुरको गंगा बहा ले गयी परीक्षितके बाद 6वें राजा नेमिचक्रको प्रयागजे पास यमुना तट पर स्थित कौशाम्बी जा कर बसना पड़ा क्योंकि हस्तिनापुरको गंगा बहा लेगयी थी ।यह सब घटनाएँ साधारण घटनाएँ न थी । * 4.9 > मेरे जन्म और कर्म दिब्य हैं , तत्त्वसे जो इनको समझता है वह आवागमन से मुक्त हो जाता है । *4.10 + 2.56 : राग, भय और कोध रहित ज्ञानी प्रभु में बसता है । * 4.11 : सभीं मेरे मार्गका अनुसरण करते हैं , जिसकी जैसी भक्ति उसके लिए वैसा मैं हूँ । * 4.12 : देव पूजन कामना पूर्तिका एक माध्यम है । <> यहाँ आप इन सूत्रोंको भी देखें <> गीता सूत्र 6.41-6.42,7.16,9.20-9.25, 14.14-14.15, 17.4 *4.13 : गुण - कर्म आधारित चार प्रकारकी जातियाँ हैं । * 4.14 : कर्मों से मैं सम्मोहित नहीं होता और मेरे कर्म ,कर्मफल - कामना रहित होते हैं । *4.15 : पूर्व काल में मुमुक्ष लोग , कर्मफल -कमाना रहित कर्म करते थे , तुम भी करो । *4.16: कर्म क्या है ?और अकर्म क्या है ? इसे समझना कठिन है पर मैं तुमको बताता हूँ ।वेद आधारित कर्म करना , कर्म है अन्य अकर्म । *4.17 : कर्म - अकर्म और विकर्म को समझना चाहिए । *4.18 : कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखनें वाला मनुष्यों में सझदार होता है औए ऐसा योगी समस्त कर्मो को कर सकता है । यहाँ इन सूत्रों को भी देखें : 4.10 , 4.12 , 4.18 *4.19 : संकल्प - कामना रहित कर्म से ज्ञान मिलता है और ऐसे लोग पंडित कहलाते हैं , पंडित के लिए देखो गीता सूत्र - 2.11.2.46,18.42 । * 4.20 : जो आसक्ति रहित कर्म करता है वह कर्म बंधन मुक्त रहता है । *4.21 : भोग भाव रहित कर्म ,पाप मुक्त रखता है। * 4.22 : समभाव योगी कर्म बंधन मुक्त होता है । * 4.23- 4.34 तक के सूत्र यज्ञके सम्बन्ध में हैं । *4.23 : आसक्ति - ममता रहित कर्म कर्म मुक्त होता है । *4.24 : यज्ञ में अर्पण और हवि ब्रह्म है और ब्रह्म अग्नि में आहुति क्रिया भी ब्रह्म है , ब्रह्म में लीन योगी द्वारा यदि यज्ञ हो तो फल भी ब्रह्म होगा । *4.25 : कुछ योगी यज्ञ द्वारा देव पूजन करते हैं कुछ योगी के यज्ञ का केंद्र ब्रह्ममय अग्नि होती है *4.26 : कुछ योगी अपनी इन्द्रियों को संयम अग्नि में हवन करते हैं कुछ बिषयों का हवन इन्द्रियो में करते हैं । *4.27 : कुछ योगी ज्ञान अग्नि में इन्द्रिय क्रियाओं एवं प्राण क्रियाओं का हवन करते हैं । इस सम्बन्ध में आप इन सूत्रों को भी देखें : 5.13 , 8.12-8.13,14.11। *4.28 : कुछ लोग द्रब्यका यज्ञ करते हैं कुछ तप का कुछ योग का कुछ अहिंसा ब्रत से ज्ञान यज्ञ करते हैं। > 4.29 - 4.30 ये सूत्र बुद्ध की विपत्सना ध्यानसे सम्बंधित हैं । * अपान वायुका प्राण वायु में हवन (रेचक) करें । * प्राण वायुका अपान में हवन करें । * दोनों को रोक कर (कुम्भक ) प्राणों का प्राणों में हवन करनें का अभ्यास करें । <> 10 वायु हैं , 24 घंटों में 21600 श्वास लेते हैं अर्थात 15 श्वास प्ररि मिनट । बुद्ध कहते हैं , एक घंटा प्रतिदिन श्वास - ध्यान निर्वाण का द्वार है <> *4.31 : यज्ञ में बचे हुए अमृत समान वस्तुओंका सेवन करनें वाला ब्रह्ममय होता है और यज्ञ न करने वाले को तो इस लोक में सुख नही फिर पर लोक में कैसे सुख मिल सकता है । * 4.32 : वेदों में अनेक प्रकार की यज्ञों की चर्चा है जिनको कर्म रुपेण किया जाता है और जो ऐसा समझ कर करता है , वह मोक्ष प्राप्त करता है । *4.33 : द्रब्य यज्ञ से उत्तम ज्ञान यज्ञ है और ज्ञान के साथ कर्म - त्याग घटित होता है । *4.34 : ज्ञान की प्राप्ति तुमको तत्त्वदर्शियों से हो सकती है। * 4.35 : ज्ञान से तुम मोह मुक्त हो जाएगा और ज्ञान से सभीं भूतों की स्थिति को पहले अपनें में फिर प्रभु में देख सकता है। * 4.36 : ज्ञान से पाप मुक्ति होती है । *4.37 + 4.33 : ज्ञान से कर्म संन्यास मिलता है । *4.38 : 4.41+13.2+7.19 की एक साथ देखें जो कहते हैं :--- <> योग सिद्धिसे ज्ञान मिलता है <> * 4.39 : नियोजित इन्द्रियों वाला ज्ञानी होता है और शांत ब्यक्ति होता है । * 4.40 : संदेह इस लोक और पर लोक दोनों में शांति से दूर रखता है । *4.41 : कर्म योग से जो कर्म संन्यासी हुआ होता है वह ज्ञानी संदेह रहित होता है और कर्म बंधन मुक्त होता है । * 4.42 : हे अर्जुन, तुम अपनें ह्रदय से संदेह रहित हो जाओ और कर्म योग में स्थित हो जाओ === ॐ === ok

Sunday, January 26, 2014

कर्म - ज्ञान मार्ग

●गीता मोती - 16 ● <> गीता श्लोक - 3 3 <> लोके अस्मिन् द्विविधा निष्ठा पूरा पोक्ता मया अनघ । ज्ञानयोगेन सांख्यानाम् कर्म योगेन योगिनाम् ।। ** प्रभु श्री कृष्ण कह रहे है - ---- साधना करनेंके प्रारम्भिक मार्ग दो हैं , ज्ञान और कर्म ; ज्ञान सांख्यमें आस्था रखनें वालों के लिए है और अन्य के लिए कर्म मार्ग सरल मार्ग है । # क्या है सांख्य ? और क्या है कर्म ? वह जो वुद्धि केन्द्रित है , उसके पास तर्क - वितर्क की गहरी पकड़ होती है ,ऐसे लोगोंके लिए सांख्य एक मजबूत माध्यम है ,साधनाका लेकिन यह मार्ग है कठिन और लम्बा पर कर्म मार्ग सरल और छोटा मार्ग हो सकता है । ** कर्मका फल है भक्ति और भक्तिका फल है ज्ञान ,ज्ञान -वैराग्य एक साथ रहते हैं तथा वैराग्य प्रभुका द्वार है । ** कर्म में कर्म बंधनोंको समझ कर बंधन मुक्त होना कर्म योग कहलाता है ~~~~ ॐ ~~~~

गीता मोती - 16

●गीता मोती - 16 ● <> गीता श्लोक - 3 3 <> लोके अस्मिन् द्विविधा निष्ठा पूरा पोक्ता मया अनघ । ज्ञानयोगेन सांख्यानाम् कर्म योगेन योगिनाम् ।। ** प्रभु श्री कृष्ण कह रहे है - ---- साधना करनेंके प्रारम्भिक मार्ग दो हैं , ज्ञान और कर्म ; ज्ञान सांख्यमें आस्था रखनें वालों के लिए है और अन्य के लिए कर्म मार्ग सरल मार्ग है । # क्या है सांख्य ? और क्या है कर्म ? वह जो वुद्धि केन्द्रित है , उसके पास तर्क - वितर्क की गहरी पकड़ होती है ,ऐसे लोगोंके लिए सांख्य एक मजबूत माध्यम है ,साधनाका लेकिन यह मार्ग है कठिन और लम्बा पर कर्म मार्ग सरल और छोटा मार्ग हो सकता है । ** कर्मका फल है भक्ति और भक्तिका फल है ज्ञान ,ज्ञान -वैराग्य एक साथ रहते हैं तथा वैराग्य प्रभुका द्वार है । ** कर्म में कर्म बंधनोंको समझ कर बंधन मुक्त होना कर्म योग कहलाता है ~~~~ ॐ ~~~~

Saturday, January 11, 2014

गीता मोती - 15

● रोज देख रहे हो लेकिन ... ? भाग - 1
<> मंदिर त्रिवेणी हैं , जहाँ तीन प्रकारकी उर्जायें बह रही हैं , एक मंदिर के गर्भ गृहके मध्य स्थित मूर्ति से विकिरण द्वारा फ़ैल रही परम सनातन प्राणमय उर्जा है जो मंदिर के द्वार पर टंग रहे घंटेके माध्यम से सभीं दिशाओं में फ़ैल रही है । दूसरी उर्जा उन ब्यक्तियों की होती है जो मंदिर में प्रवेश करते हैं । तीसरी उर्जा उनकी होती है जो मंदिर में प्रवेश कर्ताओं के आश्रित हैं और मंदिर के बाहर खड़े रहते हैं । जो मंदिर के बाहर खड़े हैं ,जिनको भिखारी कहा जता है , उनको मंदिरके अन्दर स्थित मूर्ति से कुछ लेना -देना नहीं ,उनको मंदिर में प्रवेश करनें वालों से भी कोई ख़ास प्रयोजन नहीं होता ,उनकी पूरी उर्जा उस बस्तु पर टिकी होती है जो मंदिर में प्रवेश कर्ताओं के हांथों में दान के लिए होती हैं । मंदिर दो भिखारियों और एक सनातन उर्जाका त्रिवेणी है ।
* मंदिर के अन्दर और बाहर दोनों तरह भिखारी हैं ,मंदिरके अन्दर प्रवेश कर्ता पत्थर की मूर्ति से वह मांग रहा है जिसे वह अभीं प्राप्त करनें की चाह में है । मंदिरके बाहर जो खड़े हैं ,जिनके हांथोंमें भिक्षा पात्र लटक रहे हैं ,वे जो मंदिर से बाहर निकल रहे हैं उनसे वह मांग रहे हैं जो इनको उनके हांथों में दिख रहा है , हैं दोनों भिखारी ।
* दो भिखारियों और एक ओंकार की त्रिवेणी हैं हमारे मन से निर्मित मंदिर ।
~~~ॐ ~~~

Wednesday, January 8, 2014

गीता मोती - 14

● कामना , क्रोध और दुःख ●
गीतामें प्रभु कृष्ण कहते हैं :---
* इन्द्रिय - बिषय संयोग से मन उस बिषयके सम्बन्ध में मनन करनें लगता है और मनन का स्वरुप गुण आधारित होता है अर्थात मनन के समय जिस गुण के प्रभाव में मन होता है , मनन जा केंद्र उसी गुण तत्त्व पर होता है । बिषय एक होता है और उस बिषय पर मन तीन प्रकार से मनन कर सकता है ।
* मनन से आसक्ति उठती है : आसक्ति अर्थात उस बिषय के भोग की उर्जा ।
* आसक्ति से संकल्प - कामना का उदय होता है । * कामना टूटने का भय क्रोध पैदा करता है ।
* क्रोध काम - कामना का रूपांतरण है * क्रोध मनुष्य के पतन का करण है ।
* जितनी गहरी कामना होगी , उसके खंडित होनें पर उतना गहरा दुःख होगा ।
* कामना की पूर्ति होना अहंकार को और सघन बनाता है ।
* कामना रहित सन्यासी होता है ।
* सन्यास , वैराग्य और भक्ति एक साथ रहते हैं ।
* परा भक्त प्रभु तुल्य होता है ।
~~ ॐ ~~

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