Sunday, October 31, 2010

ब्रह्म मार्ग का एक और गीता ज्ञान

गीता में ब्रह्म को मन - बुद्धि स्तर पर समझनें के लिए यहाँ एक ऐसा प्रयत्न हो रहा है जो हमेशा
अधूरा ही रहनें वाला है , लेकीन इसमें हर्ज़ ही क्या है ?
आइये ! देखते हैं गीता आगे क्या कह रहा है ?

सूत्र
2.42 , 2.43 , 2.44 , 2.45 , 2.46
यहाँ प्रभु अर्जुन से कहते हैं :--
अर्जुन सुन ! वेदों में स्वर्ग की महिमा गायी गयी है , स्वर्ग में कैसे पहुंचा जाए ,
इसके लिए अनेक साधन भी बताये गए हैं । वेदों में अलंकारिक भाषा में
गुण तत्वों [ भोग तत्वों ] एवं भोग प्राप्ति के रास्तों का वर्णन किया गया है ।
वेदों में स्वर्ग प्राप्ति को सर्वोपरि बताया गया है ,
लेकीन तू आगे सुन --------
यदि किसी को समुन्द्र मिल गया हो तो उसका सम्बन्ध तालाब से जिसका प्रयोग
वह पहले करता था , क्या रह जाएगा ? ठीक ऎसी ही हाल होती ही
उसकी जिसको
गीता में रस मिलनें लगता है ।
तूं गुण तत्वों [ भोग - भाव ] से ऊपर उठ और अपनें मन - बुद्धि में प्रभु को बसानें का यत्न कर ,
ऐसा करनें से
तेरे को पता चलेगा की ......
तेरे को मनुष्य योनी किस कारण से मिली हुयी है ।

सूत्र - 7.10

यहाँ प्रभु कहते हैं ........
भोग - भाव जिस मन -बुद्धि में के आकर्षण नहीं होते , उनमें मेरा निवास होता है ॥

गीता के छः सूत्र जिनको ऊपर स्पष्ट किया गया , जो प्रभु मार्ग के चिन्ह हैं
उनका सारांश कुछ इस प्रकार होता है ॥

निर्विकार शांत , स्थिर मन - बुद्धि में प्रभु निवाश करते हैं -----
और ....
एक मन - बुद्धि में एक साथ -----
भोग - भाव और प्रभु नही हो सकते ॥

==== ॐ =====

Saturday, October 30, 2010

ब्रह्म की ओर कुछ और कदम

गीता सूत्र - 18.29 - 18.32 तक

पहले हमनें देखा गीता सूत्र - 2.41 और गीता सूत्र - 2.44 को , जहां ------
गीता में प्रभु कहते हैं .........
दो प्रकार की बुद्धि होती है ; एक का रुख प्रभु की ओर होता होता है और दुसरे का आकर्षण
भोग होता है ॥

अब आप देखिये गीता सूत्र - 18.29 - 18.32 तक जहां प्रभु कह रहे हैं ........
तीन प्रकार के गुण हैं , गुणों के आधार पर तीन प्रकार के लोग हैं
और उन सब की अपनी - अपनी
बुद्धियाँ हैं ॥
[क] सात्विक बुद्धि का आकर्षण प्रभु में बसनें का होता है ॥
[ख] राजस बुद्धि , भोग में रूचि रखती है , और .....
[ग] तामस बुद्धि इन दोनों के मध्य एक अवरोध सी है जो मोह , भय में रखती है ॥

बातों की एक बात ---------
ब्रह्म की अनुभूति उसको होती है ........
जो साधना में किसी वक़्त धीरे से मन - बुद्धि से परे के आयाम में पहुँच जाता है और इसका उसे इल्म
भी नहीं होता । जब वह साधक पुनः मन - बुद्धि के आयाम में वापस लौटता है तब उसे
लगता है की वह कहीं कुछ अपना अनमोल को खो दिया है और वह पुनः उसे पाना चाहता है ॥

अगले अंक में कुछ और बातों को देखते हैं ॥

======= ओम =======

Wednesday, October 27, 2010

ब्रह्म मार्ग पर पहला कदम

बुद्ध कहते हैं :

नियमित एक घंटा प्रति दिन संध्या काल में अपनी श्वास पर ध्यान करता है, जो
उसे निर्वाण का मिलना
ध्रुव सत्य है ॥

और
गीता सूत्र - 4.29 कहता है :-


[क] जहां अपान और प्राण वायु मिलते हों , उस स्थान पर अपनी प्राण ऊर्जा को एकत्रित करो ,
या .....
[ख] जहां प्राण वायु एवं अपान वायु मिलते हैं , उस स्थान पर अपने प्राण ऊर्जा को केन्द्रित करो ,

ऐसा करनें से समाधि में प्रवेश मिल सकता है ॥

गीता और उपनिषद् को हमारे कथावाचक पंडित लोग , अपनी - अपनी बातें जोड़ कर
इनको मुर्दा बनानें में कोई कसर न छोडी यही कारण था की बुद्ध गीता का नाम नहीं दिया था ।
बुद्ध अपनें इस बिधि को नाम दिया - विपत्सना ॥

एक बार परहंस जी समाधि में उतरे और काफी समय तक समाधि में रहे और जब उठे तब ----
रोने लगे और कहते थे ----
माँ ! मैं वहीं ठीक था , क्यों जगाया - तूनें ॥
बुद्ध की विपत्सना और गीता की ध्यान बिधि की रूप रेखा आप को यहाँ दी गयी ,
अब -----

अगले अंक में इस ध्यान विधी की चर्चा होगी ॥



==== ॐ ======

Tuesday, October 26, 2010

गीता सुगंध - 13

दो कदम और , ब्रह्म की ओर -------

पिछले अंक में जो बताया गया , उसके श्लोकों के बारे में आप यहाँ देखें ।

ब्रह्म की चर्चा में कुल 26 श्लोकों को हम गीता से चुनें हैं , जिनमें से यहाँ इस अंक में दो सूत्रों को देखते हैं ॥
सूत्र - 2.41 , 2.44
गीता अध्याय दो के सूत्र 41,44 में प्रभु कहते हैं -----
अर्जुन बुद्धि दो प्रकार की होती है ; एक वह है जो भोग की भाषा में रस लेती है और दूसरी वह है ......
जिसमें प्रभु की धारा हर पल बहती रहती है ।
भोग के तत्वों को जो धारण करती है , उसे कहते हैं .......
अब्यवसायीका बुद्धि , और जिसमें प्रभु बसते हैं , उसे कहते हैं ......
ब्यवसायिका बुद्धि ॥
आगे चल कर हम देखेंगे की एक जगह प्रभु कहते हैं -- बुद्धि , मैं हूँ ॥

ब्रह्म की ऊर्जा जो हर जीवों में प्रभु की मर्जी से समान रूप से बह रही है , वह तो एक ही है जिसमें ......
कोई गुण तत्वों की मिलावट नहीं , जिसमें कोई भोग तत्वों की पकड़ नहीं लेकीन जब .....
मनुष्य अपनें इन्द्रियों एवं मन का गुलाम हो जाता है तब .....
इस ब्रह्म ऊर्जा में भोग तत्वों का आना हो जाता है और हम माया के गुलाम बन कर रह जाते हैं ॥
ऐसा समझिये ; दिन की दोपहरी है , सूर्य अपनी किरणों को फैला रहा है और एकाएक ......
गहनें बादल छा जाते हैं , ऎसी स्थिति में ------
[क] कुछ कहेंगे ....
सूरज बादलों में छिप गया है , और ......
[ख] कुछ जिनको सूरज कभी दिखा ही न हो , वह कह सकते हैं - सूरज है , कहाँ ?

बादल में सूरज नहीं है , न ही सूरज में बादल होते हैं , दोनों की अपनी - अपनी स्थितियां हैं ।
मनुष्य के अन्दर जो ब्रह्म ऊर्जा है , वह तो है सूरज के प्रकाश की तरह और .......
वह ऊर्जा जो भोग को धारण करती है , वह है - बादल की तरह ॥

शेष अगले अंक में ------

===== ॐ =======

Monday, October 25, 2010

गीता सुगंध - 12

मैं आप को कहा था -----

ब्रह्म के सम्बन्ध में चर्चा करनें को ,
आइये ----
बुद्धि स्तर पर उसे समझनें की कोशीश करते हैं , गीता को आधार बना कर जिसकी .....
अनुभूति मन - बुद्धि से परे की है [ see gita - 12.3 and 12.4 here ]

ब्रह्म को बुद्धि स्तर पर समझनें के लिए आप को देखना होगा गीता के निम्न सूत्रों को ------
5.6 , 5.7 ,5.19 , 7.5 , 8.3 , 12.3 , 12.4 , 13.13 , 13.31 ,
14.3 , 14.4 , 14.26 , 14.27

गीता में अर्जुन का आठवां प्रश्न का एक भाग है ......
[ Arjuna asked , what is Brahm..... in chapter - 08 ]
ब्रह्म क्या है ?
प्रभु श्री कृष्णा कहते हैं ------
अक्षरं ब्रह्म परमं
अक्षर का अर्थ है - वह जो सनातन हो - परम सनातन अर्थात एक तरह से परात्मा ,
लेकीन ब्रह्म परमात्मा नहीं है , आगे चल कर आप गीता में देखेंगे ।
यदि आप ध्यान से देखें तो अर्जुन का यह प्रश्न होनें से पहले प्रभु गीता श्लोक - 5.6, 5.7, 5.19, 7.5 में
ब्रह्म की चर्चा किसी न किसी रूप में करते हैं पर अर्जुन को तो भागनें का मार्ग खोजना ही है ।

प्रभु ऊपर के श्लोकों के माध्यम से कहते हैं ------
ब्रह्म मेरे अधीन है , यह वह ऊर्जा धारण करता है जिसमें जीव के बीज होते हैं , जीवों का बीज मैं हूँ , मैं
ब्रह्म के माध्यम से जीवों को गर्भ में रखता हूँ । मेरी परा प्रकृति भी जीव को धारण करती है ।
परा प्रकृति को चेतना भी कहते हैं ॥
जो गीता में है उसे अलग - अलग अध्यायों से इक्कठा करके मैं आप को दे रहा हूँ ,
आप गीता प्रेस , गोरखपुर
से मुद्रित कोई गीता ले और एक - एक श्लोक को अपनाएं -----
क्या पता इस मार्ग में कहीं आप को .....
ब्रह्म की अनुभूति हो जाए ॥

चलना तो सीखिये , वह आप का इन्तजार कर रहा है ॥

==== ॐ =====

गीता सुगंध - 11

राग द्वेष एवं स्थिर प्रज्ञता

यहाँ गीता के तीन श्लोकों को एक साथ देखते हैं --------
श्लोक - 2.56 , 2.64 , 2.65
आइये देखते हैं इनमें कौन सा रस है ?
प्रभु , अर्जुन से कह रहे हैं :--
राग द्वेष रहित योगी प्रभु प्रसाद रूप में स्थिर प्रज्ञता हासिल करता है ॥
तीन श्लोक , इनके छः पंक्तियाँ और एक पंक्ति का रस , ऐसा रस जो अब्यक्तातीत सा दिखता है ॥

क्या है राग और क्या है , द्वेष ?
गीता श्लोक - 3.34 में प्रभु कहते हैं :----
सभी बिषयों में राग - द्वेष होते हैं ॥
बिषय अपनें ज्ञान - इन्द्रिय को राग के माध्यम से आकर्षित करते हैं अर्थात .......
राग के प्रभाव में हम बिषय की ओर चलते हैं और जैसे - जैसे बिषय नजदीक आता जाता है ,
मन - बुद्धि में बहनें
वाली ऊर्जा की लहर तेज होती जाती है ।
राग में समयातीत की स्थिति मिल सकती है
अगर राग भोग का
माध्यम न बन कर ,
ज्ञान का माध्यम बन जाए ॥
द्वेष क्या है ?
द्वेष न तो क्रोध है न ही राग है ; द्वेष में भ्रम की स्थिति होती है , कभी मन कहता है - मिलेगा
और कभी कहता है ,
ऐसा संभव नहीं दिखता । द्वेष में बिषय से हम दूर भी नही होना चाहते और
सिकुड़े - सिकुड़े से नजदीक
जानें के भाव में उसके चारों तरफ घूमते रहते हैं ।
द्वेष एक तरह से इंतजार की स्थिति है जहां संदेह न आगे और न ही पीछे जानें देता है ॥
बिषयों में राग - द्वेष भरे होते हैं या यों कहें की -----
बिषयों से राग - द्वेष के रस टपकते रहते हैं जो इन्द्रियों को सम्मोहित करते हैं , ज्यादा उचित होगा ॥
गीता में प्रभु इस बात को अर्जुन से कह रहे हैं और -------
अर्जुन तामस गुण में डूबा हुआ है , यहाँ से यदि निकला भी तो राजस में जा फसेगा अर्थात .......
अर्जुन के लिए राम - बाग़ अभी दूर है ।
गुणों के सम्मोहन में फसे ब्यक्ति के लिए यह कहना की -----
सभी बिषयों में राग - द्वेष होते हैं , उचित है
लेकीन मूलतः बिषयों में कोई रस नहीं होता ॥

===== ॐ =======

Saturday, October 23, 2010

गीता सुगंध - 10

मोह , ज्ञान और ....
ब्रह्म मय

यहाँ देखिये गीता श्लोक -----
श्लोक - 4.34
श्लोक - 4.35, को

श्लोक - 4.34 में प्रभु कहते हैं .......
तूं किसी सत पुरुष के पास जा कर ज्ञान प्राप्त कर , ज्ञान से तेरा मोह दूर होगा और ....
तूं सत को समझ सकेगा ॥

श्लोक - 4.35 में प्रभु कहते हैं .......
ग्यानी को सभी जीव एक के फैलाक रूप में दीखते हैं ॥

अब , जब हम गीता - घाट पर बैठे ही हैं और गीता - गंगा में उतरनें ही वाले हैं तो
एक और गीता श्लोक को देखते हैं -------
श्लोक - 13.31
यहाँ प्रभु कह रहे हैं .......
जो सब को एक के फैलाव रूप में देखता है , वह ब्रह्म मय होता है ॥

ब्रह्म है क्या ?
कुछ लोग ब्रह्म को प्रभु समझते हैं , लेकीन -----
श्री कृष्ण गीता में ब्रह्म की परिभाषा जो देते हैं , उसे हम ....
कल के अंक में देखेंगे ॥

मोह , ज्ञान , ब्रह्म मय होनें आ अपना समीकरण है -----
गुण तत्त्व के प्रभाव वाला ब्यक्ति कभी ब्रह्म की कल्पना तक नहीं कर सकता , वह जो भी करता है , वह
ऊपर - ऊपर से होता है , उसके अन्दर तो अन्धकार ही रहता है , और .....
जो गुण तत्वों की पकड़ से परे है , वह बिना कुछ किये .....
हर पल ब्रह्म मय होता है ,
क्योंकि -----
वह ग्यानी होता है ॥

====== ॐ ======

गीता सुगंध - 09


गीता श्लोक - 4.41

यहाँ प्रभु श्री कृष्ण कह रहे हैं :
कर्म बंधनों से मुक्त जो है , वह ज्ञानी है ॥
कौन कर्म बंधनों से मुक्त हो सकता है और
कर्म बंधन हैं क्या ?
गीता उन कारणों को कर्म बंधन कहता है जो कर्म करनें का भाव पैदा करते हैं ।
मनुष्य क्यों कर्म करता है ?
मनुष्य के कर्म करनें की निम्न में से कोई एक या एक से अधिक कारण हो सकते हैं .........
## अहंकार के कारण ------
## कामना पूर्ति के लिए -----
## क्रोध के सम्मोहन के कारण ----
## लोभ के प्रभाव में -----
## मोह के सम्मोहन में -----
## भय के कारण -----

गीता कहता है .......

एक - एक को तुम कबतक देखते रहोगे ?
मनुष्य को कर्म करनें की ऊर्जा गुणों से मिलती है ।
तीन गुण और उनके अपनें - अपनें बंधन हैं , जो कर्म के लिए प्रेरित करते हैं ।
गीता कर्म बंधन के रूप में तीन गुणों को देखता है और तीन गुण हैं :------
सात्विक
राजस
तामस
राजस और तामस गुण भोग की प्रेणना देते हैं और ......
सात्विक गुण में यदि अहंकार की छाया न पड़े तो यह प्रभु की ओर चलाता है लेकीन यह गुनातीत में
पहुंचनें में अवरोध भी हो सकता है ॥
साधना ऎसी चलानी चाहिए की कोई बंधन साथ - साथ न चल पायें क्योंकि अंततः आखिरी यात्रा
की छलांग बंधन हींन स्थिति में ही भरनी होती है ॥

===== ॐ ======

Friday, October 22, 2010

गीता सुगंध - 08


गीता श्लोक - 5.17

तन , मन , बुद्धि से जो प्रभु को समर्पित है , वह ग्यानी होता है ॥

ज्ञान तक पहुंचनें के लिए क्या करें ?

याद रखना , आप इस समय गीता में हैं जहां हर शब्द का अपना स्थान है ,
जो आया वही बोल दिया , से
गीता की यात्रा नहीं होती ।
अभी ऊपर हमनें कहा - ज्ञान तक पहुंचनें के लिए क्या करें ?

गीता कहता है .......

जबतक करता भाव है , अहंकार है, क्योंकि करता भाव अहंकार की छाया है ॥
जब तक अहंकार है , समर्पण का आना संभव नहीं ।
अहंकार योग के माध्यम से , जब पिघलता है , तब
श्रद्धा की धार फूटती है ।
ज्ञान और वैराग्य का गहरा सम्बन्ध है : गुणों के प्रभावों से मुक्त होना ,
वैराग्य है जहां प्राकृति - पुरुष ,
क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का बोध होता है
और जब यह होता है तब ------
वह योगी द्रष्टा भाव में पहुंचा होता है ॥
द्रष्टा वह है जो ......
गुणों को करता समझता हो -----
प्रभु जिसका केंद्र हो ........
और जिसकी पीठ भोग की ओर हो ॥

===== ॐ ======

Thursday, October 21, 2010

गीता सुगंध - 07


ज्ञान योग समीकरण - 07

गीता के तीन श्लोक :
[क] श्लोक - 4.38
प्रभु कह रहे हैं ......
ध्यान , योग , भक्ति , तप - सब का एक फल है , ज्ञान ॥
[ख] श्लोक - 5.17
यहाँ प्रभु कह रहे हैं ......
श्रद्धावान , तन , मन , बुद्धि से प्रभु - केन्द्रित , ग्यानी होता है ॥
[ग] श्लोक - 13.11 - 13.12
सम भाव योगी परा भक्त होता है ॥
यहाँ ऎसी कौन सी बात है जो स्पष्ट नहीं दिखती ,
क्या जरुरी है प्रभु की बातों में हम अपनी झूठी बातों
को पिरोयें ?
हम भोग में हों या योग में - दोनों का प्रारम्भ मन से है । इन्द्रियाँ मन के फैलाव रूप में हैं । हम जो कुछ
भी समझते हैं उनका आधार मन होता है जो बुद्धि से हर क्षण जूडा होता है । मन - बुद्धि मिल कर एक तंत्र
की रचना करते हैं जो एक तरफ निर्विकार से ऊर्जा लेता है और दूसरी ओर विकारों से परिपूर्ण संसार में
इन्द्रियों के माध्यम से भ्रमण करता रहता है ।

अपरा को ही साकार कहते हैं और निर्विकार , निराकार को परा कहते हैं ।
साकार के माध्यम से जब मन - बुद्धि
स्थिर हो जाते हैं , जब मन - बुद्धि करता नहीं द्रष्टा बन जाते हैं तब यह स्थिति होती है - परा की ॥
इस स्थिति को इन्द्रियों के माध्यम से ब्यक्त करना असंभव होता है ।
ज्ञान वह है जो अब्याक्तातीत हो , जो इन्द्रियों के माध्यम से न पकड़ा जा सके ,
जो मन - बुद्धि से न ब्यक्त
किया जा सके , जिसकी अनुभूति इतनी गहरी हो की जिसको छोड़ा भी न जा सके ।
सत्य को पकडती है - चेतना , जिसका सीधा सम्बन्ध है - जीवात्मा से ।
ध्यान के माध्यम से जब इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि पूर्ण रूप से निर्विकार ऊर्जा से भर जाते हैं तब ये मात्र
द्रष्टा होते हैं और देह के पोर - पोर में चेतना का फैलाव हुआ होता है और ....
वह ब्यक्ति सम्पूर्ण जगत को एक के फैलाव रूप में देखता है ।
लोग कहते हैं -----
किसनें देखा है प्रभु को ?
किसनें देखा है - आत्मा को ?
बात उनकी भी अपनी जगह पूर्ण है लेकीन क्या जो हम देखते हैं वह सब के सब सत होते हैं ?
क्या इन्द्रियाँ मुझे धोखा नहीं देती ?
क्या मन हमें गुमराह नहीं करता ?
हम क्यों अपनी बीबी से , अपने बच्चे से कभी प्यार करते हैं तो कभी नफरत ?
भाई ! कुछ तो है जो मन - बुद्धि से परे है , और ......
गीता उसे कहता है ......
ब्रह्म
जो प्रभु के अधीन है
जो जीवों का बीज है

=== ॐ ========

Tuesday, October 19, 2010

गीता सुगंध - 06


ज्ञान - योग समीकरण - 06

गीता के दो श्लोक - 2.56 , 4.10
यहाँ सूत्र - 2.56 कहता है .......
राग , भय , क्रोध रहित ब्यक्ति स्थिर प्रज्ञ होता है , और ----
सूत्र - 4.10 कहता है .......
प्रभु समर्पित , राग , भय , क्रोध रहित ब्यक्ति - ज्ञानी होता है ॥

राग भय क्रोध से मुक्त कोई कब होता है ------ ?
राग और क्रोध , यहाँ , राजस गुण के तत्त्व हैं और ......
भय तामस गुण का तत्त्व है ॥

गीता सूत्र - 6.27 में प्रभु कहते हैं ........
मेरे मार्ग पर जो चलना प्रारभ करते हैं उनके लिए राजस गुण सबसे मजबूत रुकावट है और ....
गीता सूत्र - 2.52 में प्रभु कहते हैं ......
मोह के साथ बैराग्य में कदम नहीं पड़ता ॥
प्रभु के मार्ग पर जो चलना चाहतेहैं .......
उनको राजस गुणों के तत्वों के प्रति होश बनाना चाहिए -----
उनको तातस गुणों के तत्वों के प्रति होश मय होना पड़ता है , और ----
उनको अहंकार को समझना होता है ॥
और उनको बोध के साथ , ज्ञान , बैराग्य स्वतः मिलते रहते हैं ॥


===== ॐ ======

Monday, October 18, 2010

गीता सुगंध - 05

ज्ञान - योग समीकरण - 05

प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान ।
आत्मन्येवात्मना तुष्ट: स्थिर प्रज्ञ: तदा उच्यते ॥
गीता - 2.55

कामना रहित कर्म करता , स्थिर - प्रज्ञ होता है ॥
यहाँ इस श्लोक के साथ आप दो और सूत्रों को देख सकते हैं :--------
गीता - 2.70

सूत्र कह रहा है ......

समुद्र जैसा शांत अन्तः कर्ण वाला , स्थिर प्रज्ञ होता है ॥

गीता - 4.19

संकल्प रहित , ज्ञानी होता है ॥

गीता के तीन परम सूत्र एक समीकरण दे रहे हैं :------
[ कामना + संकल्प + सम भाव ] के साथ यदि कोई हो तो ........

वह ग्यानी होगा ----
वह पंडित होगा ------
वह स्थिर प्रज्ञ होगा , और ......
ऐसा ब्यक्ति निराकार प्रभु का साकार स्वरुप होता है ॥

====== ॐ =======

Saturday, October 16, 2010

गीता सुगंध - 04


ज्ञान - योग समीकरण - 04

गीता के तीन श्लोकों को हम यहाँ देखनें जा जा रहे हैं , अपनें - अपनें मन -बुद्धि को विचार शून्यता की
स्थिति में ले आयें :---------
[क] गीता श्लोक - 13.34
यहाँ प्रभु कहते हैं ......
जैसे सूर्य से सभी लोक प्रकाशित हैं , वैसे यह देह जीवात्मा से प्रकाशित है ॥
[ख] गीता श्लोक - 15.5
प्रभु इस श्लोक में कहते हैं .......
प्रकाश के तीन श्रोत हैं ; सूर्य , चन्द्रमा और अग्नि । प्रभु कह रहे हैं ......
मेरा धाम इन से प्रकाशित नहीं , वह स्वप्रकाषित है ॥
[ग] गीता श्लोक - 8.16
प्रभु यहाँ कहते हैं ........
ब्रह्म लोक सहित सभी लोक पुनरावर्ती हैं ॥
यहाँ तीन श्लोकों में निम्न बातों के ऊपर आप को एवं हमें मनन करना है :-----------
** प्रकाश का क्या भाव है ?
** प्रभु का धाम कहाँ हो सकता है ?
** स्वप्रकाषित होनें का क्या भाव है ?
** सभी लोक यहाँ तक की ब्रह्म लोक भी पुनरावर्ती है , इसका क्या भाव है ?
तीन श्लोक और चार बातें ; सोचिये इन पर जितना सोच सकते हैं ।
प्रकाश का अर्थ रोशनी नहीं , ऊर्जा का श्रोत है , वह ऊर्जा जो जीव का बीज पैदा करनें के लिए
एक अहम् तत्त्व है ।
प्रभु का धाम कोई स्थान नहीं , प्रभु तो सर्वत्र हैं , सब के अन्दर , बाहर , नजदीक , दूर एवं सम्पूर्ण
ब्रह्माण्ड के कण - कण में हैं लेकीन जहां भी , चाहे जिस तरह हैं - साकार या निराकार रूप में ,
वहाँ ऊर्जा का एक औरा
होता है जो मनुष्य के मन - बुद्धि को चाहे एक पल के लिए ही सही ,
निर्विकार बना कर स्थिर कर देता है ।
सभी लोक पुनरावर्ती हैं , यहा तक की , ब्रह्म लोक भी , यह बात सोचनें लायक है ।
बिज्ञान कह रहा है -----
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में प्रजनन चल रहा है ; तारे तारों को पैदा कर रहे हैं , गलेक्सियाँ , गलेक्सियों को पैदा कर
रही हैं । एक समाप्त हो रहा है तो दूसरा उसकी जगह ले रहा है ,
यह आनें - जानें का क्रम मृयु लोक पर ही
नहीं सर्वत्र चल रहा है । वैज्ञानिक इस मृत्यु लोक को समाप्त करनें के कगार पर ले
आये हैं और अंतरिक्ष में
कोई नयी पृथ्वी की तलाश कर रहें है , जो आज नहीं तो कल मिलनें ही वाली है ,
इस बात को यहाँ प्रभु कह रहे हैं ।
ऊपर के श्लोक - 13.34 में एक वैज्ञानिक बात और है -----------
सूर्य का प्रकाश जहां तक पहुंचनें में कामयाब है उस क्षेत्र में ही सभी लोक हैं ,
यहाँ तक की .......
ब्रह्म लोक भी ॥
भारतीय वैज्ञानिकों को इस बात पर गंभीरता से सोचना चाहिए ॥

====== ॐ ========

Friday, October 15, 2010

गीता सुगंध - 3

ज्ञान - योग समीकरण - 3

इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रं इति अभिधीयते ।
एतत यः वेत्ति: तं प्राहु; क्षेत्रज्ञ: इति तत विद
गीता - 13.2

क्षेत्रज्ञं च अपि मां विद्धि सर्व क्षेत्रेषु भारत ।
क्षेत्र क्षेत्रज्ञयो : ज्ञानं यत तत ज्ञानं मतं मम ॥
गीता - 13.3

प्रभु , अर्जुन से कह रहे हैं ------
अर्जुन मनुष्य की देह जो विकारों से परिपूर्ण है , क्षेत्र कहलाती है और ----
इसको जो समझता है , वह है - क्षेत्रज्ञ ॥
गीता श्लोक 13.2

और गीता श्लोक - 13.3 में प्रभु कहते हैं ----

जो क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का बोध कराये , वह है ज्ञान ॥

देह का बोध क्या है ?

माया से माया में अपरा प्रकृति के आठ तत्त्व , परा प्रकृति जिसको चेतना कहते है , मन के फैलाव रूप में
दस इन्द्रियाँ , पांच बिषय , ध्रितिका , द्वंद्व , चाह , द्वेष आदि एवं आत्मा - परमात्मा के फ्युसन से हमारा
प्राण मय शरीर है
और प्रभु कह रहे हैं ------
इन सब का बोध जिसको हो
वह है - क्षेत्रज्ञ ॥

ज्ञान क्या है ?

प्रभु कह रहे हैं -------

वह ऊर्जा जो क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ के प्रति होश पैदा करे , वह है - ज्ञान ॥

लगभग 5661 वर्ष पूर्व [B.C.E] प्रभु को जो कहना था कह दिए , आज हम - आप जो चाहें ,
वह अर्थ लगाएं ।
गीता वह ऊर्जा देता है
जिसका .....
प्रारम्भ तो दिखता है लेकीन ...
अंत, अनंत में ही होता होगा ॥

==== ॐ ======

Thursday, October 14, 2010

गीता सुगंध


ज्ञान - योग समीकरण - 2

परिचय - 2
ज्ञान - योग आप की साधना - यात्रा का एक आखिरी छोर है जहां तक की यात्रा को
ब्यक्त किया जा सकता है ,
लेकीन इसके आगे की यात्रा में .....
तन , मन एवं बुद्धि में जो ऊर्जा होती है , उसके पास , ब्यक्त करनें के
माध्यम नहीं होते , जैसे शब्द ॥
साधनाओं का माध्यम अनेक हैं लेकीन सबका परिणाम एक है ------
परा भक्ति में डूब कर भोग संसार का द्रष्टा बन कर परमानंद में डूबकी लेते रहना
या
बुद्धि स्तर पर शब्दातीत ज्ञान में उड़ते रहना ......
और कोई रास्ता नहीं दिखता ॥

बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में जब प्रोफ़ेसर आइन्स्टाइन अपना सापेक्ष - सिद्धांत
विज्ञान - जगत के सामनें
रखा तो उनके पास इतनें शब्द न थे की लोगों को संतुष्ट कर सकें लेकीन सत के सामनें
झूठ चाहे कितना
शक्ति शाली हो , रुक नहीं सकता ॥
संन 1910 तक प्रोफ़ेसर आइन्स्टाइन के ज्ञान को ब्यक्त करनें के लिए कोई गणित न था ,
उनके बिपक्ष में
एक सौ वैज्ञानिक खड़े थे , और आइन्स्टाइन मुस्कुराते हुए बश इतना बोले ........
यदि मैं गलत हूँ तो सौ की क्या जरुरत है , एक काफी होगा ॥

गीता का ज्ञान शब्द का भाव है वह अनुभव जो आगे बढनें की ऊर्जा दे ,
जिसमें न मैं हो , न तूं हो , न काम हो ,
न कामना हो और
कोई भोग तत्वों की पकड़ न हो ॥
गीता जो ज्ञान शब्द प्रयोग करता है ,
वह मनुष्य जीवन का वह मार्ग है जिसके .......
पीछे भोग संसार हो और ----
आगे प्रभु का परम आयाम ॥
गीता कहता है :------
मन को पकड़ो , मन के माध्यम से तुम --------
यातो नरक में जा सकते हो , या ------
निर्वाण में :
नरक में जानें के लिए ज्ञान तक पहुंचना संभव नहीं
क्योंकि ......
काम , क्रोध , लोभ , मोह , अहंकार की ऊर्जा तन , मन , बुद्धि में बहती रहती है
और .....
निर्वाण में वह कदम रखता है जो भोग संसार के अनुभव के आधार पर भोग को
अपनें पीठ पीछे छोड़ कर
आगे की यात्रा करता है जहां कोई आसक्ति नहीं , जहां कोई भाव नहीं ,
जहां कोई साथी नहीं और ......
जहां आनंद ही आनंद है , हर कदम और आनंद से भर देता है ॥

===== ॐ ======

Wednesday, October 13, 2010

गीता सुगंध


ज्ञान - योग समीकरण - 1

परिचय
कर्म - योग समीकरण के अंतर्गत आप को गीता के कुछ अनमोल रत्नों को दिया गया ,
क्या पता उनको आप
पत्थर के टुकड़े समझ कर फेक दिया या रत्नों के जौहरी के रूप में उनको
अपनें बुद्धि में रख रखा है ।

गीता में प्रभु अर्जुन से कहते हैं :------
चाहे तूं युद्ध कर .......
चाहे तूं तप कर .....
चाहे तूं ध्यान कर .....
चाहे तूं भक्ति कर ......
जो कुछ भी तूं प्रभु को प्राप्त करनें के लिए करेगा , उनका फल होगा -------
ज्ञान ॥
ज्ञान वह रसायन है जो मन - बुद्धि के रुख को भोग की ओर से योग की ओर मोड़ता है ॥
ज्ञान का यह अर्थ नहीं जो शास्त्रों के पढनें से मिलता है ......
जो गीता , उपनिषद् एवं अन्य किताबों को याद करनें से मिलता है .......
गीता का ज्ञान वह है -------
जो क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ के प्रति होश पैदा करता है ॥
Prof. Einstein कहते हैं :-------
ज्ञान दो प्रकार के हैं :
एक वह जो किताबों से मिलता है और जिसमें जीव नहीं होता ,
यह ज्ञान मुर्दा ज्ञान होता है ।
दूसरा ज्ञान वह है जो कभीं - कभी चेतना से मन - बुद्धिमें टपकता है ॥
क्या पता आप को ज्ञात है या नहीं लेकीन मैं यहाँ बताना चाहूँगा की ..........
बीसवीं शताब्दी का महानतम वैज्ञानिक आइन्स्टाइन को गीता प्रियतम ग्रन्थ था ॥
गीता की ऊर्जा से उनको ब्रह्माण्ड में वह दिखा जिसको ठीक वैसे न
लिख पाए जैसा देखा था ॥
गीता कहता है ज्ञान से सत का बोध तो होता है
लेकीन वह ......
ब्यक्त नहीं किया जा सकता ॥

====ओम =====

गीता अमृत - 51


कर्म - योग सारांश

कर्म - योग कोई ऐसा योग नहीं है जैसा हम - आप समझते हैं : यह एक जीवन जीने की शैली है
जो धीरे - धीरे
प्रभु की ऊर्जा अन्दर है , ऐसा होश जगा देती है ।
गीता कर्म - योग साधना में कर्म करनें वाले को कुछ बातों पर ध्यान केन्द्रित करना होता है
और वे इस प्रकार हैं ----
जो कर्म हम से हो रहा है ,
उसे हम क्यों कर रहे हैं ?
उसके होनें के पीछे कौन सी ऊर्जा काम कर रही है ?
उसके होनें से हमें जो मिलनें वाला है ,
क्या वह .....
हमें आनंद से भर देगा ?
वह आनंद कितनें समय का होगा ?
गीता कहता है :-----
यदि आसक्ति , कामना , क्रोध , लोभ , मोह , भय , आलस्य एवं अहंकार की उर्जाओं से कोई
कर्म करता है तो ----
उस कर्म का जो सुख मिलनें वाला है उसमें दुःख का बीज पल रहा है ।
इन्द्रिय सुख , राजस सुख है जो दुःख के साथ रहता है ।
इन्द्रिय - बिषय के सहयोग से जो होता है , वह भोग है ।
भोग , भगवान् से दूर रखता है ॥
ऐसा कोई कर्म नहीं है जिसमें दोष न हो लेकीन सहज कर्मों को करते रहना चाहिए ॥
गीता का कर्म योग ही ------
# झेंन साधना है ......
# सूफी साधना है ......

===== ॐ ======

Monday, October 11, 2010

गीता अमृत - 50


कर्म योग समीकरण - 31

गीता के तीन श्लोक :-----
[क] श्लोक - 2.14
इन्द्रिय सुख - दुःख क्षणिक हैं ॥
[ख] श्लोक - 5.22
इन्द्रिय भोग जो आदि -अंत वाले होते हैं , वे दुःख के श्रोत हैं ॥
[ग] श्लोक - 18.38
इन्द्रियों एवं बिषयों के योग से जो सुख मिलता है उसमें सुख का बीज होता है ॥
अब सोचनें का वक्त आ गया है :
[क] क्या कोई ऐसा भी कर्म है जिसमें इन्द्रियों का एवं बिषयों का सम्बन्ध न हो ?
[ख] क्या कोई ऐसा भी सुख - दुःख हैं जो आदि - अंत वाले न हों ?
गीता एक बात को कई तरीकों से कहता है ; लोग गीता की इन बातों को पढ़ कर अपनें इन्द्रियों को
बिषयों से हठात दूर रखनें का अभ्यास करनें लगते हैं और इस प्रक्रिया में उनका
अहंकार और शक्ति शाली हो उठता है ।
जिस बिषय को हम समझते हैं , वह राग - द्वेष से परिपूर्ण है और इन्द्रिय नाम से जिसको हम जानते हैं , वह
भोग का माध्यम है , यहाँ गीता उस भाषा में बात कर रहा है जिसको हम जानते हैं ।
जब इन्द्रियों में बहनें वाली ऊर्जा निर्विकार हो जाती है तब -----
बिषयों में कोई राग - द्वेष नहीं दिखता ......
तब मन में कोई भोग भाव नहीं उठता ......
और तब काम में भी राम दिखता है और
राग बैराग्य का माध्यम सा दिखता है ॥
भोगी के लिए गीता के तीन श्लोक ऊपर दिए गए हैं , इनकी समझ ही ज्ञान का श्रोत हो सकता है ॥

==== ॐ =======

Sunday, October 10, 2010

गीता अमृत - 49


कर्म योग समीकरण - 30

गीता के दो सूत्र :-----
सत्वं रज : तंम : इति गुणा: प्रकृति संभवा: ।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनं अब्ययम ॥ गीता - 14.5

रज: तम: च अभिभूय सत्वं भवति भारत ।
रज: सत्वं तमश्चैव तम: सत्वं रजस्तथा ॥ गीता - 14.10

सभी साधनाओं का सार हमें प्रभु गीता के इन दो सूत्रों के माध्यम से दे रहे हैं जिसको समझना ही .......
कर्म योग , भक्ति , ज्ञान योग आदि में प्रवेश दिलाता है ॥

ऊपर पहला सूत्र कह रहा है :------
सात्विक , राजस एवं तामस - तीन गुण निर्गुण आत्मा को सगुण देह के साथ बाँध कर रखते हैं ॥

ऊपर का दूसरा सूत्र कह रहा है :-----
सभी जीव धारियों में तीन गुणों का एक समीकरण हर पल रहता है : जब एक गुण ऊपर उठता है तो अन्य
दो स्वतः नीचे हो लेते हैं ;
इस बात को बीज गणित से समझते हैं ........
A+B+C = K [ say ]
when A increases proportionally value of B+C decreases to
have the same value of K.
ऐसा कभी नहीं हो सकता की दो गुण एक साथ ऊपर उठें लेकीन नीची दो गुण एक साथ जाते हैं ।
अब आप सोचना , इस बात पर :------
गीता का उद्धेश्य है गुणातीत बनाना
अर्थात ......
तीन गुणों को सुसुप्त कर देना
अर्थात मन - बुद्धि को द्रष्टा बना देना ।
जब तीन गुणों की पकड़ न के बराबर हो जायेगी , तब देह में आत्मा को रोकनें का काम कौन करेगा ?
और इस का कोई उत्तर गीता नहीं देता लेकीन -------
परमहंस राम कृष्ण जी कहते हैं ..........
गुणातीत योगी के देह में आत्मा तीन सप्ताह से अधिक नहीं रुक सकता ॥
गुणातीत योगी -------
इस संसार का द्रष्टा है ....
स्वयं का द्रष्टा है .....
आत्मा का द्रष्टा है .....
और वह यह जानता है की .....
जो कुछ भी है वह -----
प्रकृति - पुरुष का खेल है जिसको केवल मनुष्य समझ सकता है ॥

====== ॐ ======

Thursday, October 7, 2010

गीता अमृत - 48

कर्म योग समीकरण - 29

गीता के तीन श्लोक ......
श्लोक - 3.4 , 18.49 , 18.50 , कहते हैं ------

** कर्म त्याग से नैष्कर्म - सिद्धि नही मिलती ......
** नैष्कर्म - सिद्धि जो ज्ञान - योग की परा निष्ठा है ......
** नैष्कर्म - सिद्धि मिलती है ------
** आसक्ति रहित कर्म से ॥

खोजो इसमें भक्ति को , क्या कोई इसमें कुछ और पा सकता है ,
इसके अलावा .....
की बुद्धि में तर्क - वितर्क की आखिरी सीमा जब इन तीन सूत्रों पर सोच - सोच कर ,
आजाये , तब .....
कर्म स्वतः आसक्ति रहित होनें लगेंगे ,
क्यों ?
क्योंकि ......
जब मन - बुद्धि की सीमा समाप्त होती है तब वहाँ से प्रभु की खुशबू आने लगती है ।
मन बुद्धहि की सीमा का अंत होना का यह अर्थ नहीं हैं की मन - बुद्धि का अंत हो जाना ,
मन - बुद्धि - सीमा का
अंत आनें का अर्थ है ......
मन - बुद्धि में बहनें वाली ऊर्जा के रुख का बदलना
अर्थात .....
मन - बुद्धि का गुणों के सम्मोहन से मुक्त हो जाना ॥

आप उठाइये गीता प्रेस गोरखपुर का गीता और ......
ऊपर दिए गये सूत्रों को बार - बार पढ़ कर उन पर मनन करना प्रारंभ कर दें , ऐसा करनें से -------
आप भी वही कहेंगे जो मैं कह रहा हूँ ॥
गीता से अमृत की बूँदें टपकती हैं , लेकीन .......
लेनें वाले भ्रमित हैं ॥

===== ॐ ======

Tuesday, October 5, 2010

गीता अमृत - 47

कर्म योग समीकरण - 28

[क] गीता सूत्र - 6.1
यहाँ प्रभु कह रहे हैं ------
कर्म फल की चाह एक बजबूत बंधन है जो कर्म को योग नहीं बननें देती ........
[ख] गीता सूत्र - 3.27
मैं करता हूँ , ऐसा भाव उनको आता है जो अहंकारी हैं ................
[ग] गीता सूत्र - 18.17
जो अहंकार रहित हैं , वे बुद्धि के गुलाम नहीं ........
तीन अध्यायों से एक - एक सूत्र को चुन कर कर्म - योग का एक समीकरण आप को मेरे तरफ से एक उपहार ।
यह आप के ऊपर है की आप इस उपहार का कैसा प्रयोग करते हैं ।
गीता से जो मुझे मिलता है , उसे मैं आप सब को दे कर धन्य हो लेता हूँ , कुछ लोग गालियाँ देते हैं तो कुछ लोग
मुझे योगी समझते हैं ।
मैं योगी नहीं , भोगी ही हूँ , मेरे दो बच्चे हैं , दोनों अपनें - अपने कार्यों में संलग्न हैं , मैं अब पूर्ण रूप से
सांसारिक कार्यों से मुक्त होनें के लिए , गीता को पकड़ रखा हूँ , मुझे तो ख़ूब मजा मिल रहा है ।

===== ॐ =======

Monday, October 4, 2010

गीता अमृत - 46


कर्म योग समीकरण - 27

यहाँ हम देखनें जा रहे हैं , गीता के तीन सूत्रों को :--------
[क] सूत्र - 2.51
फल - चाह , रहित कर्म , मुक्ति का द्वार है .......
[ख] सूत्र - 5.3
कर्म बंधन मुक्त , कर्मयोगी , संन्यासी है .......
[ग] सूत्र - 4.41
कर्म - फल की चाह एक मजबूत बंधन है .........

प्रभु श्री कृष्ण के तीन श्लोक और दो बातें ; कर्म और कर्म बंधन ।
वह जो कर्म के बंधनों को समझ कर उनके बिना प्रभाव , कर्म करता है , वह कर्म - संन्यासी होता है ।
गीता में लगभग दो सौ से भी कुछ अधिक ऐसे सूत्र हैं जो यह दिखाते हैं की ......
एक सिद्ध - योगी के बचन कैसे होते हैं ?
हमें पता नहीं की श्री कृष्ण क्या थे ------ ?
भक्ति के अवतार थे ,
योग के अवतार थे
या एक सिद्ध सांख्य - योगी के अवतार थे ,
लेकीन गीता यह जरूर दिखादेता है की एक सिद्ध - योगी
कैसे बोलता होगा ?
गीता पढनें और सुननें में जितना आसान है , ब्यवहार में प्रयोग करनें में उतना ही जटिल है ।
कर्म - बंधन मुक्त हो कर श्री कृष्ण अर्जुन को युद्ध में उतरनें के लिए कह रहे हैं ,
ज़रा सोचना - क्या अर्जुन
वहाँ - कुरुक्षेत्र में इसलिए गए हैं की उनको ऎसी लड़ाई लडनी है जिसके पीछे कोई पकड़ न हो ?
कर्म बंधन हैं क्या ?
कामना , क्रोध , लोभ , मोह , भय , आलस्य , अहंकार - ये सब कर्म बंधन हैं , और कर्म योग के
माध्यम से जो ऊपर चढ़ रहे हैं , उनको इन तत्वों के प्रति होश मय होना पड़ता है ।
अब आप सोचिये की ------
गीता क्या है , जो .......
** कर्म बंधनों से मुक्त कराके कर्म करनें को कहता है .......
** भोग से बैराग्य दिला कर ग्यानी बनाना चाहता है .....
** जो भक्ति , कर्म योग , ज्ञान योग आदि से ज्ञान दिलाकर प्रभु में पहुंचाना चाहता है ,
और जो ......
** गुनातीत बना कर गुनातीत में भेजना चाहता है ॥

==== ॐ ======

गीता अमृत - 45

कर्म योग समीकरण - 26

गीता के पांच सूत्र --------

[क] सूत्र - 2.55 , 2.70

कामना रहित , समुद्र जैसा शांत अन्तः करण वाला
स्थिर प्रज्ञ होता है ॥

[ख] सूत्र - 18.2
कामना रहित कर्म , कर्म संन्यास है ॥

[ग] सूत्र - 4.38

सभी योगों का फल , ज्ञान है ॥

ज्ञान का अर्थ यह नहीं की शास्त्रों - वेदों का ज्ञान या
वह जिसको तर्क के
आधार पर बुद्धि , ज्ञान की संज्ञा
देती है , गीता ज्ञान उसको कहता है
जो यह बताये :
क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ क्या हैं --- गीता - 13.3
गीता जिनके मुख से निकली है , वे कहीं कोई संदेह नहीं रखना चाहते ,
आप को एक बार गीता पढनें की कला आजाये तो
गीता ही आप का गुरु है , कुछ ऐसा आप को लगनें लगेगा ॥


==== ॐ ======

Saturday, October 2, 2010

गीता अमृत - 44


कर्म योग समीकरण - 25

गीता के चार श्लोक , देखते हैं , क्या कह रहे हैं ?
[क] सूत्र - 5.10
वह जो आसक्ति रहित हो कर कर्म करता है , भोग कर्मों में भी कमलवत रहता है ॥
[ख] सूत्र - 6.5
शांत मन वाला स्वयं का मित्र होता है ॥
[ग] सूत्र - 6.6
जीता हुआ मन मित्र बन जाता है ॥
[घ] सूत्र - 6.10
एकांत बासी , तन , मन एवं बुद्धि से प्रभु को समर्पित , योगी होता है ॥

चार गीता के श्लोक और उनमें प्रारम्भिक दो बातें - आसक्ति और मित्र समझनें लायक हैं । जब इन दो बातों
की समझ आजाती है तब वह , वह हो जाता है जिसकी बात श्लोक - 6.10 में प्रभु कर रहे हैं ॥
आसक्ति क्या है ?
जब मन - बुद्धि गुणों से सम्मोहित होते हैं तब मनुष्य के द्वारा जो कर्म होते हैं उनमें :----
[क] करता भाव होता है ......
[ख] भोग भाव भरा होता है .....
और इन दो के प्रभाव में :----
[क] मनुष्य का मन अस्थीर होता है
[ख] बुद्धि में संदेह भर जाता है
[ग] और अज्ञान में मनुष्य जो भी करता है , उस से उसे क्षणिक सुख तो मिलता है लेकीन उस सुख में
दुःख का बीज पल रहा होता है । आसक्ति वह ऊर्जा है जो भोग में घसीटती है ।
मित्र कौन है ?
मित्र का अर्थ है - एक का दो रूपों में दिखना अर्थात ऐसे दो आपस में मित्र होते हैं जिनका ----
मन एक हो ......
बुद्धि एक हो .....
सोच एक हो .....
और जब दोनों एक साथ हों तो दोनों शब्द रहित हों ।
शान्त मन वाला स्वयं का मित्र कैसे है ?
शांत मन सत्य की ओर देखता है और सत्य सब का मित्र होता हो ।
दूसरी बात जो गीता कह रहा है , वह है ------
जीता हुआ मन मित्र बन जाता है , कैसे यह संभव है ?
हारानें वाला बाहर बाहर से मित्र जैसा दिखता है लेकीन अन्दर से वह होता है , दुश्मन ही , लेकीन यहाँ
प्रभु कह रहे हैं ----- हारा हुआ मन मित्र बन जाता है , यह बात समझनें लायक है ।
मन का हारना है मन का निर्विकार हो जाना । मन से युद्ध नहीं करना होता , मन को समझ कर उस से
मित्रता स्थापित करनी होती है क्योंकि हमारे पास मात्र मन एक ऐसा तत्त्व है जो प्रभु की तश्वीर को
दिखा सकता है ।
प्रभु कहते भी हैं ------
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि अर्थात .....
इन्द्रियों का केंद्र मन , मैं हूँ । प्रभु का मैं हूँ कहनें का भाव है ......
निर्विकार जो निराकार है , उसे जो देखता है , वह प्रभु को देखता है ॥

==== ॐ =====

Followers