Monday, November 30, 2009

गीता-ज्ञान 10

कर्म-त्याग असंभव है ---------
गीता-श्लोक 3.4- 3.5 कहते हैं ..........
मनुष्य गुणों के प्रभाव में कर्म करता है अतः भौतिक स्तर पर कर्म रहित होना सम्भव नहीं और कर्म न करनें से कर्म की सिद्धि नहीं मिलती जो ज्ञान योग की परा निष्ठा है ।
गीता के इन श्लोकों में कर्म-योग का एक समीकरण है जिसको समझनें से गीता का कर्म स्पष्ट होता है और जो इस प्रकार से है ............
गुणों का प्रभाव कर्म-उर्जा को पैदा करता है तथा उसका संचालन भी करता है ।
कर्म रहित होना सम्भव नहीं , सभी गुणों के प्रभाव में होनें वाले कर्म भोग- कर्म होते हैं और ऐसे कर्म दोष पूर्ण भी होते हैं ।
कर्म गीता में संन्यास का माध्यम है और यह एक सहज माध्यम है । कर्म से बैराग्य तक की यात्रा तब
सम्भव है जब यह समझ आए की --------
[क] गुन क्या हैं ?
[ख] हम जो करनें जा रहे हैं उसका परिणाम क्या होगा ?
[ग] कर्म करनें के भाव से गुणों को समझनें का गहरा अभ्याश होना चाहिए ।
अब कुछ और बातों को भी देखते हैं ---------
मनुष्य के अंदर तीन गुणों का हर पल बदलता एक समीकरण होता है [गीता 14.10] जो मनुष्य को कर्म
करनें की उर्जा देता है । गुन एवं कर्म के संभंध को समझनें के लिए देखिये गीता के निम्न श्लोकों को ........
2.14, 2.45, 3.27, 3.33, 5.22, 18.11, 18.38 और अब आगे -----------
कर्म जब बिना आसक्ति के होते हैं तब उन कर्मों से सिद्धि मिलती है तथा जिस से ज्ञान की प्राप्ति होती है,यहाँ देखिये गीता श्लोक 18.49- 18.50, 3.19- 3.20 को ।
आसक्ति का कर्म में न होना बिषय पर आप खूब सोच सकते हैं और आप की सोच जितनी गहरी होगी ,परिणाम
उतना ही अच्छा होगा ।
कर्म-योग की सिद्धि क्या है ?
कर्म होनें के पीछे जब कर्म-तत्वों जैसे चाह, क्रोध, लोभ, अहंकार, मोह , भय आदि की अनुपस्थिति हो तब उस कर्म से सिद्धि का द्वार खुलता है ।
गीता-सूत्र 8.3 में परम श्री कृष्ण कर्म की परिभाषा इस प्रकार से देते हैं -------
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्म संज्ञितः अर्थात ------
जिसके करनें से भावातीत की स्थिति मिले वह कर्म है ....अब आप उस परिभाषा पर नजर डालें जो
आप की अपनी परिभाषा है ।
====ॐ=======

Sunday, November 29, 2009

गीता ज्ञान - 9

गीता श्लोक 3.3 कहता है ---------
गीता का यह श्लोक कर्म एवं ज्ञान के सम्बन्ध में है क्योंकि अर्जुन का दूसरा प्रश्न इन दोनों को समझनें
के लिए होता है ।
गीता के इस सूत्र के माध्यम से परम श्री कृष्ण कहते हैं ........
दो प्रकार के योगी हैं ; एक का केन्द्र बुद्धि होती है और दूसरे का केन्द्र कर्म होता है ।
जो लोग बुद्धि मार्ग से साधना करते हैं उनको तत्व-ज्ञानी , सांख्य-योगी या ज्ञान - योगी का नाम दिया जाता है ।
प्रोफ़ेसर एल्बर्ट आइन्स्टाइन के सम्बन्ध में कहा जाता है की वे कई घंटे अपनें बाथ-टब में गुजारते थे जहाँ साबुन की झांक में उनको तारे दीखते थे और बाथटब में ब्रह्माण्ड दिखता था । यह महानतम वैज्ञानिक कहता है ----ज्ञान दो प्रकार का होता है ; एक मुर्दा ज्ञान है जो किताबों से मिलता है और दूसरा सजीव ज्ञान होता है जो चेतना से बुद्धि में बूँद-बूद टपकता है ।
बुद्धि का आधार है - तर्क और तर्क संदेह आधारित होता है । संदेह से श्रद्धा तक की ज्ञान मार्ग की यात्रा
बहुत कठिन यात्रा है और इस यात्रा में कामयाब होनें वालों को शादियों बाद देखा जाता है जो दुर्लभ योगी
होते हैं । शाश्रों को पढनें से ज्ञान की प्राप्ति होती है - यह कहना पुर्णतः सत्य नहीं है क्योकि गीता श्लोक
13.2 में परम श्री कृष्ण ज्ञान के सम्बन्ध में कहते हैं -------
क्षेत्र- क्षेत्रज्ञ का बोध , ज्ञान है। अब आप परम के छोटे से सूत्र को समझिये , जिसमें योग का प्रारम्भ ,
मध्य एवं अंत है । क्षेत्र क्या है ? विकारों के साथ अपरा- परा प्रकृतियों का योग , तीन गुनतथा आत्मा- परमात्मा से क्षेत्र की रचना है जिसमें निर्विकार आत्मा- परमात्मा को क्षेत्रज्ञ बताया गया है ।
गीता कहता है -----
परिधि से केन्द्र तक की अनुभूति से ज्ञान मिलता है अर्थात हम भोग से भोग में हैं , संसार भोग का माध्यम है , मनुष्य का जीवन भोग के चारों तरफ़ घूमता रहता है और इस चक्कर में वह आत्मा - परमात्मा से अपनें को दूर करता चला जाता है तथा इस भाग-दौर में एक दिन जीवन लीला का अंत आजाता है ।
भोग से बैराग्य तथा बैराग्य में आत्मा- परमात्मा की झलक पाना , मनुष्य के जीवन का उद्धेश्य है ।
कर्म - योग में कर्म की पकड़ की साधना, भोक कर्म को योग-कर्म में बदल देती है और योग कर्म के माध्यम से बैराग्य में योग - सिद्धि मिलनें पर आत्मा- परमात्मा का बोध होता है ।
====ॐ=======

Friday, November 27, 2009

गीता ज्ञान - 8

यहाँ गीता के निम्न श्लोकों को देखना है ---------
2.45, 2.60-2.64, 3.5-3.7, 3.27, 3.33-3.34, 3.37-3.40, 14.10, 16.21
न्यूटन का विज्ञानं कहता है ........
जब दो बस्तुएं एक दूसरे से दूर होती हैं तब उनके मध्य का खिचाव कम होनें लगता है और -------
कण विज्ञानं में क्वार्क्स के सम्बन्ध में कहा जाता है की जब दो क्वार्क्स को एक दूसरे से दूर करते हैं तब
उनके मध्य का खिचाव बढ़ जाता है ।
गीता के गुन विज्ञानं में जब गोता लगाया जाता है तब जो मिलता है वह इस प्रकार होता है -------
मन के अन्दर उठते न्यूरांस एवं बिषयों के मध्य की दूरी तथा उनके मध्य के खिचाव में सीधा अनुपात होता है
अर्थात जैसे - जैसे दूरी बढती है वैसे- वैसे उनके बीच का खिचाव भी बढता जाता है ।
गीता सूत्र 3.34 कहता है -------
बिषयों में छिपे राग- द्वेष इन्द्रियों को अपनी ओर खीचते हैं और गीता सूत्र 2.62-2.63 कहते हैं .........
बिषय-इन्द्रिय का मिलन मन में मनन पैदा करता है, मनन से आसक्ति आती है , आसक्ति से कामना
का जन्म होता है तथा कामना टूटनें पर क्रोध पैदा होता है ।
अब गीता सूत्र 3.37-3.40 तक पर नजर डालते हैं ............
गीता यहाँ कहता है --------
काम -कामना राजस गुन के तत्त्व हैं । क्रोध काम का रूपांतरण है जिसका सम्मोहन बुद्धि तक रहता है , क्रोध में बुद्धि में स्थित ज्ञान के ऊपर अज्ञान की चादर आजाती है , मन-बुद्धि अस्थिर हो जाते हैं और वह ब्यक्ति इस स्थिति में जो भी करता है वह पाप होता है ।
गीता सूत्र 3.6-3.7 को देखनें से पता चलता है की --------
कुछ लोग हठात इन्द्रियों को नियोजित करते हैं लेकिन ऐसा करनें से अहंकार सघन होता है और अहंकार
साधना में सब से बड़ा रुकावट है । इन्द्रियों से मैत्री बना कर मन स्तर पर नियोजित
करना चाहिए ।
गीता यह नहीं कहता की साधना को बंधन समझना चाहिए , साधना एक यात्रा है जिस पर मिलनें वाला हर
अनुभव अपना अलग रस टपकाता है और उस रस का आनंद उठाना चाहिए ।
======ॐ==========

Thursday, November 26, 2009

गीता-ज्ञान .....7

कामना रहित आत्मा से आत्मा में संतुष्ट , स्थिर - प्रज्ञ होता है ......गीता 2.55
अर्जुन का पहला प्रश्न गीता श्लोक 2.54 के माध्यम से स्थिर - प्रज्ञ से सम्बंधित है और ऊपर जिस बात को
परम श्री कृष्ण कह रहे हैं वह अगला श्लोक है ।
अब आप श्री कृष्ण की बात को देखनें के बाद इस बात पर सोचें की -------
[क] आत्मा से आत्मा में संतुष्ट रहना क्या है ?
[ख] क्या आत्मा ज्ञेय माध्यम है ?
[ग] क्या आत्मा को मन-बुद्धि स्तर पर जाना जा सकता है ?
जब इन प्रश्नों से संतुष्टि मिलेगी तब वह आयाम मिलेगा जिसमें ...........
पीठ तो होगी भोग संसार की ओर और नेत्र होंगे परम प्रकाश में तथा वह ब्यक्ति होगा-------
आत्मा से आत्मा में संतुष्ट ।
गीता कहता है ---योग सिद्धि पर ज्ञान के माध्यम से आत्मा का बोध ह्रदय में होता है और आत्मा अब्यक्त
एवं अचिन्त्य है [गीता श्लोक ...4.38, 13.24, 2.25] फ़िर परम श्री कृष्ण मोह में उलझे अर्जुन को क्यों
और कैसे सबसे पहले आत्मा को ब्यक्त करना चाहा है ?
आत्मा के लिए गीता के निम्न 23 श्लोकों को देखना चाहिए -------
2.18- 2.30, 10.20, 13.17, 13.32- 13.33, 15.7, 15.8, 15.11, 15.15, 14.5, 18.61
गीता ऊपर के श्लोकों के माध्यम से आत्मा की एक तस्बीर बनाता है जिसको बुद्धि स्तर पर समझना
आसान हो सके , आइये ! देखते हैं इस तस्बीर को --------
आत्मा विकार सहित देह में निर्विकार रूप में ह्रदय में है जो कुछ करता नहीं लेकिन इसके बिना कुछ
होना सम्भव भी नहीं । आत्मा देह में एक द्रष्टा है । आत्मा ह्रदय में परमात्मा है जो शरीर के कण-कण में है।
आत्मा आदि- अंत रहित है और स्थिर है । आत्मा किसी भी रासायनिक, भौतिक या जैविक बिधि से
न तो रूपांतरित किया जा सकता है और न ही बिभक्त किया जा सकता है । आत्मा देह समाप्ति पर मन के साथ गमन करता है । मन जब निर्विकार होता है तब आत्मा का फ्यूजन परमात्मा में हो जाता है और यदि मन
विकारों के साथ होता है तब वह आत्मा नया शरीर धारण करता है ।
स्थिर- प्रज्ञ यह नहीं समझता की वह आत्मा केंद्रित है क्योंकि उसके जाननें के माध्यम --मन-बुद्धि गुन रहित होते हैं । स्थिर प्रज्ञ द्रष्टा होता है [गीता श्लोक 14.19, 14.23 ] और वह संसार को भावातीत की स्थिति में देखता है ।
जब तन, मन एवं बुद्धि निर्विकार होते हैं तब वह ब्यक्ति परा साधना में पहुंचा होता है जहाँ से ज्ञान मिलता है [गीता श्लोक 18.50] और ह्रदय का द्वार खुलता है तथा वह साधक परम प्रकाश की किरणों को देख कर
धन्य हो उठता है ।
परम प्रकाश क्या है और उसको कौन देखता है ? एवं उसे कब प्राप्त करता है ? - -यह रहस्य एक ऐसा रहस्य है जिस पर ध्यान का
अस्तित्व टिका हुआ है ।
विकार से निर्विकार .....
बिषय से बैराग्य ..........
गुणों से गुनातीत ........
भावों से भावातीत ----
की यात्रा का नाम
गीता है ।
====ॐ========

Wednesday, November 25, 2009

गीता ज्ञान - 6

मोह के साथ बैराग्य नहीं मिलता -----गीता 2.52
गीता बुद्धि - योग की गणित है अतः सोचिये और चिंता रहित सोच में डूबिये क्योंकि .........
[क] भोग की चिंता का कारण अहंकर होता है , और ----
[ख] परम की चिंता सत की छाया होती है ।
अब आप इस बात पर सोच सकते हैं .......
अर्जुन कुरुक्षेत्र में क्या करनें गए हैं ?-----
१- बैरागी बननें के लिए या ------
२- राज्य की सत्ता प्राप्त करनें के लिए।
यदि कारण नम्बर -२ के लिए अर्जुन वहाँ हैं फ़िर परम श्री कृष्ण उनको युद्ध प्रारम्भ होनें से पूर्व
बैरागी क्यों बनाना चाहते हैं ?
बैराग्य क्या है ?
भोग - कर्मों में भोग-तत्वों की पकड़ से बच जाना ज्ञान प्राप्ति की ओर ले जाता है , ज्ञान से प्रकृति-पुरूष का बोध होता है , फलस्वरूप भोग- तत्वों की पकड़ समाप्त होती है जिसको कर्म-संन्यास कहते हैं ।
भोग- कर्मों में गुणों की छाया का न होना उन कर्मों को कर्म-योग बना देता है जिसके माध्यम से ज्ञान
मिलता है और ज्ञान बैराग्य में पहुँचानें का माध्यम है ।
अर्जुन का गीता में दूसरा प्रश्न [गीता श्लोक -3.1] के माध्यम से कर्म एवं ज्ञान से सम्बंधित है और पांचवा
प्रश्न गीता श्लोक 5.1 के माध्यम से कर्म-योग एवं कर्म-संन्यास से सम्बंधित है कर्म, कर्म-योग, कर्म-संन्यास , ज्ञान और बैराग्य का एक अटूट समीकरण है जिसको समझनें के लिए गीता के कम से कम निम्न श्लोकों को देखना चाहिए --------
2.52, 13.2, 4.38, 4.10, 13.7-13.11, 6.27, 5.1-5.4
कोई भी ब्यक्ति कर्म से बच नहीं सकता , कर्म तो करना ही है लेकिन कर्म करते समय भोग-तत्वों के प्रति होश बनाना कर्म-योग में पहुंचाता है , कर्म-योग की सफलता कर्म-संन्यास है , कर्म-संन्यास में ज्ञान की
प्राप्ति होती है जो भोग की ओर पीठ कर देती है और मुह बैराग्य की ओर हो जाता है और बैरागी
हर पल आत्मा पर केंद्रित रहता हुआ परमात्मा मय रहता है ।
गीता कहता है ------
तुम मेरे साथ रहो , मैं तेरे को कर्म से बैराग में पहुँचानें का काम करूँगा तेरे को बस मेरे मुताबिक बदलते रहना है और यह काम ऐसा है जिसको कोई नहीं चाहता।
जब तक पढनें से होना न हो वह पढ़ना अहंकार पैदा करता रहेगा और अहंकार अग्नि है।
गीता से जो मिलता है वह अवर्नातीत है लेकिन गीता से जो खोता है उसे कोई खोना नहीं चाहता --बस यही
कठिनाई हमें भटका रही है ।
===ॐ======

Tuesday, November 24, 2009

गीता-ज्ञान....5

गीता-श्लोक .....2.14
श्लोक कह रहा है ------बिषय एवं इन्द्रियों के योग से जो सुख-दुःख मिलता है वह सर्दी - गर्मी की तरह
अल्प कालीन होता है ।
श्लोक को समझनें के लिए हमें गीता के निम्न श्लोकों को देखना चाहिए ---------
5.22, 18.38, 3.34, अब इन श्लोकों को समझते हैं -------
श्लोक 5.22
इंदियों एवं बिषयों के मेल से जो प्राप्त होता है उसका नाम भोग है , भोग सुख में दुःख का बीज होता है और ऐसा
सुख क्षणिक होता है ।
श्लोक 18.38
इंडिय - बिषय के मिलनें वाला सुख राजस-सुख होता है । ऐसा सुख भोग के समय अमृत सा भासता है
लेकिन इस सुख में दुःख का बीज होता है।
श्लोक 3.34
बिषयों के अन्दर राग-द्वेष होते हैं जो इन्द्रियों को आकर्षित करते रहते हैं।
गीता के ऊपर बताये गए चार श्लोक कर्म-योग की नीव हैं , जो इन श्लोकों को नहीं पकड़ा , वह कर्म-योग को नहीं अपना सकता ।
गीता गुणों का विज्ञानं है , यह कहता है ---राजस-तामस गुन धारी भोगी होते हैं और गुणों से अप्रभावित
ब्यक्ति योगी होता है [ 7.3, 7.19, 14.19, 14.20, 14.23 और 9.12, 9.13, 16.8 को देखिये ]।
गीता-साधक को गुणों का रस प्रभावित नहीं करता , यह साधक गुणों के रस को भ्रम समझता है और भोगी के लिए ये परम लगते हैं ।
हमारी इन्द्रियाँ, संसार- जो भोग तत्वों से परिपूर्ण है , उसमें स्थित भोग तत्वों से आकर्षित होती हैं ।
आकर्षित इन्द्रियां मन-बुद्धि को भी प्रभवित करती हैं और इस प्रकार बिषय से बुद्धि तक भोग - तत्वों के
प्रभाव का एक माध्यम सा बन जाता है जिसको गुन धारी नहीं समझ सकता ।
संसार के भोग तत्वों की समझ, भोगी से योगी बना देता है और यह काम कर्म-योग का पहला चरण है ।
बिषय से वैराग तक की साधना बिषय, इन्द्रियाँ एवं मन तक तो मनुष्य के हाथ में है जो अभ्यास से
सम्भव है और आगे की यात्रा स्वतः होती है ।
बिषय से मन तक की गहरी साधना बैरागी बनाती है जो परमात्मा के द्वार को खोलती है ।
====ॐ=========

Friday, November 20, 2009

गीता ज्ञान - 4

नायं हन्ति -------
गीता श्लोक 2.19--2.20 को एक साथ मिलानें पर जो रस मिलता है वह इस प्रकार से होगा ......
नायं हन्ति न हन्यते ------
न हन्यते हन्यमाने शरीरे ----
इन श्लोकांशो का हिन्दी रूपांतरण को देखिये --------
न मारता है , न मरता है ...
शरीर समाप्ति पर भी जो रहता है .....
वह है.....
आत्मा ।
बीश्वीं शताब्दी के कुछ नोबल पुरष्कार बिजेताओं जैसे ----
Roger Welcot Sperry[1981], Wilder Penfield[1891- 1976], John Eccles[1963],
schrodinger[1933] तथा Max Plank[1918] मन एवं चेतना तक की यात्रा करनें की बातें तो की है लेकिन
वैज्ञानिक समुदाय से जुड़े रहनें के भय के कारण आत्मा शब्द को अपनें से कुछ दूर रखा , यह उनलोगों की
अपनी- अपनी लाचारी रही होगी ।
अब परम श्री कृष्ण को देखिये ---परम श्री कृष्ण गीता श्लोक 2.25 में कहते हैं .........
आत्मा अचिन्त्य - अब्यक्त है और गीता श्लोक 4.38 में कहते हैं .............
योग सिद्धि पर ज्ञान के माध्यम से आत्मा का बोध होता है और --------
मोह में डूबे अर्जुन को मोह मुक्त करानें के लिए गीता में सबसे पहले आत्मा पर बोला है ....ऐसा उन्होंनें क्यों किया?
इस बात पर आप को सोचना है , मेरा काम है आप में वह लहर उठाना जो आप को गीता से बाँध कर रखे।
गीता में यदि आप आत्मा के राज को देखना चाहते है तो छः अध्यायों के निम्न 23 श्लोकों को अपनाइए .......
2.18--2.30, 10.20, 13.17, 13.32, 13.33, 14.5, 15.7-15.8, 15.11, 15.15, 18.61
गीता के इन श्लोकों से जो मिलता है वह कुछ इस प्रकार होगा -------
देह में आत्मा का केन्द्र ह्रदय है लेकिन यह देह के हर कण में है । आत्मा भौतिक, रासायनिक एवं अन्य
प्रक्रियाओं से परिवर्तीत नहीं किया जा सकता , यह रूपांतरित नहीं किया जा सकता यह निर्विकार है , यह देह में
कुछ करता नहीं है लेकिन बिना इसके देह में कुछ होना सम्भव भी नहीं है । आत्मा देह में परमात्मा है जो
द्रष्टा है । यह अब्यक्त , निर्गुण , स्थिर है जो शरीर समाप्ति पर मन के प्रभाव में नया देह तलाशता है जिससे मन
तृप्त हो कर निर्विकार हो कर अपनें मूल - परमात्मा में मिल सके । देह में आत्मा को तीन गुन रोक कर रखते हैं
अर्थात प्रकृति-पुरूष को जोड़ कर रखनें का काम गुन करते हैं । विज्ञानं में- कण-विज्ञान [Particle Physics]
में भार रहित अस्थिर कण तो अनेक हैं लेकिन भार रहित स्थिर कण कोई नहीं , जिस दिन भार रहित स्थिर कण
या माध्यम विज्ञानं को मिल जाएगा उस दिन से विज्ञानं आत्मा - परमात्मा की खुशबूं पानें लगेगा ।
विज्ञानं के माध्यम से आत्मा के नजदीक पहुंचनें का माध्यम है quantum mechanics,आप इस बिषय को
अपना कर कुछ-कुछ आत्मा - रहस्य के नजदीक अपनें को पा सकते हैं ।
=====ॐ========

गीता-ज्ञान ...3

गीता-श्लोक 6.27
राजस गुण के साथ प्रभु से जुड़ना असंभव है ---यह है इस सूत्र का भाव।
सूत्र को पढ़ना आसान है , कहना आसान है लेकिन गागर में सागर भरा हुआ यह सूत्र समझना अति कठिन है ।
पहले राजस गुण को जानना पडेगा और फ़िर इसके तत्वों को समझना पडेगा तब जा कर कुछ-कुछ आभाष
होगा की सूत्र क्या बताना चाहता है , तो चलिए इस सन्दर्भ में कुछ और इन सूत्रों को देखते हैं .........
14.7, 14.10, 14.12, 3.37--3.43, 5.23, 5.26, 16.21, 7.11, 10.28
यहाँ छः अध्यायों के पन्द्रह सूत्रों का सारांश कुछ इस प्रकार है ..........
काम, कामना , क्रोध, लोभ, एवं अज्ञान- राजस गुण के तत्त्व हैं । क्रोध काम का रूपांतरण है।
काम,क्रोध एवं लोभ नरक के द्वार हैं । राजस गुणों के तत्वों से अप्रभावित ब्यक्ति परम-ऊर्जा से भरा होता है ।
परम श्री कृष्ण कहते हैं ---शाश्त्रानुकुल काम एवं काम - ऊर्जा को पैदा करनें वाला कामदेव , मैं हूँ ।
गीता सूत्र 7.20 कहता है ...कामना अज्ञान- की जननी है ।
अब ऊपर बताई गई बातों पर हमें सोचना है --सोचिये आप क्या इस से पूर्ण गणित कोई और हो सकती है?
गीता हम सब के साथ हजारों सालों से है , हम लोग इसकी पूजा भी कर रहे हैं लेकिन इस के ज्ञान को यातो
हम पकड़ना नहीं चाहते या डरते हैं की यह कही हमसे भोग को छीन न ले --कुछ तो बात है ही ।
भोग से भगवान् , राग से वैराग्य तथा विचारों से निर्विचार की यात्रा का नाम गीता है ।
अभी भी वक्त है आप चाहें तो आज से गीता को अपना सकते हैं ।
====om=====

Tuesday, November 17, 2009

गीता ज्ञान --2

आप गीता में आमंत्रित हैं , आइये देखते हैं गीता के नौ सूत्रों को जो कर्म,आसक्ति ,कर्म-फल एवं संन्यास
का एक समीकरण देते हैं ।
2.47, 2.48, 18.6, 18.9, 18.11, 6.1, 3.19, 18.49, 18.50,
ऊपर के सूत्रों का सारांश
आसक्ति रहित कर्म एवं कर्म फल-चाह रहित कर्म संन्यास में पहुंचाता है । कर्म होनें के पीछे जब आसक्ति तथा
कामना नहीं होती तो इसको आसक्ति-कामना का त्याग कहते हैं । ऐसे कर्म से नैष्कर्म - सिद्धि मिलती है
जो ज्ञान - योग की परा निष्ठा है । परा निष्ठा वाला ब्रह्म की खुशबू को पाता है । अब आगे देखिये गीता -सूत्र
3.34, 2.67-2.68, 2.62-2.63, 3.37 जिनसे योग का द्वार खुलता है ।
ज्ञानेन्द्रियाँ अपने-अपने बिषयों से आकर्षित होती हैं क्योंकि उनमें राग-द्वेष होते हैं जो इन्द्रियों को आकर्षित करते हैं ,इन्द्रियों का सम्मोहन मन-बुद्धि को भी सम्मोहित करता है । सम्मोहित मन बिषय पर जब मनन करता है तब कामना उठती है , कामना खंडित होनें पर क्रोध पैदा होता है जो अज्ञान- का साकार रूप है । आसक्ति कामना की जननी है , कामना क्रोध की जननी है , क्रोध अज्ञान- है जो बुद्धि में ज्ञान को छिपा कर रखता है ।
अब आप उठाइये गीता और ऊपर के सूत्रों को एक-एक करके बैठाइए अपनें अन्दर और तब आप को जो मिलेगा वह
होगा आप के जीवन का विकार रहित पथ।

Sunday, November 15, 2009

गीता-ज्ञान .....1

गीता - श्लोक ...3.25 , 3.26 एवं 3.29 को हम यहाँ देखनें जा रहें हैं ।
गीता- श्लोक 3.25
श्लोक कहता है-----ज्ञानी,अज्ञानी , भोगी तथा योगी दोनों को ऐसे कर्म करना चाहिए की बाहर से देखनें
वाला यह न समझ सके की इन दोनों में कौन ज्ञानी हैं ? और कौन अज्ञानी है ?
गीता-श्लोक 3.26
भोगी के शास्त्र बिहित कर्मों में ज्ञानी लोगों को अरुचि पैदा नहीं करना चाहिए अपितु उन्हें अपनें कर्मों से
भोगी को आकर्षित करते रहना चाहिए ।
गीता-श्लोक 3.29
गुणों से मोहित अज्ञानी को उसके कर्म बाँध कर रखते हैं अतः ऐसे भोगी लोग अपनें कर्मों में आसक्त रहते हैं
लेकिन गुणों को समझनें वाले लोगों को भ्रमित नहीं करना चाहिए अपितु उन्हें अपनें कर्मों से आकर्षित करनें का प्रयाश करते रहना चाहिए ।
गीता के इन तीन श्लोकों को कुछ इस प्रकार से समझते हैं ---------
भोगी-योगी की कर्म-यात्रा एक है जिसका प्रारंभिक चरण भोग है और आखिरी चरण बैराग्य है । भोगी की भोग से बैराग्य की यात्रा अनजानें की यात्रा है और योगी इस यात्रा को होश पुर्बक तय करके बैराग्य में ज्ञान माध्यम से आत्मा-परमात्मा की किरण का इंतजार करता रहता है । अब आप सोचिये , इस स्थिति में क्या सोचना की
कौन ऊपर है और कौन नीचे है ?
भोगी गुणों का गुलाम है , वह यह नहीं जानता की वह क्या कर रहा है ? वह इस भय से पीड़ित है की जो वह
अपनें मुट्ठी में बंद कर रखा है वह कहीं सरक न जाए और इस भय के कारण वह अपनी मुट्ठी खोलना नहीं
चाहता तथा यह भी चाहता है उसकी बंद मुट्ठी में वह सब आजाये जो उसमें नहीं है --जो एक अशंभव है ।
भोगी योगी को नहीं पहचानता और योगी की बातें उसके सर के ऊपर से निकल जाती हैं । भोगी की आँखें
औरों पर टिकी होती हैं वह पलकों को झपकनें भी नहीं देता और योगी की दृष्टि उसके केन्द्र पर होती है ।
दृष्टि जब दृश्य पर टिकी हो और मन भावों में बह रहाहों तब वह ब्यक्ति भोगी होता है । दृष्टि जब दृश्य पर हो और मन भाबातीत की स्थिति में हो तो वह ब्यक्ति योगी होता है ।
गीता के ऊपर दिए गए तीन श्लोक कहते हैं ---------
भूल जावों की कौन योगी है और कौन भोगी है कोई फर्क नहीं है भोगी को भोग के गुरुत्वा कर्षण को समझना
चाहिए और योगी को चाहिए भोगी को प्यार से धीरे-धीरे बैराग्य की झलक दिखाता रहे , उसे भोग - तत्वों के
प्रति होश पैदा करता रहे , दोनों एक ही राह पर है एक हिमालय को छू रहा है और दूसरा वहा पहुंचनें का
अनजानें में प्रयाश कर रहा है ।
=====ॐ======

Wednesday, November 11, 2009

बुद्धि केंद्रित ब्यक्ति एवं गीता --3

त्रेता-युग में राम- रावण युद्ध एवं द्वापर में महाभारत- युद्ध की कहानियां हम भारतीय लोग हजारों वर्षों से सुन रहे हैं जिनमें एक नहीं अनेक वैज्ञानिक बातें हैं लेकिन इन बातों का विज्ञान पश्चिम से निकलता है ।
यहाँ गीता का जो श्लोक लिया जा रहा है उसका सम्बन्ध दर्पण से है लेकिन भारत में दर्पण का इतिहास इतना पुराना नहीं दीखता ।
गीता-श्लोक 3.38 जैसे धुंए से अग्नि , मैल से दर्पण , जेर से गर्भ ढका रहता है वैसे ज्ञान,अज्ञान- से ढका रहता है ।
गीता के इस सूत्र में दो बातें हैं ; एक का सम्बन्ध दर्पण के इतिहास से है और दूसरे का सम्बन्ध अज्ञान से है ।
वैज्ञानिक शोध कहते हैं ----6000 BCE तुर्की में ऐसे सबूत मिले हैं जिनसे यह पता चलता है की उस समय वहाँ के लोग एक विशेष प्रकार के पत्थर को चमका कर दर्पण के स्थान पर उसका प्रयोग करते थे । 4000BCE इराक में बैबिलोंन - सुमेरु सभ्यता के लोग ताबे को चमका कर दर्पण का काम लेते थे ।
लेबनान में पहली शताब्दी में ऐसा पाया गया है की वहाँ के लोग आज के दर्पण से मिलते जुलते दर्पण का प्रयोग करते थे लेकिन--------
दर्पण का इतिहास भारत में इतना पुराना नहीं है जितना पुराना गीता है ....इस बात पर शोध की जरुरत है ।
गीता 5561BCE से 800 BCE के मध्य का हो सकता है और यदि जो गीता आज उपलब्ध है , वह इतना
पुराना है तो दर्पण के प्रमाण भी यहाँ मिलनें चाहिए ।
गीता कहता है ---काम, कामना , क्रोध , लोभ एवं मोह अज्ञान- की जननी हैं और ये तत्त्व राजस- तामस गुणों के तत्त्व हैं ।
क्रोध काम का रूपांतरण है [ गीता 3.37 ] जो राजस गुन का मूख्य तत्त्व है । काम के लिए हमें गीता के निम्न श्लोकों को देखना चाहिए ---------
3।36--3.42 , 5.23 , 5.26 , 7.11 , 16.21
गीता इन श्लोकों में बताता है ........काम,क्रोध, लोभ राजस गुन के तत्त्व हैं , काम का रूपांतरण क्रोध है और काम का सम्मोहन बुद्धि तक होता है तथा मनुष्य काम से सम्मोहित हो कर पाप करता है । राजस गुन से अप्रभावित ब्यक्ति योगी है जो हमेशा खुश रहता है । ऐसा योगी जो आत्मा केंद्रित होता है उस पर काम का सम्मोहन नहीं होता । निर्विकार काम परमात्मा है ।
राजस- तामस गुणों के प्रभाव में अज्ञान ज्ञान के ऊपर चादर फैला कर रखता है ।
काम प्रकृति द्वारा निर्विकार ऊर्जा के रूप में एक प्रसाद मिला हुआ है जो एक तरफ़ वासना के माध्यम से नरक मेंs ले जाता है तो दूसरी तरफ़ प्यार के माध्यम से परम धाम में भी पहुंचा
सकता है ।
=====ॐ======

मेरी गहराई क्या है ?

हमारे एक मित्र जानना चाहते हैं -----आप की आतंरिक यात्रा कहाँ तक पहुँची है ?
प्रिय मित्र !
ह्रदय में अब्यक्त भाव की लहरे उठती हैं और जब इन लहरों का संपर्क मन- बुद्धि से होता है तब यह
भावातीत अब्यक्त भाव निर्विकार न रह कर सविकार हो जाता है । जब तक निर्विकार भावों की लहरें
ह्रदय में रहती हैं इनका संचालन आत्मा- परमात्मा से होता रहता है क्योंकि आत्मा- परमात्मा का इस देह में केन्द्र ह्रदय है लेकिन जब ये लहरें मस्तिष्क में पहुंचती हैं तब इनका संचालन गुणोंके पास आजाता है ।
ह्रदय प्रीति आधारित है और मस्तिष्क तर्क आधारित । तर्क की ऊर्जा संदेह से निकलती है --जितना गहरा
संदेह होगा , उतना गहरा तर्क होगा और फलस्वरूप उतना ही गहरा चिंतन होगा। क्या आप समझते हैं की
संदेह से भरीबुद्धि सत्य को पकड़ सकती है ? यह असंभव है क्योंकि भ्रमित बुद्धि में मात्र प्रश्न होते हैं , प्रश्नों
का हल नहीं होता ।
आज के विज्ञान का आधार संदेह है , वह वैज्ञानिक उतना ही बड़ा वैज्ञानिक होगा जितना बड़ा उसका संदेह होगा ।
क्वांटम मेकैनिक के नोबल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिक मैक्स प्लैंक कहते हैं ---विज्ञान प्रकृति को कभी नहीं
पकड़ सकता । प्रकृति सत्य है और सत्य को जाननें के लिए संदेह नहीं श्रद्घा चाहिए जो विज्ञान के पास
नहीं है ।
मेरे प्यारे मित्र ! माप - तौल में रस तो है ----ऐसा लगता है लेकिन इस रस में अमृत की बूंदे नहीं होती , इसमें बिष का बीज होता है । एक बात सोचना -----जब रहना ही है तो अनंत में क्यों न रहा जाए क्यों सिकुड़ कर स्व निर्मित पिजडे में रहें जो एक भ्रम की उपज है ।
मैं कभी अपनी गहराई जाननें की कोशीश तो किया नहीं और जब तक चाहता रहा एक मिनट के लिए भी
चैन न था । अब तो मस्त हूँ और सब की मस्ती के लिए सब को कहता हूँ ---अब और कितना और भाग
लेगा आजा करले कुछ विश्राम , गीता में ।
====ॐ======

Monday, November 9, 2009

आप क्या जानना चाहते हैं ?

गीता-मोती में रुची रखनें वाले हमारे एक मित्र जानना चाहते हैं -------
क्या आप मीरा , नानक एवं कबीर को पहचान लेंगे यदि वे आप को मिल जाएँ तो ?
आप की आतंरिक यात्रा कहाँ तक पहुँची है ?
मेरे प्यारे मित्र !
यहाँ कौन किसको पहचानता है ? और कितना पहचानता है ? यदि पहचान सही हो तो प्रश्न क्यों उठें और
यदि पहचान सही हो तो विबाद क्यों खडा हो ? यहाँ सभी दूसरे को पहचाननें में जुटे हैं कोई अपनें को नहीं
पहचानना चाहता। जब तक हम स्वयं को नहीं पहचानते तब तक दूसरे को पहचानना सम्भव नहीं ।
जब तक हमारे में पहचाननें की ऊर्जा बहती रहेगी तब तक हम उसे नहीं पहचान सकते , पहले संदेह जिस
ऊर्जा से पैदा हो रहा है उसे रूपांतरित करनें के बारे में सोचना चाहिए ।
यदि मीरा , नानक, कबीर मुझे मिलें तो मैं उन्हें नहीं पहचान पाउँगा ? यह ध्रुव सत्य है , जब तक मेरे
ह्रदय में बहनें वाली ऊर्जा की आबृति उन लोगों के हृदयों की ऊर्जा की आबृति के बराबर नहीं होती तब तक मैं
उन लोगों को कैसे पहचान सकता हूँ , मीरा को पहचान नें के लिए मीरा जैसा ह्रदय चाहिए , नानक को पहचाननें के लिए नानक जैसा ह्रदय चाहिए और कबीर को समझनें के लिए कबीर जैसा ह्रदय चाहिए ।
नानक पंजाब से पूरी की यात्रा में कुछ दिन कबीर के साथ काशी में गुजारे थे लेकिन उस दौरान उनमें कोई
वार्ता न हो पाई । नानक के जानें के बाद कबीरजी का एक शिष्य पूछा, गुरुजी! हम लोग प्रसन्न थे आप दोनों के मध्य जो वार्ता होती उसको सुननें के लिए लेकिन ऐसा मिला हुआ अवसर हाँथ से निकल गया , इस बात पर हम लोगों को दुःख जरुर है । कबीरजी उस शिष्य की ओर देखा और भरी आंखों एवं भरी आवाज में बोले ,
बेटा! वार्ता तो हुई थी ....जो उनको बोलना था , वे उनको बोले , मैं सूना और जो मुझे कहना था वह मैं कहा और वे सुने
यदि तुम सब न सुन पाये तो मैं क्या कर सकता था ?
यहाँ कौन किस को पहचानता है , क्या पत्नी पति को पहचानती है ? क्या पति अपनें पत्नी को पहचानता है ?
क्या बेटा अपनें माँ- पिता को पहचानता है ?
श्री राम चौदह साल जंगल में रहे उनका साथ कितनें लोग थे , उनका साथ देनें वाले कितनें लोग थे? श्री राम
को पहचाना जंगल के पशु- पक्षियों नें , उनका साथ निभाया उन्होंनें हम लोग तो तब भी दर्शक थे और आज
भी दर्शक बनें हुए हैं , युग बदल गया लेकिन हम लोग आज भी वहीं बैठे हैं ।
मेरे प्यारे मित्र ! मैं कोई गुनातीत गीता योगी नहीं हूँ मैं एक टेक्नोक्रेट था और पिछले पच्चास वर्षों तक संसार के सम्मोहन में गुजारा है और अब गीता के माध्यम से आप जैसे प्रेमियों के संपर्क में हूँ ।
आप मेरी भाषा पर ध्यान न दे , आप अपनें साथ गीता को रखें और अपनें को गीता में खोजें ऐसा करते रहनें
से आप एक दिन गीता के परम श्री कृष्ण को भी पहचान लेंगे और धन्य हो उठेगें ।
मैं अपनें लेखों में गीता के श्लोकों को नहीं देता मात्र उनका सन्दर्भ अंक देता हूँ जिस से आप स्वयं उन श्लोकों
को गीता में पकडनें का प्रयत्न करें । मैं तो मात्र एक माध्यम हूँ जो आप और गीता को जोडनें का काम
कर रहा है । आप मेरी आतंरिक यात्रा की लम्बाई - चौडाई जानना चाहा है जिसको मैं अगले अंक में दूंगा।
परम श्री कृष्ण आप को अपनें से जोड़े रखें ।
====ॐ=========

बुद्धि केंद्रित ब्यक्ति एवं गीता - 2

यहाँ आप को सोचनें के लिए पाँच बातें दी जा रही हैं , आप इन बातों पर सोचिये और गीता- बुद्धि योग में
प्रवेश कीजिए ।
[ क - १ ] काम, क्रोध , लोभ , मोह , भय एवं अंहकार रहित ब्यक्ति कैसा होता होगा?
[ क-२ ] सुख- दुःख , लाभ- हानि में सम भाव वाला कैसा होता होगा ?
[क-३ ] ऐसा ब्यक्ति जिसके अन्दर मैं- तूं का भाव न हो , वह कैसा होता होगा ?
[क-४ ] जिसको मित्र- शत्रु शब्द प्रभावित न करते हों वह कैसा ब्यक्ति होता होगा ?
ऊपर की चार बातों के लिए आप देखिये गीता के इन श्लोकों को -----------
2.47 - 2.51 , 3.19 - 3.20 , 4.38 , 5.10 - 5.11 , 18.49 - 18.50 , 18.55 - 18.56
गीता का राजस- तामस गुणों से अप्रभावित सम-भाव योगी ठीक वैसा होता है जैसी बातें ऊपर एवं इन
श्लोकों में बताई गई हैं ।
[ख ] गीता कहता है [गीता- 7।7 ] --- संसार की स्थिति एक माले जैसी है जिसका सूत्र परमात्मा है ।
विज्ञान कोस्मिक होर्मनी की बात बताता है अर्थात पूरा ब्रह्माण्ड एक झील सा है जिसमें यदि किसी भी
जगह एक कंकड़ डाला जाए तो जो लहर फैलती हैं उस से झील का कण-कण प्रभावित होता है फ़िर ऎसी
स्थिति में संसार से अप्रभावित कैसे रहा जा सकता है ?
[ग ] हम जो कुछ भी करते हैं और जो कुछ भी समझते हैं उनका माध्यम मन- बुद्धि हैं पर गीता कहता है
[ गीता - 12.3-12.4 ] ब्रह्म की अनुभूति मन-बुद्धि से परे की है फ़िर ऐसे में हम ब्रह्म पर केंद्रित कैसे
हो सकते हैं ?
[घ ] जो आसक्ति रहित कर्म करता है उसकी इस भोग संसार में कमलवत स्थिति होती है [गीता-5.10 ] क्या
तालाब में रहनें वाला पानी से बच सकता है ?
[ च ] बुद्ध निर्वाण प्राप्ति के बाद जब अपनें घर पहली बार आए तो उनकी पत्नी - यशोधरा कहती हैं ----
घर छोडनें से जो आप को मिला क्या वह यहाँ रह कर प्राप्त नहीं किया जा सकता था ? गुरुवार रविन्द्र नाथ
की कहानी में बुद्ध चुप रहते हैं --अब आह सोचिये की क्या घर में निर्वाण - प्राप्ति सम्भव है ?
पाँच बातें यदि आप में अपनी जगह बना पाती हैं तो मैं अपनें को धन्य भागी समझूंगा ।
गीता को पढिये , मनन कीजिये और उसके सूत्रों की लय में परम श्री कृष्ण की लय को पकडिये ।
=====ॐ========

Sunday, November 8, 2009

बुद्धि केंद्रित ब्यक्ति एवं गीता --1

गीता साँख्य-योग का मार्ग है इसको भक्ति शब्द से जोड़ना इसके साथ बेइन्शाफी है । ---क्योंकि .........
# भक्त वह है जिसका मन शांत हो और बुद्धि निर्मल एवं स्थिर हो ।
# भक्त वह है जिसकी बुद्धि में संदेह के लिए कोई स्थान न हो और जो प्रश्न रहित हो ।
गीता अर्जुन के प्रश्नों एवं श्री कृष्ण के उत्तरों का सग्रह है अतः इसको भक्ति से साथ जोड़ना उचित नहीं दीखता।
कर्मयोग , ज्ञानयोग तथा ध्यान के फल के रूप में श्रद्घा मिलती है और भक्ति श्रद्घा से प्रारम्भ होती है । गीता जो
बिषय , इन्द्रियाँ , मन , बुद्धि एवं भोग तत्वों की साधना का पूरा रहस्य देता है उसको भक्ति के साथ जोडनें का
प्रयाश सच्चाई को छिपाने जैसा है । योग, ध्यान आदि के अपनें - अपनें मार्ग एवं शास्त्र हैं जबकि भक्ति एक
चक्रवात है जिसका कोई मार्ग नहीं और कोई शास्त्र नहीं । भक्ति में भक्त अपनें के लिए नहीं होता उसके अन्दर
हर वक्त परम की लहर बहती रहती है लेकिन योगी इस स्थिति में तब आता है जब योग - सिद्धि प्राप्त
होती है ।
गीता बिषय,इन्द्रियाँ,मन-बुद्धि , अंहकार , गुणों की जटिलता एवं भोग- तत्वों की पूरी गणित देता है और
कहता है अब तूं यह समझ की करता तूं नहीं है गुन है , तेरे में करता- भाव तेरे अंहकार के कारण है जबकि
द्रष्टा-भाव जगनें पर भक्ति प्रारंभ होती है ।
गीता मूलतः मोह की दवा है और भक्ति में मोह दूर - दूर तक दिखती भी नहीं। गीता भावों से भावातीत की
यात्रा है और भक्ति भावातीत का साकार रूप है। जो लोग पौराणिक कथाओं में गीता श्लोकों को मिला कर
मिश्रण तैयार कर नें में लगे हैं वे स्वयं तो डूबे ही हैं औरों को भी डूबा रहे हैं ।
गीता बुद्धि-योग का सागर है इसे सागर ही रहनें देना उत्तम होगा इसको सीमा में कैद करना उचित नहीं ।
आज विज्ञान का युग है आज मीरा, नानक , कबीर को खोजना एक असंभव काम है , आज तो लोग
दो रुपये का बैगन भी लेते हैं तो वह भी भ्रम के साथ , क्या पता ठीक हो या न हो , ऐसे में कोई अपनें जीवन
को किसी पर कैसे अर्पण कर सकता है ?----सोचियेगा इस बात पर ।
आज भक्त तो रहे नहीं और जब फसल नहीं होती तो उस खेत में घास भर जाती है ठीक यही स्थति है आज
लोगों की भक्ति के नाम पर उमड़ती भीड़ की ।
आज भक्ति का ब्यापार जोरों पर है , जबकि भक्त हैं नहीं , जब थे तब उनको किसी नें पूछा तक नहीं।
मीरा क्यों वृन्दाबन से द्वारका भागी?, परमहंस रामकृष्ण को लोगों नें क्यों पागल कहते थे , कबीर भूखे
पेट क्यों सोते थे क्या उस समय हमलोग नहीं थे जो भक्ति के नाम पर क्या-क्या नही कर रहे ।
अब वक्त आगया है , छोडिये नकली जिन्दगी को और अपनाइए गीता को जो आप को उस सत्य से
मिला देगा जिसके लिए मनुष्य का रूप मिला हुआ है ।
=====ॐ==========

Friday, November 6, 2009

फ़िर यह क्या है ?

यह बात सब के मन-बुद्धि में एक बार नहीं अनेक बार दिन में आती है लेकिन हम सब चूक जाते हैं । जब
यह बात आए की यह क्या है ? उस समय उस बिषय/ बस्तु पर नहीं सोचना चाहिए बल्कि उस पर सोचना चाहिए जिससे यह बात उपज रही होती है । जब हमारे अन्दर यह बात आती है --यह क्या है ? उस समय हमारे अन्दर उस बिषय या बस्तु से मिलती- जुलती जानकारी हमारे अन्दर होती है , यह क्या है ? स्वयं में एक भ्रम का रूप है और भ्रमित बुद्धि में भ्रम का इलाज नहीं होता । गीता कहता है [गीता- 2.16]- सत्य भावातीत है ---नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः यह वही बात है जिसको जेकृष्णामूर्ति कहते हैं ----choiceless awareness और जेसस क्राइस्ट कहते हैं ---judge ye not तथा गीता का मूल-मंत्र --सम-भावयोग का आत्मा भी भावातीत की स्थिति ही है ।
पिछले एक साल में गीतामोती एवं गीता तत्त्व विज्ञान के माध्यम से हम आप लोगों से जुड़े हुए हैं और
अभी तक लगभग दो सौ लेखों से हमने आप को गीता के आधार पर उन असत्यों को दिया जिनसे आप को
सत्य की भनक मिल सके लेकिन यहाँ जब श्री राम , श्री कृष्ण जैसे अवतार तथा वशीष्ट , कपिल मुनि
जैसे ऋषि असफल हो गए और परमहंस रामकृष्ण , योगानंद , आदि गुरु शंकराचार्य जैसे लोग असफल
हो कर गए तो फ़िर मेरा यह प्रयत्न तो कोई स्थान नहीं रखता लेकिन फ़िर भी कुछ करते रहना में कुछ तो है ही ।
गीता [गीता-श्लोक 2.42-2.44 तक तथा 12.3-12.4 ] कहता है -------
ब्रह्म की अनुभूति मन-बुद्धि से परे की है और एक मन-बुद्धि में राम- काम को एक साथ रखना सम्भव नहीं ---बस इतनी सी बात यदि अन्दर अपनी जगह बनाले तो समझना होश का आगमन हो चुका है ।
====ॐ=====

Wednesday, November 4, 2009

एक और संसार है - 4

क्या आप जानते हैं ?
# निजाम हैदराबाद रात में अपना एक पैर नमक से भरे एक लोटे में डाल कर रखते थे क्योंकि
भूत-प्रेतों से उनको भय था।
# महान मनो चिकित्सक सिगमंड फ्रायड को भूत- प्रेतों से डर लगता था ।
# Oliver Joseph Lodge[1851-1940 AD ] जो विश्व ख्याति के वैज्ञानिक थे जिनको माइक्रो-वेव , स्पार्क प्लग , वाकूंम ट्यूब , बेतार का तार आदि शोधों का श्रेय मिला हुआ है , वे कहते हैं---विज्ञान की आज की बात कल गलत साबित होनें ही वाली है लेकिन भूत- प्रेतों की बात सत है और सत ही रहेगी ।
# प्लेटो [ 427-347 BCE ]का कहना है----शरीर समाप्ति के बाद भी कुछ है ।
# २०वी शताब्दी में L.Rom Habbard तथा Edgar Cayce पिछले जन्मों के आधार पर एक नहीं अनेक
ऐसे काम किए जिनसे शरीर समाप्ति के बाद का रहस्य स्पष्ट होता है ।
# गुर्जियाफ़ के शिष्य P.D.Ospensky मौत के आखिरी क्षण को देख कर बोले --शरीर तो समाप्त हो गया है
लेकिन मैं अभी हूँ ।
विज्ञान कहता है ------
ऊर्जा को न तो बनाया जा सकता है और न ही समाप्त किया जा सकता है । आत्मा इस देह में प्राण-ऊर्जा
के रूप में है फ़िर इस ऊर्जा का शरीत समाप्ति पर क्या होता है ?
विज्ञान यह भी कहता है ----भारी तारे जब मरते हैं तब वे black hole में बदल जाते हैं । ब्लैक होल में
इतनी शक्ति होती है की वे आस-पास के तारों को अपनें अंदर खीच लेते हैं और भूत-प्रेतों में भी असीमित
ऊर्जा होनें की बात कही जाती है ।
गीता-सूत्र 8.6 , 15.8 को एक साथ देखनें से मालुम होता है ---सघन अतृप्त कामनाएं मनुष्य जब शरीर
छोड़ता है तब मन के साथ आत्मा के साथ होती हैं और ऐसा आत्मा भ्रमणकारी होता है जो कामनाओं को
पूरा करनें के लिए यथा उचित माध्यम की तलाश करता रहता है ।
वैज्ञानिकों का ब्लैक होल और भूत-प्रेत क्या एक जैसे नहीं दीखते ?
आप उस आत्मा के सम्बन्ध कैसा विचार रखते हैं जो है तो निर्विकार लेकिन उसकी ऊर्जा का प्रयोग करके
मन उसे भी ऐसा बना देता है जो बाहर - बाहर से स विकार जैसा दीखता है ?
गीता का प्रारम्भ विज्ञानं से यदि होता है तो उत्तम है लेकिन रास्ते में विज्ञान कहीं भी सरस्वती नदी की तरह
गीता- गंगा में लुप्त हो सकता है , यदि ऐसा हुआ तो अति उत्तम ।
====ॐ=====

एक और संसार है - 3

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥ गीता--8.6
मनुष्य जीवन भर जिस भाव में जीता है अंत समय में भी उसी भाव से भावित हो कर प्राण त्यगता है
और उसका यह भाव उसे यथा उचित वैसी योनी दिलाता है ।
हिंदू परिवार में जब कोई आखिरी श्वास ले रहा होता है तब उसको गंगा-जल पिलाया जाता है और गीता सुनाया जाता है । जो आदमी जीवन में राग-मदिरा को परम समझ कर अपना जीवन गुजारा हो वह अंत समय में गंगा-जल पी कर रूपांतरित हो सकता है या गीता के श्लोक क्या उसके अन्दर जा सकते हैं ?
हर आदमी हर पल एक चौराहे पर खडा है जहाँ से दो मार्ग निकलते हैं , एक मार्ग पर राजस-तामस गुणों का
आकर्षण होता है और दूसरा मार्ग शून्यता से परिपूर्ण होता है , एक मार्ग संसार में ब्याप्त राग में घुमाता
रहता है तथा दूसरा मार्ग बैराग्य का होता है । राग का मार्ग कहता है --तूं मुझे समझ ले और यदि तूं ऐसा
करनें में सफल हो गया तो मैं तूझे उस मार्ग से मिला दूंगा जो सभी मार्गो का मार्ग है ।
द्वत्य- जीवन में शान्ति की कल्पना करना एक स्वप्न है। दुखों से लोग भागते है लेकिन कोई भाग कर जाएगाभी कहाँ , हम जहाँ भी जाते हैं अपना संसार निर्मीत कर लेते हैं । नर्क का जीवन जीनें वाला यदि भूल से स्वर्ग में पहुँच जाए तो मिनटों में वह वहाँ भी नर्क निर्मित कर लेगा , कर लेगा इकट्ठा अपनें
ईस्ट-मित्रों को , जमा लेगा अपनी मंडली । दुःख से . लोग भागते हैं लेकिन दुःख वह देन है जो आंखों पर
पड़े परदे को उठाता है और कहता है देख ले की मेरे उस पार क्या है ? जो सुख-दुःख में रुक कर अपनें को
समझ लिया वह हो गया गीता का समत्व - योगी जो राग,क्रोध एवं भय रहित परम आनंदित रहता है [गीता-4।10]।
राग में सिमटा राम को कैसे पकड़ पायेगा, मोह का चस्मा पहन कर मोहन को कोई कैसे देख सकता है ?
मोह में डूबा अर्जुन अपनें संग मोहन को नहीं पहचान पा रहा और दूर स्थीत संजय मोहन में परम ब्रह्म
को देख कर कहता है ---जहाँ परम श्री कृष्ण एवं अर्जुन हैं , जीत भी वहीं है --आप ज़रा सोचना , अभी
युद्ध प्रारंभ भी नहीं हुआ है और संजय परिणाम बता रहे हैं वह भी धृतराष्ट्र को , क्या गुजरी होगी बिचारे
ध्रितराष्ट्र पर ... ।
योग का मार्ग एवं भोग का मार्ग दोनों मार्ग सामनें हैं , देखना आप को है की आगे किस मार्ग को पकड़ना है ।
====ॐ======

Tuesday, November 3, 2009

एक और संसार है - 2

मनुष्य - सभ्यता को समझनें के लिए यदि पिछले 500-800 वर्षों के इतिहास में मिश्र की पिरामिड्स से
सिंध घाटी की सभ्यता तक, मेसो अमेरिका सभ्यता से मेसोपोतानियन [बैबीलोन - सुमेरु] सभ्यता तक में
देखनें से यह स्पष्ट होता है पहले परमात्मा से जुडनें के अनेक मार्ग थे लेकिन भोग पर चलनें के सिमित मार्ग थे ।
विज्ञान के विकास के साथ -साथ पिछले सौ वर्षों में भोग के साधनों का फैलाव ऐसा हुआ है जिससे पूरा संसार भोग मय हो उठा है । विज्ञान की खोजों का प्रयोग दो कामों के लिए हो रहा है; एक भोग के लिए और दूसरा विनाश के लिए । यह देखकर हैरानगी होती है की जो देश वैज्ञानिक स्तर पर जितनें अधिक आगे हैं वहां के लोग उतने ही अधिक भयभीत हैं--क्या कारण है ?
आज विकसीत देश अन्तरिक्ष में पृथ्वी तलाश रहे हैं क्योंकि उनको इस पृथ्वी के अस्तित्व पर संदेह हो रहा है । यदि कोई नई पृथ्वी मिल भी गयी तो वह कितनें दिन सुरक्षित रह पायेगी ? इस बात पर आज वे लोग नहीं सोचते जो इस पृथ्वी को नष्ट कर रहे हैं। आज का युग विज्ञान का युग है जो तेज गति से भोग युग में
परिवर्तित हो रहा है । अगर भोग साधनों का इस गति से विकास होता रहा तो आगे सौ वर्षों में क्या होगा --
इसकी कल्पना करना भी कठिन होगा ।
बुद्ध - महावीर के वैराग्य का मार्ग निकला भोग से और सभी मार्ग यही कहते हैं--भोग योग का माध्यम है लेकिन आज योग के नाम को भोग से जोड़ा जा रहा है , आज योग की इतनी चर्चा है जितनी शायद पहले कभी भी नहीं हुई होगी , इसका कारण क्या है ? कारण है मौत का भय । भोग के दो दरवाजे हैं ; एक खुलता है सीधे मौत में और दूसरा खुलता है परम धाम में । भोग ही जिनके लिए परम है वे तो जाते हैं औत के मुह में वह भी स्वयं नहीं जाते उन्हें मौत खीच लेती है और जिनके लिए भोग योग का द्वार बन गया होता है वे स्वेच्छा से शरीर को त्यागते हैं ।
गीता कहता है ---दो प्रकार के लोग हैं --एक आस्तिक लोग हैं जिनका केन्द्र परमात्मा होता है और दूसरे हैं
भोगी लोग जिका केन्द्र मात्र भोग होता है , ये लोग परमात्मा को भी भोग का साधन समझते हैं ।
आज आप दुनिया में नजर डालिए की लोग परमात्मा के स्थानों में किस कदर लम्बी - लम्बी कतारों में
भीखारी की तरह खड़े हैं क्यों ? क्योंकि उनके पास बहुत लम्बी मांग की लीस्ट है जो उनसे स्वयं पूरी नही होती ।
गीता कहता है ---कामना , क्रोध, लोभ, मोह एवं अंहकार को अपनें में बसानें वाला अपनें में परमात्मा
को नहीं बसा सकता ---अब सोचिये उन लोगों के बारे में जो बिचारे तुच्छ दे कर परमात्मा को खरीदना
चाहते है ।
====ॐ-----

Monday, November 2, 2009

एक और संसार है

यहाँ इस पृथ्वी पर जितने लोग हैं सब का अपना - अपना संसार है । संसार जिसमें हम जीते हैं वह हमारे
मन का प्रतिविम्ब है जैसा जिस घड़ी मन वैसा उस घड़ी संसार । मन हर पल बदलता रहता है और उसके
अनुसार संसार भी बदलता रहता है । हमारा मन हमें उस संसार को समझनें नहीं देता जिसके अन्दर हमारा मन रचित संसार है।
गीता का संसार गीता-श्लोक 15.1---15.3 के मध्य बताया गया है जिसको इस प्रकार से समझा जा सकता है -----परमात्मा से परमात्मा में आदि-अंत रहित अविनाशी तीन गुणों के तत्वों से परिपूर्ण तीन लोकों में विभक्त तथा जिसकी स्थिति अच्छी तरह से नहीं है एवं जिसको बैराग्यावस्था में जाना जा सकता है वह गीता का संसार है ।
गीता-सूत्र 15.3 से ऐसा लगता है जैसे संसार गुणों के तत्वों से परिपूर्ण भोगों का कुबेर है और आदि गुरु शंकरा चार्य कहते हैं ---ब्रह्म सत्यम जगन्मिथ्या । गीता-सूत्र 7.12 ,7.13 , 14.19 , 14.20 , 14.23 , को जब आप देखेंगे तो आप को मिलेगा------संसार में ब्याप्त गुणों का सम्मोहन मनुष्य को परमात्मा से दूर रखता है और गुणों को करता समझें वाला द्रष्टा/ साक्षी रूप में गुनातीत हो कर परमानान्दित होता है ।
गीता के संसार को समझनें के लिए भोग से बैराग्य तक की यात्रा करनी पड़ती है । पहले स्वनिर्मित संसार
को जानों फ़िर गीता का संसार धीरे-धीरे स्वतः स्पष्ट होनें लगेगा जैसे-जैसे बैराग्य घटित होगा ।
=====ॐ=====

Sunday, November 1, 2009

अपरा भक्ति के माध्यम - 6

पीर- पैगम्बरों की मजारें किसी का इन्तजार करती हैं ।
सरमद का धड से जुदा हुआ सिर यह बोलता हुआ जामा मस्जिद की सीढियों से लुढ़क रहा था--------
ला इलाही इल अल्लाह ।
औरंगजेब को सब जानते हैं लेकिन उसके भाई दारा शीकोह को बहुत कम लोग जानते होंगे ।
दारा शीकोह सन1940 में कश्मीर की यात्रा की थी और वहाँ के पंडितों से उसको उपनिषदों का पता चाला था। दारा जब वापस आए तब काशी से पंडितों को बुलवाया और उपनिषदों का पर्सियन भाषा में अनुबाद करवाया । दारा का यह काम उपनिषदों को विश्व के चिंतकों के सामनें ला सका।
औलिया सरमद एक यहूदी ब्यापारी था जो यरूशलम से दिल्ली तक की पैदल यात्रा किया करता था।
एक बार की बात है , सरमद की समान बिक न पायी और सरमद चलते - चले काशी से होता हुआ बिहार के एक गाँव में जा पहुंचा । संयोग की बात है उस दिन वहाँ मेला चल रहा था और सरमद अपनीं दूकान वहाँ लगा दिया ।
सरमद दिल भर अपना काम करता रहा और जब रात आनें को हुयी तब दूकान बंद करके उसी जगह विश्राम
करनें लगा । सोचते - सोचते उसके मन में बिचार आया की इस मिट्टी की कब्र में ऎसी कौन सी बात है की
इतनी भीड़ यहाँ इकट्ठी हो रही है । सरमद सोचते - सोचते धीरे-धीरे उस पीर के पास पहुँच गया। सरमद
ज्योंही पीर पर अपना सीर झुकाया वहीं का हो कर रह गया , साड़ी रात वह उसी जगह पडा रहा । सुबह-सुबह गाँव के लोग जब उसे देखे तो उसे उठाया , सरमद उठते ही रो पडा और दोनों हांथों को ऊपर उठा कर बोला-----ला इलाही इल अल्लाह ---अर्थात जब इस मिटटी की कब्र में इतना नूर है तो अल्लाह तेरा नूर कैसा होगा ?
यह छोटी सी घटना सरमद को ब्यापारी से औलिया बना दिया ।
सरमद काशी में कुछ दिन रहनें के बाद पुनः दिल्ली वापिस अगया और जमा मस्जिद के इलाके में घूमता
रहता था । दिल्ली के मुल्लाओं को सरमद का औलिया स्वभाव रास न आया , अंततः १६५९ में उसका सिर
कलम कर दिया गया और सीढियों से लुढ़कता सिर यही बोलता रहा ---ला इलासी इल अल्लाह ।
आप भी पीरों की कब्रों पर जाते होंगे , ज़रा सोचना क्या पता कोई आप का इन्तजार कर रहा हो ?
=====ॐ=======

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