Saturday, December 29, 2012

गीता ज्ञान - 04

गीता श्लोक - 13.13 + 13.14

सर्वतः पाणिपादं तत् सर्वतोऽक्षिशिरोमुखं 
सर्वतः श्रुतिमत् लोके सर्वं आवृत्य तिष्ठति 

सर्व इन्द्रिय गुण आभासम् सर्वे इंद्रिय विवार्जितम् 
असक्तं सर्वभूत् च एव निर्गुणं गुणभोक्तृ च 

भावार्थ 

वह संसार में सब को ब्याप्त करके स्थित है ---
उसकी इन्द्रियाँ सर्वत्र हैं 

वह इंद्रिय रहित है , लेकिन ----
सभीं इंद्रिय बिषयों को समझता है 
वह आसक्ति रहित है , लेकिन ---
सबका धारण  - पोषण कर्ता है 
वह निर्गुण है , लेकिन ---
गुण भोक्ता है 

गीता इन दो सूत्रों के माध्यम से निराकार को साकार माध्यम से इस सहज ढंग से स्पष्ट करता है जिससे इन दो सूत्रों पर मनन करनें वाले के अंदर :.......
निराकार 
निर्गुण 
की समझ जग उठे 

गीत में प्रभु के 552 श्लोकों में आप को जो मिलेगा उसका सम्बन्ध ----

न्याय , मिमांस , भक्ति , वैशेषिक , योग एवं वेदान्त से गहरा है लेकिन इन सबको आओ एक साथ कैसे पकड़ सकते हैं , आप को सोचना होगा की आप इन में से किसको अपनाते हैं और एक बार बस एक बार जब आप का मार्ग तय हो जाएगा तब आप उस मार्क से जहाँ पहुंचेगे अन्य मार्गों से भी लोग वहीं पहुंचाते हैं
 जहाँ :----
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड उस एक के फैलाव स्वरुप दिखता है और वह ब्राह्मण के कण - कण में दिखनें लगता है पर आप  इस अनुभूति को ब्यक्त न कर सकेंगे /

======= ओम् =====

Saturday, December 22, 2012

गीता ज्ञान - 03

गीता श्लोक 2.11 से गीता श्लोक 2.30 तक

गीता के इन 20 श्लोकों के माध्यम से प्रभु श्री कृष्ण अर्जुन को किस दिशा की ओर ले जाना चाह रहे हैं ?
अध्याय - 01 एवं अध्याय - 02 के प्रारम्भ में अर्जुन की बातों को सुननें तथा उनको देखनें से प्रभु को उस राज की मूल दिख जाती है जिसके प्रभाव में अर्जुन युद्ध न करनें की बात पकड़ रखी है और वह जड़ है - मोह का सम्मोहन /
गीता श्लोक - 1.27 से गीता श्लोक - 1.30 में अर्जुन जो बातें कह रहे हैं वे मोह के लक्षण हैं और इन बातों को सुननें के बाद प्रभु अर्जुन को मोह मुक्त कराना चाहते हैं / अर्जुन यहाँ इन श्लोकों में कहते हैं :-----
  • मेरे अंग कॉप रहे हैं
  • मेरा गला सूख रहा है
  • मेरे अंग शिथिल हो रहे हैं
  • मुझे रोमांच हो रहा है
  • त्वचा में जलन हो रही है
  • मेरा मन भ्रमित हो रहा है
प्रभु अपनें गीता श्लोक - 2.11 से 2.30 के मध्य ऎसी बातों को बता रहे हैं जिनकी समझ उसे होती है जो -----
  1. स्थिर प्रज्ञ योगी होता है
  2. ज्ञानी होता है
  3. जो वैराज्ञ को पार करके गुणातीत की स्थिति में होता है
  4. जिसको समाधि का परम रस मिला हुआ होता है

अब आप सोचें , इस बिषय पर की क्या ------

एक मोह में डूबा ब्यक्ति आत्मा , परमात्मा , स्थिर प्रज्ञता , गुणातीत की स्थिति को , वैराज्ञ को , ज्ञान को , परम प्रकाश को समझ सकता है ?

प्रभु गीता श्लोक - 2.11 से 2.30 में कहते हैं ......

इंद्रिय - बिषय के संयोग की निष्पत्ति अनित्य एवं विनाशशील होती  है
सत् की कोई कमी नहीं और असत्य का अपना कोई अस्तित्व नहीं
आत्मा , अचिन्त्य , अप्रमेय , अघुलनशील , अदाह्य , अशोष्य , अविभाज्य है / आत्मा अनादि है , आत्मा सनातन है , आत्मा अति सूक्ष्म है और आत्मा परमात्मा ही है / आत्मा को कोई शस्त्र काट नहीं सकते , अग्नि इसे जला नहीं सकती , जल इसे गला नहीं सकता , वायु इसे सुखा नहीं सकती और आत्मा अचल स्थिर है / आत्मा जीर्ण देह को त्याग कर नया देह धारण करती है /
ज्ञान - योग की गंभीर बातों को सुननें के बाद अर्जुन के मन - बुद्धि में बह रही मोह प्रभावित तामस गुण की ऊर्जा की आबृति बढ़ जाती है और वे प्रश्न करना प्रारम्भ करते हैं /
प्रश्न संदेह के लक्षण हैं ,
संदेह अज्ञान की उपज है ,
 अज्ञान राजस एवं तामस गुणों की ऊर्जा से उत्पन्न होता है
 जो ज्ञान को ढक कर रखता है /

एक बात :

ज्ञान प्राप्ति के लिए कुछ करना नहीं होता .....
सभीं मनुष्य ज्ञानी रूप में पैदा होते हैं .....
संसार में ब्याप्त भोग की हवा उनके ज्ञान को ढक लेती है
अज्ञान का बोध ही ज्ञान है
ज्ञान वह ऊर्जा है जिससे परम सत्य दिखता है
==== ओम् ======

Saturday, December 15, 2012

गीता ज्ञान - 02

कुरुक्षेत्र में प्रभु श्री कृष्ण अर्जुन को कहते हैं :
" अर्जुन !  तुम कामना रहित मन - बुद्धि के साथ युद्ध कर "
कामना रहित स्थिति में मन  - बुद्धि का होना क्या है ?
साधना , योग , तप , सुमिरन और ध्यान , जितनें भी मार्ग हैं जो प्रभु से पहचान कराना चाहते हैं , उनका मात्रा एक लक्ष्य है और वह है , कामना रहित स्थित में मन - बुद्धि को पहुंचाना /
जब मनुष्य का मन - बुद्धि फ्रेम कामना रहित हो जाता है तब उस फ्रेम पर जो होता है उसे प्रभु कहते हैं और उसे देखनें वाले को चेतना /
चेतना वह है जिसके पास कोई ऐसा माध्यम नहीं की वह जो देख रही  है उसे अन्यों को बता सके /
चेतना जब प्रभु को देखती है त्योंही वह ब्यक्ति स्वयं प्रभु मय हो उठता है /
==== ओम् ====

Sunday, December 9, 2012

गीता ज्ञान -01

योग और भोग 

गीता [ श्लोक - 4.1 , 4.2 , 4.3 ] में प्रभु कहते हैं :

" मैं इस अबिनाशी योग को सूर्य को बताया था , सूर्य अपने पुत्र वैवस्वत मनु को बताया , मनु अपनें पुत्र इक्ष्वाकु  को बताया , इस प्रकार परम्परागत यह योग राज ऋषियों  तक पहुंचा लेकिन बाद में  धीरे - धीरे लुप्त होता गया / तुम मेरा भक्त एवं सखा हो अतः आज मैं इस योग को तुमको बताया है "  /
यह बात द्वापर की है और प्रभु स्वयं कह रहे हैं और योग की शिक्षा अर्जुन को दे रहे हैं पर अर्जुन प्रभु की बात पर संदेह करते हैं , उनको विश्वास नहीं हो रहा और आज की स्थिति क्या है ? इस बात पर आप सोचो /
मनुष्य मात्र एक ऐसा जीव है जो योग - भोग के मध्य एक साधरण पेंडुलम की भांति घूम रहा है / मनुष्य को जब पता चलता है कि कोई योगी उसकी बस्ती में आया है तो तुरंत भागता है , उसकी ओर लेकिन जब वह वहाँ पहुँच जाता है तब भोग उसे वापिस खीचनें लगता है , उसे उस घडी तरह - तरह की बाटें याद आनें लगती हैं और वह फ़ौरन वहाँ से भागता है अपनें भोग कर्म की ओर / 
मनुष्य का जीवन दो केन्द्रों वाला है  ; एक मजबूत केंद्र है भोग और दूसरा कमजोर केंद्र है योग / ज्यामिति में ऎसी आकृति जिसके  दो केंद्र हों उसे इलीप्स कहते हैं जो अंडाकार होता है / आप स्वयं को देखना ; जब आप  पूजा में बैठते हैं तब आप को चैन नहीं , देह के उस भाग में खुजली होनें लगती है जहाँ पहले कभीं नहीं हुयी होती , परिवार के लोगों पर ऎसी साधारण सी बातों पर आप गर्म हो उठते हैं जिन पर पहले कभीं नहीं क्रोधित हुए होते , आखीर ऐसा क्यों होता है ? 
योग का अर्थ है , प्रभु की ओर रुख करना
भोग का अर्थ है प्रभु को पीठ पीछे रखना और जो दिखे उसे बटोरना

गीता [ श्लोक - 2.69 ] में प्रभु कहते हैं :------

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी 
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने : 
" वह जो सब के लिए रात्रि सामान है , वह योगी को दिन सा दिखता है
और जो योगी को रात्रि सा दिखता है वह अन्य को दिन सा प्रतीत होता है "
भोगी और योगी की यह है परिभाषा / 
सभीं जीव भोग योनि में हैं जो मात्रा भोग के लिएबनाए गए हैं  ; भोग अर्थात काम और भोजन के लिए बनाए गए हैं लेकिन मनुष्य के सामनें जो दिखता है वह इस प्रकार है ----

  • भोग से भोग में मनुष्य का अस्तित्व है 
  • भोग में होश बना कर योग में कदम रखना उसका मार्ग  है 
  • योग में आखिरी श्वास भरते हुए परम पद की ओर चलना उसका आखिरी लक्ष्य है 
  • भोग एक माध्यम है जो योग में बदल जाता है और योग प्रभु को दिखाता है /

==== ओम् =====



Monday, December 3, 2012

गीता के तीन मोती

गीता श्लोक - 4.38 

कर्म - योग की सिद्धि में ज्ञान की प्राप्ति होती है 

गीता श्लोक - 4.18

कर्म - योग सिद्धि के बाद कर्म अकर्म और अकर्म कर्म सा दिखानें लगता है 

गीता श्लोक - 13.2

क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का बोध , ज्ञान है 
*     Fruit of the  perfection of action - yoga  is wisdom .
**   A man of wisdom sees inaction in action and action in inaction .
*** Awareness of physical body with its elements and the Supreme One is wisdom .

Elements of physical body of a living one ----

[a] 10 senses [ इन्द्रियाँ ] 
[b] 05 subjects [ बिषय ] 
[c] mind , intelligence and ego [ मन , बुद्धि , अहँकार ] 
[d] 05 Basic elements [ पांच महा भूत ] 
[e] Immutable - Unchanging One [ अब्यय ] 
ध्यान के लिए आज इतना ही
==== ओम् =====

Monday, November 26, 2012

गायत्री और जपजी का मूल मन्त्र


  • मूल  मंत्र का प्रारम्भ एक ओंकार से है और गायत्री का प्रारम्भ है
  • एक ओंकार [] वेदों का आत्मा है और एक ओंकार श्री ग्रन्थ साहिब का आत्मा भी है
  • मूल मंत्र आदि गुरु नानकजी साहिब के ह्रदय में भरे परम अब्यक्त भाव का वह अंश हैं जो आंशिक रूप से जपजी के नाम से ब्यक्त हो पाया है
  • गायत्री ऋग्वेद में ऋषि विश्वामित्र रचित मन्त्र है
  • मूल मंत्र को समझनें के लिए आदि गुरु जैसा ह्रदय चाहिये न की संदेह से भरी बुद्धि और गायत्री को समझनें के लिए विश्वामित्र जैसा ह्रदय 
  • मूल मंत्र गीता में परम श्री कृष्ण के उन पांच सौ बावन  श्लोकों का सार है जिनको परम प्रभु अर्जुन को मोह मुक्त करानें के लिए बोलते हैं
    और जपजी के मूल मन्त्र में आदि गुरु श्री नानक जी साहिब वह परम अब्यक्त भावातीत भाव है जिमें वे जीवन भर बहते रहे 
    =एक ओंकार 

Thursday, November 15, 2012

गीता दर्शन - 1

गीता श्लोक - 7.27
इच्छा द्वेष समुत्थेन द्वंद्वमोहेन भारत 
सर्वभूतानि सम्मोहम् सर्गे यन्ति परंतप 
प्रभु श्री कृष्ण सीख दे रहे हैं :-------
इच्छा - द्वेष से उत्पन्न द्वंद्व एवं मोह हैं .....
इन भोग तत्त्वों से सभीं सम्मोहित हैं .......
ये तत्त्व अज्ञान की पहचान हैं /
Desire and aversion germinate delusion of duality .....
And these elements are passionate elements ......
Which are symptoms of Agyana [ ignorance ] 
=== ओम् =====

Friday, November 9, 2012

गीता सूत्र - 18.2

गीता श्लोक 18.2 कहता है -----
" काम्यानां कर्मणाम् न्यासं इति संन्यासं "
अर्थात
काम्य कर्मों का त्याग ही कर्म संन्यास है 
क्या हैं काम्य कर्म ?
काम्य शब्द काम से बनता है और काम से कामना शब्द का जन्म होता है / ऐसे कर्म जिन केहोनें के  पीछे किसी न किसी तरह भोग - भाव छिपा हो उनको काम्य कर्म कहते हैं , यह बात गीता में तब  दिखती है जब गीता  में बसेरा बना लिया गया हो /
आसक्ति , कामना , क्रोध , लोभ , मोह , भय , आलस्य एवं अहँकार - ये हैं गुण तत्त्व जिनको कर्म बंधन भी कहते हैं ; जब इन में से किसी एक के सहारे कोई कर्म होता है तब उस कर्म को काम्य कर्म कहते हैं चाहे वह कर्म पूजा सम्बंधित ही क्यों न हो / 
वहाँ जहाँ चाह है 
वहाँ प्रभु की राह बंद रहती है 
और 
मनुष्य जब चाह रहित होता है तब सामनें प्रभु का द्वार खुला हुआ दिखता है /
==== ओम् ======

Monday, November 5, 2012

गीता की दो बूँदें

गीता सूत्र - 14.7
राग - रूप राजस गुण के तत्त्व हैं
गीता सूत्र - 2.65
राग - द्वेष रहित प्रभु - प्रसाद प्राप्त ब्यक्ति होता है
ऊपर के सूत्रों में तीन बातें हैं ------
 राजस गुण , राग - रूप एवं द्वेष ,
 आइये देखते हैं इन शब्दों को, गीता दृष्टि से ----
तीन गुण सात्त्विक , राजस एवं तामस प्रभु से हैं लेकिन प्रभु स्वयं गुणातीत है / सात्त्विक गुण में मन - बुद्धि संदेह रहित निर्मल संसार के द्रष्टा के रूप में होते हैं और राजस- तामस गुण संदेह युक्त बुद्धि रखते हैं / प्रभु की प्रीति में सात्त्विक गुण रखता है , भोग की ओर राजस गुण  सम्मोहित करता है और तामस गुण न सात्त्विक और न ही राजस की ओर रुख करनें देता /
 सात्त्विक गुण में समभाव  की स्थिति में मन - बुद्धि होते हैं , राजस गुण में अहँकार परिधि पर होता है और मनुष्य अपनें कद को खीच - खीच कर लंबा दिखाना चाहता है जबकी तामस गुण में मनुष्य सिकुड़ा हुआ होता है , भय में डूबा हुआ /
आसक्ति , काम , कामना , क्रोध , लोभ , मोह , भय और अहँकार रहित सात्त्विक गुण धारी समयातीत आयाम में रहता हुआ भोग संसार का द्रष्टा बना  हुआ परम आनंद में मस्त रहता है /
==== ओम् ======= 

Thursday, November 1, 2012

गीता के दो सूत्र

गीता सूत्र - 3.34
बिषय राग - द्वेष ऊर्जा से परिपूर्ण हैं 
गीता सूत्र - 2.64
राग - द्वेष से अप्रभावित अनन्य भक्त होता है 
पांच ज्ञानेन्द्रियाँ है और उनके अपनें - अपनें प्रकृति  में स्थित बिषय हैं / गुण प्रभावित ब्यक्ति का मन उसकी इन्द्रियों का गुलाम होता है और उसकी बुद्धि उस के  मन का गुलाम होती है / गुण प्रभावित ब्यक्ति अर्थात भोगी की इन्द्रियाँ बिषयों की तलाश में रहती हैं और जब किसी इंद्रिय को उसका बिषय मिल जाता है तब वह उसमे रमना चाहती है / बिषय में स्थित राग - द्वेष  की ऊर्जा गुण प्रभावित के इंद्रिय को सम्मोहित कर लेती  है / इंद्रिय से सम्मोहित इंद्रिय मन को अपनें बश में रखती है और वह मन बुद्धि को अपनें बश में रखता है , इस प्रकार उस ब्यक्ति के मन - बुद्धि क्षेत्र में अज्ञान सघन हो कर  ज्ञान को ढक लेता है /
अनन्य भक्त वह है जो परमात्मा में बसा होता है 
गुण , बिषय , इंद्रिय , मन एवं बुद्धि के आपसी सम्बन्ध को आप यहाँ देखे
 अब समय है गीता के इन दो सूत्रों पर ध्यान करनें का ........
==== ओम् ======

Sunday, October 28, 2012

गीता के तीन सूत्र

गीता सूत्र - 5.26
काम - क्रोध विमुक्त ब्रह्म निर्वाण प्राप्त करता है
गीता सूत्र - 3.37
काम - क्रोध राजस गुण के तत्त्व हैं
गीता सूत्र - 2.62
ध्यायतः बिशायान् पुंसः संग तेषु उपजायते
संगात् संजायते कामः कामात् क्रोधः अभिजायते
बिषय का चिंतन आसक्ति की जननी है
आसक्ति से काम [ कामः उपजायते ] उपजता है
काम से [ कामात् ] क्रोध उत्पन्न होता है
इस सूत्र में काम शब्द का अर्थ कामना लगभग सभीं टीकाकार लगाते हैं लेकिन काम , कामना , क्रोध एवं लोभ एक ऊर्जा से हैं जिसको राजस गुण कि ऊर्जा कहते हैं /
विमुक्त  का अर्थ यह नहीं कि काम -  क्रोध को त्यागा जाए , जहाँ त्याग कृया के रूप में प्रयोग किया जाता है वहाँ अहँकार सघन होनें का मार्ग मिलता है और जब होश में काम - क्रोध स्वतः विसर्जित होते हैं वहाँ ब्रह्म निर्वाण की ओर रुख हो जाता है /
अब आप गीता के इन तीन सूत्रों को मिला कर एक सोच पैदा करे जो आप को ब्रह्म निर्वाण की ओर ले जाए जो मनुष्य योनि का परम लक्ष्य है /
==== ओम् =====

Thursday, October 18, 2012

कर्म - योग समीकरण [ 1 ]

गीता श्लोक - 2.60

" मन आसक्त इंद्रिय का गुलाम  है "

गीता श्लोक - 2.67

" बुद्धि आसक्त मन का गुलाम है "

प्रकृति से प्रकृति में मनुष्य परम् पुरुष को खोज रहा है और इस खोज में उसका भौतिक अस्तित्व तो प्रकृति में बिलीन हो जाता है पर उसकी यह खोज भीर भी जारी रहती है /
 गीता में प्रभु श्री कृष्ण कह रहे हैं :-----
" आत्मा जब देह त्यागता है तब अपनें साथ इंद्रियों को एवं मन को ले जाता है "
------ गीता - 15.8 -------
" मनुष्य जब आखिरी श्वास भर रहा होता है उस समय की गहरी सोच उसके अगले योनि को निर्धारित करती है "
----- गीता - 8.5 , 8.6
यहाँ दो श्लोक उस खोज को समझनें के सम्बन्ध में दिए गए हैं / आखिरी श्वास भरते समय यदि मन - बुद्धि रिक्त हों तो उस ब्यक्ति को परम गति मिलती है और परम गति का अर्थ है उसकी आत्मा का अपनें मूल श्रोत परम आत्मा में विलीन हो जाना /
इंद्रियों का स्वभाव है अपनें - अपने बिषयों में भ्रमण करना और बिषयों में भरे राग - द्वेष [ गीता - 3.34 ] उनको सम्मोहित करते रहते हैं और यः सम्मोहन मनुष्य को योग से भोग में ला खडा करता है /
गीता श्लोक - 2.64 के माध्यम से प्रभु कहते हैं , राग - द्वेष से अछूता ब्यक्ति हमारा अनन्य भक्त होता है , अनन्य भक्त वह जो प्रभु जैसा ही होता है और अपनें मृत्यु का द्रष्टा होता है /

कर्म - योग का पहला चरन है ----
बिषयों के स्वभाव को हर पल समझते रहना
और
ज्ञानेन्द्रियों की चाल पर नजर रखना
==== ओम् =====

Tuesday, October 9, 2012

गीता श्लोक - 2.64 , 2.65


रागद्वेषवियुक्तै : तु विषयां इन्द्रियै : चरन्
आत्मवश्यै : विधेयात्मा प्रसादं अधिगच्छति //
गीता - 2.64

प्रसादे सर्व दु : खानां हानि : अस्य उपजायते
प्रसन्न चेतसः हि आश बुद्धि : पर्यतिष्ठते //
गीता - 2.65

जिसकी इन्द्रियाँ राग - द्वेष रहित हैं उसकी इन्द्रियाँ बिषयों का द्रष्टा होती है और वह प्रभु - प्रसाद प्राप्त ब्यक्ति होता है

ऐसा ब्यक्ति प्रसन्न चित्त वाला  सभीं प्रकार के दुखों से परे प्रभु केंद्रित होता है

 यहाँ गीता के दो सूत्र कर्म - योग एवं ज्ञान - योग के प्रारंभिक  चरण  को ब्यक्त कर रहे हैं /
प्रभु अर्जुन से कह रहे हैं , हे अर्जुन ! ऐसा ब्यक्ति जिसकी इन्द्रियाँ
अपनें - अपनें बिषयों में  भ्रमण करती हों  पर बिषयों में उपस्थित राग - द्वेष कि ऊर्जा से यदि [ यहाँ आप देखें गीता सूत्र - 3.34 ; जो कहता है , सबहीं बिषयों में राग - द्वेष की उर्जा होती है ] आकर्षत न होती हों तो ऐसा ब्यक्ति सभीं दुखों से दूर रहता है और उसके जीवन का केंद्र मैं होता हूँ /

यहाँ गीता बहुत गहरी बात कह रहा है , इसे एक बार और समझलें -----
मनुष्य की इन्द्रियाँ अपनें - अपनें बिषयों में भ्रमण तो करें लेकिन उनसे सम्मोहित न हो , बिषयों का मात्र द्रष्टा बनी रहें /
प्रभु की यह बात सुननें में जितनी सरल दिख रही है साधना में उतनी ही कठिन भी है और जो इस साधना की सीढ़ी को पार कर गया , वह हो गया ब्रह्मवित् /
=== ओम् ======

Monday, September 17, 2012

Gita Ek Madhyam Hai

Gita maatra ek maadhyam hai jo sansaar ke raag ras se vairaagya me pahunchaa kar us paar kii or ishaaraa dete huye kahataa hai .....
Dekh jahaan too thaa
Dekh jise too chhodnaa nahii chaahata thaa
Dekh wah sab bhii isii se isii me hai aur yah ------
Tb bhii thaa , ab bhii hai aur tb bhii rahegaa jb iske alawaa aur kuchh n hogaa .
Sansaar ke chakaachaundh se poorn soonyata tk kaa maarg talavaar kii dhaar par chalane kaa nam hai aur aise yaatri durlabh hoye hain .
Kyaa aap taiyaar hain is yaatra ke liye jiskaa praarambh yo hsi lekin ant anant hoo ho sakta hai ?
**** OM ****


Friday, September 14, 2012

Sansaar kya hai ?

Manushya ke liye param kaa dwaar hai aur anya ise bhog saagar kii bhanti dekhate hain .
Manushya jb raag se vairaagya me kadam rakhata hai tb ......
Use param ka dwaar dikhane lagata hai jo ......
Swaprakaashit hota hai .
Gita - 15.1 - 15.4 , 15.6

Wednesday, September 12, 2012

Aatmaa

Gita ke tiin sutra : ------
Sutra - 13.29
Prakriti ko kartaa evam Aatmaa ko akartaa dekhanaa hii yathaarth hai .
Sutra - 18.16
Gyaani Aatmaa ko akarta dekhataa hai .
Sutra - 15.11
Yogi apane andar Aatmaa ka bodhi hota hai .
::::::: OM ::::::::

Tuesday, September 11, 2012

Gita ki ek amrit boond

Niraakaar ki upaasanaa prabhumay banati hai aur saakaar upaasak ananyabhakti yog me pahunch kar paramgati ko praakt karate hain
------  Om ------

Monday, June 11, 2012

गीता में अर्जुन के आठवें प्रश्न का चौथा भाग

अर्जुन गीता में अपनें आठवें प्रश्न के चौथे भाग में पूछ रहे हैं:-------

अधिभूतं च किम् प्रोक्तम् [ 1 ] ? अधिदैवं किम् उच्यते [ 2 ] ? …... गीता श्लोक – 8.1

अधियज्ञ : कथं कः अत्र , देहे , अस्मिन् मधुसूदन [ 3 ]

प्रणयकाले च कथं ज्ञेयः असि नियतात्मभिः [ 4 ] …... गीता श्लोक – 8.2

भावार्थ

और अधिभूत क्या कहा गया है[1 ] ?अधिदैव किसे कहते हैं[ 2 ] ?

अधियज्ञ कौन है और इस देह में कैसे रहता है[ 3 ] ?और युक्त चित्त वाले पुरुषों द्वारा अंत समय में आप कैसे जानें जाते हैं[ 4 ] ?

ऊपर गीता के सूत्रों के जो अंश आप के सामनें हैं उनमें अर्जुन चार बातों को जानना चाह रहे हैं / यदि आप इन के सम्बन्ध में आदि शंकर , श्रीधर , रामानुज , माधवाचार्य , प्रभुपाद एवं सर्वपल्ली राधाकृष्णन जैसे कुछ प्रमुख दार्शनिकों की सोच को देखेंगे तो निम्न दो बातें दिखेंगी ----

[]भक्त हो कर भी लोग बुद्धि-तर्क के आधार पर गीता के सूत्रों को देखते हैं

[]सभीं लोग यह नहीं देखनें का प्रयाश किये कि प्रभु इन बिषयों पर गीता में अन्यत्र क्या कहा

है?अपितु शब्दों के आधार पर गीता को पुराणों के साथ जोड़ कर देखनें का यत्न

किया है/

अब देखिये प्रभु क्या उत्तर कितना स्पष्ट है

अधिभूतं क्षरः भावः ..... गीता 8.4 , पुरुषः अधिदैवतम् .... गीता 8.4

देहे अहम् अधियज्ञः ... गीता 8.4

अर्थात

सभीं क्षर अधिभूत हैं,अधिदैव पुरुष है,देह में अधियज्ञ मैं हूँ

दो शब्द हैं क्षर एवं अक्षर जो जन्म जीवन एवं मृत्यु चक्र से नियोजित हैं वे हैं क्षर और जो समयातीत है वह है अक्षर / तत्त्व स्तर पर क्षर कोई नहीं है और आकार रूप में कोई अक्षर नहीं है , इस बात को देखना होगा / जीवों के देह में आत्मा अक्षर है और देह क्षर है , यह बात तो सभीं हिंदू समझते हैं लेकिन क्या कभी आप देह को तत्त्व से देखनें का यत्न भी किया है ? उत्तर है नही / क्षर एवं अक्षर का योग है साकार जीव और प्रकृति - पुरुष का योग है यह देह , फिर प्रकृति क्या है ? और पुरुष क्या है ?

ऊपर आप देखे कि प्रभु कह रहे हैं , अधिदैव पुरुष है यहाँ पुरुष क्या है ? , इस बात को हम आगे चल कर देखेंगे / प्रकृति दो प्रकार की है ; अपरा और परा / अपरा में आठ तत्त्व है ; पञ्च महाभूत , मन , बुद्धि एवं अहंकार [ देखिये गीता - 7.4 , 7.5 , 7.6 ] और परा है चेतना जो जीव का एक माध्यम है /

आज इतना ही , अगले अंक में कुछ और बातें देखेंगे ----------






Tuesday, June 5, 2012

गीता में अर्जुन के आठवें प्रश्न का तीसरा भाग

गीता में अर्जुन अपनें आठवें प्रश्न में तीसरा उप प्रश्न कुछ इस प्रकार करते है :------

किम् कर्मः ? गीता सूत्र – 8.1

और उत्तर रूप में प्रभु कहते हैं … ...

भूतभावोद्भवकर : विसर्गः कर्मसज्ज्ञितः . गीता सूत्र – 8.3

अर्थात

भूतों में भाव उत्पन करनें के त्याग को कर्म कहते हैं

गीता के इस आंशिक सूत्र का अर्थ श्रीधराचार्य , आदि शंकर , रामानुज , सर्वपल्ली राधाकृष्णन एवं अन्य सभी लोग अलग अलग ढँग से लगाते हैं लेकिन इस सुत्रांश को समझनें के लिए कर्म से सम्बंधित गीता में दिए गए 180 श्लोकों को ध्यान से देखना होगा / कुछ लोग इस सुत्रांश का अर्थ यह भी लगाते हैं कि जीव उत्पन्न करनें की देह में जो ऊर्जा है उसे बनाए रखनें के लिए मनुष्य जो भी करता है उसे कर्म कहते हैं

लेकिन गीता-साधना से जो गुजरेगा वह कर्म की परिभाषा कुछ इस प्रकार से करेगा-------

भावों के माध्यम से निर्भाव की स्थिति में पहुंचनें के लिए मनुष्य को जो कुछ भी तन,मन एवं बुद्धि के सहयोग से करना होता है उसे कर्म कहते हैं/

गीता में कर्म को समझनें के लिए गीता के निम्न सूत्रों को एक साथ अवश्य देखना चाहिए … ......

8.3

3.5

18.11

18.48

3.27

3.28

3.33

18.59

1860

7.12

4.13

18.50

18.41

18.19

2.45

14.5

3.4

4.18

18.49

13.21

5.10

4.38

-

-


कर्म इन्द्रियाँ एवं मन गुण तत्त्वों के प्रभाव में जो करते हैं उसे भोग - कर्म कहते हैं , सभी भोग कर्मों में दोष होते हैं लेकिन उनमें सहज कर्मों को करते हुए उनमें स्थिति गुण ऊर्जा को समझनें की साधान को कर्म - योग कहते हैं / गुण तत्वों के प्रभाव में बिषय एवं इंद्रिय के सहयोग से जो भी होता है वह भोग है और सभी भोग कर्म करते समय सुख का अनुभव कराते हैं लेकिन उनका अंत परिणाम दुःख देता है अर्थात भोग कर्म के सुख में दुःख का बीज पल रहा होता है /

कर्म साधना जब अपनें आखिरी सीढ़ी को पार करती है तब -----

कर्म में अकर्म दिखनें लगता है और अकर्म में कर्म दिखनें लगता है

कर्म स्वतः होते हैं और उन कर्मों का द्रष्टा भावातीत स्थिति में मन होता है और इन्द्रियाँ समभाव में रहती है/

==== ओम् ======


Wednesday, May 30, 2012

गीता में अर्जुन के आठवें प्रश्न का भाग दो

गीता में अर्जुन के आठवें प्रश्न का दूसरा भाग इस प्रकार है-----

अर्जुन पूछ रहे हैं … ......

किम् अध्यात्मम्?

अर्थात अध्यात्म क्या है ?

उत्तर में प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं -----

स्वभाव:अध्यात्मम् उच्यते …........गीता श्लोक –8.3

अर्जुन पूछ रहे हैं , “ अध्यात्म किसको कहते हैं ? “ और प्रभु उत्तर में मात्र इतना कह रहे हैं , “ मनुष्य का स्वभाव ही उसका अध्यात्म है / “ अब प्रश्न यह उठता है कि आखिर मनुष्य का स्वभाव क्या है ?

गीता में यदि आप गीता सूत्र – 18..59 , 18.60 , 3.5 , 3.27 एवं 3.33 को देखें तो यह बात सामनें आती है … ......

"तीन गुणों की ऊर्जा से मनुष्य का स्वभाव बनता है और स्वभाव से कर्म होता है/ “

गुण साधना में गुणों के प्रति होश बना कर जब साधक गुणातीत स्थिति में पहुँचता है तब उसे वह सब अकर्म दिखनें लगता है जिसे वह अभीं तक कर्म समझता रहा होता है और अभीं तक जिनको अकर्म समझता रहा होता है वह कर्म के रूप में दिखनें लगता है[यहाँ आप गीता सूत्र –4.18को भी देखें] /

गीता की साधना मूलतः गुण साधना है जहाँ --------

  • भोग से योग में प्रवेश करना होता है

  • योग में वैराज्ञ से उनका सम्बन्ध जुड़ता है

  • वैराज्ञ में उसे ज्ञान की प्राप्ति मिलती है

  • ज्ञान वह है जिससे क्षेत्र – क्षेत्रज्ञ का बोध होता है

  • ज्ञानी कर्म में अकर्म एवं अकर्म में कर्म देखता है

और इस प्रकार …...

गुणातीत में पहुँच कर वह साधक कुछ इस प्रकार का हो जाता है … ...

या निशा सर्वभूतानां तस्याम् जागर्ति संयमी

यस्याम् जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने:

और इस प्रकार के योगी का स्वभाव अध्यात्म होता है //

==== ओम्========





Sunday, May 27, 2012

गीता में अर्जुन का आठवां प्रश्न भाग एक

पिछले अंक में गीता श्लोक – 8.1 एवं 8.2 में हमनें देखा कि अर्जुन एक साथ आठ प्रश्न कर रहे थे और उन प्रश्नों में पहला प्रश्न था ---------

किम् तत् ब्रह्म?अर्थात क्या है,वह ब्रह्म? [ What is that Brahm ? ]

आदि शंकर [ आदि शंकराचार्य – 788 CE – 820 CE ] अपनें अल्प कालीन भौतिक जीवन में अद्वैत्य के नाम पर ब्रह्म की स्मृति उस समय के मूल सांख्य – योग , मिमांस , जैन एवं बुद्ध परम्परा के लोगों के ह्रदय में जगाते रहे / जैसे जैसे उनका यह प्रयाश चक्रवात की भांति फैलनें लगा और जिन लोगों की आस्ता सांख्य , न्याय , मिमांस , जैन एवं बुद्ध परम्पराओं में थी वे लोग आदि शंकर के पीछे - पीछे चलनें लगे उनके भौतिक जीवन का अंत आगया और उनके प्रयाश की कमर यहीं टूट गयी / आज जो दसनामी सम्प्रदाय चल रहा है वह आदि शंकर की ही देन है / आदि शंकर के जानें के बाद भारत में धीरे - धीरे निराकार ब्रह्म की सोच समाप्त होनें लगी और एक तरफ भारत गुलाम होनें लगा और दूसरी तरफ यहाँ के लोग भक्ति आंदोलन में नाच - नाच कर अपनी गुलामी को देखते रहे / बुद्ध – महावीर एवं सांख्य दर्शन ठीक वैसे थे उन दिनों जैसे यूनान का दर्शन था , जिससे आज का विज्ञान विकसित हुआ है लेकिन भारत न बुद्धि योग में आगे बढ़ कर विज्ञान की मजबूत नीव रख सका और न ही पूर्ण रूप से भक्ति का आनंद ले सका , कहते हैं न – जाति रहे हरि भजन को ओटन लगे कपास , कुछ – कुछ ऎसी स्थिति यहाँ की हो गयी / कल हम लोग भौतिक स्तर पर पश्चिम के गुलाम थे और आज बुद्धि स्तर पर उनकी गुलामी ढो रहे हैं /

गीता में ब्रह्म से समन्धित निम्न श्लोक हैं जिनको आप स्वयं देखे … .....

गीता श्लोक –8.3 , 13.3 , 13.12 , 13.13 , 13.14 , 13.15 , 13.16 , 13.17

ये श्लोक कहते हैं----------

ब्रह्म , प्रकृति एवं पुरुष [ भगवान श्री कृष्ण ] तीन के योग का फल है यह जीव जहाँ ब्रह्म एवं प्रकृति अलग अलग नहीं हैं प्रभु श्री कृष्ण के अधीन हैं और उनसे ही हैं / ब्रह्म और प्रभु श्री कृष्ण को कुछ इस प्रकार से समझा जा सकता है ----- प्रभु श्री कृष्ण जिनको अनेक साकार रूपों में हम जानते हैं उनका निराकार आयाम ही ब्रह्म है / ब्रह्म से ब्रह्म में उनकी माया है , माया तीन गुणों से है जिसमें साकार रूप से नित पल बदलाव से गुजर रही प्रकृति को हम देख रहे हैं और यह प्रकृति ही भौतिक रूप से साकारों की जननी के रूप में दिखती है /

अगले अंक में इस प्रश्न का अगला भाग देखा जाएगा


====== ओम्=======


Thursday, May 24, 2012

गीता में अर्जुन का आठवां प्रश्न

गीता में अर्जुन अपनें आठवें प्रश्न के रुप में जानना चाहते हैं … .....
गीता श्लोक –8.1 + 8.2
किं तद्ब्रह्म किं अध्यात्मम् किं कर्म पुरुषोत्तम /
अधिभूतं च किं प्रोक्तमधिदैवं किं उच्यते //

अधियज्ञ:कथम् कः अत्र देहे अस्मिन् मधुसूदन/
प्रयाणकाले च कथं ज्ञेय:असि नियतात्मभिः//
अर्जुन यहाँ पूछ रहे हैं:
हे पुरुषोत्तम ! ब्रह्म क्या है ? अध्यात्म क्या है ? कर्म क्या है ? अधिभूत क्या कहा गया है ? अधिदैव किसको कहते हैं ? यहाँ अधियज्ञ कौन है और यह इस देह में कैसे है ? और युक्त चित्त वाले पुरुषों द्वारा आप अंत समय में कैसे जानें जाते हैं ?
अर्जुन यहाँ एक साथ आठ प्रश्न कर रहे हैं और आप कुछ दिन अर्जुन के उस मन की स्थिति में झाँकने का प्रयत्न करे जहाँ से ऐसे प्रश्न उठ रहे हैं ? प्रश्नों को देखनें से ऐसा नहीं लगता की अर्जुन प्रभु श्री कृष्ण को दिल से प्रभु समझते हैं / अर्जुन के इन प्रश्नों से ऐसा लगता है जैसे कोई दो कुछ – कुछ जानें - पहचानें लोग एक दूसरे की बुद्धि की लम्बाई , चौड़ाई और गहराई माप रहे हों /
हम यहाँ ब्रह्म , अध्यात्म एवं कर्म को गीता में देखनें जा रहे हैं -------
प्रभु कहते हैं:------
परमं अक्षरं ब्रह्मं
स्वभावः अध्यात्मं
भूत भावः उद्भव करो विसर्गः इति कर्म : ------- गीता श्लोक – 8.3
आज यहीं पर विश्राम करते हैं , अगले अंक में देखेंगे परमं अक्षरं ब्रह्मम् गीता में क्या है ?
===== ओम्======

Wednesday, May 16, 2012

गीता में अर्जुन का सातवाँ प्रश्न

गीता श्लोक –6.37से6.39

अर्जुन प्रभु श्री कृष्ण से जानना चाह रहे हैं ----------

हे श्री कृष्ण!जो योग में श्रद्धा रखनें वाले हैं किन्तु संयमी नहीं हैं और अंत समय में योग से विचलित हो जाते हैं तथा योग – सिद्धि से दूर रह जाते हैं,ऐसे योगी मृत्यु के बाद कौन सी गति प्राप्त करते हैं?

अर्जुन के इस प्रश्न के सम्बन्ध में गीता में हमें 38 [ श्लोक – 6.38 से 7. 30 तक ] श्लोकों को देखना होगा क्योंकि अर्जुन का अगला प्रश्न गीता श्लोक – 8.1 से प्रारम्भ होता है /

प्रभु श्री कृष्ण इस प्रश्न के सम्बन्ध में कहते हैं … .....

गीता श्लोक –7.3

मनुष्याणाम् सहस्त्रेषु कश्चित् यतति सिद्धये

यतताम् अपि सिद्धानाम् कश्चित् माम् वेत्ति तत्त्वत:

अर्थात …..

हजारों लोगों में कोई एक मेरी प्राप्ति के लिए कोशीश करता है और उनमें से कोई मुझे तत्त्व से समझनें में सफल होता है//

प्रभु कहते हैं ….....

दो प्रकार के योगी हैं ; एक ऐसे योगी हैं जो वैराज्ञ में पहुँच जाते हैं लेकिन देह त्यागनें के समय वे योग – सिद्धि को नहीं प्राप्त कर पाते और दूसरे ऐसे योगी हैं जो वैराज्ञ प्राप्ति से पहले ही योग खंडित स्थिति में देह छोड़ जाते हैं / ऎसी स्थिति में वैराज्ञ प्राप्त योगी सीधे किसी योगी कुल में जन्म लेता है और बचपन से वह वैराज्ञ से आगे की साधना में लीन दिखता है ; उसकी पीठ भोग की ओर बचपन से रहती है / दूसरे योगी वे हैं जिनका योग खंडित हो जाता है तब जब वे अभीं वैराज्ञ से दूर रहते हैं और उनका अंत आ जता है , ऐसे योगी पहले स्वर्ग जाते हैं , स्वर्ग में वे ऐश्वर्य भोगों को भोगते हैंऔर पुनः मृत्यु लोक में जन्म लेते हैं और साधना में लीन होनें की चेष्ठा करते हैं /

यहाँ एक बात आप ध्यान से देखे जो वेदों से एक दम भिन्न है;वेदों में स्वर्ग प्राप्ति को अहम् माना गया है और गीता में परम गति को सर्बोपरि कहा गया है/गीता स्वर्ग को भी भोग का एक माध्यम समझता है और इस प्रकार इसे वेदान्त कि संज्ञा मिली हुयी है/


=====ओम्======


Saturday, May 12, 2012

गीता में अर्जुन का छठवां प्रश्न

गीता श्लोक –6.33

यः अयं योगः त्वया प्रोक्त : साम्येन मधुसूदन /

एतस्य अहम् न पश्यामि चंचलात्वात् स्थितिम् स्थिराम् //

इस श्लोक को कुछ इस प्रकार से देखें … ....

मधुसूदन यः अयं योगः त्वया साम्येन प्रोक्ता

चंचलत्वात् अहम् एतस्य स्थिराम् स्थितिम् न पश्यामि /

हिंदी भावार्थ -----

हे मधुसूदन!जो यह समभाव योग आपने बताया उसे मैं अपनें मन की चंचलता के कारण समझनें में स्वयं को असमर्थ पा रहा हूँ//

इस पश्न के सम्बन्ध में प्रभु कहते हैं ------

गीता श्लोक –6.35

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहम् चलम्/

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते//

अर्थात … ..

हे महाबाहो!तुम जो कह रहे हो वह सत्य है लेकिन मन की चंचलता अभ्यास योग से मिले वैराज्ञ प्राप्ति से दूर होती है और मन परम सत्य पर स्थिर हो जाता है//

कुछ लोग इस सूत्र को कुछ इस प्रकार से देखते हैं …..

मन की चंचलता अभ्यास एवं वैराज्ञ से शांत होती है ; यह बात सुननें एवं पढनें में अति सरल दिखती है लेकिन करनें में यह दिशाहीन मार्ग की तरह दिखती है / वैराज्ञ कोई वास्तु नहीं कि जब चाहा प्राप्त कर लिया , गए काशी - मथुरा और बन गए सर मुडा कर वैरागी , वैराज्ञ का अर्थ है वह स्थिति जहाँ राग कि छाया तक न पड़े और यह संभव है अभ्यास योग से / अभ्यास योग क्या है ? कर्म में कर्म बंधनों की समझ भोग तत्त्वों की आसक्ति से दूर रखता है और सभीं कर्म आसक्ति रहित समभाव में होते रहते हैं , इस स्थिति को प्राप्त करनें वाला कर्म में अकर्म एवं अकर्म में कर्म की झलक पाता रहता है और उसके सभीं कर्म मंगल मय होते चले जाते हैं / यह तब सभव होता है जब … ...

विषय,इंद्रिय,मन,बुद्धि के स्वभाव को देखनें का अभ्यास किया जाए और भोग तत्त्वों जैसे आसक्ति,कामना,क्रोध,लोभ,मोह,भय,आलस्य एवं अहँकार को समझा जाए/

भोग तत्त्वों का द्रष्टा , अपने कर्मों का कर्ता नही द्रष्टा होता है और वह तीन गुणों को कर्ता देखता है / ध्यान , तप , सुमिरन , पूजा , पाठ ये सब अभ्यास – योग के माध्यम हैं /

====ओम्======



Tuesday, May 8, 2012

गीत में अर्जुन का पांचवां प्रश्न

गीता श्लोक –5.1

संन्यासं कर्मणाम् कृष्ण पुनः योगं च शंससि/

तत् श्रेयः एतयो:एकं तत् में ब्रूहि सुनिश्चितम्//

भावार्थ : ----

आर्जुन पूछ रहे हैं …....

हे कृष्ण ! आप कर्म – संन्यास की और फिर कर्म – योग की प्रशंसा करते हैं , आप कृपया मुझे उसके सम्बन्ध में बताएं जो मेरे लिए कल्याणकारी हो /

अर्जुन का पहला प्रश्न था [ गीता श्लोक – 2.54 ] कुछ इस प्रकार … ...

स्थिर प्रज्ञ योगी की पहचान क्या है ? , दूसरा प्रश्न था [ गीता श्लोक – 3.1 , 3.2 ] - यदि कर्म से उत्तम ज्ञान है तो फिर आप मुझे कर्म में क्यों उतारना चाह रहे हैं ? , तीसरा प्रश्न अर्जुन का इस प्रकार से है [ गीता श्लोक – 3.36 ] मनुष्य किससे सम्मोहित हो कर पाप कर्म करता है ? और अर्जुन का चौथा प्रश्न है , आप का जन्म वर्त्तमान में हुआ है और सूर्य का जन्म अति प्राचीन है अतः आप सूर्य को कम – योग का ज्ञान कैसे दिया ?

अर्जुन पहले स्थिर प्रज्ञ योगी की पहचान पूछते हैं जबकी उनको यह पता नहीं की स्थिर प्रज्ञता क्या

है? ,अर्जुन इसी तरह कर्म एवं ज्ञान की बात करते हैं जबकी उनको न तो कर्म की परिभाषा मालूम है और न ही ज्ञान की क्योंकि कर्म की परिभाषा अध्याय आठ में प्रभु देते हैं और ज्ञान की परिभाषा अध्याय तेरह में दी गयी है/

अर्जुन के पांचवें प्रश्न के सम्बन्ध में हमें गीता श्लोक – 5.2 से 6.32 तक को देखना चाहिए लेकिन फिर भी प्रश्न का ठीक – ठीक उत्तर यहाँ नहीं दिखता , उत्तर तो उसे मिलता है जो सम्पूर्ण गीता - सागर में तैरता है / कर्म , कर्म – योग , कर्म वैराज्ञ , ज्ञान और परम गति [ निर्वाण ] इनका आपस में गहरा सम्बन्ध है जिसको समझना ही कर्म – योग को पकड़ना है / कर्म में कर्म की पकड़ की समझ भोग कर्म को योग कर्म में बदलती है / कर्म योग में पहुंचा योगी धीरे - धीरे कर्म तत्त्वों से वैराज्ञ प्राप्त कर के ज्ञान प्राप्त करता है और ज्ञान में जिसका बसेरा होता है वहनिर्वाणप्राप्त करता है /

कर्म एक मार्ग हैजहाँ काम से राम तक की यात्रा का नाम है कर्म – योग / कर्म योग की सिद्धि का फल है ज्ञान और ज्ञान सीधे निर्वाण में पहुंचाता है तब जब उसके जीवन में अहँकार की हवा न लगे //

=====ओम्=====



Sunday, May 6, 2012

गीता में अर्जुन का चौथा प्रश्न

अपरं भवतः जन्म परम् जन्म विवस्वतः/

कथं एतत् विजानीयाम् त्वं आदौ प्रोक्तवान् इति//

भावार्थ

आपका जन्म अर्वाचीन है[अर्थात वर्तमान में हुआ है]और सूर्य का जन्म बहुत पुराना है अर्थात कल्प के आदि में हो चुका था,मैं इस बात को की समझूं कि आप सूर्य को यह योग बताया था?

यह योग का क्या अर्थ है?

अर्जुन का तीसरा प्रश्न था , मनुष्य पाप कर्म क्यों करता है ? और प्रभु कहते हैं , काम का सम्मोहन मनुष्य को पाप कर्म करनें को मजबूर करता है और गीता अध्याय तीन के श्लोक 3.37 से 3.42 तक काम नियंत्रण से सम्बंधित हैं / प्रभु काम के सम्बन्ध में कहते हैं , हे अर्जुन ! काम के सम्मोहन से मात्र वह बचा रहता है जो आत्मा केंद्रित होता है / काम का सम्मोहन बुद्धि तक रहता है अतः इंद्रिय , मन एवं बुद्धि आधारित ब्यक्ति काम के सम्मोहन से नहीं बच सकता / बिषय , इंद्रिय , मन एवं बुद्धि की साधाना जब पकती है तब वह ब्यक्ति आत्मा केंद्रित होता है और गुणातीत स्थिति में काम का द्रष्टा बन जाता है /

गीता में अर्जुन के चौथे प्रश्न के सम्बन्ध में आप गीता सूत्र – 4.5 से 4.42 तक को देखें / प्रभु कहते हैं , हे अर्जुन ! मेरे और तेरे अबसे पहले अनेक बार जन्म हो चुके हैं [ सूत्र – 4.5 ] , मेरे सभीं जन्म मेरी स्मृति में हैं लेकिन तेरी स्मृति में तेरे जन्मों की बात नहीं है / गीता में गीता श्लोक – 4.5 में पीछले जन्मों की स्मृति की बात कही जा रही है जिसको बुद्ध आलय विज्ञान और महावीर जातिस्मरण का नाम दिए थे / ईशापूर्व पांचवीं एवं छठवीं शताब्दी तक योग के आधार पर योगी लोग अपनी पिछली स्मृतियों में वापिस लौट सकते थे लेकिन अब यह योग लुप्त हो चुका है / काम नियंत्रण योग के सम्बन्ध में प्रभु कहते हैं . यह योग अब लुट हो चुका है लेकिन मैं इसके सम्बन्ध में तुमको

बताता हूँ / गीता सूत्र – 7.11 में प्रभु कहते हैं ---- धर्माविरुद्धः भूतेषु कामः अस्मि अर्थात धर्म के अनुकूल जो काम है वह मैं हूँ / काम – वासना यह दो शब्द एक साथ देखे जाते हैं लेकिन इनकी समझमनुष्य को भोगी से योगी बनाती है / जब तक काम में वासना की ऊर्जा है तबतक वह काम राजस गुण का एक तत्त्व रहता है अर्थात यह काम भोग में खीचता हैऔरजब काम में वासना की अनुपस्थिति हो जाती है तब वह काम काम – योग बन जाता है और वह भोग की ओर नहीं राम की ओर लेजाता है /


===== ओम्=======


Thursday, May 3, 2012

गीता में अर्जुन का तीसरा प्रश्न

गीता श्लोक –3.36

अथ केन प्रयुक्तः अयम् पापं चरति पूरुषः/

अनिच्छन् अपि वार्ष्णेय बलात् इव नियोजितः//

हे कृष्ण ! फिर यह मनुष्य न चाहते हुए भी बलात् लगाए हुए की भांति किससे प्रेरित हो कर पाप का आचरण करता है ?

अर्थात

मनुष्य पाप कर्म करनें के लिए क्यों बाध्य है?

Why does a man commit sins ?

प्रश्न का उत्तर

प्रश्न के उतर के रूप में मात्र एक सूत्र [ सूत्र – 3.37 ] स्वयं में पूर्ण है लेकिन गीता में अर्जुन का अगला प्रश्न श्लोक – 4.4 से बनता है अतः श्लोक – 3.36 से श्लोक – 4.4 तक [ 11 श्लोक ] र्जुन के इस प्रश्न के सन्दर्भ में देखे जानें चाहिए / अब देखिये प्रभु का उत्तर जो इस प्रकार से है -------

श्लोक –3.36

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः/

महाशनो महापाप्मा विद्धि एनम् इह वैरिणम्//

अर्थात

काम का रूपांतरण क्रोध है,काम राजस गुण का मूल तत्त्व है

काम भोग करनें से तृप्त नहीं होता और यह पाप करनें की ऊर्जा पैदा करता है/

Passion a natural mode generates sex energy , sex energy pulls into sins if one is not aware of it .

कुरुक्षेत्र में दोनों सेनाओं के मध्य जहाँ संभवतः मानव इतिहास का सबसे गंभीर युद्ध के बादल सघन हो रहे हैं , वहाँ ऎसी स्थिति में भगवान श्री कृष्ण जो एक सांख्य – योगी भी हैं , अर्जुन को बता रहे हैं कि हे अर्जुन ! मनुष्य पाप कर्म में काम ऊर्जा के सम्मोहन के कारण से उतरता है /

राजस गुण भोग की ऊर्जा का परम रसायन है जो आसक्ति , काम , कामना , क्रोध एवं लोभ की ऊर्जा समय के अनुकूल पैदा करता रहता है / नुष्य काम ऊर्जा से पैदा होता है , काम की तृप्ति उसके जीवन का केंद्र बन जाती है और जब वह मरता है तब उसका प्राण या तो मल इंद्रिय से या मूत्र इंद्रिय से निकलता है / मरे हुए ब्यक्ति का आप कभीं निरिक्षण करना और उसकी पांच ज्ञान इंद्रियों को और पांच कर्म इंद्रियों को देखना , वह इंद्रिय जो असमान्य स्थिति में हो समझना उसका प्राण उस इंद्रिय से निकला है / वह जो योगी है ; जो प्रभु में अपना बसेरा बना चुका होता है उसका प्राण या तो आज्ञाचक्र से निकलता है या फिर सहस्त्रार चक्र से जो क्रमशः मस्तक के मध्य भाग में एवं सिर में उस स्थान पर होता है जहाँ लोग चोटी रखते हैं / योगी के मृत देह को यदि कुछ दिन योंही रखा जाए तो उस से बदबू नहीं आती और भगी की लाश से पांच घंटे बाद बदबू आनें लगती है /

====ओम्========


Thursday, April 26, 2012

गीता में अर्जुन का दूसरा प्रश्न

गीता श्लोक –3.1 , 3.2

ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिः जनार्दन /

तत् किम् कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव //

ब्यामिश्रेण इव वाक्येन बुद्धिम् मोहयसि इव में

तत् एकम् वद निश्चित्य येन श्रेयः अहम् आप्नुयाम् //

अर्जुन कह रहे हैं-----

हे केशव!जब आप को ज्ञान कर्म की अपेक्षा श्रेष्ठ दिखता है तब आप मुझे इस युद्ध – कर्म में क्यों लगाना चाह रहे हैं?आप के नाना प्रकार के वचनों से मैं भ्रमित हो रहा हूँ,आप कृपया मुझे वह स्पष्ट बताएं जो मुझे कल्याणकारी हो?

इस प्रश्न का उत्तर गीता सूत्र –3.3से3.35के मध्य होना चाहिए लेकिन ऐसा है नहीं,उत्तर के लिए आप को गीता-सागर में तैरना ही होगा/

गीत अध्याय दो में ज्ञान - योग के मूल विषय आत्मा के सम्बन्ध में प्रभु मोह ग्रसित अर्जुन को ऎसी बातें बता रहे हैं जो गुण प्रभावित बुद्धि से समझाना संभव नहीं / गीता कहता है - बुद्धि दो प्रकार की होती है ; एक बुद्धि वह है जो गुण प्रभावित होती है जिसके माध्यम से हम भोग को ही भगवान समझते हैं और दूसरी बुद्धि गुणों से अप्रभावित बुद्धि होती है जो एक दर्पण सा होती है और जिस पर प्रभु के अलावा और कुछ नहीं होता / ज्ञान की बात अर्जुन यहाँ कर रहे हैं और प्रभु ज्ञान की परिभाषा अध्याय – 13 में सूत्र दो के माध्यम से कुछ इस प्रकार से देते हैं … ....

क्षेत्रक्षेत्रज्ञयो: ज्ञानं यत् तत् ज्ञानं मतं मम

अर्थात

वह जो क्षेत्र एवं क्षेत्रज्ञ का बोध कराये, ज्ञान है/

अर्जुन के प्रश्ना का सीधा सा जबाब आप को कुछ इस प्रकार से मिलता है जब आप सम्पूर्ण गीता को पीते हैं तब … ......

भोग कर्मों में भोग तत्त्वों का जब स्वतः त्याग हो जाए और भोग कर्म योग में बदल जाए तब कर्म योग की सिद्धि के फल के रूप में जो बोध होता है वह है ज्ञान/ज्ञान प्राप्ति के ठीक पहले वैराज्ञ मिलता है जहाँ परमानंद की अनुभूति के साथ ज्ञान में कदम पहुँचता है//

===ओम्=====


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