Friday, December 13, 2013

गीता मोती - 13

● संसार , प्रभु से प्रभुमें प्रभुकी मायासे निर्मित है। माया तीन गुण और अपरा - परा दो प्रकृतियों से निर्मित है ।माया वह माध्यम है जहाँ हर पल हो रहे परिवर्तन से काल ( time )के रूप में परम,अब्यय , निर्विकार और निराकार प्रभुके होनें का आभाष होता है ।
● काल प्रभु की चाल है और संसारमें हो रहा परिवर्तन ही माया का संकेत है ।
● संसार मनुष्यके लिए एक उत्तम प्रयोगशाला है और अन्य जीवोंके लिए भोजन- प्रजननकी एक नर्सरी है ।
● संसारमें मनुष्यको छोड़ कर अन्य सभीं जीवोंका जीवन काम और भोजन आश्रित है लेकिन मनुष्यके लिए इस संसारमेंभोजन और काम सरल माध्यम हैं जिनके सहयोगसे वह अपनी नीचे बहनें की कोशिश कर रही उर्जा को ऊपर उठाता है और ऊर्जा जब उर्ध्वगामी हो जाती है तब रामकी अनुभूति होती है। मनुष्यकी भोजन और कामकी समझ उसे ध्यानमें प्रवेश कराती है और ध्यान रामका निवास स्थान है । ● काल प्रकृति के परिवर्तन से मायाकी सूचना देता है। ।
● माया ऊर्जा शरीर में बहा रही उर्जा को उर्ध्व गामी होनें नहीं देती और माया की यह रुकावट उर्जा को निर्विकार बना दक्ती है और निर्विकार उर्जा ही होश
है ।
● होशमें बसा हुआ मनुष्य बुद्ध होता है : जब तक होश बना है तबतक वह बुद्ध रूप में माया का द्रष्टा होता है ।
** गीतामें प्रभु श्री कृष्ण अर्जुनको यही सीख देते हैं । ~~ ॐ ~~

Sunday, December 8, 2013

गीता परिचय

<>श्रीमद्भभगवद्गीता <> 
गीता महाभारत में भीष्म पर्वके अंतर्गत 6.25 - 6.42 में दिया गया है ।महाभारतका 18 पुराणों में कोई स्थान नहीं जबकि महाभारत की रचना भागवत से पहले हुयी है और भागवत 18000 श्लोकोंवाला एक प्रमुख पुराण है । महाभारत एवं भागवतकी भाषा गीता की भाषा से भिन्न है और इन तीनों ग्रंथों को पढ़नें के बाद ऐसा लगनें लगता है जैसे गीता इनसे एक दम भिन्न है । मैं समझता हूँ , गीता एक ऐसी सिद्ध योगी की देन हो सकता है जो मूलतः सांख्य योगी रहा हो ।आइन्स्टाइन और मैक्स प्लैंकसे ले कर एक आम आदमी तकको गीता अपनी ओर आकर्षित करता है ,लोग इसे इतना क्यों चाहते हैं ? यह एक शोधका बिषय है । आइये देखते हैं गीताकी भाषाको , इसके कुछ श्लोकोंके माध्यम 
से :-- 
(1) गीता श्लोक : 2.55 + 2.70 " कमाना रहित बुद्धिको स्थिर प्रज्ञता कहते हैं।" 
(2) गीता श्लोक : 5.20 " स्थिर प्रज्ञ ब्रह्म में बसता है ।" (3)गीता श्लोक : 2.57 + 5.19 " स्थिर प्रज्ञ समभाव योगी ब्रह्म जैसा होता है ।
" देखा ! गीताकी भाषाको , गीताकी भाषा गणितकी भाषा है जहाँ गागर में सागर उनको दिखता है जो खोजी हैं । गीताके शब्द हों और उन शब्दोंका आप का अर्थ हो तो वे गीता - शब्द प्राण रहित हो जाते हैं और गीताके शब्द हों और उनकी ब्याख्या गीतामें खोजी जाय तब वही शब्द आप को वह उर्जा दे सकते हैं जो कई जन्मोंके लिए पर्याप्त हो सकती है लेकिन दुःख होता है इस बात को देख कर कि गीताकी भाषा में कोई दार्शनिक अपनेंको नहीं बहाया अपितु गीता की भाषाको अपनी भाषामें बहाकर गीतामें छिपे अब्यक्त भावको समाप्त जरुर कर दिया ।गीतासे ही कुछ और उदाहरण देखते हैं। 
* गीतामें अर्जुन प्रश्नके बाद प्रश्न करते हैं,प्रभुकी हर बात में अर्जुन प्रश्न ढूढ़ लेते हैं और अर्जुनको गीता में प्रभु सीधी बात कहते 
हैं -- 
*  तामस गुण से अज्ञान है , अज्ञानसे संदेह है ; संदेह अज्ञानकी उर्जाका संकेत है और अज्ञान , संदेह , भ्रम एवं अहंकारसे प्रश्न उठते हैं , जितना गहरा संदेह होगा उतना गहरा प्रश्न उठेगा लेकिन यह बात प्रभु एक जगह नहीं कहते , यह प्रभुकी बात गीताके कई अध्यायोंके कई श्लोकों का भाव है ।
 * गीतामें अपनें प्रश्नोंके समाधान के लिए तैरना ,बुद्धि -योग है और गीता बुद्धि योगका सागर है ।
 * गीता , भोगसे योग , कर्मसे ज्ञान , ज्ञानसे भोग - वैराग्य और वैराग्यावस्था में परम धामकी यात्रा करवाता है । गीताको लोग जितना जल्दी पकड़ते हैं उतना ही जल्दी इसे छोड़ भी देते हैं और ऐसा करनें से वे गीता की उर्जा प्राप्त करनें से चूक जाते हैं । गीता किसी और को सुनानेंका बिषय नहीं है ,यह तो कर्मसे कर्म -योग में ,कर्म - योगमें भोग तत्त्वों से वैराज्ञ ,वैराज्ञमें ज्ञान और ज्ञान -योगमें परम धामकी यात्रा की उर्जा देता है । गीता साधनाका एक सीधा मार्ग है जीसकी यात्रा एक - एक सीढ़ी चल कर करनी होती है और इस यात्रामें हर सीढ़ी की यात्रा पूर्ण होशसे भरी होनी चाहिए । 
*** ॐ ***

Tuesday, December 3, 2013

गीता मोती -12

गीता -परिचय 
<> गीता महाभारत में भीष्म पर्वके अंतर्गत 6.25 - 6.42 में दिया गया है ।महाभारतका 18 पुराणों में कोई स्थान नहीं जबकि महाभारत की रचना भागवत से पहले हुयी है और भागवत एक प्रमुख पुराण है । महाभारत एवं भागवतकी भाषा गीता की भाषा से भिन्न है और इन तीनों ग्रंथों को पढ़नें के बाद ऐसा लगनें लगता है जैसे गीता इनसे एक दम भिन्न है । मैं समझता हूँ , गीता एक ऐसी सिद्ध योगी की देन हो सकता है जो मूलतः सांख्य योगी रहा हो ।आइन्स्टाइन और मैक्स प्लैंकसे ले कर एक आम आदमी तकको गीता अपनी ओर आकर्षित करता है ,लोग इसे इतना क्यों चाहते हैं ? यह एक शोधका बिषय बन सकता है । आइये देखते हैं गीताकी भाषाको , यहां इसके कुछ श्लोकोंके माध्यम से :-- (1) गीता श्लोक : 2.55 + 2.70 
" कमाना रहित बुद्धिको स्थिर प्रज्ञता कहते हैं।"
 (2) गीता श्लोक : 5.20
 " स्थिर प्रज्ञ ब्रह्म में बसता है ।
(3)गीता श्लोक 2.57 + 5.19 
" स्थिर प्रज्ञ समभाव योगी ब्रह्म जैसा होता है ।" 
देखा ! गीताकी भाषाको , गीताकी भाषा गणित की भाषा है जहां गागर में सागर उनको दिखता है जो खोजी हैं । गीताके शब्द हों और उन शब्दोंका आप का अर्थ हो तो वे शब्द प्राण रहित हो जाते हैं और गीता के शब्द हों और उनकी ब्याख्या गीतामें खोजी जाय तब वही शब्द आप को वह उर्जा दे सकते हैं जो कई जन्मों के लिए पर्याप्त हो सकती है लेकिन दुःख होता है इस बात को देख कर की गीता की भाषा में कोई दार्शनिक अपनें को नहीं बहाया अपितु गीता की भाषाको अपनी भाषामें बहाकर गीतामें छिपे अब्यक्त भावको समाप्त जरुर कर दिया ।गीता से ही अब एक और उदाहरण देखाए हैं । 
* गीतामें अर्जुन प्रश्नके बाद प्रश्न करते हैं,प्रभु की हर बात में अर्जुन प्रश्न ढूढ़ लिये हैं और अर्जुनको गीता में प्रभु सीधी बात
 कहते हैं -- --- 
तामस गुण से अज्ञान है , अज्ञानसे संदेह है ; संदेह अज्ञानकी उर्जाका संकेत है और अज्ञान , संदेह , भ्रम , अहंकार से प्रश्न उठते हैं , जितना गहरा संदेह होगा उतना गहरा प्रश्न उठेगा लेकिन यह बात प्रभु एक जगह नहीं कहते , यह प्रभुकी बात गीताके कई अध्यायोंके कई श्लोकों का भाव है । 
* गीतामें अपनें प्रश्नोंके समाधान के लिए तैरना ,बुद्धि -योग है और गीता बुद्धि योगका सागर है ।
 * गीता , भोगसे योग , कर्मसे ज्ञान , ज्ञानसे भोग - वैराग्य और वैराग्यावस्था में परम धामकी यात्रा है गीता करवाता है । गीता को लोग जितना जल्दी पकड़ते हैं उतना ही जल्दी इसे छोड़ भी देते हैं और गीता की उर्जा प्राप्त करनें से चूक जाते हैं । गीता किसी और को सुनानेंका बिषय नहीं रखता ,यह तो कर्मसे कर्म -योग में ,
कर्म - योगमें भोग तत्त्वों से वैराज्ञ ,वैराज्ञमें ज्ञान और ज्ञान -योगमें परम धामकी यात्रा की उर्जा देता है ।
 *** ॐ ***

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