Friday, April 30, 2010

जपजी साहिब - 11


सुणिए सरा गुणा के गाह .....
सुणिए सेख पीर पातिसाह .....
सुणिए अंधे पावहि राहु ......
सुणिए हाथ होवे असगाहु ॥

आदि गुरु श्री नानकजी साहिब कहते हैं -----
सुननें वाला ......
ज्ञान सागर में बसता है ...
बादशाह शेख पीर बनता है ...
और सुननें से ---
अंधों को राह मिल जाता है ...
समुद्र भी उथले हो उठते हैं ॥

गुरूजी साहिब अंधा शब्द किसके लिए प्रयोग कर रहे हैं ? और समुद्र उथले हो उठते हैं कहनें के पीछे क्या भाव है ? इन दो बातों को समझना चाहिए ।

दर्शन में अज्ञानियों के लिए अंधा शब्द का प्रयोग किया जाता है और गीता कहता है -----
कामना एवं मोह अज्ञान की जननी हैं [गीता - 7.20, 18.72 - 18.73 ] और
गीता [ गीता - 13.2 ] कहता है --
ज्ञान वह है जो यह बताये की क्षेत्र - क्षेत्रग्य क्या हैं ? समुद्र उथला होनें का अर्थ है - अहंकार का कमजोर होते जाना ।

आदि गुरु श्री नानकजी साहिब जपजी साहिब में कहते हैं -----
प्रभु के गुणगान को सुननें वाला ----
आत्मा - परमात्मा को समझता है ....
क्षेत्र - क्षेत्रग्य को जानता है ....
प्रकृति - पुरुष को पहचानता है ...
आत्मा से आत्मा में आनंदित रहता है ॥

==== एक ओंकार सत नाम ====

Thursday, April 29, 2010

जपजी साहिब - 10



सुणिसतु संतोखु गिआनु ....
सुणिए लागै सहजि धिआनु ....
नानक भगता सदा विगासु .....
सुणिए दुःख पाप का नासु ॥



आदि गुरु श्री नानकजी साहिब जपजी में कह रहे हैं की सुननें से ------

सत संतोष एवं ज्ञान मिलता है ...
सहज में ध्यान लगता है ...
भक्तों को आनंद मिलता है ....
और दुःख - पाप का अंत होता है ॥



गुरु के पास संबाद के लिए नहीं शांत होनें के लिए जाना होता है । शांत होनें का अर्थ है - भाव रहित होना और भाव रहित ब्यक्ति द्रष्टा / साक्षी होता है ... देखिये गीता - 14.19, 14.23 श्लोकों को ।

बुद्ध एवं महाबीर के जबानें तक लोग श्रोतापन को प्राप्त होते रहे हैं लेकीन आज लोग ह्रदय केन्द्रित नहीं हैं , लोगों का केंद्र है उनकी बुद्धि । बुद्धि केन्द्रित ब्यक्ति संदेह में जीता है , कभी शांत नहीं हो सकता और उसके माथे
का पसीना कभी सूखता नहीं ।
बुद्धि केन्द्रित ब्यक्ति को सोच दिन में जगनें नहीं देती और
रातमें सपनें सोनें नहीं देते ।
आप जपजी के माध्यम से अपनें में श्रोतापन को खोज सकते हैं और जिस दिन आपमें श्रोता पैदा होगा ,वह दिन आप के लिए प्रभु का प्रसाद के रूप में होगा ।



===== एक ओंकार सत नाम =======

Wednesday, April 28, 2010

जपजी साहिब - 9


सुणिए ईसरु बरमा इंदु .......
सुणिए मुखि सालाहण मंदु ...
सुणिए जोग जुगति तनि भेद ...
सुणिए सासत सिम्रिति वेद .....
नानक भगता सदा विगासु .....
सुणिए दुःख पाप का नासु .......

आदि गुरु श्री नानकजी साहिब जपजी में कहते हैं ------
प्रभू - परमेश्वर के गुण गान के श्रवन करनें से .......
शिव ब्रह्मा एवं इन्द्र का ज्ञान होता है ....
निर्विकार ऊर्जा का संचालन होता है .....
जोग - जुगति का पता चलता है .....
शास्त्र , वेदों का ज्ञान होता है .....
स्मृति निर्मल होती है ....
साधू पुरुष आनंदित होते हैं .....
दुःख - पाप का अंत होता है ॥

एक परम भक्त , एक फकीर और क्या कह सकता है ?
इस बात पर आप सोचना , अब हम आगे गीता के कुछ सूत्रों को देखते हैं ----
गीता कहता है .....
प्रभु पर केन्द्रित वह हो सकता है जो -----
[क] अपनें इन्द्रियों को कछुए की भाँतीनियंत्रण में रखता हो - गीता .... 2.58
[ख] यह जानता हो की बिषयों में छिपे राग - द्वेष इंदियों को सम्मोहित
करते हैं - गीता ... 2.64
[ग] यह समझता है की बिषयों में राग - द्वेष होते हैं - गीता ... 3.34
[घ] यह जानता है की करता भाव , अहंकार की छाया है - गीता ... 3.27
[च] अपनें बुद्धि को परम पर स्थीर रखनें में सक्षम हो - गीता .... 2.55 - 2.72 तक ॥

भक्त जैसे - जैसे आगे चलता जाता है वैसे वैसे वह रिक्त होता जाता है ; न उसके पास शब्द रह पाते हैं और न ही बुद्धि में तर्क - वितर्क करनें की क्षमता । परा भक्त अपनें भावों को जो भाव रहित भाव होते हैं , आंशुओं की
बूंदों के रूप में प्रभु को अर्पित करता है ।
कबीर साहिब , नानकजी साहिब और परम हंस श्री राम कृष्ण जैसे परम प्रिमियों को कितनें लोग पहचानते हैं और कितनें लोग उनके संग होते हैं ?
परम संतों के साथ चलनें वाले न के बराबर होते हैं लेकीन जो उनके संग नहीं रहते वे उनके जानें के बाद उनकी प्रतिमाएं बनवाते हैं ।
इशू के साथ कितनें लोग थे ? इशू को किसनें बेचा ? और क्रोस पर लटके इशू की प्रतिमा को लोगों के गले में कौन लटकाया और क्यों लटकाया ?
परम भक्तो को मार कर उनकी प्रतिमाएं बना कर उनकी प्रतिमाओं के पूजन की प्रथाएं चलाते हैं वे जो उनके
बिरोधी होते हैं ।

==== एक ओंकार सत नाम ====

Tuesday, April 27, 2010

जपजी साहिब - 8


सुणिए सिध पीर सुरि नाथ ......
सुणिए धरति धवल आकास .....
सुणिए दीप लोअ पाताल .........
सुणिए पोहि न सकै कालु .....
नानक भगता सदा विगासु .....
सुणिए दुःख पाप का नासु ॥

आदि गुरु श्री नानकजी साहिब जपजी साहिब के माध्यम से कह रहे हैं -------
सुननें से .......

सिद्ध , पीर देवता और नाथ हैं .....
धरती धवल आकाश हैं .....
द्वीप , लोक और पातळ हैं ....
मृत्यु पास नही आता ....
भक्त आनंदित होते हैं .....
पाप - दुःख का अंत होता है ॥

आदि गुरु नानकजी साहिब सुननें की कला के बारे में बता रहे हैं जिसको श्रोतापन कहते हैं । ईशापूर्व 500 वर्ष - बुद्ध एवं महाबीर के समय तक एक नहीं अनेक लोग बुद्धत्व को प्राप्त हुए लेकीन आज की स्थिति अलग है , आज लोग ह्रदय पर केन्द्रित नहीं हैं , लोगों का केंद्र उनकी अपनी - अपनी बुद्धि है ।
आज का युग विज्ञान का युग है , विज्ञान उसका नाम है जो संदेह से जन्मा हो और श्रोतापन आता है , श्रद्धा से प्रीति से और गुण रहित प्यार से ।
भक्ति की माँ है - विश्वास और विज्ञान की माँ है - संदेह ।
विश्वास और संदेह दोनों की दिशाएँ एक दुसरे के बिपरीत हैं अर्थात भक्ति से विज्ञान नहीं निकल सकता और विज्ञान में भक्ति की कोई गुंजाइश नहीं है । भक्ति का केंद्र है - ह्रदय और संदेह [ विज्ञान ] का केंद्र है - बुद्धि ।

गीता कहता है [ गीता सूत्र - 7.20, 18.72 - 18.73 ] -- ----
कामना और मोह अज्ञान की जननी हैं और कामना एवं मोह की यात्रा संदेह एवं भय की यात्रा होती है ।
भय के साथ भगवान् की शरण पाना असंभव है और कामना प्रभु के द्वार को बंद करती है ।
आदि गुरु एक सिद्ध भक्त हैं , ऐसा भक्त ह्रदय पर केन्द्रित होता है , उसकी बुद्धि परम पर टिकी होती है ,
उसकी भाषा हाँ की भाषा होती है , वह ना को नहीं समझता ।
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को प्रभु के फैलाव के रूप में देखनें वाला , परा भक्त आदि गुरु नानकजी साहिब जैसा होता है ।

===== एक ओंकार सत नाम =====

Monday, April 26, 2010

जपजी साहिब - 7


नानक निरगुणि गुणु करे ......
गुणवन्तिआ गुणु दे .....
तेहा कोई न सुझई ....
जि तिसु गुणु कोई करे ॥

गुण रहित को गुनी बनाए .....
गुनी में और गुण बहाए ......
ऐसे का गुण कौन गाये ....
तेरे जैसा कोई और न भाये ॥

आदि गुरु नानकजी साहिब जपजी के माध्यम से कहते हैं .......
मैं तेरा गुण क्या गाऊ , किससे गाऊ , और कैसे गाऊ ...
तू तो सीमा रहित सनातन , सभी गुणों का आधार स्वतः निर्गुणी हो .....
मैं तेरे को कैसे गाऊ ॥

दो तरह के लोग मिलते हैं ; एक भक्त होते हैं जो कटी पतंग की तरह अन जानें गणित के सूत्र के अनुकूल प्रभु में उड़ते रहते हैं और दूसरे हैं - ध्यानी , जो एक - एक कदम बुद्धि के सहयोग से चलते हैं और जब तक उसे पा नहीं लेते , मुसकुरा नहीं पाते ।
भक्त प्रभु को अपनें से बाहर देखता है , धीरे - धीरे उसकी ओर कदम भरता है और ध्यानी निराकार प्रभु को ऊर्जा के रूप में स्वयं में तलाशता है । भक्त की यात्रा भार रहित कणों की तरह होती है जिसकी गणित बाउनियन सिद्धांत एवम आइस्ताइन की गणित के अनुसार होती है पर ध्यानी की यात्रा न्यूटन की गणित की तरह चलती है -- आप इस बात पर गहराई से सोचना यदि आप विज्ञान के विद्यार्थी रहे हों ।
कबीरजी साहिब कहते हैं ----
[क] बूँद समानी समुद्र मह ....
[ख] समुद्र समानी बूँद मह .....
कबीरजी साहिब नानकजी साहिब की तरह भक्त थे । भक्त जब तक अपरा भक्ती में रहता है तब तक वह गाता है ------ बूँद समानी समुद्र मह और जब वह परा भक्ति में पहुंचता है ,
तब गाता है ------
समुद्र समानी बूंद मह -- बस इसके आगे कुछ कहा नहीं जा सकता ।
भक्त की बाहर की खोज उसे तन से दुखी बनाती है लेकीन भक्त कभी नही समझता की वह दुखी है । लोग कहते हैं की ... बिचारा / बिचारी कितना दुखी है / कितनी दुखी है ।

भक्त तन से मन को नियोजित करके प्रभु को प्राप्त करके धन्य हो उठता है
और ----
ध्यानी बुद्धि को नियोजित करके मन - बुद्धि से परे की स्थिति में प्रभु को देखता है ।
कबीरजी साहिब समाधी को सुरती कहते थे ; सुरती वह स्थिति है जो प्रभु के
गुणगान में तन , मन एवं बुद्धि हैं की सोच जब समाप्त हो जाती है तब आती है ,
जिसको ध्यान की भाषा में समाधि कहतेहैं ।
भक्त की कोई सीधी भाषा नहीं होती , हम - आप के लिए , लेकीन वे अपनी भाषा
से संतुष्ट होते हैं ।
भक्त चक्रवात में जीता है और ...
ध्यानी अपनें में चक्रवात को देखता हुआ खुश रहता है ।

=== एक ओंकार सत नाम =====

Sunday, April 25, 2010

जपजी - 6

तीरथि नावा जे तिसु भावा ....
विणु भाणे कि नाइ करी ....
गुरा इक देहि बुझाई ............
सभना जीवा का इकु दाता ।

उसकी इच्छा का स्नान , स्नान है ...
वरना क्या फ़ायदा ....
हे ! सत गुरु .....
मुझे इक बात समुझा दे .....
कि सभी जीवों का एक ही श्रोत है ।

परम हंस श्री राम कृष्ण जी के एक शिष्य थे , जो बहुत बड़े धनवान भी थे । एक दिन सेठ जी गुरूजी से बोले -
गुरूजी मैं काशी गंगा स्नान करनें जा रहा हूँ , कैसा रहेगा ? गुरु जी बोले , उत्तम विचार है लेकीन एक बात पर सोचना
गंगा - तट पर बहुत से पेड़ हैं , शायद तुम देखे भी होगे । जब तुम गंगा में दुबकी लेगा तब तेरे सभी पाप ऊपर इन पेड़ों पर लटक जायेंगे और जब तेरा सर गंगा - जल से बाहर आयेगा तब पुनः तेरे सभी पाप तेरे सर में समा जायेंगे । जाओ , विचार उत्तम हैं , लेकीन ज़रा इस बात पर भी सोच लेना कि गंगा स्नान से कैसे फ़ायदा हो सकता है ?

गंगा के किनारे हिन्दुओं के तीर्थ हैं जहां स्नान करनें के अपनें - अपनें महत्व हैं ।
तीर्थ उनको कहते हैं जहां से पीठ पीछे भोग संसार दिखता है और आगे प्रभु का आयाम [ गीता - 2.69 ] , अर्थात तीर्थ सम भाव से परिपूर्ण स्थान हैं । जैन परम्परा में सत गुरु को तीर्थंकर कहते हैं , तीर्थंकर अर्थात वह , जो उस पार ले जा सके ।
जैसे चौबीस घंटों के रात - दिन में संध्या की जगह है जहां न रात होती है न दिन वैसे भोग - प्रभु के मध्य तीर्थों का स्थान है जहां न भोग होता है और न ही भगवान् लेकीन जहां से एक कदम आगे चलनें पर भगवान् का आयाम मिल जाता है .

तीर्थ उनको कहते हैं जहां पहुंचनें पर -----
तन , मन , बुद्धि निर्विकार ऊर्जा से भर जाते हैं .....
जहां न तन का पता होता है , न मन का ....
जहां पीठ पीछे भोग संसार होता है और ....
सामनें प्रभु का आयाम ।

आदि गुरु श्री नानकजी साहिब जपजी के माध्यम से कहते हैं -----
चाह के साथ यदि तूं तीर्थ स्नान करनें जा रहा है , तो वह बेकार है ......
तीर्थ स्नान यदि तूं भिखारी के रूप करने जा रहा है तो वह बेकार है .....
तीर्थ स्नान यदि तूं परम प्यार में प्रभु को धन्य बाद देनें के रूप में करनें जा रहा है तो ....
वह स्नान परम , स्नान है ।

=== एक ओंकार सत नाम =====

Saturday, April 24, 2010

जपजी - 5

गुरमुखि नादं गुरमुखि वेदं
गुरमुखि रहिआ समाई
गुरु ईसरु गुरु गोरखु वरमा
गुरु पारबती माई ॥



आदि गुरु श्री नानकजी साहिब जपजी के माध्यम से कहते हैं ------

गुरु मुख में नाद है .....
गुरु मुख में वेदों का रहस्य है .....
गुरु मुख में ही सब समाया हुआ है .....
गुरु ईश्वर है .....
गुरु शिव है .......
गुरु ब्रह्मा है ....
गुरु विष्णु है ...
और गुरु ही माँ पारवती है ।



आदि गुरु का गुरु क्या है ? इस रहस्य के सम्बन्ध में कुछ बातें आप गुरु के मुख से सुनी अब सोचिये की आदि गुरु का गुरु कौन है ?

गीता में अध्याय - 15 में श्लोक - 1 - 3 तक में प्रभु कृष्ण संसार के बारे में स्पष्ट करते हुए कहते हैं .....

संसार एक उर्धमूल पीपल के पेड़ जैसा है , जिसकी जड़ें ऊपर प्रभु में हैं और अन्य भाग नीचे लटक रहे हैं । संसार पेड़ में वेदों के रूप में हैं इसके पत्ते , तीन गुण , पानी के रूप में इसमें बहते रहते है और तीन गुणों के तत्त्व - काम , कामना , क्रोध , लोभ , मोह , अहंकार इसकी जड़ों के रूप में तीनों लोकों में फैली हुई हैं । अब आप सोचिये की आदि गुरु कहते हैं - गुरुके मुख में वेदों का रहस्य है और गीता कहता है --उर्ध मूल पीपल पेड़ रूपी संसार के पत्तों में है , वेदों का रहस्य । वेदों का आत्मा है , एक ओंकार और जपजी साहीब का प्रारम्भ आदि गुरु जी एक ओंकार , सत नाम से करते हैं ।
एक ओंकार क्या है ? एक ओंकार ॐ है , ॐ एक धुन है जिसको धुनों की धुन परम धुन कह सकते हैं जो विज्ञान के टाइम स्पेस के होनें का रहस्यात्मक ध्वनि है । पीपल के पत्तों की एक विशेषता यह है की ये पत्ते बिना हवा भी नाचते रहते हैं और दिन रात लोगो के हित में आक्सीजन छोड़ते रहते हैं ।
पीपल के पत्ते और वेदों में काफी समानताएं भी हैं । आप कभी पीपल पेड़ के नीचे बैठ कर ॐ का सुमिरन करें । जब आप का ध्यान गहारायेगा तब आप को पत्तों से निकलते ॐ की धुन मिलेगी जो आप के ॐ धुन से मिल कर आप को एक परम अनुभूति में पहुंचा सकती है ।

गीता में श्री कृष्ण कहते हैं -----

शिव मैं हूँ - गीता - 10.23
विष्णु मैं हूँ - गीता - 10.21
ऋग्वेद , सामवेद , यजुर्वेद एवं ॐ - ओंकार मैं हूँ ।

गीता के श्री कृष्ण वह हैं जो आदि गुरु के गुरु हैं , अब आप सोचिये की आदि गुरु के गुरु शब्द का क्या भाव हो सकता है ?



==== एक ओंकार सत नाम ====

Friday, April 23, 2010

जपजी साहिब - 4

साचा साहिबु साचु नाइ
भाखिआ भाऊ अपारु
अमृत बेला सचु नाउ
वडिआई बिचारु
कर्मी आवे कपड़ा नदरी मोखु दुआरु
नानक एवै जाणिये
सभु आपे सचिआरु

वह सच्चा मालिक है , उसका नाम सच्चा है ...
अनेकों नें उसे प्रेम से पुकारा है ....
अमृत बेला में उसे पुकारो ....
उसकी महिमा को याद करो ....
कर्म से अगला जन्म मिलता है ...
उसकी कृपा से मुक्ति मिलती है ....
नानक कहते हैं ---
उसे ऐसे जानो जैसे सब कुछ सत है ॥

आदि गुरु नानकजी साहिब कह रहे हैं -----
कर्म से अगला जन्म मिलता है और सच्ची प्रीति से वह मिलता है , इस सम्बन्ध में आप गीता के इन श्लोकों को
देख सकते हैं ---- 14.14, 14.15, 2.22, 8.6, 15.8, 18.55, 6.30, 9.29
परम गुरु दूसरी बात कह रहे हैं --- अमृत बेला में उसे पुकारो , यह अमृत बेला क्या है ?
अमृत बेला वह समय है जब न दिन हो न रात हो , न रात हो न दिन हो अर्थात ----
वह वक्त है जब दिन समाप्त हो रहा हो और रात्री का आगमन हो रहा हो या जब रात्री का समापन हो रहा हो और
दिन का आगमन हो रहा हो । यह वक्त हिन्दू परम्परा में संध्या नाम से जाना जाता है जिस समय ध्यान
करनें से उत्तम परिणाम मिलनें की संभावना होती है । अमृत बेला गोधुली का वक़्त होता है जिस समय
प्रकृति सम भाव में होती है और ध्यान में सम भाव की स्थिति में प्रभु की लहर तन - मन एवं बुद्धि में
समाती है ।
सच्चा गुरु वह है ......
सत वह है .....
भावातीत वह है .....
और -----
निर्गुण वह है ।
नानक जी साहिब कहते हैं सारा ब्रह्माण्ड उसका ही फैलाव है फिर तूम उसे क्या खोजता है , वह तो सब में है ,
बश उसके पहचाननें की दृष्टि भक्ति से प्राप्त करलो ।

==== एक ओंकार सत नाम ======

Thursday, April 22, 2010

जपजी - 3

गावै को जापै दिसै दूरि....
गावै को वेखै हादरा हदूरि....
कथना कथी न आवै तोटि...
कथि कथि कथी कोटी कोटि कोटि ॥

आदि गुरूजी साहिब यहाँ जपजी के माध्यम से अपने अनुभव को ब्यक्त कर रहे हैं , कुछ इस प्रकार -----
जो अपने और उसके बीच कुछ दूरि देखता है .....
वह , उसे गाता है ,
करोड़ों बार गानें वाले , करोड़ों हैं , उसके ....
लेकीन उसका अंत कहाँ है ?

प्रभु से जो तन , मन एवं बुद्धि से जुड़ता है वह उसे अपनी स्मृति में बैठाना चाहता है और यह काम अभ्यास से संभव है । गीता में अर्जुन परम श्री कृष्ण से पूछते हैं - हे प्रभु ! मैं आप के उपदेश को नहीं समझ पा रहा हूँ क्योंकि मेरा मन अस्थीर है , आप कृपया ऎसी युक्ती बताएं जिससे मेरा मन शांत हो सके ?
प्रभु कहते हैं - तेरा मन जहां - जहां रुकता हो उसे वहाँ - वहाँ से हटा कर मेरे ऊपर केन्द्रित
करनें का अभ्यास करो , ऐसा करनें से तेरा मन शांत हो जाएगा और तूं बैराग्य में होगा --- देखिये गीता सूत्र - 6.26, 6.33 - 6.35 तक ।

गीता कहता है ----

वह सब के अन्दर है , सब के बाहर है ...
वह सब के समीप में है .....
वह सब से दूर भी है , और ....
सभी चर - अचर भी वही है ----- गीता - 13.15
गीता यह भी कहता है ------
वह सनातन अब्यक्त भाव से परे है ....
वह अब्यक्त अक्षर है .....
वह भावातीत है ---- गीता - 8.20 - 8.21 , 7.12 - 7.13 , 2.16
कौन गाता है ?
इस बिषय पर आप सोचना । मीरा , परम हंस जी नाचते थे और गाते थे , लेकीन कब ?
जब उनका सम्बन्ध क्रमशः कन्हैया एवं माँ काली से टूट जाता था , तब । जब तक प्रभु भक्त में उतारा होता है तब तक वह भक्त सोता रहता दिखता है पर वह होता है समाधि में और जब उसकी समाधी दूटती है तब वह भक्त कस्तूरी मृग जैसा हो उठता है , कभी नाचता है , कभी गाता है और भागता रहता है , अपनें समाधी को पुनः प्राप्त करनें के लिए ।
समाधि की अनुभूति भक्त को मनुष्य से प्रभु बना देती है जिसका परम आनंद
भी , दूसरा नाम है ।

आदि गुरु श्रीनानक जी साहिब भी गा रहे हैं और गाते - गाते पंजाब से जेरुसलेम तक की यात्रा की और
काशी से काबा तक गाते रहे एवं करबला में भी जा कर गाया , आखिर वे क्या गा रहे थे ?
क्या वे जपजी को गा रहे थे , क्या वे प्रभु का भजन गा रहे थे या कुछ और गा रहे थे ?
भक्त जिस स्थान पर नाचता - गाता है , उसके नाचानें - गानें के पीछे दो मकशद होते हैं लेकीन वह स्वयं इस बात को नहीं जानता होता ।
भक्त अपनें नाच - गान के समय स्वयं को परम निर्विकार ऊर्जा से भरता है और जहां
उस समय होता है उस स्थान को भी परम ऊर्जा से चार्ज करता है ।
परम सिद्ध योगी जैसे आदि गुरु नानकजी साहीब जहां - जहां गए हैं उन - उन स्थानों को आप देखें ,
वे स्थान कोई आम स्थानं नहीं हैं , वे तीर्थ हैं जहां उनसे पहले अनेक सत गुरुओं नें नाचा है , गाया है ।
तीर्थ वह स्थान है , जहां जब कोई भक्त पहुंचता है और वह पूर्ण रूप से परा भक्ति में होता है
तब उसे उस स्थान पर आज भी परम गुरु मिलते हैं जैसे नानकजी साहिब , कबीरजी साहिब आदि और उस भक्त की साधना में उसकी मदद करते हैं ।
क्या आप आज भी आदि गुरु नानकजी साहिब से मिलना चाहते हैं ?
क्या आप आज भी कबीरजी साहिब से मिलना चाहते हैं ?
तो जाइए आप काशी , काबा , करबला , अमृतसर तथा अन्य ऐसे स्थानों पर जहां आदि गुरु एवं कबीर जी साहिब कुछ दिन रुके रहे हों ।
गुरुको खोजना नहीं पड़ता .....
गुरु स्वयं सत भक्त को खोजता रहता है
सत गुरु को खोजा नहीं जा सकता , स्वयं को ऐसा बनाना पड़ता है की सत गुरु स्वतः आकर्षित हो सके ।

==== एक ओंकार सत नाम ======

Wednesday, April 21, 2010

नानक वाणी - 2

हुकमी होवनि आकार
हुकमी होवनि जीव

जपजी साहिब के माध्यम से आदि गुरु जी कहरहे हैं --------
उसकी कृपा से जीवों का निर्माण हुआ है और उसकी कृपा से जीवों के अनंत
स्वरुप देखनें को हैं ।

आदि गुरूजी साहिब के छोटे - छोटे सूत्रों को हम गीता में खोजनें का प्रयाश कर रहे हैं अतः यहाँ जपजी - 2 के सन्दर्भ में हमें गीता के निम्न श्लोकों को देखना चाहिए ------
7.4 - 7.6, 13.5 - 13.6, 14.3 - 14.4, 15.6, 7.12 - 7.15, 8.16 - 8.18
गीता सृष्टि के विज्ञान को ऊपर के श्लोकों के माध्यम से कुछ इस प्रकार से देता है ----
प्रभु से प्रभु में तीन गुणों से परिपूर्ण दो प्रकृतियों के नौ तत्वों एवं जीवात्मा के योग से
जीव का निर्माण होता है ।
दो प्रकृतियों में हैं ; अपरा एवं परा । अपरा में आठ तत्त्व हैं - पञ्च महाभूत , मन , बुद्धि , अहंकार औरपरा प्रकृ ति का एक तत्त्व है - चेतना । गीता कह रहा है - चार युगों की अवधीसे हजार गुना अधिक अवधी का ब्रह्मा का एक दिन होता है । ब्रह्मा की रात एवं दिन बराबर अवधी के होते हैं । ब्रह्मा की रात में जीव नहीं होते और दिन के समय में जीव होते हैं । ब्रह्मा की रात जब आती है तब सभी जीव अलग - अलग उर्जाओं में बदल कर
ब्रह्मा के सूक्ष्म रूप में समा जाते हैं लेकीन जब दिन का आगमन होता है तब पुनः सभी जीव अपनें - अपनें पूर्व स्वरूपों को प्राप्त कर लेते हैं । प्रकृति में प्रकृति से यह आवागमन का चक्र चलता रहता है जिसमें जीवों का जन्म , जीवन , मृत्यु एवं पुनः जन्म का चक्र होता है ।
गीता - तत्त्व विज्ञान जो सृष्टि से सम्बंधित है उसके सम्बन्ध में आदि गुरूजी साहिब मात्र इतना कह कर चुप हो जाते हैं -----
हुकमी होवनि आकार ....
हुकमी होवनि जीव ......
अब आप गुरूजी की इस बात में चाहे तो सांख्य - योग को खोजें या न्याय को खोजें , यह खोज मात्र बुद्धि स्तर पर होगी जिस से मिलेगा कुछ नहीं , खोज की चाह और बढ़ जायेगी और जब बुद्धि स्थिर
होगी तब जो दिखेगा , वह होगा .....
हुकमी होवनि आकार ...
हुकमी होवनि जीव ....

==== एक ओंकार सत नाम =====

Tuesday, April 20, 2010

जपजी साहिब - 1

सोचै सोचि न होवई
जो सोंची लख बार

जपजी साहिब के माध्यम से आदि गुरु श्री नानकजी साहिब कहते हैं ......
सोचनें से वह सोच नहीं पैदा होती .....
चाहे कोई लाख बार ही क्यों न सोचे ।

श्री नानक जी साहिब की बात को समझनें के लिए यह जरुरी है की समझनें वाले के पास गुरु जैसा परम पवित्र ह्रदय चाहिए । गुरु जैसे ह्रदय के लिए जरुरी है तन , मन एवं बुद्धि में वह ऊर्जा प्रवाहित हो रही हो जैसी ऊर्जा आदि गुरु के जिस्म में बहती रहती थी ।

सोचनें से वह सोच नहीं आती जो प्रभु की ऊर्जा से भर दे - यह बात आदि गुरु श्री नानकजी साहिब कहरहे हैं । सोच क्या है ? सोच है , बुद्धि का तत्त्व , ऎसी बुद्धि जो गुणों के प्रभाव में हो , उसमें सोच आती है ।
गीता कहता है -- जब तक गुणों का प्रभाव मनुष्य के ऊपर है , तब तक वह ब्यक्ति प्रभु - ऊर्जा से नहीं भर सकता ।
जिस मन - बुद्धि में गुणों की ऊर्जा बहती है , उस मन - बुद्धि में निर्विकार ऊर्जा नही बह सकती और बिना निर्विकार ऊर्जा के प्रभु की लहर नही उठती ।

आदि गुरु श्रीनानक जी साहिब सीधी बात कह रहे हैं जिसको समझनें के लिए बहुत अधिक सोच की जरुरत नहीं है । गुरूजी साहिब कहते हैं - अपनी सोच को देख की तेरी सोच तेरे को किधर ले जाना चाह रही है ?
सोच एक कस्सी जैसी है जो सबको अपनी तरफ खिचती है , ऐसी स्थिति में समर्पण का भाव कैसे आ सकता है और बिना समर्पण भाव के प्रभु की प्रीति कैसे भर सकती है ?

मन - बुद्धि के आधार पर परमात्मा मय होना संभव नहीं , हाँ - मन बुद्धि से परमात्मा की ओर रुख करना उत्तम है लेकीन कुछ दूरी के बाद मन - बुद्धि की ऊर्जा बदल जाती है ।
गीता कहता है .......
ब्रह्म की अनुभूति मन - बुद्धि सीमा से परे की है और एक समय में एक साथ प्रभु एवं भोग भावों को एक बुद्धि में रखना संभव नहीं है [ गीता - 2।42 - 2.44, 12.3 - 12.4 ],
गीता की यह बात जो कह रही है वही बात जपजी मंत्र एक में , आदि गुरु श्री नानकजी साहिब कह रहे हैं ।
सोच करते करते सोच करता जब सोच से परे निकल जाता है तब जो आयाम उसे मिलता है वह होता है -
प्रभु का आयाम ।

प्रभु सर्वत्र है , प्रभु से पभु में सब है , प्रभु सब में है , प्रभु सब से दूर भी है एवं समीप भी है लेकीन क्या
कारण है की प्रभु मय सदियों बाद कोई एक योगी होता है और ऐसे योगी दुर्लभ हैं ।
भोग का गुरुत्वाकर्षण मनुष्य को प्रभु की ओर होनें नहीं देता ....
राग , भय , क्रोध एवं अहंकार मनुष्य को प्रभु से दूर रखता है ......
जब अपना - पराया का भाव समाप्त हो जाता है .....
जब हाँ - ना की भाषा समाप्त हो जाती है ....
जब सब को आत्मा - परमात्मा से आत्मा - परमात्मा में देखा जाता है ,
तब वह ब्यक्ति .....
सोच से परे होता है और वहाँ उसे -----
जो मिलता है वह .....
ब्यक्त किया नहीं जा सकता ।

==== एक ओंकार सत नाम ======

नानक वाणी - 4

आदि गुरु नानकजी कहते हैं ........

वह तर्कातीत है

आदि गुरु के वेदान्त को समझनें के लिए आप देखें गीता के निम्न सूत्रों को ---------
2.16, 2.41 - 2.66, 7.10, 7.20, 7.24, 8.3,8.20, 8.22, 18.29 - 18.35, 18.72 - 18.73

आदि गुरु जो बात कह रहे हैं उस बात को हजारों वर्ष पूर्व उपनिषद् एवं गीता कह चुके हैं ।
एक बात हमें समझनी चाहिए की .......
श्रद्धा में प्रभु बसते हैं और संदेह से विज्ञान निकलता है । जितना गहरा संदेह होगा , उतना गहरा विज्ञान निकलनें की संभावना होती है । विज्ञान एवं धर्म के मार्ग एक दुसरे के बिपरीत दिशा में चलते हैं ।

गुणों के आधार पर तीन प्रकार के लोग हैं और उनकी अपनी - अपनी बुद्धि हैं । राजस एवं तामस गुणों वालों की बुद्धि अनिश्चयात्मिका बुद्धि होतीहै जो संदेह से परिपूर्ण होती है और सात्विक गुण वाले की बुद्धि , निश्चयात्मिका बुद्धि होती है जिसमें संदेह के लिए कोई जगह नहीं होती ।
गीता कहता है ......
## भोग - भगवान् को एक साथ एक बुद्धि में रखना संभव नहीं - गीता - 2.42 - 2.44 तक
## ब्रह्म की अनुभूति मन - बुद्धि के परे की है - गीता - 12.3 - 12.4
## वह भावातीत है - गीता - 8.20 - 8.22 तक
## सत भावातीत है - गीता - 2.16
## भोग बंधनों से अप्रभावित कर्म , गीता के कर्म हैं जो भावातीत की
स्थिति में पहुंचाते हैं - गीता - 8.3

आदि गुरु श्री नानकजी साहिब जो बात कह रहे हैं की --- वह तर्कातीत है , उस बात की बुद्धि स्तर पर समझनें की पूरी गणित तत्त्व - विज्ञान के रूप में देता है , जिसके कुछ अंश को ऊपर दिखाया गया है ।
संतों की भाषा अलग - अलग हो सकती हैं लेकीन उन भाषाओं से जो
रस टपकता है ,
वह एक ही होता है ।

==== एक ओंकार सत नाम =====

Sunday, April 18, 2010

नानक वाणी - 3

नानकजी साहिब कहते हैं ........

परम प्रीति में डूबी एक चीटी का कद उचा है , एक सम्राट के कद से ।

जेसस क्राइष्ट कहते हैं ........
सूई के छिद्र से ऊँट निकल सकता है लेकीन धनवान प्रभु के राज्य में प्रवेश नहीं पा सकता ।

आदि गुरु श्री नानकजी साहिब एवं जेसस एक ही बात को दो अलग - अलग ढंग से कह रहे हैं ; सम्राट एवं धनवान एक ही ब्यक्ति के दो नाम हैं । बुद्ध एवं महाबीर सम्राट थे , बोधी धर्म , सम्राट थे , चन्द्र गुप्त मौर्या भारत के सम्राट थे लेकीन अंत में जैन मोंक बनगए थे और चन्द्र गुप्त मौर्या के पौत्र , अशोक महान अपनें अंत समय में बुद्ध - भिक्षुक बन गए थे , यदि आदि गुरु नानकजी साहिब एवं जेसस की बात सही है तो फिर
ऊपर बताये गए सम्राट प्रभु के राज्य में प्रवेश कैसे पा गए ?

गीता कहता है - दो प्रकार के लोग हैं ; एक वे हैं जिनका केंद्र प्रभु होता है और दूसरे वे हैं , जिनका केंद्र भोग होता है । एक ब्यक्ति एक समय में योगी - भोगी , दोनों नहीं हो सकता , या वह योगी होगा या फिर भोगी ।
योग - भोग , दो समानांतर मार्ग हैं जो कहीं मिलते नहीं हैं लेकीन योग का प्रारम्भ , भोग से हो सकता है ।
भोग एक बंधन है और योग बंधन मुक्त का नाम है । जब तक गुण तत्वों की पकड़ है तब तक वह ब्यक्ति योग में रूचि नहीं रख सकता , वह प्रभु को भी भोग - माध्यम के रूप में प्रयोग कर सकता है लेकीन जिस पल योग की हवा उसे लगती है , वह ब्यक्ति भोग को भी प्रभु को समर्पित कर देता है ।

आदि गुरु नानक जी कहते हैं ..... गुण तत्वों का जो गुलाम है वह सम्राट हो नहीं सकता , वह तो गुलाम ही रहेगा और जो परम प्रीति में डूबा है वह प्रभु का गुलाम है और किसी का गुलाम हो कैसे सकता है ?

===== एक ओंकार सत नाम ========

Friday, April 16, 2010

नानक वाणी - 2

एक , अनंत रूपों में ...........

आप इन बातों पर कुछ समय सोंचें -------

[क] श्री गुरु ग्रन्थ साहिब के अन्दर लगभग 1430 पृष्ठों में क्या बतानें का प्रयत्न किया गया है ?
[ख] श्रीमदभगवद्गीता में प्रभु श्री कृष्ण अपनें 556 श्लोकों के माध्यम से अर्जुन को क्या बताना चाहते हैं ?
[ग] आइन्स्टाइन अपनें 900 शोध पत्रों एवं 45000 शोध करनें लायक शोध अप्रकाशीत पत्रों के माध्यम से क्या बताना चाहते थे ?
[घ] गुरुवर रविन्द्र नाथ टैगोर अपनें 6000 से भी अधिक कबिताओं के माध्याम से क्या ब्यक्त करना चाह रहे थे ?
[च] आदि गुरु नानकजी साहिब , कबीरजी साहिब , परम हंस रामकृष्ण जी जैसे परम भक्त हम लोगों
के अन्दर कौन सी ऊर्जा भरना चाहते थे , जिसके लिए ये लोग अपना पूरा जीवन लगा दिए लेकीन वह परिणाम न मिल पाया जो मिलना चाहिए था ।

उपनिषद् कहते हैं - वह एक था लेकीन स्वतः अनेक में बिभक्त हो गया ।
ऋग्वेद कहता है - वह स्वयं गतिमान हो उठा और फल स्वरुप ब्रह्माण्ड का निर्माण हुआ ।
गीता कहता है - जब कोई ब्रह्माण्ड की सभी सूचनाओं को ब्रह्म से ब्रह्म में देखनें लगता है तब वह प्रभु से
परिपूर्ण होता है ।
सत गुरुओं की भाषाएँ अगल - अगल हो सकती हैं लेकीन उनकी बातों में एक ही रस बहता है
पूरा ब्रह्माण्ड उसका ही फैलाव है , जो हैं , वे उसकी ही ओर इशारा करते हैं , लेकीन इन इशाराओं की ओर
देखता कौन है ?
प्रकृति में अपनें हर पल को समझना ही प्रभु मय बना सकता है ,
अतः वक़्त को हाँथ से जानें न दें ।

===== एक ओंकार सत नाम ========

Wednesday, April 14, 2010

नानक वाणी - 1

मृत्यु का अज्ञान , मृत्यु को भयावह बनाता है
[ Death is not painful for those who understand it . ]

आदि गुरु नानकजी साहिब कहते हैं - उनके लिए मृत्यु भय का साकार रूप नहीं है जो मृत्यु को समझते हैं
मृत्यु की समझ क्या है ? बुद्ध कहते हैं - मृत्यु से मैत्री स्थापित करो ,नानकजी साहिब
कहते हैं - मृत्यु उनके लिए भय का माध्यम नहीं जो इसके राज को जानते हैं और गीता में मृत्यु शब्द मात्र कुछ बिशेष परिस्थितिओं में प्रयोग किया गया है जबकि गीता मृत्यु का बिज्ञान देता है ।
गीता श्लोक 8.12 - 8.13 में प्रभु श्री कृष्ण अर्जुन को मृत्यु - ध्यान बताते हुए कहते हैं - मन - बुद्धि को
निर्विचार स्थिति में रख कर , ध्वनिरहित स्थिति में ॐ का स्मरण करता हुआ , प्राण को ह्रदय से उठा कर तीसरी आँख पर केन्द्रित करके जो अपना प्राण त्यागता है , वह परम गति को प्राप्त करता है ।
योगी मुश्कुराते हुए अपना प्राण होश में स्वयं छोड़ता है और भोगी मौत से संघर्ष करते हुए बेहोशी में मृत्यु को प्राप्त करता है ।
भोगी जीवन भर अमरत्व की दवा खोजता रहता है और अपने इस खोज में
एक दिन पूर्ण बेहोशी में मौत के मुह में पहुँच जाता है ।
योगी मौत को प्रकृति का एक परम सत्य
समझता है , उसकी यह सोच जब गहरी हो जाती है तब उसकी मित्रता , मौत से हो जाती है और वह योगी स्वेच्छा से अपना शरीर छोड़ देता है , जब वह देखता है की अब इस शरीर को ले कर चलना
कठिन हो रहा है ।

मृत्यु पीड़ा से परिपूर्ण क्यों है ?

गीता अप्रत्यक्ष रूपमें मौत का विज्ञान देता है - कैसे , देखते हैं , यहाँ ।
गीता कहता है - जबतक कोई गुनातीत नहीं हो जाता तब तक वह प्रभु मय नहीं हो सकता और उसे
परम गति नहीं मिल सकती । गीता यह भी कहता है - गुनातीत केवल प्रभु है । गीता आगे कहता है -
आत्मा को देह में तीन गुण रोक कर रखते हैं [ गीता - 14.5 ], अर्थात जब मनुष्य गुनातीत हो जाता है तब
उसका आत्मा उसके देह में बंधन मुक्त हो जाता है । आत्मा जब बंधन मुक्त हो जाता है तब वह ब्यक्ति
तीन सप्ताह से अधिक दिनों तक अपनें देह के साथ नहीं रह सकता - ऐसी बात परम हंस श्री राम कृष्ण जी
कहते हैं - परम हंस जी कहते हैं - मायामुक्त योगी देह में तीन सप्ताह से अधिक दिनों तक नहीं रह सकता ।

आप ज़रा इन बातों पर सोचना ....

** कौन जीना चाहता है और कब तक जीना चाहता है ?
** कौन जीना नहीं चाहता ?
जीवन में जिसके अहंकार पर गहरे चोट लगे हों , वह नहीं जीना चाहता ।
भोगी ब्यक्ति भोग की असफलता पर मृत्यु को गले लगाना चाहता है ।
गीता कहता है - काम - कामना में बिघ्न आनें पर क्रोध पैदा होता है जो पाप का कारण होता है ।
[ गीता -2 .62 - 2.63 ]

===== अकाल मूरत ======

Tuesday, April 13, 2010

श्री ग्रंथ जी साहिब एवं गीता - 30

सत गुरुओं की भाषाएं अलग - अलग होती है पर ..........

आदि गुरु नानकजी साहिब एवं कबीरजी साहिब भारत भूमि पर लगभग 50 बर्षों तक [ 1469 - 1518 तक ] एक साथ रहे ; एक विद्या की राजधानी काशी में बुद्धि जीविओं के मध्य अपनें सीमित शब्दों के आधार पर वेदान्त की लहर फैला रहे थे और दूसरे - नानकजी साहिब , पीर - फकीरों की धरती - पंजाब में थे ।
नानकजी साहिब परम ज्ञान प्राप्ति के बाद रुक न पाए , पंजाब से जेरुसलेम तक भागते रहे , लोगों को अपना अनुभव
देना चाहते थे , लेकीन लेनें वाले कहाँ हैं ?

नानकजी साहिब एवं कबीरजी साहिब में काफी समानताएं हैं । नानकजी साहिब एवं कबीरजी साहिब भक्त थे , जो बोलते थे वह उनके ह्रदय से निकलता था , उनके पास सीमित शब्द थे , लेकीन परम भाव असीम था । नानकजी साहिब के बड़े बेटे - श्री चन्दजी महान भक्त थे जिन्होंने उदासी परम्परा चलाया और यह पंथ पंजाब में धार्मिक स्थानों की देख - रेख करता रहा । नानकजी साहिब श्री चन्द जी को समझते थे लेकीन अपनें बाद गुरु बनाया , अंगद जी साहिब को ।
कबीरजी का बेटा कमाल जो संभवतः कबीरजी साहिब से कुछ कम न था अपनें अल्प समय में जो कुछ भी बोला है , उनमें एक रस वेदान्त
भरा पडा है ।

सत गुरुओं की भाषाएँ अलग - अलग होती हैं , अलग - अलग स्थानों पर अलग - अलग लोगों के मध्य होते हैं लेकीन उनके भाव एक होते हैं । सत गुरु बाटना चाहता है , वह देना चाहता है , वह प्यार करता है , वह सब को अपना ही समझता है , वह सब में प्रभु को देखता है लेकीन हम आप -----
उनकी एक नहीं सुनते ... हाँ एक बात है , उनके जानें के बाद हम उनकी पूजा प्रारम्भ कर देते हैं ।
सत गुरु पंथ का निर्माण नहीं करते ,
सत गुरु के जानें के बाद
बुद्धिजीवी लोग पंथ का निर्माण करते हैं ।

===== एक ओंकार सत नाम =======

Monday, April 12, 2010

ग्रन्थ साहिबजी एवं गीता - 29

श्री नानकजी साहिब मायातीत योगी थे

मायातीत को समझनें के लिए गीता में निम्न श्लोकों को देखना चाहिए -------
7.14 - 7.15, 16.8, 13.19, 7.4 - 7.6, 13.5 - 13.6, 14,3 - 14.4,
14.20, 14.22 - 14.27, 7.12 - 7.13, 2.48 - 2.51, 18.40, 2.16

आप जब गीता के ऊपर दिए गए श्लोकों को अपनाएंगे तब आप आदि गुरु नानक के ह्रदय से जुड़ सकते हैं ।
गीता कहता है -- प्रभु एवं मनुष्य के मध्य प्रभु रचित माया का पर्दा है । माया वह ऊर्जा है जिससे ब्रह्माण्ड
एवं ब्रह्माण्ड की सूचनाएं हैं । माया से परे कुछ नहीं है माया के प्रति जब होश आजाता है
तब उस ब्यक्ति
के मन - दर्पण पर जो होता है उसका नाम है प्रभु ।

माया तीन गुण , दो प्रकृतियों एवं आत्मा - परमात्मा से है । माया दो का योग है - एक है , निर्विकात और दूसरा है , सविकार । निर्विकार में चेतना , आत्मा एवं परमात्मा हैं और सविकार तत्वों में हैं , अपरा के आठ तत्त्व ।
माया में भोग का गुरुत्वाकर्षण होता है जो प्रभु की ओर रुख होनें नहीं देता और माया का
बोध , मनुष्य के रुख को प्रभु की ओर कर देता है ।

माया के आकर्षण से अप्रभावित ब्यक्ति हर पल प्रभु में रहता और -----
++ सम - भाव स्वभाव वाला होता है
++ अहंकार रहित होता है
++ सब को आत्मा से आत्मा में देखता है
++ भोग तत्वों के सम्मोहन में नहीं फसता
++ गुनातीत होता है
++ भोग में रहते हुए भी भोग से अप्रभावित रहता है

मायातीत योगी जैसे आदि गुरु नानक , परमहंस राम कृष्ण सदियों बाद अवतरीत होते हैं ।

==== एक ओंकार सत नाम ======

Sunday, April 11, 2010

श्री गुरु ग्रन्थ साहिबजी एवं गीता - 28

कबीर जी साहिब का राम श्री ग्रन्थ साहिब जी का भी राम है

पहले हम कुछ ऐतिहासिक बातों को देखते हैं ----
[क] कबीर साहिब का जीवन काल - 1398 .. 15.18
[ख] श्री आदि गुरु नानकजी साहिब का जीवन काल - 1469 ... 1539
[ग] बाबरी मस्जिद बना , अयोद्ध्या में सन 1528 में
[घ] तुलसी दास 42 वर्ष की उम्र में अयोद्ध्या में राम चरित मानस की रचना प्रारम्भ किया - 1574 में
[च] अकबर गद्धी पर बैठे सन - 1556 में

आदि गुरु नानक जी साहिब बाबुर के सम्बन्ध में खूब लिखा , उसके अत्याचारों के सम्बन्ध में लोगों को
खूब बताया । तुलसी दस जी रावन की बरबर्ता के बारे में तो खूब लिखा लेकीन बाबुर की बर्बरता शायद उनको
न दिख पायी । तुलसी दास बाबरी मस्जिद के पास बैठ कर रामचरित मानस की रचना प्रारम्भ किया लेकीन
अयोद्ध्या में ज्यादा दिन रुक न पाए , काशी में जा कर दो वर्ष सात महीनों में श्री राम कथा को पूरा
किया । राम कथा भारत में इतनी सराही गयी की रामचरित मानस हर घर में पहुँच गया ।
तुलसी दास जी श्री राम मंदिर को तोड़ कर बाबरी मस्जिद बनावानें की बात को अपनें रामचरित मानस
में क्यों नही लिखा ? यह एक राजनीति है । तुलसीदास श्री राम प्रेमी थे , वे जब श्री राम के जन्म की बात
लिख रहे थे क्या उस समय उनके अन्दर श्री राम जन्मस्थान मंदिर की बात नहीं आयी होगी , ऐसा कैसे
संभव हो सकता है ?
बाबरी मस्जिद घटना के ठीक 28 साल बाद अकबर राज गद्दी पर बैठे , उनके दरबार में अनेक उच्च स्थानों पर
हिन्दू लोग थे लेकीन किसी नें बाबरी मस्जिद की बात करनें की हिम्मत न कर पाया , ऐसा क्यों , यह भी
एक राज निति है ?

सन 1528 से सन 1992 तक अर्थात 464 सालों के बाद बाबरी मस्जिद को गिरा दिया गया और आज तक
यह मुद्दा बिबाद का मुद्दा बन गया है ।
राजनीति और धर्माचार्यों का एक समीकरण होता है । दोनों मिलकर आम आदमी को नियोजित करते हैं ।
गीता श्लोक - 10.27 में प्रभु श्री कृष्ण राजा को भगवान् बता रहे हैं , राजा को नरेश नाम दिया गया है - ऐसा
क्यों ?
श्री कबीरजी साहिब लगभग 120 सालों तक काशी में रहे और राम नामी चादरें बेचते - बेचते उनको हर
आते - जाते ब्यक्ति में श्री राम दिखानें लगे , उनको राम मंदिर में नहीं मिले , सड़क पर हर पल मिलते थे और
कबीरजी साहिब इसमें ही खुश थे ।

==== एक ओंकार सत नाम =====

श्री गुरु ग्रन्थ साहिबजी एवं गीता - 27

जपजी साहिब का मूल मंत्र बैराग्य की ऊर्जा भरता है

एक ओंकार सत नाम , करता पुरुष , अकाल मूरत , अजुनी इन शब्दों के भावों में कौन बहता है ?
जो इन शब्दों के भावों में बहनें लगता है , उसका दूसरा नाम है बैरागी । बैरागी वह है जिसको मिलता है ,
सत गुरु , सत गुरु से उसे प्रसाद रूप में मिलता है , परम आनंद ।
आइये अब कुछ बातें गीता से देखते हैं ---------
[क] मोह के साथ वैराग्य संभव नहीं - गीता - 2.52
[ख] बैराग्य बिना संसार का बोध नहीं - गीता - 15.2
[ग] कामना , मोह अज्ञान की जननी हैं - गीता - 7.20, 18.72, 18.73
[घ] वासना - राग [ राजस गुण ] प्रभु की ओर रुख करनें नहीं देते - गीता - 6.27

गीता में अर्जुन का छठवां प्रश्न है -- मन की चंचलता को कैसे नियंत्रित करें ? प्रभु कहते हैं .......[ गीता - 6.26, 6.34 ] मन शांत होता है - बैराग्य एवं अभ्यास से । प्रभु कहते हैं , तेरा मन जहां - जहां रुकता हो उसे वहाँ - वहाँ से उठाकर मेरे ऊपर केन्द्रित करो , ऐसा अभ्यास करनें से मन शांत होगा ,
शांत मन वाला बैरागी होता है ।

मूल मंत्र का जप करना क्या है , यह अभ्यास है जैसी बात प्रभु सूत्र - 6.26 में कहरहे हैं ।
बैरागी वह है - जो गुणों के तत्वों के सम्मोहन में नहीं फसता , हर पल उसका प्रभु सुमिरन में गुजरता है ।

===== एक ओंकार सत नाम ======

Friday, April 9, 2010

श्री ग्रन्थ साहिबजी एवं गीता - 26

जपजी मूलमंत्र बेदांत का द्वार है

एक ओंकार , सत नाम का जप कौन करेगा ? एक ओंकार वह है जो इन्द्रियों की पकड़ से परे है , मन की
सोच के परे है और बुद्धि के तर्क - बितर्क के परे है , ऐसे में एक ओंकार का जप करना कितना कठीन होगा ?
बिना डोर क्या पतंग उड़ाई जा सकती है ? बिना रस्सी क्या कुएं से पानी निकाला जा सकता है ? जिसका कोई पता नहीं , कोई पहचान नहीं उसे याद करना कितना कठीन काम है , आप समझ सकते हैं ।

आदि गुरु कहते है - बश उसके नाम को जपो , बात सुननें में तो अति आसान दिखती है लेकीन है कितनी गंभीर , इस बात को आप समझें ? सुमीरण वह करता है ------
** जिसको राग में बैराग्य दीखता है .... गीता - 4.10
** भोग को समझ कर योग की ओर चलना चाहता है .... गीता - 7.11
** जो सम भाव वाला हो .... गीता - 2.56 - 2.57
** जो जन्म , जीवन एवं मृत्यु में सम भाव रहता हो .... गीता - 2.11
** जिसके पीठ के पीछे भोग हो और आँखों में प्रभु बसा हो .... गीता - 2.69

गुरु साहिब कहते हैं - तुम जप करना प्रारम्भ तो करो , इसको अपनें जीवन से जोड़ो तो सही , धीरे - धीरे
अभ्यास से तुम वहाँ पहुँच जाओगे जहां ------
[क] भोग की दौड़ न होगी ----
[ख] चिंता का आना बंद हो जाएगा ----
[ग] तन , मन एवं बुद्धि में होश होगा ---
[घ] पुरे ब्रहांड में एक दिखेगा और वह होगा .....
एक ओंकार ।
एक ओंकार की धड़कन सुननें के लिए आदि गुरु जैसा ह्रदय चाहिए और यह संभव है तब ----
जब शरीर , मन एवं बुद्धि में गुरु की उर्जा का संचार हो रहा हो , गुरु की ऊर्जा का श्रोत है -----
जपजी का मूलमंत्र ।

===== एक ओंकार सत नाम ========

श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी एवं गीता - 25

जपजी मूलमंत्र का पुजारी कौन है ?

यह मेरा , वह तेरा , यह मित्र , वह शत्रु , यह सुख , वह दुःख , यह अमीर , वह गरीब -- यह भाषा है , उनकी जो भोगी हैं । भोगी वह है जो हमेशा द्वत्य में रहता है , द्वन्द के बिना उसका जीना कठिन हो जाता है ।
गीता श्लोक - 16.8 - 16.22 तक में कुछ अहम् पहलू देये गए हैं - जो भोगी के जीवन के प्रतिबिम्ब हैं , आप इन्हें जरुर समझें । भोगी ब्यक्ति हर पर भोग के चारों तरफ चक्कर काटता रहता है और इस चक्कर में जीवन सरकता चला जाता है । जपजी साहिब का मूलमंत्र उनके लिए है जो परमं प्रीति में डूब रहे हैं , जिनके पास हाँ ही हाँ है , जो ना की भाषा जानते ही नहीं । एक भजन है शायद आप उसे सुनें भी हों ---
ऐसी लागी लगन , मीरा हो गयी मगन ...... जपजी का मूल मंत्र मीरा जैसे भक्त के लिए है , उनके लिए नहीं है जो
संदेह में जीते हैं और संदेह ही जिनका प्राण है ।

गुरुवार रविन्द्र नाथ जी की एक कबिता है जिसमें एक प्रेमी अपनें प्रेमिका से मिलनें आता है , द्वार
खटखटाता है , अन्दर से आवाज आती है - कौन ? प्रेमी कहता है - मैं हूँ , प्रेमिका कहती है - यहाँ दो के लिए जगह नहीं है , प्रेमी चुपचाप चला जाता है । कुछ महीनें गुजर गए , एक दिन प्रेमी पुनः आवाज लगाया , अन्दर से आवाज आयी - कौन ? प्रेमी बोला - अब तो तूं ही तूं है , अन्दर से प्रेमिका बोली , आजा , कौन रोकता
है ?

भक्त और भगवान् का रिश्ता प्रेमी एवं प्रेमिका के रिश्ते जैसा होता है , दोनों जब लड़ते हैं तब भी प्यार की बूंदे टपकती हैं और जब दोनों प्यार में हों , तब के आलम को ब्यक्त करना कठिन सा है ।
मूल मंत्र का कोई अर्थ नहीं , मन्त्रों का कोई अर्थ होता भी नही , मंत्र तो एक विशेष प्रकार की लहर पैदा
करते हैं जिनसे मुर्दा ज़िंदा जो जाता है और ज़िंदा मुर्दा भी हो सकता है । बीसवीं शताब्दी में अंग्रेज
डाक्टरों के सामनें काशी में स्वामी विशुद्धानंद जी एक मंदिर में कुछ गिलहरियों के ऊपर वैदिक मन्त्रों के
प्रभाव के सम्बन्ध में एक प्रयोग किया था । पहले मन्त्रों से उपजी धुन को सुनकर गिलहरियाँ मर गयी , उनके मरनें का परिणाम डाक्टरों नें घोषित किया था । वे जब मन्त्रों को बदल दिए अर्थात कोई और मंत्र बोलनें लगे तब मरी हुई गिलहरियाँ पुनः जीवित हो उठी और भाग गयी ।
मन्त्रों के साथ खेलना , खतरनाक भी हो सकता है , मन्त्रों में सिद्ध गुरुओं की ऊर्जा होती है , इनका कोई अर्थ नहीं होता । आप ज़रा सोचो - युरेनिंयम का अर्थ क्या हो सकता है जिसके अन्दर इतनी ऊर्जा है की कुछ ग्राम मात्रा एक देश को समाप्त कर सकता है , और एक ग्राम से एक गाँव को बिजली सात दिनों तक मिल सकती है ।
मन्त्रों का जाप परम प्रीति में डूबे भक्तों के लिए है , जिनके लिए प्रभु ही सब कुछ है ।

===== एक ओंकार सत नाम ====

Wednesday, April 7, 2010

श्री ग्रन्थ साहिबजी एवं गीता - 24

जपजी का मूलमंत्र एक ऊर्जा क्षेत्र बनाता है



[क] वैज्ञानिकों को अब पता चला है - वासना में मनुष्य के मस्तिष्क में एक जगह संवेदना उठती है और प्यार में छः जगह संवेदना उठती है ।

[ख] प्यार एवं वासना में केवल एक अंतर होता है - प्यार के पीछे कोई कारण नहीं होता और वासना के पीछे कारण होता है ।

[ग] सामान्य ब्यक्ति में आतंरिक ऊर्जा की आब्रिती 350 cycles per second की होती है जबकि ध्यान में उतारे योगी के अन्दर यह आब्रिती 200,000 cycle/second की हो जाती है जहां वह योगी अपनें को शरीर से बाहर होने जैसा अनुभव करता है और
उसे इस स्थिति में प्रभु के होनें का आभाष होनें लगता है ।

एक हमारे मित्र हैं , कहते हैं - जपजी के पाठ करनें से क्या होगा ? अब मैं उनको क्या बताऊ ? मैं उनकी बातों में उलझना नही चाहता क्योंकि उलझन से सुलझन नहीं
मिलती । जपजी का अर्थ लगानें वाला कभी जपजी का मजा नहीं ले सकता जप जी की धारा में जो बहता रहता है वह अर्थ लगाता ही नही , वह तो जप-आनंद में होता है ।
भाषा बुद्धि की उपज है , और प्रभु ह्रदय के भावों में होता है । चाह रहित भाव , प्यार , श्रद्धा , आत्मा एवं प्रभु का स्थान मनुष्य के देह में ह्रदय है [ गीता - 10.20,13.22, 15.7, 15.11 ] , प्यार करनें वाला सोचता नहीं है , वह यह भी
नहीं जानता की वह क्या कर रहा है ?



श्री नानकजी साहिब एक ब्यापारी थे , अपनी दूकान पर बैठे - बैठे प्रभु के जाप में उनको वह मिल गया जो अन्य योगियों को कठिन तप से भी नहीं मिल पाता । सुमिरन करनें से , जाप करनें से वह स्थान एक निर्विकार ऊर्जा से भर जाता है , जिसमें इतना आकर्षण होता है की यदि कोई खोजी उस क्षेत्र में आ जाए तो उसे कुछ - कुछ होनें लगता है और उस स्थान को छोड़ना नहीं चाहता ।

परम प्यार में डूबे भक्त द्वारा जिस स्थान पर जपजी का पाठ किया जाता है वह स्थान तीर्थ बन जाता है ।



===== एक ओंकार सत नाम ======

Tuesday, April 6, 2010

ग्रन्थ साहिबजी एवं गीता - 23

श्री जपजी साहिब एक परम पथ है

जपजी के माध्यम से आदि गुरु नानकजी साहिब एक ऐसा परम पवित्र मार्ग दिखाते हैं जो मनुष्य को
रूपांतरित करता है और भोग - योग , भोग - भक्ति को अलग - अलग दिखाते हुए उस को भी दीखता है
जहां दोनों मिलते भी हैं । गीता कहता है [ गीता श्लोक -16.12 ] --- मनुष्य दो प्रकार के होते हैं ; एक वे हैं जो अपनें को प्रभु को अर्पित कर दिए होते हैं , जिनका हर काम प्रभु को अर्पित होता है और दुसरे वे हैं जो अपनें को करता समझ कर संसार में जीते हैं । स्वयं को करता समझनें वाला ब्यक्ति , भोगी होता है जिसकी प्रभु में आस्था न के बराबर होती है । भोगी प्रभु को भोग दाता के रूप में समझता है ।
जो कुछ भी इस संसार में है , वह भोगी के ही पास में है , योगी के पास क्या है ?
मंदिर बनवाता है - भोगी , सोनें की मूर्ती बनवाता है - भोगी , मंदिर में पुजारी बैठाता है - भोगी । इस संसार का मालिक है भोगी और हर पल सिकुड़ा सा रहता है - उसे भय है की उसके पास जो कुछ है , वह कहीं उससे छीन न जाए । कामना - मोह की जंजीर में
इस तरह बंधा है की जिस तरफ भी रुख करता है , उसे तकलीफ होती है ।
जो उसके पास हैं , उसके जानें की सोच , जो उसके पास नहीं है , उसके होनें की चिंता , उस ब्यक्ति के माथे के पसीनें को सूखनें नहीं देते । दूसरी तरफ योगी को देखिये जो जहां बैठ गया , आँखें बंद करली , जपजी का सुमिरन करर्ते हुए परम आनंद में अपनें को देखता है - ऐसे ब्यक्ति को सारा जहां मुस्कुराता हुआ दिखता है , और प्रभु भी ऐसे ही लोगों के संग - संग रहते हैं ।

जपजी साहिब का पाठ करना एक आम बात है , जपजी का पाठ करते - करते स्वयं को जपजी में अर्पित करना आम बात नहीं है ।
वह जो जपजी में अपना -----
तन ....
मन ....
बुद्धि को अर्पित कर देता है , उसे मिलती हैं ऐश्वर्य आंखें जिनसे दिखता है वह सब जो भौतिक आँखों से नहीं देखे जा सकते । इस प्रकार के लोग होते हैं आदि गुरु नानकजी जैसे जो .....
प्रभु से प्रभु में अपनें को देख कर संतुष्ट होते हैं ।

====== एक ओंकार सत नाम ========

Monday, April 5, 2010

श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी एवं गीता - 22

मूल मंत्र आखिरी सोपान .... नानक हो सी भी सच

आदि गुरु श्री नानकजी साहिब परा भक्त थे , परा भक्त वह है जो अपना हर पल प्रभु में गुजारता है और संसार की हर वस्तु में उसे प्रभु ही प्रभु दीखते हैं लेकीन ऐसे भक्त सदियों बात अवतरित होते हैं ।
आदि गुरु श्री नानकजी की बात को सुनिए - कहते हैं ... नानक वह परम सत्य रहेगा भी , यह है परा भक्त की पहचान , जिसकी बुद्धि पूर्ण रूप से स्थीर होती है , जहां संदेह की कोई गुंजाइश होती ही नहीं ।

गीता श्लोक 9.23 - 9.25 में परम प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं -- सकाम भक्ति तक जो सीमित रह गया , वह अज्ञानी है और जो सकाम भक्ति से निष्काम भक्ति में पहुँच गया , उसके लिए मुक्ति - द्वार कोई दूर नहीं ।
आदि गुरु श्री नानकजी साहिब अपनें साधारण शब्दों के माध्यम से यही बात जप - मार्ग से दिखा रहे हैं ।
नानकजी साहिब स्वयं से कह रहे हैं - नानक हो सी भी सच अर्थात वह नानक जो बोल रहा है , अलग है और सुननें वाला नानक अलग है । बोलनें वाला नानक देह में नहीं है , परा [ चेतना ] भाव बोल रहा है जो देह रहित है , जो निर्विकार है । देह तो कभी निर्विकार
हो नहीं सकती और चेतना कभी सविकार हो नहीं सकती ।
नानकजी साहिब कबी न थे , एक सिद्ध योगी थे जो स्वयं बोलते हैं और स्वयं सुनते हैं । एक सिद्ध योगी अपनें में पूर्ण होता है जिसको अज्ञान का पता होता है , जिसको असत का पता होता , जिसको ज्ञान होता है और जो
सत में रहता है ।
अब आप गीता के श्लोक - 2.16, 18.40, 7.12 - 7.13 को एक साथ देखें -----
सत बिना असत हो नहीं सकता , सत भावों में हो नही सकता , भाव गुणों से होते हैं , गुण प्रभु से दूर रखते हैं ,प्रभु से गुण हैं , प्रभु से गुणों के भाव हैं लेकीन प्रभु गुनातीत एवं भावातीत है ।
अब आप सोचिये -----
सकाम भक्ति बिना निष्काम भक्ति में प्रवेश कैसे संभव है ?
भोग बिना योग में प्रवेश करना कैसे संभव है ?
असत के बिना सत का होना कैसे संभव है ? अर्थात -----
सकाम , सविकार , भोग , पाप , शब्द , नाम , मूर्ती , पूजा , जप , तप आदि सभी माध्यम हैं जिनकी समझ ही आगे की राह पर ले जाती है जो राह आदि गुरु नानकजी साहिब जपजी के मूल मंत्र में
बता रहे हैं ।

==== एक ओंकार सत नाम ======

Saturday, April 3, 2010

श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी एवं गीता - 21

जपजी साहिब मूलमंत्र सोपान - 13


है भी सच [ god is , it is true ]


जपजी साहिब का सफ़र कुछ इस प्रकार का रहा -----
एक ओंकार , सत नाम
करता पुरुष
निर्भैय , निर्बैय
अकाल मूरत , अजुनी , सैभंग

यहाँ जो भी ऊपर बताया गया है , वह एक अनुभूति है , यह अनुभूति कैसे मिले ? इस सम्बन्ध में आदि गुरु श्री नानक जी साहिब कहते हैं ------
इस अनुभूति का ही नाम है - गुरु प्रसाद, जो संभव है, निरंतर प्रभु के नाम के जप करनें से ।
गुरु प्रसाद मिलता हैं उनको जो परम प्रीति में डूबे हों , परम प्यार में बसते हों और जग के कण - कण में जिनको परम गुरु , परमेश्वर की आवाज सुनाई पड़ती हो । जब परम प्यार की हवा लगती है तब यह मह्शूश होनें लगता है - आदि सच , जुगादी सच , है भी सच और हो सी भी सच - आदि गुरु की यह वाणी यह बता रही है की परम प्यार में डूबे भक्त की बुद्धि स्थीर होती है जहां संदेह की कोई गुंजाइश नही होती ।

जो बात आदि गुरु कह रहे हैं वही बात कहते हैं -----

** आदि गुरु शंकराचार्य .... ब्रह्म सत्यम जगद मिथ्या
** औलिया मंसूर ............. अनल हक़
** औलिया सरमद .......... ला इलाही इल अल्लाह
और वही बात गीता पांच हजार से कह रहा है -- अक्षरं ब्रह्म परमं ।



आदि गुरु श्री नानकजी जी साहिब हम सब को अपनें गुरु से मिलवाना चाहते हैं जो परम सत्य है , जो
टाइम स्पेस का नाभि केंद्र है , जो सब के ह्रदय में है और जो संसार में बिभिन्न रूपों में विद्यमान है ।
जपजी साहिब का मूल मंत्र वह मार्ग है जो संसार से एक ओंकार में पहुंचाता है लेकीन
इसके साथ इमानदारी से रहना चाहिए ।

जपजी साबिब में वह ऊर्जा है जो तन , मन एवं बुद्धि में परम प्रीति को प्रवाहित करके कहती है ----
अब देख की ..... कहाँ एक ओंकार नहीं है ?

=== एक ओंकार सत नाम =======

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