Tuesday, October 29, 2013

गीता मोती - 06

●गीता सूत्र - 4.1 ●
इमं विवस्वते योगं प्रोक्तावान् अहम् अब्ययम् । विवश्वान् मनवे प्राह मनु: इक्ष्वाकवे अब्रवीत् ।।
** प्रभु श्री कृष्ण कह रहे हैं :---
मैनें इस अविनाशी योगको सूर्यको बताया ,सूर्य अपनें पुत्र वैवश्वत मनुको बताया और वैवश्वत मनु अपनें पुत्र इक्ष्वाकुको बताया ।
** यहाँ दो बातें सोचमें के लिए हैं :---
1- बताया गया बंश क्या है ?
2- प्रभु किस योगकी बात कह रहे हैं ?
1- सूर्य बंश ब्रह्मासे मरीचि ऋषि हुये ,मरीचिसे कश्यप ऋषि हुए ,कश्यप से विवाश्वन् ( सूर्य ) हुए , सूर्यसे सातवें मनु श्राद्धदेव हुए जिनको वैवश्वत मनु भी कहते हैं ।श्राद्ध देव मनुके बड़े पुत्र इक्ष्वाकुसे 100 पुत्र हुए जिनमें विकुक्षि बंश में श्री राम हुये और निमि बंश में सीता हुयी थी ।श्राद्धदेव मनुसे इस कल्पका प्रारंभ हुआ है ।श्राद्ध देव मनु सातवें मनु थे और पिछले कल्प में ये द्रविण देश के राजर्षि सत्यब्रत हैं । एक कल्प में 14 मनु होते हैं । 2- प्रभु जिस योगकी बात कह रहे हैं वह योग कौन सा है ?
गीता अध्याय - 4 अध्याय -3 का क्रमशः है और अध्याय - 3 में श्लोक - 3.36 से अर्जुन का प्रश्न है ,अर्जुन कहा रहे हैं कि मनुष्य न चाहते हुए भी पाप क्यों कर देता है ? प्रभु उत्तर में श्लोक -3.37 से 4.3 तक ( अर्थात 10 श्लोक ) बोलते हैं जिनमें अध्याय - 3 के अंतिम 07 श्लोक कामसे सम्बंधित हैं जिनमें काम नियंत्रणके बारे में प्रभु बताते हैं । प्रभु जिस योग की बात कह रहे हैं उसका सीधा सम्बन्ध काम उर्जा को नियंत्रित करना है । काम योगके सम्बन्धमें गीताके निम्न श्लोको को देखना चाहिए :---
3.37 से 3.43 तक + 5.23+ 5.26+ 7.11+ 10.28+14.12+ 16.18+16.21
~~ ॐ~~

Wednesday, October 23, 2013

कर्म से कर्म योगमें प्रवेश

● गीता मोती - 6 ●
सन्दर्भ : गीता श्लोक :
* 2.67+2.60+2.62+2.63 *
** गीता - मनोविज्ञान **
पाँच ज्ञान इन्द्रियाँ हैं और प्रत्येक इन्द्रियका अपना विषय प्रकृति में है । इन्द्रियोंका स्वभाव है
अपनें - अपनें विषयोंको खोजते रहना । जब कोई इन्द्रिय अपना विषय पा लेती है तब अपनी कामयाबी की सूचना मन तक पहुँचती है । उस समय , मन जिस गुणके प्रभाव में होता है , उस गुण के अनुकूल उस विषय के सम्बन्ध में मनके मनन से वैसे भाव उठते है । मननसे आसक्ति बनती है , आसक्ति से कामना उठती है । कामना जब खंडित होनें का भय आनें लगता है तब कामनाकी उर्जा क्रोध में बदल जाती है । क्रोध में स्मृति खंडित हो जाती है फलस्वरुप वह ब्यक्ति गलत काम कर बैठता है और बादमें पछताता रहता है ।
°° गीता -मनोविज्ञानका यह सूत्र कर्मसे
कर्मयोग - सिद्धि तक की यात्रा का प्रमुख अंश है °°
~~~ ॐ ~~~

Wednesday, October 16, 2013

उसे देखना चाह रहे हो ?

● गीता मोती - 6 ● 
* मनुष्य - परमात्मा * 
मनुष्य परमात्माको कैसे समझना चाह रहा है , देखिये एक झलक उन दृश्योंका जिनके माध्यमसे मनुष्य परमात्माको समझ रहा है। ** महाकालके रूपमें शिवके एक विशेष रूप जो भय का प्रतिक है , उसके माध्यम से मनुष्य प्रभुको समझना चाह रहा है ।
 ** काली माँ दुर्गाके भयानक रूपमें भय माध्यमसे प्रभुको मनुष्य समझ रहा है । 
** कन्हैया श्री कृष्णके बाल रूप यशोदाके वात्सल्य प्यार माध्यमसे मनुष्य प्रभुको समझ रहा है ।
 ** महाभारतके श्री कृष्ण चक्रधारीके रूपमें परम शक्तिधरके रूपमें मनुष्य प्रभुको समझ रहा है ।
 ** राधाके कृष्ण रागरूपमें प्रभुको मनुष्य समझ रहा है । 
** धनुषधारी मर्यादा पुरुषोत्तमके रूप में श्री रामके रूप में मनुष्य प्रभुको समझ रहा है । 
** परशुराम रूपमें क्रोध माध्यम से मनुष्य प्रभुको समझ रहा है । और ---
 ° फूलोंके सुगंध और कोमलता में प्रभु को मनुष्य खोज रहा है ।
 ° तितिलियोंके विभिन्न रंगों और उनकी बनावटमें मनुष्य प्रभुको समझाना चाह रहा है। 
° चन्दनकी मादक गंधमें प्रभुको मनुष्य देखना चाह रहा है ।
 और --- 
^ तत्त्व दर्शी परम शून्यतामें प्रभुकी छाया देखना चाहते हैं ।
 ^ मायापतिको मायासे परे पहुँच कर देखना चाहते हैं ।
 ^ एक ओंकारमें प्रभुकी आवाज सुनना चाहते हैं । 
<> बहुत कम लोग ऐसे हैं जो स्वयं में प्रभुके आगमनकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। 
<> बहुत कम लोग ऐसे हैं जिनको अपनें घर के छोटे - छोटे किलकारियां भरते हुए बच्चों में प्रभु को देखनें की जिज्ञासा हो । <> बहुत कम लोग ऐसे हैं जिनको अपनें माँ - पितामें प्रभु झाँकता हुआ दिखता हो ।
 <> ● <> 
 * भाग लो जितना भागना हो --- 
* चाह लो जितना चाहना चाहते हो ---
 * सोच लो जितना सोचना चाहते हो ---
 कुछ न होगा लेकिन --- 
जब तुम अपनें मन पर पड़े धब्बोंको साफ़ कर लोगे तब -- 
°° आपको उसके बारेमें सोचना नहीं पड़ेगा , वह आपमें ही अवतरित हो उठेगा ।
 ~~~ ॐ ~~~

Sunday, October 13, 2013

गीता यात्रा का एक अंश

● गीता मोती - 06 ●
 <> गीता यात्राका एक अंश <> 
* गीता पर जो लोग भाष्य लिखे हैं उनमें अधिकाँशलोग भक्ति मार्गी हैं और कुछ ऐसे भी हैं जिनका मार्ग भक्तिका तो नहीं है पर उनकी बुद्धि भक्ति मार्गियों से पूर्ण प्रभावित है । 
* गीताको कर्मयोगकी गणित समझा जाता है ,यह बात तो समझमें आती है , इतनी सी बात को लोग पकड़ कर बैठ जाते हैं , रात-दिन भोग कार्य में ऐसे जुड़ जाते हैं कि उनको सामनें खड़ी मौतका भी आभाष नहीं हो पाता और एक दिन उनकी जीवात्मा उनके शरीरका त्याग कर देती है । 
* गीता -2.49 में प्रभु कह रहे हैं - ---
 बुद्धियोगात् कर्मः दूरेण अवरं 
 बुद्धौ शरणं अन्विच्छ हि फलहेतवः कृपणा: 
अर्थात :- 
बुद्धि योगसे कर्म अत्यंत निम्न श्रेणी का होता है अतः तुम बुद्धि योगके शरण में जाओ , कर्म फलकी कामना वाले कृपण होते हैं । * भागवतमें वैदिक कर्म दो प्रकार के होते हैं ; प्रबृत्ति परक और निबृत परक । प्रबृत्ति परक भोगआश्रित कर्मोंको कहते हैं और निबृत परक वे कर्म हैं जो ब्रहकी अनुभूतिमें पहुँचाते हैं ।
 * गीता कहता है बुद्धि योग और कर्म योग की यात्रा अलग -अलग नहीं होती प्रबृत्तिपरक कर्म एक माध्यम हैं जिनमें भोग तत्त्वों की परख संभव है । भोग तत्त्वों की परख हो जानें के बाद उनके सम्मोहन का प्रभाव नही होता और वह प्रवृत्तिपरक कर्म निबृत्तिपरक कर्म हो जाते हैं जहाँ नैष्कर्म्य की सिद्धिके साथ ज्ञान प्राप्त होता है और ज्ञानप्राप्ति, ज्ञान योग है जो ब्रह्मऔर जीवात्माके एकत्वकी अनुभूति कराता है । 
 * जिसे हम भक्ति कहते हैं वह स्थूल (अपरा ) भक्ति है । अपरा भक्तिसे पराका द्वार खुल सकता है । परा भक्ति में पहुंचा योगी राम कृष्ण परम हंस जैसा हो जाता है और वह पूर्ण होशमय स्थिति में ज्ञान में बसेरा बनाया होता है । 
 ~~~ ॐ~~~

Wednesday, October 2, 2013

गीता मोती -5

● गीतासे गीतामें ●
~ पहले गीतासे गीतामें को समझते हैं ~
गीता पढ़ना , गीतासे है और इस पढ़ाईसे खोजकी जो प्यास उठती है वह यदि गीतामें अपनीं तृप्तिके तत्त्वको खोजती है तो उसे कहेंगे गीतामें ।
* गीता मात्र एक ऐसा माध्यम है जिसमें संदेह और भ्रम उठनें के श्रोत हैं और उनकी औषधि भी गीतामें कहीं न कहीं मिलती है । वह जो गीताका प्रेमी है , बुद्धिसे गीतामें प्रवेश करता तो है लेकिन धीरे -धीरे उसकी बुद्धि शांत होनें लगती है और ह्रदयका कपाट खुलनें लगता है ।
* दर्शनमें दो मार्ग हैं ; एक है मन -बुद्धि और दूसरा है हृदय । निश्चयात्मिका बुद्धि अर्थात ध्यान -बुद्धिसे ह्रदयका द्वार खुलता है और अनिश्चयात्मिका बुद्धि है भोग बुद्धि जो हृदय के द्वारको बंद रखती है और मैं और मेराके भावसे बाहर होनें नहीं देती ।
* गीता से गीता में पहुंचा कभीं गीतासे बाहर निकलता ही नहीं ..
और
* बुद्धि स्तर पर गीताको ऊपर - ऊपरसे देखनें वाला कभीं गीतामें प्रवेश करता ही नहीं ।
~~~ ॐ ~~~

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