Wednesday, June 16, 2010

गुण रहस्य भाग - 17


गुणों की गति

गीता कहता है ..... मनुष्य में तीन गुणों का एक हर पल बदलता समीकरण होता है [ गीता - 14।10 ] , इस समीकरण में जो गुण अधिक प्रभावी होता है , वह ब्यक्ति उस गुण का गुलाम होता है ।
गुण समीकरण भोजन के प्रकार एवं भोजन निर्माण करता की सोच पर निर्भर करता है जब वह भोजन बनानें का काम करता है , भोजन बनानें के स्थान की सफाई का असर वहा बन रहे भोजन पर पड़ता है , मनुष्य के रहन - सहन ब्यक्ति के मन की दशा का उसके गुण समीकरण पर गहरा असर पड़ता है ।

मनुष्य बिषयों में वही देखता है जो गुण उसके गुण समीकरण में ऊपर होता है , वस्तुतः ज्ञानेन्द्रियाँ गुण समीकरण की गुलाम हैं , उस ब्यक्ति की - जो भोगी है , लेकीन योगी के मन - बुद्धि में निर्विकार ऊर्जा प्रवाहित होते रहनें से उसकी इन्द्रियाँ बिषयों का द्रष्टा होती हैं ।
साधना का चाहे कोई भी मार्ग क्यों न हो सब में इन्द्रिय निग्रह का स्थान सर्पोपर है क्यों की इन्द्रियों के माध्यम से मन - बुद्धि भोग या योग से जुड़ते हैं ।
मन के साथ हर पल बनें रहो , मन बिषय पर जो सोचता हो उस सोच के आधार पर अपनें गुण समीकरण को पहचानों , प्रभावी गुण की पहचान होनें पर मन को सत गुण के तत्वों पर केन्द्रित करनें की कोशीश धीरे - धीरे गुण समीकरण में परिवर्तन ला सकती है और जब सत गुण की ऊर्जा मन - बुद्धि में भरनें लगती है तब मन भोग में रूचि लेना छोड़ देता है , वह भोग का द्रष्टा बन जाता है । जब साधक का केंद्र प्रभु हो जाता है तब वह साधक गुनातीत की ओर यात्रा करनें लगता है ।

इन्द्रियों का भोग से आकर्षित न होना
मन का भोग तत्वों से आकर्षित न होना
बुद्धि का संदेहमुक्त होना .......
शुभ लक्षण हैं ।

===== ॐ =====

Monday, June 14, 2010

गीता गुण रहस्य भाग - 16


गुण साधना द्रष्टा बनाती है

मेरे एक मित्र हैं , परम से जुड़े से दिखते हैं , हमारे साथ रहे भी हैं , एक दिन बोल पड़े - तुमनें किया ही क्या , अपनें जीवन में ? उनकी बात मुझे बहुत कडुई लगी , मैं उदास सा हो गया , लेकीन बाद में उनकी बात समझ में आयी ।
मैं गीता प्रेमी हूँ - ऐसा मैं समझता हूँ , लेकीन अभी मैं गीता से कोशों दूर हूँ - ऐसा मुझे उनकी बातों को सुननें के बाद लगा । गीता अध्याय दो जो ब्यवहारिक रूप में गीता ज्ञान का सारांश है , वहाँ प्रभु कहते हैं - हे अर्जुन समभाव के बिना जीवन रहस्य में सत की आहट पाना संभव नहीं क्योंकि यह मनुष्य का जीवन गुण सागर में डूबा हुआ है ।

संसार है क्या ? संसार गुणों का सागर है जो मनुष्य को प्रभु से दूर भोगों में ब्यस्त रखता है । संसार का बोध गुण तत्वों का बोध है जो सीधे प्रभु की ओर रुख को करता है । प्रभु श्री कृष्ण युद्ध को अर्जुन को रूपांतरित करनें का माध्यम बना रहे हैं क्योंकि अर्जुन सघन तामस गुण तत्व - मोह में डूबे हैं - यह अवसर बार - बार नहीं आनेवाला लेकीन कृष्ण की चाह को अर्जुन समझ नहीं पा
रहे । कहते हैं गीता का जन्म अर्जुन को स्थिर मन वाला बना कर प्रभु से परिपूर्ण करना है लेकीन गीतान्त तक अर्जुन मोह मुक्त तो होते नहीं , अर्जुन चूक जाते हैं - बार - बार ।
जैसे अर्जुन परम श्री कृष्ण जैसे मित्र को पानें के बाद भी अज्ञान में डूबे रहते हैं वैसे मैं भी अपनें ग्यानी मित्र की बातों को न समझ कर अहंकार एवं अज्ञान में बना रहा । संसार में रहनें का केवल एक उद्देश्य है - भोग तत्वों को समझना और इनकी समझ बैरागी बना कर द्रष्टा भाव में पहुंचा कर प्रभु से भर देती है ।
संसार में अवसर तो हर पल मिलते रहते हैं लेकीन इन अवसरों को जो पकड़ कर आगे निकाल जाते है , वे अज्ञान से ज्ञान में पहुँच कर परम आनंद में होते हैं ।

आप देखना मेरे जैसे अवसर को हाँथ से निकलनें न देना , क्या पता दुबारा ऐसा प्यारा अवसर मिले या न मिले ।
जब किसी की अनुकूल या प्रतिकूल बातों का अन्तः कारन पर कोई असर न पड़े तब वह स्थिति होती है -
द्रष्टा या साक्षी की ।

==== ॐ =====

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