Saturday, March 31, 2012

गीता रहस्य एवं हम - 10

गीता श्लोक –1.1

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः /

मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत सञ्जय //

धृतराष्ट्र कौरव परिवार के प्रधान पूछ रहे हैं अपनें सहयोगी संजय से , हे संजय ! धर्म भूमि कुरुक्षेत्र में एकत्रित युद्ध की इच्छावाले मेरे और पाण्डु के पुत्रोंनें क्या किया ? “

यह सूत्र पिछले अंक में दिया गया है और कुरुक्षेत्र के सम्बन्ध में कुछ बातें भी कही गयी हैं अब देखते हैं इस सूत्र के सम्बन्ध में कुछ और बातों को -------

इस सूत्र में कुरुक्षेत्र को धर्म क्षेत्र कहा गया है और धृतराष्ट्र जी संजय से क्यों पूछ रहे हैं , दोनों तरफ के लोग क्या कर रहे हैं ? , यहाँ हम इन दो बातों को समझनें की कोशिश कर रहे हैं , आइये अब हम चलते हैं कुरुक्षेत्र के उस भू भाग पर जहाँ दोनों पक्ष की सेनाएं आमनें सामने खडी हैं और कुछ औपचारिकाओं का इंतज़ार कर रही हैं /

अर्जुन का रथ दोनों सेनाओं के मध्य खडा है तथा अर्जुन अपनों को आपस में लड़ मरनें की सोच से मोहित हो रहे हैं और युद्ध से अपनें को दूर रखना चाह रहे हैं/प्रभु अर्जुन को युद्ध से ठीक पहले मोह मुक्त करानें के लिए सांख्य योग,वेदान्त एवं भक्ति आदि के माध्यम से अर्जुन के मन की स्थिति को बदलना चाह रहे हैं/

अंगुतारा निकाय , बौद्ध प्राचीनतम शास्त्र में 16 महाजनपदों में उस भू भाग को बाटा गया है जिसका सीधा सम्बन्ध महाभारत युद्ध से था / पूर्व में अंग महाजनपद के सम्राट थे महाराजा कर्ण जिनकी सेना हरियाणा के शहर करनाल में रुकी थी / अंग उस समय वह भाग था जिसको आज का बंगाल एवं बंगला देश कहते हैं / अंग पूर्व में स्थित है , पूर्व का सीधा सम्बन्ध सूर्य से है और कर्म को सूर्य का पुत्र कहा जात है / शल्य महाराजा कर्ण के सारथी थे जो कर्म के हार के कारण भी थे / कर्ण का अर्थ है कान जो सुननें का काम करता है और शल्य का अर्थ है संदेह ; कान एवं संदेह का गहरा मनोवैज्ञानिक सम्बन्ध है / महाराजा के सारथी शल्य का चुना जाना और अर्जुन के सारथी के रूप में श्री कृष्ण का चुना जाना महाभारत युद्ध का निर्णायक पल था / शल्य कर्ण के मन में हर पल शंका पैदा करता रहा और संदेह ब्यक्ति की ऊर्जा के पतन का कारण बनता है और दूसरी तरफ कृष्ण मन से हारे हुए अर्जुन को स्थिर प्रज्ञ बनाकर युद्ध करानें में लगे रहते हैं अर्थात सूखी लकडी में हरे पत्ते खिलाना चाह रहे हैं /

इस सम्बन्ध में कुछ और बातें आप देख सकते हैं अगले अंक में -------


=====ओम्=======


Thursday, March 29, 2012

गीता रहस्य एवं हम का अगला भाग

श्रीमद्भगवद्गीता का जन्म कहाँ हुआ?

इरान से बर्मा [ मयमार ] तक , कश्मीर से कन्याकुमारी तक का भू भाग प्राचीन शास्त्रों के आधार पर सोलह भागों में बिभक्त था जिनको महाजनपद कहा जाता था / सोलह महाजनपदों में एक था कुरु महाजनपद / कुरु महाजनपद को दो भागों में समझना चाहिए ; एक वह भाग जो गंगा - यमुना के मध्य का भाग था जिसको कुरुराष्ट्र कहते थे , जिसकी राजधानी थी हस्तिनापुर जो अगभाग 37Km मेरठ से दूर था / यः भाग पूर्ण रूप से विकसित था और कौरवों के अधिकार में था जिसको वे पांडवों को देना नही चाहते थे और दूसरा भाग यमुना एवं सरस्वती नदियों के मध्य का इलाका था जो दो भागों में बटा हुआ था , एक था कुरु जंगल जिसकी राजधानी थी इन्द्रप्रस्थ [ आज की दिल्ली ] एवं कुरुक्षेत्र जिसकी राजधानी थी स्थानेश्वर जो आज का कुरुक्षेत्र है / कुरु जंगल में नागा , राक्षस एवं असुर प्रजातियां रहा करती थी जिनके प्रधान नागा लोग होते थे जिनको तक्षक कहा करते थे / दिल्ली के आस पास का इलाका , रोहतक , भिवानी , हांसी एवं हिसार का इलाका इस भाग में आते थे / यह

भाग पूर्ण रूप से जंगल था जिसको खांडव बन कहा करते थे / रोहतक रोहिताका नामक कटीली झाडियों के नाम पर रखा गया है जो द्वापर युग में इस इलाके में एक जंगलके रूप में उपलब्ध थी / प्राचीन शास्त्र कहते हैं - कुरुक्षेत्र पंजाब के सिरहंद इलाके के दक्षिण की तरफ , कुरु जंगल के उत्तर में स्थित था / कुरुक्षेत्र से एक नदी इक्षुकमती बहा करती थी और सरस्वती नदी भी इस इलाके के पश्चिम से हो कर हिसार की ओर से बहती हुयी द्वारका के आस पास जा कर अरब सागर में गिरती थी / कुरुक्षेत्र के सम्बन्ध में वेद कहते हैं - यह स्वर्ग में रहनें वालों का तीर्थ है और यह 51 शक्ति पीठों में से एक है / कुरुक्षेत्र के इलाक में हा पेहवा जिसको Prithidaka नाम से द्वापर में जाना जात था जो अति पवित्र तीर्थों में से एक है /

ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि श्रीमद्भगवद्गीता का जन्म संभवतः 5561 BCE – 800 BCE के मध्य हुआ होगा / कुरुक्षेत्र मौर्य से ले कर हर्षवर्धन तक [ 300 BCE – 657 AD तक ] भारत भू भाग पर अपना विशेष स्थान बनाए हुए था / सन 1011 AD में यहाँ का शिव मंदिर महमूद गज़नी के द्वारा लूटा गया

था / पानीपत , सफेदो , करनाल , थानेश्वर , पेहवा , कैथल एवं अम्बाला आदि स्थान कुरुक्षेत्र के अंतर्गत आते रहे होंगे /

गीता श्लोक – 01 के सम्बन्ध में आप अभीं इतनी जानकारियों से अवगत हों और कुछ बातें अगले अंक बतायी जायेंगी /

धर्म क्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः/

मामका:पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय//

धर्म क्षेत्र कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छावाले मेरे और पाण्डु - पुत्रों नें क्या किया ? यह बात ध्रितराष्ट्र जी अपनें सहयोगी संजय से युद्ध स्थल में पूछ रहे हैं ----- यह प्रशंग आगे भी जारी रहेगा … ...


==== ओम्======


Tuesday, March 27, 2012

गीता एवं हम - गीता क्या है ?


महाभारत युद्ध के प्रारम्भ होनें से ठीक पहले कौरव एवं पाण्डवों की सेनाओं के मध्य सांख्य – योगी परम् श्री कृष्ण एवं अर्जुन के मध्य जो ज्ञान – विज्ञान के मूल सिद्धांत विकसित हुए उन सबको एक जगह ब्यास जी द्वारा एकत्रित किया गया और वह बन गया श्रीमद्भगवद्गीता जो लगभग 800 BCEसे आज तक विभिन्न परिस्थितियों से गुजरनें के बाद भी हम सब को जीवन के मूल सिद्धांतों की ओर देखनें के लिए आकर्षित करता है /


इंद्रिय , विषय , मन – बुद्धि , अहँकार , प्रकृति - पुरुष , आसक्ति , कामना , क्रोध , लोभ , मोह , भय ,


मैं - तूं , ब्रह्माण्ड की रचना , भूतों की रचना , समय , भोग – योग , संसार – वैराज्ञ स्वर्ग – नरक , परम - धाम एवं आत्मा के माध्य से परमात्मा के साकार – निराकार अस्तित्व को स्पष्ट जो करता है उसका नाम है श्रीमद्भगवद्गीता /


Prof. Einstein says …......


When I read Bhagavadgita and reflect about how God created this universe , everything else seems so superfluous .


वह ब्यक्ति जिसको न्यूटन का विज्ञान आकर्षित न कर सका उसे भगवद्गीता आकर्षित किया , गीता में वह कौन सा प्रसंग है जो आइन्स्टाइन को एक चुम्बक की भांति अपनी ओर खीच लिया ? अब इस सन्दर्भ में गीता का सूत्र – 8.16 देखिये -------


आब्रह्मभुवनाल्लोका:पुनारावार्तिनोऽर्जुन/


मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते//


अर्थात


ब्रह्म लोक पर्यंत सबलोक पुनरावर्ती हैं अर्थात समयाधीन हैं ; आज हैं कल समाप्त होनें वाले हैं और समाप्त हो - हो कर कहीं बनते भी रहते हैं / जन्म , जीवन एवं मृत्यु से परे कुछ नहीं है सभीं इस समय चक्र से गुजरते हैं चाहे वे जीव हों या ग्रह , उपग्रह , लोक या अन्य कोई भी सूचना क्यों न हों /


गीता का यह सूत्र पूर्ण रूप से विज्ञान का सूत्र है जिसके आधार पर आज नयी पृथ्वी की तलाश हो रही है / जहाँ विज्ञान समाप्त होता दिखता है गीता वहाँ से प्रारम्भ होता दिखता है / विज्ञान कहता है


टाइम – स्पेस से एवं टाइम – स्पेस में सब हैं और गीता भी यही बात कहता है पर आगे यह भी कहता है कि टाइम – स्पेस भी किसी से किसी में है जिसका नाम है भगवान /


Science says , “ Everything known are from and within time – space . “


and Gita says , “ Everything is from and within time – space but time is from timelessness and space is from unknowable which is nothing but the Supreme One .


====ओम्======


Sunday, March 25, 2012

गीता और हम अध्याय तीन भाग एक

क्य आप जानते हैं , दाराशिकोह को उपनिषदों का ज्ञान औलिया सरद से मिला था ?

दाराशिकोह उपनिषदों को फारसी में अनुबाद कराया और उपनिषद भारत से चल कर पश्चिम में पहुंचे / पहली बार जब पश्चिम के लोग उपनिषदों को पढ़ा तो हैरान हो उठे / उपनिषद की भाषा नेती - नेती कि भाषा है / दार्शनिक , वैज्ञानिक एवं ऋषि तीन प्रकार के लोग हैं जो ज्ञान की ओर यात्रा पर होते हैं और चाहते हैं कि सभीं लोग ज्ञान से सत्य को देखें / दार्शनिक और वैज्ञानिक बुद्धि केन्द्रित होते हैं और उनके पास तर्क – वितर्क की गहरी क्षमता होती है लेकिन ऋषि की यात्रा भिन्न होती है / ऋषि तर्क – वितर्क में नहीं उलझता उसके पास श्रद्धा की ऊर्जा होती है जहाँ संदेह के लिए कोई जगह नहीं

होती / ज्ञान के सम्बन्ध में प्रो . आइन्स्टाइन कहते हैं ---------

Knowledge exists in two forms ; lifeless and alive , lifeless knowledge is stored in books and alive is one,s consciousness .

ऋषि परिणाम देता है , दार्शनिक उस परिणाम को प्राप्त करनें के सहज उपायों का निर्माण करता है और वैज्ञानिक संदेह की नाव पर सवार हो कर सत् और असत् के मध्य भ्रमण करता रहता है / आप जानते होंगे , बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में आइन्स्टाइन जो भी कुछ कहा उनको सिद्ध करनें के लिए उनके पास बहुत अधिक सामग्री थी और आज लगभग सौ साल से वैज्ञानिक उनकी कही गयी बातों को खोज रहे हैं और यह खोज अभीं चलती रहेगी , ऐसा दिख रहा है / आइन्स्टाइन जैसा ब्यक्ति वैज्ञानिक नहीं ऋषि होता है जो जो कुछ भी देखता है वह सत्य ही होता है /

प्रो . आइन्स्टाइन कहते हैं , “ In nature a point exists where all physical theories break down . “ आप ज़रा कल्पना कीजिए कि ऎसी बात आइन्स्टाइन कब कही होगी ? आइन्स्टाइन के जीवन का मात्र केवल एक लक्ष्य था , वे उस समीकरण को खोज रहे थे जिस के आधार पर प्रकृति अपना काम कर रही है लेकिन वह unified formula उनको न मिल सका / वैज्ञानिक सोच कर करके जब सोच के परे पहुंचात है तब उसे सत्य की छाया दिखती है और वह खुश हो उठता है लेकिन जब वह जो देखता है उसे सिद्ध करनें की कोशीश करता है तब उसे परेशानी आती है और वह ठीक – ठीक उसे नहीं सिद्ध कर पाता जिसको वह देखा होता है / ऋषि कभी अतृप्त नहीं होता और वैज्ञानिक कभीं तृप्त नही हो सकता / वैज्ञानिक जो भी सोचता है उसका आधार संदेह होता है और ऋषि सोचता नहीं , देखता है और जो भी देखता है वह सत् होता है / सीधी सी बात है ---- गुणों की ऊर्जा जब भी मन – बुद्धि में बह रही होती है तब तक वह ब्यक्ति सत्य की ओर पीठ कर के खडा रहता है और निर्विकार मन – बुद्धि कभी असत्य को पकड़ नहीं पाता / गीता को पढ़िए , गीता को समझिए और अपनें मन – बुद्धि को निर्विकार करके सत्य में डूबिये //


=====ओम्======


Friday, March 23, 2012

गीता रहस्य एवं हम - ज्ञानयोग

पिछले अंक में आप देख चुके हैं कि कर्म से कर्म योग में उतरा योगी ज्ञान – योग का फल चखता

है , अब देखते हैं ज्ञान – योग में बसा योगी कैसा होता होगा ?

  • वह आत्मा से आत्मा में तृप्त रहता है वह सभी भूतों में आत्मा और सभी भूतों को आत्मा में कल्पित देखत है/

  • उससे जो भी होता है उसके पीछे कोई करण नहीं होता

  • उसे रह – रह कर अस्तित्व की झलक मिलती रहती है

  • वह अपनी द्वारा कही गयी बात को सिद्ध नहीं करता

  • वह अपनें स्थूल देह का द्रष्टा होता है

  • उसे देह के परे होनें की अनुभूति भी होती है

  • वह कभीं समाधि में होता है तो कभीं भोग संसार में

  • वह कटी पतंग जैसा होता है ;

  • ऐसा योगी स्वयं में तीर्थ होता है

  • ऐसा योगी जहाँ होता है वह स्थान ऊर्जा क्षेत्र बन जाता है

  • ऐसा योगी जहाँ होता है उसके चारों तरफ लगभग पांच मील के क्षेत्र में सात्त्विक उर्जा बहती है

और अब आगे------

याद रखें चाह चाह है चाहे राम की हो या काम की

जब अहँकार श्रद्धा में बदल जाता है

जब वासना प्यार में बदल जाती है

तब वह जो भी देखता है वह परमात्मा ही होता है

और वह योगी ज्ञानी होता है//


==== ओम्======




Wednesday, March 21, 2012

कर्म एवं कर्म योग

क्य है कर्म ? और क्य है कर्म – योग ?

गीता में प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं----

गीता श्लोक –5.22

ये हि स्पर्शजा भोगा दुःखयोनय एव ते/

आद्यन्तवन्तः कौन्तेय न तेषु रमते बुधः//

मनुष्य इंद्रिय एवं बिषय के संयोग से जो करता है वह भोग है जिसमें जो सुख मिलता है उसमें दुःख का बीज पल रहा होता है //

whatsoever is performed with the help of senses and their objects is passion [ bhoga ] which gives pleasure during the progress of the action but this pleasure contains the seeds of pain .

गीता की भाषा में कर्म उस क्रिया को कहते हैं जो आसक्त मन – बुद्धि तंत्र के माध्यम से आसक्त इंद्रियों के माध्यम से होता है / जिस कृत्य के होनें के पीछे तीन गुणों के तत्त्वों की उर्जा एवं अहँकार काम कर रहा हो वह कृत्य भोग कर्म है /

वह कृत्य जिसको अनासक्त मन – बुद्धि तंत्र के माध्यम से अनासक्त इन्द्रियाँ कर रही हो वह कृत्य कर्म – योग कहलाता है/

Action done by the impetuous mind – intelligence frame through impetuous senses is passionate – action [ Bhoga Karma ] nd action performed without attachment is Karma – Yoga .

गीता कहता है------

कोई भी जीवधारी किसी भी पल बिना कर्म नहीं रहता , जब कर्म करना ही है चाहे कोई संन्यासी जैसा बन कर हिमालय पर रहे या किसी गाँव में तो फिर कर्म में होश पैदा करके उसे प्रभु का मार्ग क्यों न बना लिया जाए , क्या जरुरत है न चाहते हुए भी समाज की ओर पीठ करके खडा होना ?

गीता में प्रभु अर्जुन को मना रहे हैं कि अर्जुन ऐसा युद्ध न कभीं हुआ और आगे न होगा , यह मौक़ा तुमको फिर नहीं मिलनें वाला , तुम इस युद्ध को अपनें ध्यान की विधि बना लो और उतर जाओ उस पार जहाँ आज नहीं तो कल , इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में जाना ही है जो मेरा परम

धाम है /

भोग से योग में

योग से वैराज्ञ में

और

वैराज्ञ से समाधि में पहुंचनें वाला ब्यक्ति गुणातीत योगी होता है जो कृष्ण मय होता है//

===== ओम्=======



Monday, March 19, 2012

गीता एवं हम में अब कर्म को देखो

गीता कहता है-------

भूत भावः उद्भव करः विसर्गः इति कर्मः … ..... गीता - 8.3

गीता के इस सुत्रांश का अर्थ एक नहीं अनेक हैं , सबके अपनें अपने अर्थ हैं जैसे प्रभुपाद जी इस का अर्थ कुछ लगाते हैं और सर्वपल्ली राधाकृषनन अपना अर्थ लगाते हैं लेकिन जब सभीं के अर्थों के आत्मा को देखेंगे तो यह आप को स्पष्ट दिखनें लगेगा ------

वह जिसके करनें के अभ्यास से भावातीत की यात्रा हो , कर्म है /

गीता कहता है-------

ऐसा कोई कर्म नहीं जो दोष मुक्त हो ----- गीता - 18.48

कोई भी जीवधारी एक पल के लिए भी कर्म मुक्त नहीं हो सकता ------ गीता - 18.11

बिषय एवं इंद्रियों के सहयोग से जो होता है वह भोग है

जिसके सुख में दुःख का बीज होता है ------ गीता - 5.22 , 18.38

अब आगे-------

गीता में प्रभु कहते हैं-----

कर्म कर्ता प्रकृति के तीन गुण हैं न की मनुष्य ---- गीता - 3.5

तीन गुणों के भाव मुझसे उठते हैं लेकिन उन भावों में मैं नहीं होता ----- गीता - 7.12


ऊपर आप गीता में प्रभु के कर्म सम्बंधित सात सूत्रों को देखा , इन सूत्रों के सम्बन्ध में यदि आप गीता में कुछ और तैरना चाहते हैं तो आप को लगभग 80 सूत्र और मिलेंगे जिनका सीधा सम्बन्ध

कर्म से है / प्रभु अर्जुन को बता रहे हैं -------

कर्म में दोष न हो यह तो संभव नहीं क्योंकि कर्म होते हैं गुणों की ऊर्जा से और गुणों की ऊर्जा ही भोग ऊर्जा है / दैनिक सहज कर्मों में भोग ऊर्जा के तीन तत्त्वों [ सात्त्विक , राजस् एवं तामस ] के प्रति होश उपजाना ही भोग कर्म को योग में बदल देता है जो कर्म में अकर्म एवं अकर्म में कर्म देखनें की उर्जा से मन – बुद्धि को भर देता और ऐसे मन – बुद्धि तंत्र में जो होता है वह अब्यक्त ही होता है /


=====ओम्=====


Thursday, March 15, 2012

गीता और हम में अगला कदम

मनुष्य भोग एवं भगवान दोनों को क्यों चाहता है?

गीता में प्रभु श्री कृष्ण कह रहे हैं -----

चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिन:अर्जुन/

आर्तो जिज्ञासु अर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ//

मुझे जो लोग भजते हैं उनकी चार श्रेणियाँ हैं ; आर्त [ वे जी भयनिवारण के लिए मुझे भजते हैं ] जिज्ञासु [ वे लोग जो मुझे तत्त्व से बुद्धि स्तर पर समझाना चाहते हैं ] अर्थार्थी [ ऐसे लोग जो धन प्राप्ति के लिए मुझे भजते हैं ] और ज्ञानी लोग भी मुझे भजते हैं /

गीता में ज्ञान शब्द का क्या अर्थ है ?

गीता श्लोक –13.2में प्रभु कहते हैं------

वह जिससे क्षेत्र – क्षेत्रज्ञ [ प्रकृति - पुरुष ] का बोध हो , ज्ञान है /

मनुष्यों में ऐसे लोग जो भक्ति भाव में डूबे दिखते हैं उनमें अधिकाँश लोग या तो भय के कारण भक्ति को पकड़ते हैं ; या फिर कामना पूर्ति में कोई बिघ्न न आये , यह सोच उनको मंदिर की ओर खीचती रहती है / ज़रा आप अपनी निगाह उठा के देखना , क्या आप को कोई ऐसा भी दिखा आज तक जो मंदिर नित्य जाता हो और उसके इस कृत्य के पीछे कोई चाह न हो ? मनुष्य तन , मन , बुद्धि एवं भाषा सबका ब्यापारी है और जैसे - जैसे ब्यापार आगे निकलता जाता है वह उसी हिसाब से पीछे सरकता चला जाता है और बाहर से भरा हुआ दिखता तो है लेकिन अंदर से एकदम खाली हो गया होता है /

भगवान से जुडनें का अर्थ है संसार की ग्रेविटी के बिपरीत की यात्रा पर उतरना और यह कम है बहुत कठिन ; गीता में प्रभु कहते हैं ------

गीता सूत्र – 9.25 , सकाम पूजा अज्ञान है

गीता सूत्र –7.3 + 7.19

हजारों लोग मेरी पूजा करते हैं , उनमें से कई जन्मो के बाद कोई मुझे तत्त्व से जान पाता है और ऐसे ज्ञानी दुर्लभ होते हैं /

भोग से उठ कर योग में पहुँचना साधना है और योग में स्थित प्रभु की अनुभूति में होना समाधि है/


===== ओम्========



Monday, March 12, 2012

गीता और हम भाग तीन

ज़रा रुकना-----

क्या आप यह समझ रहे हैं कि अब आप गीता की ओर नहीं चल रहे , इतनें दिनों के बाद गीता आप को अपनी ओर खीच रहा है ? यदि यह बात गलत है और यदि आप स्वयं गीता की ओर कदम उठा रहे हैं तो निम्न में से कोई एक या एक से अधिक कारण हो सकते हैं /

  • पहला कारण अहंकार

  • दूसरा कारण भय

  • तीसरा कारण लोभ

  • चौथा कारण कामना पूर्ति की चाह

  • पाँचवाँ कारण मोह

जब आप के कदम उठते हैं तब आप के कदम तो बाद में उठते हैं आप के मन के कदम पहले चल पड़ते हैं और यह तन – मन का सम्बन्ध मनुष्य को वहाँ नहीं पहुंचा पाता जहाँ की वह तलाश जन्मों से कर रहा है / मनुष्य आवागमन के चक्र से मुक्त होनें का द्वार खोजते - खोजते एक दिन थक जाता है , उसका तन तो जबाब देता है पर मन हार नहीं मानता / मनुष्य का देह जब गिर पड़ता है तब मन देह को छोड़कर अहंकार को अपने साथ ले कर आत्मा के साथ हो लेता है / आत्मा , मन एवं इंद्रियों के साथ तबतक गमन करता रहता है जबतक मन को उसकी चाह के अनुकूल नया देह नहीं मिल जाता / इन्द्रियाँ मन के फैलाव के रूप में हैं ; गीता में प्रभु कहते भी हैं - इन्द्रियाणाम् मनः अस्मि

[गीता श्लोक –10.22 ] /

एक बात अपनी स्मृति में उस समय जरुर रख लें जब आप गीता के संग हों-----

जबतक आप का सम्बन्ध गीता के संग प्रकृति रचित तीन गुणों के तत्त्वों के प्रभाव में होगा तबतक आप गीता किताब के संग तो हो सकते हैं लेकिन उस गीता के संग नहीं हो सकते जिस गीता में सांख्य – योगी पूर्णावतार प्रभु श्री कृष्ण बसते हैं /


===== ओम्========



Saturday, March 10, 2012

गीता रहस्य एवं हम परिचय

उजाले अपनी यादों को साथ रहने दो

न जाने किस गली में जिंदगी की साम आ जाए

लिखनें वाला कोई साधारण ब्यक्ति नहीं महान सूफी संत है जिसको पता है कि उजाला क्या है ? और उसमें जीना कैसा होता है ? सबकी खोज तो उजाले की ही है , कौन अँधेरे में जीना चाहता है लेकिन उजाला तो तब दिखेगा जब हम अँधेरे से बाहर निकलें / क्या है उजाला और क्या है अँधेरा ? दिन और रात दोनों को एक साथ कौन देख सकता है ?

दिन और रात को एक साथ एक समय में वह देख सकता है जो उस जगह हो जहाँ न दिन हो और न रात हो और उस स्थान से एक तरफ उसे दिन दिखेगा और दूसरी तरफ रात दिखेगी/

मनुष्य का अंधकार से गहरा सम्बन्ध है ; बच्चा नौ महीनें माँ के गर्भ में अँधेरे का अनुभव करता है . बच्चा जब पैदा होता है तब उसकी ऑंखें बंद रहती हैं और पैदा होनें वाले बच्चों में लगभग 90% बच्चे रात में पैदा होते हैं यदि प्राकृतिक ढंग से उनको पैदा होने दिया जाय / प्राकृतिक मौत भी रात में ही आती है अतः मनुष्य का आदि एवं अंत अँधेरे में है और वह जीवन गुजार देता है प्रकाश को टटोलने में / प्रो . रमन , आइन्स्टाइन . ब्रोगली , सर्फती , मैक्स प्लांक एवं अन्य वैज्ञानिक जीवन भर प्रकाश को खोजते रहे और एक दिन अँधेरे में कहीं लुप्त हो गए / भगवान महाबीर , बुद्ध , नागार्जुन , तिलोपा , मारपा , आदि शंकाराचार्य , चैतन्य महा प्रभु , प्रभुपाद , जे कृष्णमूर्ति , ओशो सभीं प्रकाश को दिखानें वाले एक दिन अँधेरे में कहाँ और कैसे लुप्त हो गए कुछ कहा नहीं जा आ सकता /

ऊपर दो पंक्तियों में कवि कह रहा है ," उजाले अपनी यादों को साथ रहने दो " अर्थात उजाला उसे छोड़ कर जा रहा है , वह कवि उसे जाते देख भी रहा है और बड़े मासूमियत से कह रहा है , “ अच्छा जा ही रहा है तो जा लेकिन अपनी यादों को तो रहने दे तबतक जबतक जिंदगी की साम न आ

जाये /

सूफी लोग तब भी थे जब इस्लाम न था और जब इस्लाम आया तब सूफी लोग इस्लाम को अपना लिया क्योंकि इस्लाम का मूल अरब है और सूफी लोगों का स्थान भी है अरब/सूफी का अर्थ होता है सौफ अर्थात उन[जिससे कम्बल एवं गर्म वस्त्र बनाए जाते हैं] /सूफी लोग तपती धुप में भी कम्बल ओढ़ कर रहते हैं/


==== ओम्======


Thursday, March 8, 2012

गीत रहस्य एवं हम का पहला भाग

आज से गीता मोती में " गीता रहस्य एवं हम " नाम से गीता की चर्चा प्रारम्भ हो रही है , आइये देखते हैं इस श्रृखला के पहले सोपान को -------

पहले कुछ बातें …..

गीता अनंत की उड़ान है [ Gita is a flight of the limitless space ]

गीता द्रष्टा उसे कहता है जो परम केंद्रित हो [ witnes is he who is always in the Supreme ]

द्रष्टा भाव वाला सत् को देखता है [ witness understands the ultimate truth ]

परमात्मा मन – बुद्धि फ्रेम में नहीं समाता [ The ultimate can not be put in the existing mind mechanism ]

जब मन भोग में अनासक्त होता है तब वह ब्यक्ति संकल्प रहित होता है

[ Man without determination has a mind which does not have attachment with passion ]

गीता मोह मुक्त करनें की औषधि है

[ Gita is a medicine of delusion ]

गीता वह मार्ग है जहाँ काम , कामना , क्रोध , लोभ एवं अहंकार का सम्मोहन नहीं काम करता

[ Gita is a way where gravity of sex , desire , anger , greed and ego does not work ]


===== ओम् ========



Tuesday, March 6, 2012

गुण एवं हम

गीता श्लोक –14.19

नान्यं गुणेभ्यः कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति/

गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सः अधिगच्छति//

शब्दार्थ -------

जिस समय द्रष्टा तीन गुणोंके अतिरिक्त किसी अन्य को कर्ता नहीं देखता और तीन गुणों से परे मुझे तत्त्व से समझता है उस समय वह मेरे स्वरुप को प्राप्त होता है//

भावार्थ ----

द्रष्टा वह है जो …...

गुणों के गुरुत्वाकर्षण शक्ति से परे रहता है

गों के अलावा और किसी को कर्ता नहीं देखता

और ऐसा ----

ब्यक्ति प्रभुमय रहता है //

Witness is he …. ..

who is beyond the gravity pull of three natural modes

whose perception is that non other than three modes is the doer

and ….

who always resides in the Supreme One

एक बात और-----

सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में गुणों के प्रभाव से परे प्रभु को छोड़ कर और कोई नहीं है,गीता- 18.40

not even a single information is beyond the influence of three modes except God Itself


=====ओम्======



Friday, March 2, 2012

गीत कहता है - 17

गुण विभाग एवं कर्म विभाग का बोध ही तत्त्व - वित् बनाता है ----- गीत - 3.28
क्या है गुण विभाग और क्या है कर्म विभाग ?
वेद , उपनिषद् एवं गीत कहते हैं --------
ब्रह्माण्ड में जड़ , चेतन , ऋषि , देवता एवं अन्य ऎसी कोई सूचना नहीं जिन पर गुणों का प्रभाव न रहता हो / प्रकृति के तीन गुण प्रभु द्वारा बनाये गए हैं लेकीन प्रभु गुणातीत है / मनुष्य प्रकृति से वायु , पानी एवं भोजन जो कुछ भी ग्रहण करता है उनसे उसे तीन गुणों की कुछ - कुछ मात्राएँ मिलती रहती है / मनुष्य के अन्दर तीन गुणों का एक हर पल बदलता हुआ समीकरण रहता है / गुण समीकरण एक ऊर्जा का श्रोत है जिसको कर्म ऊर्जा कहते हैं / मनुष्य के अन्दर जिस समय जो गुण प्रभावी रहता है वह वैसा कर्म करता है /
सात्त्विक गुण प्रभु की ओर ले जाता है , राजस गुण भोग में आसक्ति पैदा करता है और भोग को भगवान जैसा दिखाता है और तामस गुण सात्त्विक एवं राजस दोनों के मध्य का होता है जिसका देह में केंद्र है नाभि / तामस गुण से भय , आलस्य एवं निद्रा के प्रभाव में मनुष्य रहता है //
===== ॐ ======

Followers