Saturday, February 27, 2010

गीता ज्ञान - 90

नैषकर्म की सिद्धि , ज्ञान - योग की परा निष्ठां है -- गीता सूत्र - 18.50

गीता यहाँ इस सूत्र के माध्यम से कर्म - योग से ज्ञान - योग में प्रवेश करनें की टेक्नोलोजी दे रहा है ।
लोग कर्म - योग एवं ज्ञान - योग को दो अलग - अलग मार्ग समझते हैं लेकीन गीता का यह सूत्र कह रहा है --
निष्कर्मता ज्ञान - योग की परा निष्ठा है । निष्ठा क्या है ? निष्ठा वह है जो बदला न जा सके , जो है , वह है , उसके होनें में कोई संदेह नहीं । निष्ठावान , परम प्रेमी होता है जो रूप - रंग या अन्य से नहीं जुड़ता , वह जुड़ता है , बिना कारण , वह खुद नहीं समझता की वह किस से और क्यों जुड़ा है ?
गीता सूत्र - 18.49 कहता है -- जब कर्म में आसक्ति न हो तब नैष्कर्म की सिद्धि मिलती है । आसक्ति रहित कर्म का होना तब संभव है जब इन्द्रियाँ बिषयों से सम्मोहित न हों और बिषयों में छिपे राग - द्वेष इन्द्रियों को बाँध न सकें ।

गीता कहता है [ गीता श्लोक - 2.14, 2.45, 3.5, 3.27, 3.33, 5.22, 18.38 ] -- जो तुम कर रहे हो वह सब तुम नहीं कर रहे , गुण तुमसे करवा रहे हैं और ऐसे कर्म भोग कर्म हैं । भोग कर्मों में कभी क्षणिक सुख तो कभी दुःख मिलता है । काम , कामना , क्रोध , लोभ , अहंकार , भय , मोह एवं आलस्य - ये हैं गुण - तत्त्व जो हमारी पीठ ठोकते रहते हैं की तूं सी ग्रेट हो और हम फुल कर बैलून बन जाते हैं लेकीन होता क्या है ?
पल दो पल का यह भ्रमित सुख हमें गुमराह करता है ।

गीता कहता है - तुम जहां हो उसे समझो , उसकी समझ ही तेरे को वहाँ पहुंचाएगी जिसकी तेरे को अनजानें में तलाश है । भोग कर्मों में भोग तत्वों की पकड़ जब समाप्त होती है तब वह कर्म , कर्म - योग बन जाता है ।
भोग तत्वों की समझ ही - ज्ञान है अर्थात भोग कर्म भोग से कर्म - योग में पहुंचा कर आगे ज्ञान - योग में कदम रखनें के लिए इशारे करते हैं । गीता कहता है - आ तूं आजा , तेरा आना बहुत आसान है लेकीन गीता में
जो आया वह आगया ।

बुद्ध के पास एक सज्जन आये और बोले - भंते ! परमात्मा क्या है ? बुद्ध बोले - ऐसी भी क्या जल्दी है ? जा उस पेंड के नीचे आँखें बंद करके बैठ जा , तेरे को पता चल जाएगा की परमात्मा
क्या है और यदि न पता चला तो मैं बता दूंगा , वह आदमी तो घबडा गया , उसनें उस पेंड की ओर देखा -
वहाँ एक सन्यासी हस रहा था - वह था महा काश्यप , काश्यप कहते हैं - जो पूछना है अभी पूछ ले नहीं तो फिर क्या पूछेगा ? आज से ठीक एक साल पहलें मैं भी तेरी तरह इसी प्रश्न के साथ यहाँ भंते के पास आया था ।
भंते मुझे इस पेंड के नीचे बैठा दिए और मैं तब से आज तक बैठा हूँ । उस आदमी नें पूछा - क्या तेरे को पता चला की परमात्मा क्या है ? यदि न चला हो तो पूछ ले भंते से - कश्यप कहते हैं अब पूछनें के लिए है ही क्या ? जो मेरे में प्रश्न उठा रहा था वह तो चला गया ।
गीता से मिलता कुछ नहीं जिसको हम मिलना समझते हैं लेकीन वह दिखानें लगता है जो पहले से था लेकीन जो
गुणों से ढका रहनें के कारण दिख नहीं रहा था ।

=====ॐ======

Friday, February 26, 2010

गीता ज्ञान - 89

नैष्कर्म्य - सिद्धि का द्वार है - आसक्ति

गीता श्लोक - 18 . 49 कहता है ........
स्पृहा एवं आसक्ति रहित बुद्धि वाला सन्यासी है और वह निष्कर्मता की सिद्धि वाला होता है ।
गीता बुद्धि - योग का विज्ञान है अतः इसके हर शब्द का सही अर्थ समझना ही गीता की साधना है ।
गीता में स्पृहा , आसक्ति , ध्रितिका , कामना ऐसे कुछ नाजुक शब्द हैं जिनका एक दुसरे से सन्निकट का सम्बन्ध है अतः इनको समझ कर आगे चलना ही उत्तम होगा । इन्द्रिय , मन , बुद्धि में बहनें वाली एक ऊर्जा है । जब इन्द्रियाँ अपनें - अपनें बिषयों में पहुंचती हैं तब उस बिषय पर मन मनन करनें लगता है ।
मनन के फलस्वरूप मन - बुद्धि तंत्र में जो ऊर्जा होती है , उसे स्पृहा कहते हैं , यह ऊर्जा उस बिषय के सम्बन्ध में उत्सुकता पैदा करती है । स्पृहा का गहराना आसक्ति है जो कामना की जननी है । कामना , संकल्प , विकल्प , क्रोध , लोभ एवं अहंकार का सीधा संबध कामना से है । कामना टूटनें का भय , क्रोध पैदा करता है ।
आसक्ति , कामना , क्रोध एवं लोभ राजस गुण के मुख्य तत्त्व - काम के रूपांतरण हैं और राजस गुण प्रभु - मार्ग का एक बड़ा अवरोध है - यहाँ देखिये गीता श्लोक - 2.62 - 2.63, 6.27, 3.37 - 3.43, 18.33, 18.35 को ।

गीता कहता है बिना असत्य के तुम सत्य को पकड़ नहीं सकते , बिना भोग के तुम योग को समझ नहीं सकते और यदि भोग के प्रति तेरे में होश का जागरण हो जाए तो तुम भोगी से योगी बन कर परम आनंद का मजा ले सकते हो [ गीता सूत्र - 5.3, 5.6, 6.1 ] , गीता आगे कहता है -- कर्म का त्याग तो संभव नहीं है क्यों की कर्म करता तुम नहीं , गुण हैं [ गीता सूत्र - 3.5, 18.11, 2.45, 3.27, 3.33 ] और बिना कर्म
किये निष्कर्मता की सिद्धि भी नहीं मिल सकती , अतः कर्म तो करना ही है , बश एक काम करो की कर्म तुझे बाँध न सकें । कर्म जब किसी बंधन के बिना होनें लगते हैं तो इस को गीता कहता है -----
कर्म में अकर्म की अनुभूति और अकर्म में कर्म की अनुभूति जो निष्कर्मता की सिद्धि का द्वार है और यह तब संभव होता है जब कर्म में आसक्ति न हो । आप ऊपर दी गई बातों के लिए गीता के निम्न सूत्रों को देख सकते हैं।
4.18, 4.20, 4.21, 18.6, 18.9, 18.11, 18.12, 6.2, 6.4, 5.6, 5.10, 18.10

कर्म के बिना - कर्म योग नहीं ......
कर्म - योग बिना ज्ञान नहीं ..........
ज्ञान बिना क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का बोध नहीं ......
देह , आत्मा - परमात्मा के बोध बिना ....
परम आनंद नहीं ।

====ॐ======

Thursday, February 25, 2010

गीता ज्ञान - 88

हम क्या और कैसे करें ?

[क] गीता कहता है [ गीता - 18.48 ] -- सभीं कर्म दोष युक्त हैं ।
[ख] गीता कहता है [ गीता - 18.40 ] -- गुण अप्रभावित कोई सत्व नहीं ।
[ग] गीता कहता है [ गीता - 7.12 - 7.15 तक ] -- कोई भाव गुण रहित नहीं ।
[घ] गीता कहता है [ गीता - 2.16 ] -- सत भावातीत है .....फिर हम क्या करें और कैसे करें ?
आइये ! अब हम गीता श्लोक - 18.48 को देखते हैं ------
श्लोक कहता है --- जैसे धुएं के बिना अग्नि का होना संभव नहीं है वैसे दोष रहित कर्म का होना संभव नहीं ।
गीता आगे कहता है -- लेकीन सहज कर्मों का त्याग करना उचित नहीं है और यह भी कहता है -- गीता सूत्र - 3.4 - 3.5 में की पूर्ण रूप से कर्म - त्याग करना संभव नहीं क्योंकि कर्म गुण आधारित हैं और बिना निष्कर्मता की सिद्धि , प्रभु मय होना संभव नहीं । निष्कर्मता कर्म - त्याग से नहीं मिलती , यह कर्म के बंधनों की पकड़ के न होनें से मिलती है अतः सहज कर्मों को करते रहना चाहिए और उनमें कर्म बंधनों की पकड़ को ढीली करनें की साधना करते रहना चाहिए जिसको गीता कर्म - योग कहता है ।
सहज कर्म क्या हैं ?
जो कर्म प्रकृति की आवश्यकता हों , सहज कर्म हैं जैसे काम , बंश को चलानें के लिए, न की मनोरंजन के लिए ।
काम राम है [ गीता - 7.11 ] और काम , क्रोध एवं लोभ नरक के द्वार भी हैं [ गीता - 16.21 ] , फिर यहाँ क्या करना चाहिए ? मनोरंजन के लिए काम के सम्मोहन में फसना , नरक है और संतान उत्पत्ति के लिए काम का प्रयोग , सहज कर्म है । वह काम जिसमें चाह , राग , लोभ , मोह , भय एवं अहंकार न हो , राम है ।
भोजन , भजन , सोच - जिनमें कोई चाह न हो , जिनमे कोई अहंकार न हो , जिनमें कोई मोह न हो , जिनमे कोई भय न हो अर्थात ऐसे कर्म जो गुणों के प्रभाव में न हों , वे योग कर्म हैं जो सीधे परमात्मा से जोड़ते हैं ।
गीता एक तरफ कहता है - गुण कर्म करता हैं और दूसरी तरफ कहता है - गुनातीत बन कर कर्म करो जो तुझे प्रभुमय बनाकर आवागमन से मुक्त कर देगा - बुद्धि स्तर पर गीता की इस बात को समझना आसान नहीं लेकीन कर्म - योग की साधना के लिए यही करना पड़ता है ।
कर्म में अकर्म की अनुभूति .....
देह में आत्मा की अनुभूति .....
भोग में भगवान् की अनुभूति का उदय होना ही ......
गीता का कर्म - योग है ।

======ॐ======

गीता ज्ञान - 87

यह कैसा रहस्य है ?

गुणों का प्रभाव मनुष्य का स्वभाव बनाता है ----
स्वभाव से कर्म होता है , और -----
जातियां - गुण , स्वभाव एवं कर्म के आधार पर , प्रभु निर्मित हैं ।

आइये इस सम्बन्ध में देखते हैं गीता के कुछ श्लोकों को ------
[क] गीता सूत्र - 4.13, 18.41 -- परम श्री कृष्ण कहते हैं - ब्राह्मण , क्षत्रिय , वैश्य एवं शुद्र रूप में जातियों को
हमनें बनाया है जो स्वभाव , गुण एवं कर्म के आधार पर हैं ।
[ख] गीता सूत्र - 18.59 - 18.60 कहते हैं - स्वभाव से कर्म होता है ।
[ग] गीता सूत्र - 2.45, 3.5, 3.27, 3.33 को जब आप एक साथ देखेंगे तो आप को मिलेगा - गुण कर्म करता
हैं , गुण प्रभावित कर्म भोग - कर्म हैं ।
[घ] गीता सूत्र - 14.10 कहता है - हर प्राणी में हर पल बदलता तीन गुणों का एक समीकरण होता है ।

गीता की बातों को देखनें के बाद सोचनें की बात आती है , अब आप सोचिये ------
गुण परिवर्तनशील हैं , गुणों से स्वभाव बनता है और स्वभाव से कर्म होता है , इन सब में मूल तत्त्व है -
गुण समीकरण जो परिवर्तनशील है फिर जातियां कैसे परिवर्तनशील नही हो सकती ? क्या ब्राह्मण जाती में जन्मा ब्यक्ति , ब्राह्मण है ? जब की गीता कहता है - ब्राह्मण वह है जो ब्रह्म से परिपूर्ण हो - गीता - 2.46, 18.42 , क्या
ब्राह्मण कुल का हर सदस्य , सम भाव एवं ब्रह्म से परिपूर्ण होता है ? यदि कोई अन्य जाती का ब्यक्ति
ब्रह्म से परिपूर्ण हो तो क्या वह ब्राह्मण न होगा ? क्या महेश योगी , ओशो , रबिदास , कबीर आदि ब्राह्मण कुल में पैदा हुए थे ? क्या बुद्ध , महाबीर , विश्वामित्र ब्राह्मण थे ? यह नाजुक मसला है अतः हम यहाँ कुछ नहीं कह सकते
हमारी सीमा मात्र गीता तक है अतः इतना कह सकते हैं ---कोई ऐसा सत्य नहीं जो गुणों से अछूता हो और गुण का अर्थ है - असत्य [ गीता - सूत्र - 18।40 ]

=====ॐ======

Monday, February 22, 2010

गीता ज्ञान - 86

गीता श्लोक - 18.40

श्लोक कहता है ---- पुरे ब्रह्माण्ड में कहीं भी कोई ऐसा सत्य नहीं जो गुणों से अछूता हो ।
गीता के बुद्धि - योग का यह सूत्र आप को कोस्मिक - केमिस्ट्री में ले जाना चाहता है । प्लेटो [ 427 - 347 bce ]कहते हैं ---Man - a being in search of meaning अर्थात मनुष्य वह है जो खोज में रहता है तो आप भी गीता के सूत्र - 18.40 को अपनें खोज का बिषय बना कर कुछ तो कीजिये ।

Prof. Albert Einstein संन 1900 - 1955 तक इस खोज में बिताया की एक इंच लंबा वह सूत्र उनके हाँथ लग जाए जो सभी शक्तियों [ forces ] को जोड़ता हो । आइन्स्टाइन अपनें इस खोज में अपना सारा जीवन लगा दिया , इस खोज में, अंत समय तक वे 900 शोध पत्र प्रकाशित किये और 43000 ऎसी बातों को दिया जिन पर वैज्ञानिक सोच रहे हैं । आइस्ताइन जो अपनें चेतना में देखा उसे बुद्धि की सीमा में लानें के
लिए कोई कसर न छोड़ी जिस से अन्य वैज्ञानिकों को समझा सकें लेकीन चेतना की अनुभूति को बुद्धि में उतारना कभी संभव नहीं हो सकता - चाहे सिद्ध योगी हो या सिद्ध वैज्ञानिक दोनों की यही समस्या है ।
सन 1905 तक एटम के बारे में न के बराबर पता था और आइन्स्टाइन उसके बिभाजन की गणित को अपनें मॉस - एनेर्जी समीकरण के माध्यम से दिया , आप सोच सकते हैं की यह उनको कैसे मालुम हुआ होगा ?
ऋग्वेद कहता है -- वह स्वयं अपनी ऊर्जा से गतिमान हो उठा और ब्रह्माण्ड बना और गीता कहता है ---
प्रभु से प्रभु में प्रभु की माया जो तीन गुणों से परिपूर्ण है , उस से एवं उसमें प्रक्रति - पुरुष के योग से भूतों की रचना हुयी और मनुष्य क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ के योग का परिणाम है । मनुष्य एक ऐसा प्राणी है जो एक पल भी बिना सोच के नहीं रह सकता , मनुष्य भोग , योग , काम एवं राम सब को सोच सकता है । गीता में प्रभु , गीता श्लोक - 2.55 - 2.72 एवं 14.22 - 16 . 24 तक अर्थात 68 सूत्रों में यह बतानें की कोशिश करते हैं की ------
प्रकृति - पुरुष एवं क्षेत्र - क्षेत्रग्य को समझ कर कैसे वहां पहुंचा जा सकता है जहां वह स्वयं है और जो ब्यक्त नहीं किया जा सकता -- जो गुणों से अप्रभावित है ।
गीता सूत्र - 18.40 कहता है ---कोई ऐसा सत्य नहीं जो गुणों से प्रभावित न हो लेकीन यह भी कहता है ---
तीन गुण , उनके भाव प्रभु से हैं लेकीन प्रभु गुनातीत - भावातीत है और यह भी कहता है -----
सत्य भावातीत है [ गीता - 7।12 - 7.13, 2.16 ]

=====ॐ=======

गीता ज्ञान - 85

सुख तीन प्रकार के होते हैं ---गीता - 18.36 - 18.39

गीता कहता है - सुख तीन प्रकार का होता है लेकीन यह नहीं बताता की दुःख कितनें प्रकार का होता है ?
राजस गुण को समझनें के लिए आप देखें गीता सूत्र - 14.7, 14.9, 14.10, 14.12, 6.27, 4.10, 7.1116.21, 3.37 - 3.43, 5.23, 5.26 और सात्विक गुण के लिए आप देखें गीता - 14.6, 14.9 - 14.10 एवं तामस के लिए देखिये गीता - 14.8, 14.9, 14.10, 14.17, 18.72 - 18.73, 2.52, 4.10 सूत्रों को ।
गीता कहता है इन्द्रिय सुख में दुःख का बीज होता है और जो बिषय - इन्द्रिय के सहयोग से हो उसमें गुणों का प्रभाव तो होता ही है और वह यातो राजस कर्म होगा या तामस जिनका फल क्षणिक सुख तो देता है लेकीन उस सुख में दुःख का बीज होता है ---देखिये गीता सूत्र - 2.14, 5.22, 18.38 को इस सम्बन्ध में ।
जुंग और फ्रायड कहते हैं ---मनुष्य दुःख को छोड़ना नहीं चाहता और सुख की खोज उसे चैन से रहनें नहीं देती -
यह सुख - दुःख का खिचाव मनुष्य के तन्हाई का कारण है ।
ज़रा आप समाज में निगाह डालना - यहाँ कितने लोग सुखी हैं और कितनें लोग दुःख नहीं चाहते ? कोई दुःख नहीं चाहता लेकीन सुखी भी कोई नहीं है तभी तो नानक जी कहते हैं -----
नानक दुखिया सब संसार ।
गीता कहता है --छोडनें या पकडनें की चाह को समझो - दोनों में कोई अंतर नहीं है एक की दिशा एक तरफ है तो दूसरी की दिशा दूसरी ओर है - चाह चाह है जो प्रभु से दूर रखती है , चाह के साथ रहते हुए सम भाव में पहुँचना ही गीता की साधना है जिसको गीता समत्व योग की संज्ञा देता है ।
काम का दुःख , कामना का दुःख , लोभ का दुःख , भय का दुःख , मोह का दुःख , अहंकार का दुःख सभी दुःख अलग - अलग हैं लेकीन सब की जड़ें एक से हैं जो न सुख है न दुःख है । गीता कहता है गुण मन में भाव पैदा करते हैं , भाव मनुष्य से कर्म करवाते हैं और कर्म का फल जब चाह के अनुकूल होता है तब सुख मिलता है एवं जब फल प्रतिकूल होता है तब दुःख का अनुभव होता है लेकीन ये भाव जहां से उठते हैं वह भावातीत है जिसको प्रभु कहते हैं अतः प्रभु के परम प्यार में डूबा न सुखी होता है और न दुखी लेकीन होता है -
परम - आनंद में ।

आप गीता से क्या चाहते हैं ? अर्जुन की तरफ भ्रम में ही रहना चाहते हैं या सब के परे की उड़ान भरना
चाहते हैं ?
मन - बुद्धि से परे की उड़ान का नाम है ----
गीता और इस समय आप जहां है , वह है ----
गीता - मोती

=====ॐ=======

Saturday, February 20, 2010

गीता ज्ञान - 84

बुद्धि को समझो

गीता में श्री कृष्ण कहते हैं -----
[क] मन , बुद्धि एवं अहंकार अपरा प्रकृति के तत्त्व है --गीता - 7.4 - 7.5
[ख] बुद्धि मानों की बुद्धि , मैं हूँ --गीता - 7.10
[ग] कर्म - योग में बुद्धि निश्चयात्मिका बुद्धि होती है --गीता - 2.41
[घ] भोगी की बुद्धि अनिश्चयात्मिका बुद्धि होती है --गीता - 2.66
[च] बुद्धि गुणों के आधार पर तीन प्रकार की होती है -- गीता - 18.29 - 18.32
गीता में परम श्री कृष्ण यह भी कहते हैं [ गीता - 2।42 - 2.44 ] -- भोग - भगवान् को एक साथ एक बुद्धि में एक समय में रखना असंभव है ।

गीता [ सूत्र - 2.47 - 2.51 ] कहता है , बुद्धि - योग का फल है - सम भाव जो बिषय , ज्ञानेन्द्रियाँ , मन ,बुद्धि के होश से संभव होता है और जब तक बुद्धि प्रभु के रंग में नहीं रंगती तब तक साधना का मार्ग सीधा नहीं हो सकता ।

गीता कहता है - तूं वर्त्तमान में किस बुद्धि के अधीन हो , पहले इस बात को समझो और जब तेरे को इस बात का आभाष हो जाएगा तब तुम बुद्धि पर केन्द्रित हो कर बुद्धि की गति के साथ रह कर बुद्धि को धीरे - धीरे रूपांतरित कर सकते हो । तामस बुद्धि भय , मोह एवं आलस्य की ओर खीचती है , राजस बुद्धि भोग में रूचि रखती है और सात्विक बुद्धि परम की ओर रुख करती है अतः जो अपने बुद्धि को समझ कर
आगे चलता है , वह है - बुद्धि योग का राही ।

====ॐ======

Friday, February 19, 2010

गीता ज्ञान - 83

तामस कर्म क्या हैं ?

गीता गुणों के आधार पर तीन प्रकार के कर्मों की बात गीता सूत्र - 18.19 में करता है और गीता सूत्र - 8.3 में
कहता है ....जिसके करनें से भावातीत की स्थिति मिले , वह कर्म है ---इस बात को समझना ही कर्म - योग है ।
तामस कर्म वे कर्म हैं जिनको मोह , भय या आलस्य के कारण किया जाता है ।
साधना के दो मार्ग हैं -- सब को स्वीकारना या सब को नक्कारना ; अष्टबक्र एवं उपनिषद् सब को नकारते हैं और अंत में जो मिलता है वह सत होता है लेकीन गीता समभाव का विज्ञान देते हुए कहता है ----
जो है उसे स्वीकारो , उससे मित्रता स्थापित करो , उसके विज्ञान को समझो , उसकी समझ तेरे को सत में पहुंचाएगी । सत भावातीत है - गीता सूत्र - 2.16, और गुण आधारित कर्म भावों के अधीन हैं अतः गुण आधारित कर्मों की समझ ही भोग कर्म को कर्म - योग में बदल सकती है ।
तामस गुण को यदि आप समझना चाहते हैं तो देखिये गीता सूत्र - 2.52, 14.8, 14.17, 18.25, 18.28,18.72 - 18.73 को ।
गीता कहता है ---भय से मुक्त होनें के लिए कुछ लोग भूतों को पूजते है [ गीता - 17.41 ] , कुछ लोग देवताओं को पूजते हैं [गीता -3.12, 4.12, 7.16 ] और यह भी कहता है - मोह के साथ बैराग्य नहीं मिलता , बिना बैराग्य संसार का बोध नहीं होता [ गीता - 15.3 ], बिना संसार के बोध के परमात्मा का बोध होना संभव नहीं ।
गीता कहता है - राजस एवं तामस गुणों के प्रभाव में जो कर्म तुम कर रहे हो वे तेरे पाठशाला हैं , उनको तुम पढो और आगे दूसरी पाठशाला तेरा इंतज़ार कर रही है - बश कही उनमें रुक न जाना ।
जो कुछ भी है सब प्रभु से प्रभु में ही तो है बश हमको अपना रुख बदलना है जो किसी भी समय बदलेगा ही - आज नहीं तो कल , इस जन्म में नहीं तो अगले जन्म में सही ।
जो करो पूरी श्रद्धा से करो , प्रभु को केंद्र में रख कर करो , प्रभु को अर्पित हो कर करो , यह करता भाव
तेरे को एक दिन द्रष्टा बना देगा ।
चाह एवं अहंकार रहित पूर्ण समर्पण से किया गया कर्म , प्रभु से जोड़ता है ।

=====ॐ========

गीता ज्ञान - 82

गीता श्लोक - 18.24 - 18.27 तक

राजस कर्म को समझो
गीता कहता है ---गुणों के आधार पर तीन प्रकार के लोग हैं और उनका कर्म - ज्ञान सब का अपना - अपना है [ गीता - 18.19 ] लेकीन यहाँ पर हम राजस कर्म को समझें की कोशिश कर रहे हैं ।
गीता की बात - कर्म तीन प्रकार का होता है , यह बात आपनें देखी, अब गीता की इन बातों को भी देखिये ---
[क] करता - भाव अहंकार से आता है ....गीता -3.27
[ख] जो भावातीत में पहुंचाए , वह कर्म है ....गीता - 8.3
[ग] जिससे क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का बोध हो , वह ज्ञान है ....गीता - 13.2
अब आप इनको समझनें के बाद गीता श्लोक - 18.19 की बात को समझनें की कोशिश करें की कर्म कैसे तीन प्रकार का होता है ?
राजस गुण को समझनें के लिए आप गीता के निम्न श्लोकों को देखिये -----
3.37 - 3.43, 4.10, 5.23, 5.26, 7.11, 6.27, 14.7, 14.9, 14.10, 14.12
गीता कहता है [ गीता - 6.27 ] ---राजस गुण प्रभु के मार्ग का सबसे बड़ा अवरोध है , जिसका प्रमुख तत्त्व है - काम , काम के रूपांतरण हैं - कामना , क्रोध एवं लोभ । मनुष्य काम के सम्मोहन में पाप करता है ।
काम का सम्मोहन बुद्धि तक होता है लेकीन जो आत्मा केन्द्रित है उस पर काम का असर नहीं होता ।
ऐसे कर्म जिनमें काम , अहंकार , कामना , लोभ , बासना , राग , रूप , रंग जैसे भाव छिपे हो उनको राजस कर्म कहते हैं ।
गीता कहता है --- तुम यदि राजस कर्म में रस ले रहे हो तो लो लेकीन यह देखनें की कोशिश करो की यह रस कितना सुख - दुःख दे रहा है और इस से तुम कितनी देर तक तृप्त रहते हो ? क्षणिक सुख जिसमें दुःख का बीज हो क्या उसे सुख कह सकते है ? गीता सुख - दुःख को भी तीन प्रकार का बताता है ।
गीता इशारा करता है की जो है उसको जाननें की कोशिश करते रहो और ऐसा करते रहनें से एक दिन तुम स्वयं राजस कर्म से सात्विक कर्म में पहुँच जाओगे । सात्विक कर्म में पहुंचा ब्यक्ति केवल अहंकार से नीचे गिरता है , जो अहंकार को समझ कर आगे चलता है वह एक दिन गुनातीत में पहुच कर परम आनंदित हो उठता है ।
आप क्या सोच रहे हैं , है उम्मीद की आप भी परम आनंद रस पीना चाहते हैं ?

=====ॐ==========

Tuesday, February 16, 2010

गीता ज्ञान - 81

सात्विक कर्म क्या है ? गीता श्लोक - 18.23 + 18.26

गीता श्लोक - 18.19 में हमनें देखा की गुणों के आधार पर कर्म तीन प्रकार के होते हैं और यहाँ हम देखनें जा रहे हैं की सात्विक कर्म क्या है ?
सात्विक गुण को समझनें के लिए हैं - गीता सूत्र - 14.6, 14.9 - 14.10 को देखना चाहिए और फिर हमें गीता सूत्र - 18.23 एवं गीता सूत्र - 18.26 को समझनें की कोशिश करनी चाहिए ।
गीता सूत्र - 18.40 कहता है ---ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी है उसमें तीन गुण हैं और मनुष्य जो कुछ भी ग्रहण करता है उससे उसे गुण मिलते हैं । मनुष्य के अन्दर हर पल बदलता तीन गुणों का एक समीकरण होता है गीता सूत्र - 14.10 जो मनुष्य के भोजन - भाव पर निर्भर करता है ।
कर्म , मन - इन्द्रीओं एवं बिषयों के सहयोग से होता है और ऐसा कर्म भोग कर्म है । भोग कर्मों में सुख - दुःख एवं दोष होते हैं । ज्ञानेन्द्रियों का स्वभाव है अपनें - अपनें बिषयों में भागना और हर बिषय में राग - द्वेष होते हैं जो इद्रियों को सम्मोहित करते हैं । बिषयों के सम्मोहन में आकर इन्द्रियाँ गुणों के प्रभाव में होती हैं और वे जो सूचना मन को देती हैं वह भोग - भाव से भरा हुआ होता है ।
गीता कहता है --तामस गुण से अच्छा है राजस गुण , राजस गुण से उत्तम है सात्विक गुण लेकीन गुण चाहे कोई हो सब बंधन हैं । रस्सी चाहे लोहे की हो , घास की हो या सोनें की उसका काम है बाधना फिर इसमें क्या चयन करना । सात्विक गुण निःसंदेह प्रभु से जोड़ता है लेकीन यह है बंधन ही अतः यह सोच कर इसे स्वीकार करना चाहिए की एक दिन इसको भी अलबिदा कहना है ।
गीता कहता है तेरे पास जो भी है उसे पहचानों , उसे पहचान कर उसे पीछे जानें दो और इस प्रकार तेरी यात्रा एक दिन गुणों की पकड़ से परे हो जायेगी और तू गुनातीत हो कर परम गुनातीत को जान जाएगा ।
विचारों से निर्विचार ...
बिषय से बैराग्य .......
गुणों से निर्गुण .........
देह से आत्मा ...........
आत्मा से परमात्मा तक का मार्ग है .....
गीता

=====ॐ======

गीता ज्ञान - 80

गीता श्लोक - 18.19 - 18.22 तक

गीता श्लोक - 18.19 कहता है ....गुणोंकी संख्या करनें वाले शास्त्र में ज्ञान , कर्म एवं कर्म - करता तीन प्रकार के होते हैं ।
गीता श्लोक - 18.20 कहता है ....जिससे सभी भूतों को समभाव से परमात्मा में देखा जाए , वह ज्ञान
सात्विक ज्ञान है ।
गीता श्लोक - 18.21 कहता है ... जिससे सभी भूतों को अलग - अलग भावों में जाना जाए , वह ज्ञान राजस
ज्ञान है ।
गीता श्लोक - 18.22 कहता है ... जो देह के ऊपर केन्द्रित करे , वह ज्ञान तामस ज्ञान है ।
अब हम गीता में ज्ञान एवं ग्यानी से सम्बंधित कुछ सूत्रों पर नज़र डालते हैं -----
देखिये गीता सूत्र - 13.2, 13.7 - 13.11, 15.10, 18.19 को एक साथ -----------
यहाँ गीता कहता है ... सम - भाव ब्यक्ति , ज्ञानी है , जिससे क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का बोध हो , वह ज्ञान है , ज्ञानी
भोगी एवं प्रभु - दोनों को समझता है और गीता सूत्र 18.19 में आकर कह रहा है की ज्ञान तीन प्रकार का होता है ।
कर्म के सम्बन्ध में गीता अध्याय - 3 से अध्याय - 5 तक अनेक बातों को बतानें के बाद अध्याय - 8 के सूत्र - 3 में कहता है -- जो भावातीत में पहुंचाए , वह कर्म है और अध्याय - 18 में आकार कह रहा है की
कर्म तीन प्रकार का होता है ।
प्रोफ़ेसर आइन्स्टाइन कहते हैं ---Information is not knowledge , book knowledge is dead knowledge and alive one comes from the consceousness . आइन्स्टाइन होश को ज्ञान कह रहे हैं और बेहोशी को अज्ञान । गीता कह रहा है तुम अपनें बेहोशी को पकड़ कर होश मय हो सकते हो लेकीन यदि तेरी बेहोशी
तेरे को गुलाम बना लेती है तो तू बेहोशी में ही आखिरी श्वास भरेगा ।
राग से बैराग्य .....
अज्ञान से ज्ञान का मार्ग दिखाता है .....
गीता

====ॐ=====

Monday, February 15, 2010

गीता ज्ञान - 79

आत्मा , अशुद्ध बुद्धि एवं करता भाव ---गीता श्लोक - 18.16 - 18.17

यहाँ गीता के दो सूत्रों के आधार पर हम आत्मा , अशुद्ध बुद्धि एवं करता - भाव के सम्बन्ध को समझनें की कोशिश करनें जा रहे हैं ।

गीता सूत्र - 18.16 कहता है .....अशुद्धि बुद्धि वाला आत्मा को करता समझता है - यह एक परम सूत्र है जिसमें आत्मा और अशुद्धि बुद्धि का सम्बन्ध ब्यक्त किया गया है ।

गीता कहता है ...आत्मा अब्यक्त , अचिन्त्य [ गीता - 2.25 ] है , आत्मा देह में ह्रदय में स्थित परमात्मा है [ गीता - 10.20, 13.22, 15.7, 15.11 ], आत्मा देह में सर्वत्र है [ गीता - 2.24, 13.32 ], आत्मा को देह में तीन गुण रोक कर रखते हैं [ गीता - 14.5 ], और देह के न होनें पर आत्मा के साथ मन भी रहता है [ गीता - 15.8 ] , यदि गीता के मर्म को ठीक ढंग से समझा जाए तो यह कहना गलत न होगा की
आत्मा - प्रभु का एक संबोधन है । गीता सूत्र - 2.41, 2.66, 7.10 कहते हैं ---निश्चयात्मिका एवं अनिश्चयात्मिका - दो प्रकार की बुद्धि हो सकती है ; पहला प्रकार है जो योग के फलस्वरूप मिलता है और बुद्धि का दूसरा रूप है - उस ब्यक्ति की बुद्धि का जो भोग को ही परम समझ कर जीता है । विकारारों से भरी बुद्धि है अनिश्चयात्मिका और निर्विकार बुद्धि है - निश्चयात्मिका ।

भोग में डूबा ब्यक्ति आत्मा - परमात्मा को भोग का परम श्रोत समझता है और इनका प्रयोग भोग प्राप्ति के लिए करता है लेकीन योगी भोग से परे इनको देखनें का प्रयत्न करता है ।

गीता सूत्र - 18.17 कहता है .....करता भाव रहित ब्यक्ति पाप रहित होता है । अर्जुन का तीसरा प्रश्न गीता सूत्र - 3.36 के माध्यम से है जिसमें अर्जुन पूछते हैं - मनुष्य न चाहते हुए भी पाप क्यों करता है ?

परम स्पष्ट रूप से कहते हैं - गीता सूत्र - 3.37 - 3.43 तक में - राजस गुण का प्रमुख तत्त्व है काम और काम का सम्मोहन पाप कर्म के लिए प्रेरित करता है । करता भाव अहंकार की छाया है - गीता - 3.27, और करता भाव रहित ब्यक्ति ब्रह्म मय होता है - गीता सूत्र - 3.5 , अब आप देखें की करता भाव क्या है ?

गीता - 14.22 - 14.27 में अर्जुन के चौदहवें प्रश्न के सम्बन्ध में गुनातीत - योगी की बातें बताते हुए परम कहते हैं ---गुनातीत - योगी बुद्ध होता है जो हर पल ब्रह्म से परिपूर्ण होता है ।

शुद्ध बुद्धि वाला गुनातीत - योगी ब्रह्म से परिपूर्ण गुणों को करता देखता हुआ आत्मा केन्द्रित परमात्मा से परमात्मा में रहता हुआ परम आनंद में रहता है ।





====ॐ=====

गीता ज्ञान - 78

पूर्ण रूप से कर्म त्याग संभव नहीं है - गीता सूत्र - 18.11

गीता श्लोक - 18.11 - 18.12 कहते हैं .......
जीव धारी पूर्ण रूप से कर्म त्याग नहीं कर सकता लेकीन कर्म में कर्म फल की चाह का न होना ही कर्म - फल
का त्याग है । कर्म यदि कर्म फल की चाह के साथ किया जाए तो उस कर्म का फल वर्तमान में एवं मरनें के बाद भी भोगना पड़ता है ।
अब आप इस सम्बन्ध में गीता सूत्र - 3.5, 18.11, 18.48 - 18.50 को एक साथ देखें -----
जिसको हम कर्म समझते हैं वह भोग कर्म है , ऐसे कर्म दोष रहित नहीं हो सकते और इन कर्मों के सुख
में दुःख का बीज होता है । आसक्ति रहित कर्म से कर्म - योग की सिद्धि मिलती है जो ज्ञान - योग की
परा निष्ठा होती है जिसके माध्याम से परमात्मा का बोध होता है ।
गीता में कर्म - ज्ञान को अध्याय तीन में ब्यक्त किया गया है जबकि कर्म की परिभाषा सूत्र 8.3 में एवं ज्ञान की परिभाषा सूत्र - 13.2 में दी गयी है , इस स्थिति में अर्जुन बुद्धि स्तर पर कैसे समझ सकते हैं की कर्म क्या है और ज्ञान क्या है ?
गीता में यदि आप बुद्धि स्तर पर कुछ समझना चाहते हैं तो सम्पूर्ण गीता को अनेक बार पढ़ना पडेगा और तब
बुद्धि कही किसी एक पर केन्द्रित हो पायेगी ।
गीता गुणों का विज्ञान है और गुण - विज्ञान में गुण - तत्वों की पकड़ के सम्बन्ध में होश बनाना पड़ता है ।
गुण - तत्वों के आकर्षण का न होना ही गीता की साधना है ।

======ॐ=======

गीता ज्ञान - 77

गीता श्लोक - 18.1 - 18.17 तक

गीता अध्याय 18 का प्रारंभ अर्जुन के प्रश्न से हो रहा है - अर्जुन कहते हैं - हे प्रभु ! आप मुझे त्याग एवं संन्यास के तत्वों को पृथक - पृथक बताएं ।
परम श्री कृष्ण अर्जुन को कर्म - ज्ञान [ अध्याय - 3 में ], कर्म - योग एवं कर्म संन्यास [अध्याय - 5 में ],
स्थिर बुद्धि - योगी [अध्याय - 2 में ] कर्म एवं ब्रह की परिभाषा [ अध्याय - 8 में ] के बारे में बता चुके हैं ।
गीता का अध्याय - 18 गीता का आखिरी अध्याय है जिसका भी प्रारंभ अर्जुन के प्रश्न से हो रहा है अर्थात
अभी भी अर्जुन अतृप्त ही हैं । गीता अध्याय - 18 में सन्यास एवं त्याग के सम्बन्ध में ऐसी कौन सी नयी
बात है जिसको पहले के अध्यायों में नही दिया गया है ? संभवतः एक भी ऐसी बात नहीं मिलेगी ।
यदि अर्जुन गीता को स्थिर मन से सूना होता तो अध्याय - 18 में सभी श्लोक अर्जुन के होते वह भी धन्यबाद के
रूप में लेकीन ऐसा है नहीं । आइये ! देखते हैं गीता के कुछ और सूत्रों को ------
[क] सूत्र - 3.27, 18.17, 5.6
गीता कहरहा है ... करता भाव अज्ञान एवं अहंकार की छाया है और करता भाव रहित ब्यक्ति ब्रह्म मय होता है ।
[ख] सूत्र - 18.5, 18.6, 18.8 - 18.12 तक
गीता कह रहा है .....त्याग गुणों के आधार पर तीन प्रकार के होते हैं लेकीन सात्विक त्याग प्रभु से
मिलाता है ।
त्याग किया नहीं जाता यह तो तब स्वतः होता है जब भोग कर्म कर्म - योग हो जाता है , कर्म योग में संन्यास की किरण दिखनें लगाती है , भोग से बैराग्य हो जाता है और इस प्रकार भोग के बंधन स्वतः निष्क्रिय हो जाते हैं और
इसको गुण तवों का त्याग कहा जाता है ।
गीता कहता है ---तुमसे जो कुछ भी हो रहा है उसके होनें में जो ऊर्जा है उसको तुम समझनें की कोशिश करो ।
भोग कर्म की समझ उस कर्म को योग बनाती है , योग में बैराग्य होता है , बैराग्य ही त्याग होता है और
जब सभी भोग की पकड़ें समाप्त हो जाती हैं तब ज्ञान मिलता है । ज्ञान वह है जिस से क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का
बोध होता है ।
गीता की साधना एक यात्रा है जिसमें कोई भ्रम नही , कोई संदेह नही सीधे भोग से चल कर ब्रह्म में पहुंचती है ।
क्या आप इस यात्रा के यात्री बनना चाहते हैं ? यदि उत्तर है हाँ तो उठाइए गीता ।

=====ॐ=====

Sunday, February 14, 2010

गीता ज्ञान - 76

गीता श्लोक - 17.5



यह श्लोक कह रहा है .........

शास्त्रों से हट कर घोर तप करनें वालों के ऊपर अहंकार , काम एवं राग का सम्मोहन होता है ।
इस श्लोक में तीन बातें हैं ; शास्त्र , राजस गुण [ काम - राग ] एवं अहंकार जिनको समझना ही इस श्लोक को समझना है ।

[क] शास्त्र क्या हैं ?

क्या वेदों को शास्त्र कहा जा सकता है ? क्या पुराण शास्त्र हैं ? क्या गीता - उपनिषद् शास्त्र हैं ? हिन्दुओं में अंतहीन दर्शन हैं जैसे - योग , वेदान्त , सांख्य , पूर्व मिमांस , न्याय एवं वैशेशिका - सब के अपनें - अपनें मार्ग हैं इनमें से किसको शास्त्र माना जाए ?
[ख] काम एवं राग राजस गुण के तत्त्व हैं और गीता कहता है [ गीता - 6.27 ] - राजस गुण के साथ प्रभु से
जुड़ना संभव नहीं है । अहंकार के लिए गीता कहता है [ गीता -3.27 ] --करता भाव अहंकार की छाया है
और अहंकार अज्ञान की जननी है [ गीता - 18।72 - 18.73 ]
गीता वह शास्त्र है जो सब के लिए है चाहे वह हिदू हो , चाहे वह जैन हो , चाहे वह बुद्धिस्ट हो या किसी और मान्यता
से सम्बंधित हो । गीता तन से मन , मन से बुद्धि और बुद्धि से चेतना तक की यात्रा कराकर कहता है ----
अब तूं उसको देख जो मन - बुद्धि से परे का है अर्थात गुनातीत , भावातीत , निर्विकार परम अक्षर एक ओंकार ।

=====ॐ======

Friday, February 12, 2010

गीता ज्ञान - 75

गीता श्लोक - 17.4
गीता का यह श्लोक तीन प्रकार के पूजकों की बात कर रहा है ; सूत्र कहता है -----
सात्विक गुण केन्द्रित ब्यक्ति देवों को , राजस गुण केन्द्रित ब्यक्ति राक्षसों को एवं तामस गुण वाले लोग
भूत - प्रेतों को पूजते हैं ।
गीता की यात्रा है -----
[क] भोग से योग की
[ख] कर्म से अकर्म की
[ग] गुणों से निर्गुण की
[घ] योग से बैराग की
[च] बैराग्य में ज्ञान की
[छ] ज्ञान में आत्मा - परमात्मा की
गीता गणित बताती है ......
तीन प्रकार के गुण हैं , तीन प्रकार के लोग हैं [गीता - 14.5 ] , उनका अपना - अपना कर्म [ गीता - 18.19,18.23 - 18.26 ] हैं और उन सबका अपना - अपना तप , यज्ञ , पूजा , प्रार्थना आदि सब हैं ।
गीता कहता है - तुम जहां हो उस को जानो , उसे जान कर आगे बढ़ो और धीरे - धीरे तुम समझ जाओगे की ---
तेरी यात्रा क्या है ? तुम किधर से किधर की ओर जा रहे हो ? और अंततः तेरे को पता चल जाएगा की ---
गुणों के बंधन तेरे को कैसे बाँध रक्खे थे और तूं गुलामी की जिंदगी में अपने आदि श्रोत से क्यों दूर होनें से
सब कुछ होते हुए भी अतृप्त क्यों था ?
गीता योगी दुर्लभ योगी होते हैं जिनको खोजनें का केवल एक तरीका है - गीता में अपनें को रखना ।

====ॐ======

गीता ज्ञान - 74

गीता क्या कह रहा है ?

गीता श्लोक - 17.2 - 17.3, 17.4 - 17.14, 18.4, 18.19, 18.36, 18.41 कहते हैं -----
गुणों के आधार पर श्रद्धा , पूजक, भोजन , यज्ञ , तप , त्याग , ज्ञान , कर्म , मनुष्य , बुद्धि - ध्रितिका , सुख , स्वभाव --सब कुछ तीन प्रकार के होते हैं लेकीन [गीता सूत्र - 4.13, 18.41 ] जातिया चार प्रकार की हैं --- यह कैसी बात है ?
अब आप देखिये गीता सूत्र - 3.27 , 3.33 , 18.59 - 18.60 को -----
गीता यहाँ कह रहा है ---तीन गुणों से स्वभाव बनता है , स्वभाव से कर्म होते हैं । गीता यह भी कहता है [गीता सूत्र - 4.13 , 18.41 ] ---गुण , स्वभाव एवं कर्म के आधार पर चार प्रकार की जातियां बनाई गयी हैं । अब आप गीता सूत्र - 8.3 को देखिये - सूत्र कहता है ---अध्यात्म मनुष्य का स्वभाव है और कर्म वह है जो भावातीत में पहुंचाए ।
तीन गुणों का एक समीकरण हर मनुष्य में हर पल रहता है [ गीता - 14.10 ] जो हर पल बदलता रहता है , गुणों के प्रभाव में आ कर मनुष्य कर्म करता है , कर्म - स्वभाव एवं गुण समीकरण के आधार पर जातियां बनाई गयी हैं तो क्या गीता अपनें में बिरोधाभास छिपाए हुए है ? जी नहीं - कोई बिरोधाभाश नहीं है ।
गीता एक अनंत - यात्रा है जिसमें अनेक मार्ग हैं - ऐसा प्रतीत होता है लेकीन एक निश्चित दूरी के बाद सभी मार्ग मिल जाते हैं और उस स्थिति का नाम है - बैराग्य । बिराग्य में ज्ञान मिलता है जिस से क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का बोध होता है जहां न गुण होते हैं , न जातियां होती हैं , और स्वभाव जो होता है वह होता है - अध्यात्म जिसमें योगी कर्म में अकर्म देखता है और अकर्म में कर्म देखता है ।
गीता भ्रमित बुद्धि को भ्रम रहित- भ्रम से करता है अतः गीता पढनें से भ्रम तो होगा लेकीन जो पढ़ना नहीं छोड़ते , उनकी बुद्धि स्थीर हो कर परमानंद में पहुंचाती है ।

=====ॐ=====

Thursday, February 11, 2010

गीता ज्ञान - 73

गीता अध्याय - 16 का सारांश
गीता अध्याय 16 में कुल 24 श्लोक हैं और यह अध्याय अर्जुन के प्रश्न 14 के सन्दर्भ में है ।
श्री कृष्ण कहते हैं ....मनुष्य दो श्रेणियों में बिभक्त किये जा सकते हैं ; आसुरी स्वभाव वाले और दैवी स्वभाव वाले । दैवी प्रकृति वालों के जीवन का केंद्र - परमात्मा होता है और आसुरी प्रकृति वालों का जीवन भोग केंद्र के चारों ओर घूमता रहता है । दैवी प्रकृति वालों के लिए देखिये गीता सूत्र - 16.1- 16.3, 16.5, 9.13
और आसुरी प्रकृति वालों के लिए देखिये सूत्र - 16.4, 16.7 - 16.20, 9.12 को ।
गीता कहता है - आसुरी प्रकृति के लोग राजस - तामस गुणों के छाया में अहंकार की ऊर्जा से जीवन जीते हैं और
दैवी प्रकृति के लोग परमात्मा की श्रद्धा में जीते हैं ।
आसुरी प्रकृति के लोग स्वयं को करता समझते हैं और प्रभु को भी भोग प्राप्ति के लिए प्रयोग करते हैं ।
आसुरी प्रकृति के लोग मंदिर को अपना घर समझते हैं और दैवी प्रकृति के लोग अपनें घर को भी मंदिर की
तरह रखते हैं । आसुरी प्रकृति के लोगों के माथे का पसीना कभी सूखनें नहीं पाता और दैवी प्रकृति वालों के माथे पर कभी पसीना आता ही नहीं है ।

=====ॐ======

Wednesday, February 10, 2010

गीता ज्ञान - 72


गीता श्लोक - 15.10 - 15.11

श्लोक कहते हैं ......शरीर में जो है , शरीर छोड़ कर जो जाता है , बिषयों को भोगते हुए को , तीन गुणों से युक्त को अज्ञानी यत्न करनें पर भी नहीं समझता और ग्यानी निर्विकार इन्द्रियों वाला , निर्विकार मन वाला हर पल प्रभु से परिपूर्ण होता है । गीता सूत्र - 7.27 कहता है ...इच्छा , द्वेष , द्वन्द एवं मोह रहित ब्यक्ति , ग्यानी होता है ।
गीता सूत्र 5.10 - 5.11 उन पचास श्लोकों में से हैं जिनको परम श्री कृष्ण गुनातीत योगी को स्पष्ट करनें के लिए बोले हैं [ गीता - 14.22 - 16.21 तक ] ।

ज्ञान की परिभाषा गीता सूत्र 13.2 में दी गई है , ग्यानी की पहचान गीता सूत्र 13.7 - 13.11 तक में दी गई है और सूत्र 15.10 - 15.11 में उन्ही बातों को गुनातीत योगी के सम्बन्ध में बताया जा रहा है । गीता सूत्र 15.10 - 15.11 को यदि आप बार - बार पढ़ें तो आप यह मिलेगा ------
वह जो आत्मा - परमात्मा केन्द्रित है , वह जो प्रकृति - पुरुष रहस्य को समझता है , वह जो तन - मन - बुद्धि से विकार रहित है , वह जो संसार को समझता है , वह जो गुणों के रहस्य को जानता है , वह जो यह जानता है की मैं कौन हूँ ? वह ग्यानी है ।
ज्ञानी स्थिर प्रज्ञावाला [ गीता - 2.55 - 2.72 ] , शांत मन वाला , सन्यासी स्वरुप , योगी , बैरागी की तरह संसार में कमल वत रहता है ।

=====ॐ========

Tuesday, February 9, 2010

गीता ज्ञान - 71


गीता श्लोक - 14.21
इस सूत्र में अर्जुन अपना चौदहवां प्रश्न कर रहे हैं , अर्जुन गुनातीत योगी की पहचान जानना चाहते हैं ।
गीता में परम के 556 श्लोकों में से 408 श्लोकों को सुननें के बाद अर्जुन यह प्रश्न कर रहे हैं --इस बात को समझनें की जरुरत है ।
परम इसके पहले समभाव - योगी [गीता 2.11, 2.47 - 2.51 तक ], स्थिर - बुद्धि योगी [ गीता 2.55 - 2.71 तक ],कर्म - योगी [गीता अध्याय - 3 - 6 तक ], साँख्य- योगी [गीता अध्याय -7 एवं 13 ], और अब गुनातीत योगी के सम्बन्ध में बता रहे हैं ।
परम गीता में आत्मा - परमात्मा , कर्म , योग , भोग - तत्त्व , योग कर्म , कर्म संन्यास , बैराग्य , ज्ञान , प्रकृति - पुरुष सम्बन्ध , गुण तत्त्व , क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ सम्बन्ध - सब कुछ बता चुके हैं लेकीन अर्जुन की भ्रमित बुद्धि कहीं रुकती नहीं है । अर्जुन परम की बातों को सुनते नहीं हैं , उनकी बातों में प्रश्न खोजते हैं - यह है - भ्रमित बुद्धि वाले ब्यक्ति की पहचान ।
गुनातीत की अवस्था पानें वाला योगी अपनें शरीर को तीन हप्तों से अधिक दिनों तक नहीं संभाल सकता , वह अपनें शरीर को धन्यबाद करके त्याग देता है ।
गीता कहता है [ गीता सूत्र - 14.5 ] --आत्मा को तीन गुण शरीर के अन्दर रोक कर रखते हैं अर्थात गुनातीत योगी के आत्मा को शरीर में रोकनें वाले बंधन -- तीन गुण जब सुसुप्त हो जाते हैं तब वह समाधि के माध्यम से अपनें शरीर को छोड़ देता है ।

====ॐ======

Monday, February 8, 2010

गीता ज्ञान - 70

कृष्ण के रंग में रंगा कौन है ?

श्री राम की कथा सुननें वाला या सुनानें वाला श्री राम मय होता है ?
श्री कृष्ण की कथा सुननें वाला या सुनानें वाला कृष्ण मय होता है ?
एक ओंकार का जप करनें वाला ॐ मय हो पाता है ?
गायत्री का जाप करनें वाला क्या गायत्री मय हो पाता है ?
मंदिर निर्माण करानें वाला क्या मंदिर मय हो सकता है ?
क्या श्री राम श्री कृष्ण की मूर्ती बना कर बेचनें वाला राम मय या कृष्ण मय हो पाते हैं ?
अब देखिये -----
क्या मीरा - राधा कृष्ण मय नहीं थी ?
क्या परम हंस जी माँ काली मय नहीं थे ?
क्या नानक - कबीर राम मय नहीं थे ?
राम एवं कृष्ण के रंग में वह रंगता है जो .....
भोग - भजन , भोजन - उपवाश , चलते - फिरते , सोते - जागते संसार के अन्दर , पुरे ब्रह्माण्ड में अपनें ह्रदय के माध्यम से राम - कृष्ण की आवाज को सुनता है और राम - कृष्ण के रंग को देखता है ।
जो ऐसा करनें में सक्षम है उसकी पीठ भोग की ओर होती है और आँखें राम - कृष्ण में डूबी होती हैं ।
जब अपना घर एक मंदिर बन जाए ....
जब घर का बच्चा कृष्ण - राम के रूप में दिखनें लगे तो उस ब्यक्ति को ----
राम - कृष्ण को खोजना नहीं पड़ता ।

====ॐ=====

Saturday, February 6, 2010

गीता - ज्ञान ...69

असत्य की छाया में ------

[क] अहम् ब्रह्मास्मि ......
[ख] ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या ....
[ग] अनल हक .......

ऊपर की दो बातों को कहनें वाले आदि शंकराचार्य हैं और
तीसरी बात कहते हैं ------
औलिया मंसूर

कौन कहता है --मैं ब्रह्म हूँ , मैं सत्य हूँ ---यह बात वही कह सकता है जिसको पता हो की - ब्रह्म क्या है ? सत क्या है ? बोधी धर्म भारत से चीन जा कर वहाँ के ताओ मान्यता के साथ मिल कर एक नया मार्ग --झेंन बनाया बोधी धर्म अंत समय में कहते हैं ---
देह तेरा धन्यबाद , यदि तूं न होता तो आत्मा को मैं कैसे जान सकता था ?
संसार तेरा धन्यबाद , यदि तूं न होता तो मैं ब्रह्म को कैसे समझ सकता था ?
पाप तेरा धन्यवाद , यदि तूं न होता तो मैं सत को कैसे जान सकता था ?

असत्य क्या है ? वह जो अपना रंग बदलता रहता है , जो द्वैत्य की ऊर्जा से होता है , जो कभी सुख तो कभी दुःख का अनुभव कराता है -- असत्य है ।
भोग असत्य है और योग से सत्य की पहचान होती है । भोग से भोग में हमारा अस्तित्व है - ऐसा हमें
लगता है लेकीन यह असत्य सत्य के ऊपर अपना स्थान बनाए हुए है -- यह बात हम नहीं जानते ।
असत्य की छाया में हम हैं और यह एक मौक़ा मिला हुआ है जिसके अनुभव से सत्य को समझा जा सकता है ।
सत्य क्या है ? यह बात सीधे तौर पर समझना संभव नहीं लेकीन असत्य को यदि समझा जा सके तो
सत्य को जानना कोई कठीन नहीं है --असत्य का होश ही सत है ।

====ॐ======

Friday, February 5, 2010

गीता ज्ञान - 68

भोगी का अंत कैसा होता है ?



यहाँ इस सन्दर्भ में गीता के कुछ श्लोक दिए जा रहे हैं , आप इन श्लोकों को देखें , समझें और मनन करें ।

15.8, 10.22, 8.6, 14.5, 2.45, 3.27, 3.33, 14.19, 14.23

अब आप इन श्लोकों के भावार्थ को देखें ------

[क] श्लोक - 15.8......

जब आत्मा शरीर त्यागता है तब उसके साथ मन - इन्द्रियाँ भी होती हैं ।

[ख] श्लोक - 10.22.....

श्री कृष्ण कहते हैं .....इन्द्रियों में मन मैं हूँ ।

[ग] श्लोक -8.6....

मनुष्य के जीवन में जो भाव उसका केंद्र होता है , वह मनुष्य अंत समय में उस भाव से भावित हो कर शरीर को छोड़ता है और वही भाव उसकी अगली योनी को तय करता है ।

[घ] श्लोक - 14.5.....

शरीर में तीन गुण आत्मा को रोक कर रखते हैं ।

[च] श्लोक - 14.10......

हर मनुष्य में तीन गुणों का हर पल बदलता एक समीकरण होता है जो मनुष्य के जीवन को प्रभावित करता रहता है ।

[छ] श्लोक - 2.45, 3.27, 3.33......

गुण कर्म करता हैं और ऐसे सभी कर्म भोग - कर्म होते हैं ।

[ज] श्लोक - 14.19, 14.23.......

जो गुणों को करता देखते हैं वे साक्षी एवं द्रष्टा भाव में परम मय होते हैं ।

गीता के दस श्लोक आप में कौन सा भाव पैदा करेंगे , यह मैं नहीं जानता लेकीन जब आप इनको अपनाएंगे तो आप को कुछ ऐसा प्रतीत होगा -----

** भोगी अंत समय में मौत से संघर्ष करते हुए समाप्त होता है और योगी मौत से मित्रता रखता है ।

** भोगी अमरत्व की दवा खोजते - खोजते आखिरी श्वास भरता है और योगी अमरत्व में जीता है ।



=====ॐ=====

गीता ज्ञान - 67

गीता श्लोक - 15.7



गीता सूत्र कहता है ----

जीवों में सनातन जीवात्मा मेरा अंश है जिसकी ऊर्जा से मन - पांच ज्ञानेन्द्रियाँ प्रकृति से जुड़ते हैं ।


अब हम गीता रहस्य में चलते हैं , गीता कहता है ......

[क] प्रभु मनुष्य के ह्रदय में है --गीता ....10.20, 13.17, 15.15

[ख] आत्मा मनुष्य के ह्रदय में है --गीता ....10.20, 15.11

[ग] आत्मा परमात्मा है --गीता ....10.20, 15.7, 13.22

अब आप आत्मा - परमात्मा को अपनें ह्रदय के माध्यम से ध्यान के जरिये जाननें की कोशिश करें ।


जमींन के अन्दर जनेवा में [ CERN] वैज्ञानिक वह परिक्षण कर रहे हैं जिससे वह परिस्थित जानी जा सके जो बिग - बैंग के समय थी और जिस घटना के कारण टाइम स्पेस एवं ब्रह्माण्ड की रचना हुयी थी । जीव, विज्ञान की कल्पना में, उस घटना का फल है । Dr. Holger B. Nielsen , Dr. Masao Nimomiya कहते हैं --
प्रकृति इस प्रयोग को सफल नहीं होनें देना चाहती क्योंकि यह परिक्षण बार - बार असफल हो रहा है । वैज्ञानिक इस परिक्षण से अप्रत्यक्ष रूप में आत्मा को प्रयोगशाला में बनाना चाह रहे हैं --चलो अच्छा है , देखते हैं इनका परिक्षण क्या गुल खिलाता है ? गीता में जीवात्मा या आत्मा को समझनें के लिए आप गीता के इन सूत्रों को एक साथ देखें ------

2.18 - 2.30, 10.20, 13.32 - 13.33, 14.5, 13.22, 15.7 - 15.8, 15.11

यहाँ आप को आत्मा का जो रूप दिखेगा वैसा रूप विज्ञान के पास नहीं है -- गीता का आत्मा न तो कण है और न ही लहर --यह प्राण ऊर्जा का श्रोत है , स्थिर है , कुछ करता नहीं , द्रष्टा है , जो रूपांतरित नहीं होता , जो विभाजित नहीं होता , जो टाइम स्पेस से प्रभावित नहीं होता और जो सनातन है । आत्मा मनुष्य के शरीर में मनुष्य को जीवित होनें का माध्यम है , जिसके न होनें पर मनुष्य का शरीर मुर्दा हो जाता है ।


जीवात्मा कल एक रहस्य था , आज एक रहस्य है और कल भी एक रहस्य ही रहेगा ।

विज्ञान की खोज जरुर कुछ देगी लेकीन वह आत्मा नहीं कुछ और ही होगा ।



=====ॐ=====

Wednesday, February 3, 2010

गीत ज्ञान - 66

उसे तो जानो जहां हो ?

हम जिसमें हैं , हमनें जिसका नाम करण किया , जो हमारे चारों ओर है , जिसमें हमारा आदि - वर्तमान एवं अंत है , उसको जाननें के लिए हम कितनें उत्सुक हैं ? इस प्रश्नों को आप अपनें से पूछें और वह है - संसार ।
गीता कहता है [ गीता - 15.1 - 15.3 तक ] ......वह जिसका कोई आदि - अंत नहीं है , वह जो सनातन है , वह जिसकी स्थिति अच्छी तरह से नहीं है , वह जो तीन गुणों से परिपूर्ण है , वह जिसमें अपरा - परा , दो प्रकृतियाँ हैं , वह जो अपनें में निर्विकार एवं सविकार तत्वों को धारण किये हुए है , जिसको वह जानता है -- जो बैरागी है , उसका नाम
है ---संसार ।

संसार को वह समझता है जो ------
[क] माया को समझता है --गीता ...7.14 - 7.15
[ख] अपरा - परा प्रकृतियों को समझता है -- गीता ...7.4 - 7.6, 13.5 - 13.6, 14.3 - 14.4,
[ग] क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ को जानता है --गीता ..13.1 - 13.3
और जो आत्मा - परमात्मा को समझता है ।
वह कौन है जो ऊपर बताई गयी बातों को जानता है ? वह है --बैरागी और बैरागी तब मिलता है जब ----
खोज तन से नहीं , ह्रदय से होती है और ऐसे लोग दुर्लभ होते हैं - गीता ..6.42, 7.3, 7.19, 12.5, 14.20

हमारा काम है यह बताना की गीता में क्या और कहाँ है ? उसकी खोज आप के हाथ में है ।

====ॐ=====

Tuesday, February 2, 2010

गीता ज्ञान - 65

अपनें को समझो

यहाँ कुछ गीता - समीकरण दिए जा रहे हैं जो आप को अपनें से मिला सकते हैं ------
[क] प्रकृति + पुरुष = मनुष्य
[ख] अपरा + परा + जीवात्मा = मनुष्य
[ग] क्षेत्र + क्षेत्रज्ञ = मनुष्य
अब आप गीता के इन सूत्रों को देखें .....
1- 7.4 - 7.6, 7.12 - 7.14, 13.5 - 13.6, 13.19, 14.3 - 14.4, 14.20, 15.16
2- 13.1 - 13.3
3- 2.18 - 2.30, 10.20, 13.32 - 13.33, 14.5, 15.7 - 15.8, 15.11
अब देखिये गीता के अमृत बचन ----
[क] प्रकृति का ज्ञाता आवागमन से मुक्त हो जाता है --गीता ...13.23
[ख] प्रभु भावातीत एवं गुनातीत है ---गीता ..7.12 - 7.13
अब देखिये इनको ----
[क] अकेलापन अपनें से मिलाता है ।
[ख] संसार की समझ , अपनें से मिलाती है ।
[ग] बनाया गया रिश्ता तो भोग है जो अपनें सुख में दुःख का बीज रहता है ।
[घ] ह्रदय में उपजा रिश्ता , परम रिश्ता है जो सब में एक को देखता है ।
[च निर्विकार मन - बुद्धि उसे देखते हैं जो सब को देखता रहता है ।

परम का रिश्ता बंधन मुक्त रिश्ता है जिसको खोजनें की जरुरत नहीं है यह सर्वत्र है और यह तब मिलता है जब --
हम स्वयं को पहचाननें लगते हैं ।
स्वयं को पहचानो और प्रभु से जुडो ।

====ॐ=====


Monday, February 1, 2010

गीता ज्ञान - 64

निर्वाण प्राप्त योगी दुर्लभ हैं

देखते हैं इस सम्बन्ध में गीता के कुछ अमृत सूत्रों को ------
[क] गीता सूत्र - 2.42 - 2.44 तक
भोग - भाव और प्रभु का भाव एक साथ एक एक बुद्धि में नहीं समाते ।
[ख] गीता सूत्र - 2.41, 2.66, 7.10
बुद्धि स्वयं परमात्मा है जो भोग में अनिश्चयात्मिका बुद्धि बन जाती है और जब प्रभु की ऊर्जा से भरतीहै तब यह निश्चयात्मिका हो जाती है ।
[ग] गीता सूत्र - 12.3 - 12.4, 7.24
ब्रह्म की अनुभूति मन - बुद्धि से परे की है ।
[घ] गीता सूत्र - 6.21
निर्विकार बुद्धि में परमात्मा बसता है ।
[च] गीता सूत्र - 12.7 - 12.8, 18.54 - 18.55
प्रभु का परा भक्त प्रभु से परिपूर्ण होता है ।
[छ] गीता सूत्र - 18.49 - 18.50
परा भक्ति आसक्ति रहित कर्म से मिलती है जो ज्ञान योग की परा निष्ठा है ।
[ज] गीता सूत्र - 6.29 - 6.30
परा भक्त हर पल प्रभु में गुजारता है ।
[झ] गीता सूत्र - 7.3, 7.19, 12.5, 6.24, 14.20
माया मुक्त , निर्वाण प्राप्त योगी दुर्लभ होते हैं ।

गीता से आप और क्या चाहते हैं ?

=====ॐ====

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