Thursday, December 31, 2009

गीता-ज्ञान ...38

दो प्रकार के योगी हैं ।
सन्दर्भ गीता -सूत्र .....6.37 - 6.45 तक
गीता में अर्जुन का सातवा प्रश्न कुछ इस प्रकार से है -----
श्रद्धावान असंयमी योगी यदि योग खंडित होनें पर शरीर छोड़ता है तब उसका अगला जन्म कैसा होता है ? और
उस योगी का अगला जन्म कैसा होता है जिसका योग सिद्ध हो गया होता है ?
यहाँ आप को गीता के निम्न सूत्रों को भी देखना चाहिए -----
7.3 , 7.19 , 12.5 , 14.20 , 9.20 - 9.22
अंग्रेजी में एक कहावत है जो मनोविज्ञानं का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत भी है ------
An idiot can never be hypnotised
अर्थात ...मूर्ख को सम्मोहित नहीं किया जा सकता और गीता में परम श्री कृष्ण और अर्जुन के मध्य भी कुछ ऐसा ही हो रहा है । कुरुक्षेत्र में युद्ध के बादल हर पल सघन हो रहे हैं , युद्ध किसी भी क्षण प्रारंभ हो सकता है , श्री कृष्ण चाहते हैं की अर्जुन युद्ध - पूर्व मोह रहित हो जाएँ लेकीन अर्जुन इस बात को समझनें की कोई कोशिश करते नहीं दिख रहे । जिस परिस्थिति में अर्जुन यह प्रश्न कर रहे हैं क्या ऐसा प्रश्न समय के अनुकूल है ?
अर्जुन के प्रश्न के सन्दर्भ में कहते हैं , परम श्री कृष्ण ........
[क] वह योगी जो श्रद्धावान तो होते हैं लेकीन असंयमी हैं , जब उनका अंत आजाता है तब वे कुछ समय स्वर्ग में
निवास करते हैं और फिर वे अच्छे कुल में जन्म ले कर अपनी साधना की यात्रा पुनः प्रारम्भ करते हैं ।
[ख] वह योगी जो सिद्धि प्राप्ति कर तो लेता है लेकीन परम गति प्राप्त करनें से पूर्व उसका योग खंडित हो जाता है और
उसके शरीर का अंत हो जाता है तो ऐसे योगी स्वर्ग न जा कर किसी योगी कुल में जन्म ले कर बैराग्यावस्था से
आगे की यात्रा करते हैं लेकीन ऐसे योगी दुर्लभ होते हैं ।
गीता स्वर्ग को भोग का एक परम माध्यम मानता है ।
योग का अंत तो नहीं है लेकीन इस स्थूल देह का अंत किसी भी क्षण संभव है ।
जो अपनें को सिद्ध योगी समझते हैं -----
वे अन्धकार में हैं ।

====ॐ======

Wednesday, December 30, 2009

गीता ज्ञान - 37

मन का गुलाम न बनों , मित्र बनों ---गीता ..6.24- 6.36 तक



यहाँ श्री कृष्ण और अर्जुन के माध्यम से जो बात हमें मिलती है उस की समझ ही योग है ।

मन से मित्रता कैसे स्थापित की जा सकती है ? इस बात को समझनें के लिए आप देखिये और समझिये गीता की निम्न बातों को -------

[क] इंदियों के स्वभाव को जानों [ गीता - 15.9 ]
[ख] बिषयों के सम्मोहन को समझो [गीता - 3.34 ]
[ग] इन्द्रिय - मन सम्बन्ध को समझो [ गीता - 2.60 , 2.67 ]

[घ] इन्द्रिय- बिषय के योग से जो कर्म होता है , वह भोग है [गीता - 5.22 ]
[च] भोग कर्म के सुख में दुःख का बीज होता है [गीता - 2.14 , 5.22 , 18.38 ]
[छ] कर्म इन्द्रियों को हठात बश में करनें का प्रयाश , अहंकार को सघन करता है [गीता - 3.6 ]
[ज] इंदियों को बिषयों से दूर करनें से क्या होगा ? मन तो उन-उन बिषयों पर मनन करता ही रहेगा [ गीता -2.59 ]
[झ] इन्द्रियों को मन से बश में करो [गीता - 3.7 ]



अर्जुन का प्रश्न है ----हे प्रभु ! मैं मन को कैसे बश में करू ?---गीता ....6.34 - 6.35
परम श्री कृष्ण कहते हैं ----

यह काम अभ्यास एवं बैराग्य से संभव है --बड़ा सा प्रश्न और उसका छोटा सा जबाब । अब आप जबाब को समझ लें ------
तन से बैरागी की तरह कोई अपनें को बना सकता है लेकीन .......

मन से बैरागी दुर्लभ हैं ।

बैराग्य अभ्यास का परिणाम है ।
कोई बैरागी बन नहीं सकता , बैराग्य स्वतः घटित होता है ।


====ॐ======

Sunday, December 27, 2009

गीता-ज्ञान 36

योगारूढ़ योगी के चित्त की क्या स्थिति होती है ? गीता श्लोक .....6.19

गीता कह रहा है ----
योगारूढ़ योगी का चित्त वैसे होता है जैसे वायु रहित स्थान में एक दीपक की ज्योति की स्थिति होती है ।

आप सोचिये की वायु रहित स्थान में रखे गए एक दीपक की ज्योति कैसी होती है ? और आप कुछ दिन
इस ज्योति को देखें भी तो अच्छा रहेगा ।
मनुष्य के चित में कौन गति लाता है ?---हमारी सोच हमारे चित में लहर पैदा करती है और यदि सोच
राजस-तामस गुणों के कारन है तो यह लहर सघन होती है । मन की गति को कैसे शांत करें ? इस बात को हम अगले अंक में देखेंगे लेकीन यहाँ हमें गीता के निम्न श्लोकों को देखना चाहिए ------
7.12 - 7.15 , 7.19 , 7.23 , 4.38 , 13.24 , 13.1 - 13.3 , 15.3 , 2.55 , 2.69 , 6.29 - 6.30 , 18.54 - 18.55

योग में तल्लीन वह योगी है जो -----
[क] प्रकृति-पुरुष के रहस्य को जानता है ।
[ख] गुणों के बंधनों को समझता है ।
[ग] सुख-दुःख से अप्रभावित हो ।
[घ] द्रष्टा हो ।

गीता को पढ़ना आसान है , गीता को सुनना आसान है लेकिन गीता को जीवन में ढालना अति कठिन है
गीता को आप अपना कर अपनें को गंगा-जल की तरह निर्मल कर सकते हैं और जब ऐसा होगा तब ------
आप तन-मन से परमात्मा मय हो उठेंगे ।

=====ॐ=====

Saturday, December 26, 2009

गीता-ज्ञान ...35

[क] कौन अपना मित्र है ?
[ख] कौन अपना शत्रु है ?

यह बात गीता श्लोक 6.6 बता रहा है , श्लोक कहता है ------
इन्दियाँ , मन एवं बुद्धि जिसके बश में हैं वह अपना मित्र है और जिस के बश में ये नहीं हैं वह स्वयं का शत्रु है ।
जब आप गीता श्लोक 6.6 को देखें तो गीता के निम्न श्लोकों को भी देख लें तो अच्छा रहेगा .........
2.47- 2.52 , 2.55 , 2.59-2.60 , 2.69-2.70 , 3.19-3.20 , 3.43 , 5.10-5.10 , 6.7 , 18.55-18.56

गीता कहता है -----
इन्द्रियाँ , मन और बुद्धि जिसकी निर्विकार हैं , गुणों से अप्रभावित हैं वह अपना मित्र है और जो ऐसा नहीं है , वह अपना शत्रु है ।

आप सोचिये की आप स्वयं को अपना मित्र मानते हैं की शत्रु , कौन यह कह सकता है की मैं अपना
शत्रु हूँ ? गीता को पढनें वाले कम हैं , पूजक अधिक , ऐसा क्यों है ? क्योंकि गीता सीधे हथौड़ा मारता है
जिस की चोट को बर्दाश्त जो कर पाते हैं वे गीता की साधना में आगे निकल पाते हैं ।
अपना मित्र कौन है ?

[क] जो बिषयों को समझता हो ।
[ख] जो बिषयों की पकड़ को जानता हो ।
[ग] जिसके बश में उसकी इन्द्रियाँ हो और वह अपनें इन्द्रियों का मित्र हो ।
[घ] जो मन के रहस्य को जानता हो ।
[च] जो सन्देह रहित बुद्धि वाला हो ।
[छ ] जो अहंकार रहित हो ।
[ज] जो यह जानता हो की गुण कर्म करता हैं ।
[झ] जो यह जानता हो की सुख-दुःख का अनुभव जब तक है तब तक गुणों का प्रभाव है ।
अर्थात अपना मित्र वह है जो स्थिर बुद्धि वाला है ।

गीता की लम्बाई - चौड़ाई मापनें वाला गीता की गहराई से अनिभिज्ञ रहता है और जो ------
गीता में डूबा रहता है उसको इसकी लम्बाई- चौड़ाई की सोच तक नहीं होती ।
गीता को मापों नहीं , गीता में डुबो।

=====ॐ=====

Friday, December 25, 2009

गीता ज्ञान - 34

योगारूढ़-योगी कौन है ?----गीता..6.4

योगारूढ़- योगी वह है जो ---
[क] अनासक्त हो
[ख] संकल्प रहित हो

गीता महाभारत का आइना है लेकिन कुछ लोग महाभारत की कथाओं में गीता को देखते हैं जो एक असंभव
बात है । अभी-अभी मुझे किसी मित्र का सुझाव मिला है ----तूम यह क्या बकबास फैला रहे हो ?
मेरे प्यारे मित्रों ! यहाँ कुछ भी बेकार नहीं है और यदि आप सत को जानना चाहते हैं तो पहले झूठ को जानो
नहीं तो सत आयेगा और चला जाएगा , आप किस आधार पर सत को देखेंगे ?

गीता सूत्र 6.4 के सम्बन्ध में यदि हम गीता के निम्न सूत्रों को देखें तो बात कुछ और स्पष्ट हो जायेगी ----
2.48 , 2.59-2.60 ,3.7 , 3.19 , 3.20 , 3.25 , 3.26 , 4.20 , 4.23 ,
5.10 , 5.11 , 13.8 , 14.7 , 18.6

योगारूढ़ वह स्थिति है जिसमें मन-बुद्धि फ्रेम कोरे कागज़ जैसा होता है जैसे एक शांत झील का पानी और
उस पर जो प्रतिबिंबित होता है वह है परम सत्य ।
आसक्ति गुणों की रस्सी है जो बाधती है ; तीन गुण हैं और तीनों की अपनी-अपनी आसक्तियां हैं । तीन गुणों की
रस्सी हर एक मनुष्य में हर पल रहती है [गीता-14।10], जो इस रस्सियों को समझ कर आगे चलता है , वह है
योगी और जो इनको नहीं पहचानता , वह है , भोगी ।
इन्द्री - बिषय के मिलन से मन के अन्दर आसक्ति बनती है , आसक्ति संकल्प की जननी है और संकल्प से
कामना बनती है । जब कामना टूटती है तब क्रोध पैदा होता है --यह है सीधा गीता का समीकरण ।

गीता को गीता में खोजिये , इसको आप महाभारत में भी पा सकते हैं लेकिन खोजनें वाली आँख होनी चाहिए ।
गीता हर पल हमारे संग है लेकिन इसको कौन देखना चाहता है क्यों की -----
यहाँ सब की आँखों पर ......
भोग का चश्मा लगा है ।

====ॐ====

Thursday, December 24, 2009

गीता-ज्ञान ....33

कर्म ज्ञान का सुगम मार्ग है ----गीता श्लोक 18.49- 18.50

गीता के दो श्लोक कहते हैं-----
आसक्ति-स्पृहा रहित कर्म से नैष्कर्म की सिद्धि मिलती है जो ज्ञान-योग की परा निष्ठा है ।

गीता के श्लोक ऐसे हैं जैसे बीसवी शताब्दी के मध्य आइन्स्टाइन का सापेक्ष - सिद्धांत था ---
Theory of relativity के नाम से जो जाना जाता है ।

गीता के सूत्र 18.49 - 18.50 को समझनें के लिए आप यदि गीता के निम्न सूत्रों को भी देखें तो आप को सुबिधा होगी ..........
[क] कर्म रहित होना संभव नही ---गीता ...3.5 , 18.11
[ख] गुणों के प्रभाव में जो कर्म होते हैं वे भोग कर्म हैं ---गीता...2.45 , 3.27 , 3.33
[ग] भोग कर्म के सुख में दुःख का बीज होता है -------गीता....2.14 , 5.22 , 18.38
[घ] कर्म से निष्कर्मता मिलती है --------------------गीता ....3.4
[च] आसक्ति रहित कर्म से निष्कर्मता की सिद्धि मिलती है जो ज्ञान - योग की परा - निष्ठा है --गीता 18.49-18.50

बुद्धि केन्द्रित लोग जो शात्रो का निर्माण करते है वे ज्ञान मार्ग और कर्म मार्ग को अलग- अलग परिभाषित
करते हैं लेकिन गीता कह रहा है ---कर्म ज्ञान का सरल माध्यम है । एक बात आप जान लीजिये - वैसे है
तो तीखी पर है सत्य --शास्त्रों का निर्माण सिद्ध योगी नहीं करता , उसके चारों तरफ रहनें वाले जो तोते की तरह सिद्धि प्राप्त योगी की बातों को अपने दिमाक में बैठा कर रखते हैं , वे योगी के जानें के बाद शास्त्रों का निर्माण करते हैं ।

परा निष्ठा क्या है ?
यह शब्द दो से बना है ; परा और निष्ठा । परा वह अनुभूति है जिसको ब्यक्त नहीं किया जा सकता और
निष्ठा क अर्थ है वह स्थिति जिसके मिलनें के बाद केवल हाँ - हाँ बच रहता है , ना के लिए कोई जगह नहीं होती ।
निर्विकार प्यार, निर्विकार प्रीती , कारन रहित जुड़ना , यह सब निष्ठा हैं । निष्ठा जब उदित होती है तब वह
ब्यक्ति सभी द्वैतों से परे हो जाता है ।

====ॐ=====

Wednesday, December 23, 2009

गीता-ज्ञान...31

निष्काम एवं संकल्प रहित कर्म योग-यात्रा को आगे बढ़ाते हैं ---गीता श्लोक 6।3

गणित में 2+1=3 होता है , तीन में एक एवं दो , दोनों हैं लेकिन दिखते नहीं, ठीक इस तरह गीता का भी
समीकरण है ---प्रकृति + पुरुष = मनुष्य , जिसमें न तो प्रकृति दिखती है और न पुरुष ।
गणित समीकरण के तीन में एक एवं दो को देखनें वाला बुद्धिबादी गणितज्ञ कहलाता है और गीता के
समीकरण में मनुष्य में प्रकृति-पुरुष को देखनें वाला तत्त्व-ज्ञानी होता है ।
गीता सूत्र 6.3 कह रहा है ---योग में इच्छा-संकल्प की उर्जा नहीं होती --इस बात को समझना चाहिए ।
योग क्या है ?
किसी भी तरह से परमात्मा में रूचि पैदा करनें का मार्ग , योग है - जिसमें गुणों के तत्वों को समझ कर
ऐसा बन जाना होता है की गुणों के तत्वों का स्वतः त्याग हो जाता है ।
यह यात्रा अंतहीन यात्रा है जिसका प्रारम्भ तो है लेकिन कोई अंत नहीं । योग सिद्धि से बैराग्य मिलता है
जिसमें गुणों के तत्वों का त्याग हो जाता है लेकिन अहंकार एक मात्र तत्त्व ऐसा है जो पुनः योग को
खंडित कर देता है ।

योग खंडित होना क्या है ?
योगी जब अपनें प्रसंशकों से घिरता जाता है तब उस पर राजस-तामस गुणों का प्रभाव एवं अहंकार का असर दिखनें लगता है और इस स्थिति को कहते हैं ---योग खंडित होना ।
बिषय से बैराग्य तक की यात्रा कर्म-योग की यात्रा है जो एक सुलभ यात्रा है लेकिन बैराग्य से आगे की यात्रा ज्ञान की यात्रा है जो परा भक्ति में प्रवेश कराती है । ज्ञान की यात्रा में गुण तत्वों का असर तो नहीं होता लेकिन जैसे- जैसे गुण तत्वों की पकड़ कमजोर होती जाती है , अहंकार और पैना होता जाता है , जो इस बात कोसमझ कर चलते हैं , उनको बुद्धत्व मिलता है और जो नहीं चल पाते , वे योग का ब्यापार करनें लगते हैं ।

गीता गुणों का योग है , जहां -----
न भोग का स्वाद मिलता है
न चाह होती है
न अहंकार होता है
न सुख-दुःख होता है
न मन होता है और
न मंजिल का पता होता है ।

====ॐ=====

Tuesday, December 22, 2009

गीता-ज्ञान ...31

योगी या संन्यासी कौन है ?----गीता श्लोक ...6.1

गीता का यह सूत्र बता रहा है ---योगी एवं संन्यासी के लक्षण , सूत्र कहता है -------
[क] वह जो अग्नि का त्यागी है , योगी या संन्यासी नहीं ।
[ख] वह जो क्रियाओं का त्यागी है , योगी या संन्यासी नहीं ।
वह जो कर्म फल के आश्रय के बिना कर्म करता है , योगी या संन्यासी है ।

इस सूत्र को ठीक से जो समझ गया वह कर्म - योग में प्रवेश पा सकता है ,अतः इसको हम जाननें की
कोशिश करते हैं ।
यहाँ इस सूत्र में अग्नि शब्द क्या भाव रखता है ?
यहाँ अग्नि का अर्थ है वह उर्जा जो कर्म के लिए प्रेरित करती है अर्थात गुण-समीकरण की ऊर्जा।
मनुष्य गुणों के प्रभाव में कर्म करता है और गुण तीन प्रकार के होते हैं ; सात्विक, राजस, तामस ।
सात्विक गुण प्रभु की ओर ले जाता है , राजस गुण भोग में पहुंचाता है और तामस गुण मोह,भय एवं
आलस्य से बाधता है ।
गुण-समीकरण की उर्जा - मन,बुद्धि में प्रवाहित होती है और यह ध्रितिका के नाम से तब जानी जाती है जब यह
गुण प्रभावित होती है । ध्रितिका एवं बुद्धि के लिए आप को गीता के निम्न श्लोकों को देखना चाहिए ----
2.41, 18.29---18.35 तक ।
गीता कहता है बुद्धि एवं ध्रितिका दो प्रकार की होती हैं ; एक सविकार और दूसरी निर्विकार जिनको
क्रमशः अनिश्चयात्मिका एवं निश्चयात्मिका कहते हैं । गीता में इनको स्पष्ट करनें के लिए दो और शब्द हैं --byabhiichaarinii--abhyabhiichaarinii ।

गीता कहता है ---कर्म से कोई भाग नहीं सकता , कर्म तो करना ही पडेगा , अब यह उसपर निर्भर है की वह जो
कर्म कर रहा है वह उसे क्या देगा --सुख या दुःख ।
गीता का कर्म वह है जो भावातीत की स्थिति में पहुंचाए और यह तब संभव होगा जब कर्म में --------
[क] कोई चाह न हो ।
[ख] कोई अहंकार न हो ।
[ग] कोई मोह न हो ।
[घ] कोई लोभ न हो ।
[च] कोई भय न हो ।
[छ ] कोई आलस्य न हो ।
[ज] कोई क्रोध भाव न हो ।
जब ऐसे कर्म होते हैं तब -----
ज्ञान मिलता है और ज्ञान से ---
प्रकृति-पुरुष का बोध होता है और जब यह होता है तब वह ब्यक्ति ----
योगी होता है ....
संन्यासी होता है ।

====ॐ=====

Monday, December 21, 2009

गीता-ज्ञान ....30

काम-क्रोध योग के द्वार को बंद करते हैं ----गीता-5.22



* क्या गुण योग के शत्रु हैं ? ---जी , नहीं ......

* गुणों के भावों का सम्मोहन , योग के द्वार को बंद करता है ।

* काम - क्रोध का सम्मोहन योग में अवरोध हैं ।

** सम्मोहन रहित काम , योग का फल है [गीता - 7.11, 10.28 ]

गीता के श्लोक 5.22 को समझनें के लिए हमें गीता के निम्न सूत्रों को समझना चाहिए -------

## 2.62 - 2.63 , 3.36 - 3.43 , 4.10 , 526 , 6.27 , 7.11 , 10.28 , 16.21

गीता में अर्जुन का तीसरा प्रश्न है ----

मनुष्य पाप क्यों करता है ?

परम श्री कृष्ण कहते हैं ........

काम का सम्मोहन मनुष्य से पाप करवाता है । क्रोध , काम का रूपांतरण है और काम , राजस गुण का

प्रमुख तत्त्व है ।

अब आप सोचिये की ----

यदि काम , क्रोध , लोभ,मोह , ममता , भय, अहंकार न होते तो मनुष्य कैसा होता ?

यदि दुःख न होता तो सुख को कौन समझता ?

यदि मोह न होता तो आँखों में आशू कैसे भरते ?

यदि भोग न होता तो योग शब्द का क्या होता ?

पांचवी शताब्दी में पल्लव - राजाओं का एक राजकुमार चीन,जापान जाकर झेन साधना का एक नया मार्ग चलाया जिसको आज लोग एक मात्र जीवित धर्म मानते हैं , इस राजकुमार का नाम था बोधी धर्म ।
शरीर छोड़ते समय इनका कहना है ------

शरीर तेरा धन्यबाद , यदि तूं न होता तो आत्मा को कैसे, मैं समझता ? , पाप तेरा धन्यबाद , यदि तू न होता तो, मैं पुण्य को कैसे समझता ? और भोग तेरा धन्यबाद , यदि तूं न होता तो, मैं योग को कैसे समझता ?

गुणों के सम्मोहन ऐसे हैं जो एक माध्यम हैं , जिनको समझ कर मनुष्य योगी बनता है और योग, प्रभु के द्वार को दिखा कर कहता है ---अब तूं जा आगे, जहां तेरे को वह आयाम मिलेगा जिस से एवं जिस में यह संसार हैं ।



काम एक उर्जा है जो मूलतः विकार रहित है लेकिन जब इसे संसार की हवा लगती है तब यह सविकार हो जाती है और संसार में डुबो देती है ।

=====ॐ=====



Sunday, December 20, 2009

गीता ज्ञान - 29

भोग क्या है ? -----गीता श्लोक ....5.22

गीता कह रहा है -------
इन्द्रिय-बिषय के सहयोग से जो होता है , वह भोग होता है जिसके क्षणिक सुख में दुःख का बीज होता है

अब आप इस सूत्र की गहराई को समझें और इस को समझनें के लिए आप यदि गीता की मदत लें तो उत्तम होगा ।
आप गीता के निम्न सूत्रों को इस सूत्र के सम्बन्ध में देख सकते हैं .........
2.45, 3.5, 3.27, 3.33, 2.14, 18.38, 3.4, 18.11, 18.48, 18.49, 18.54-18.55, 6.29, 6.30,
9.29, 5.3, 5.10, 5.11, 5.23, 2.69, 14.19-14.20, 7.3, 12.5, 14.20

अब सोचनें का समय है आप अब सोचना प्रारंभ करें लेकिन पहले गीता सूत्रों की माला को धारण करलें जिनको ऊपर दिया गया है तब उत्तम परिणाम मिलनें की संभावना हो सकती है ।
क्या कोई ऐसा भी कर्म है जो बिना इन्द्रिय एवं बिषय के सहयोग से होता हो ? ऐसा कोई कर्म संभव नही फिर क्या गीता की बात गलत है ? नहीं गीता कैसे गलत हो सकता है ?फिर क्या है ?...आइये देखते हैं ----
गीता कहता है ----गुणों के प्रभाव में जो कर्म होते हैं , वे भोग कर्म हैं जिनके क्षणिक सुख में दुःख का बीज
होता है लेकिन जब कर्म हों और उनके पीछे गुणों का प्रभाव न हो तो ऐसे कर्म , योग कर्म हैं ।
कर्म तो कर्म इन्द्रियाँ ही करेंगी लेकिन गुणों के गुलाम के रूप में नहीं और जब ऐसा होनें लगता है तब वह ब्यक्ति
योग में होता है ।

कर्म तो करना ही पडेगा क्योंकि कोई भी ब्यक्ति या जीव धारी कर्म रहित एक पल भी नहीं हो सकता । कर्म तो एक माध्यम है जो सब को एक सा मिला हुआ है जो एक मार्ग है जिसका एक सिरा भोग में है जहां गुणों का राज्य है और दूसरा सिरा वहाँ जाता है जहां गुनातीत होता है ।
कर्म में कर्म-बंधनों को समझना , गीता-साधना है ।
कर्म के पीछे जब कोई पकड़ न हो तो वह कर्म सिद्धि देता है , सिद्धि में ज्ञान होता है , ज्ञान से क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के प्रति होश बनता है और यही होश गुनातीत बनाता है ।
गुनातीत योगी दुर्लभ योगी होते हैं जो आत्मा से आत्मा में रहते हैं ।

=====ॐ======

Saturday, December 19, 2009

गीता ज्ञान- 28

सम - भाव की स्थिति प्रभु का द्वार है ----गीता...5.19
गीता का सूत्र आप से क्या कह रहा है ? सोचिये इस बात पर और अपनी सोच को उस उचाई तक ले जाइए
जिसके आगे राह न हो ।
सम भाव को समझनें के लिए देखिये गीता के इन श्लोकों को -------
2.47-2.51, 2.56-2.57, 2.69-2.71, 4.22, 5.3, 5.18-5.20, 6.8-6.9, 6.19,
12.13-12.17, 14.19, 14.23-14.25, 16.1-16.3, 18.10, 18.17, 18.51-18.55
सम भाव योगी कौन है ?
आसक्ति,काम,कामना,क्रोध,लोभ,मोह,भय एवं अहंकार से अप्रभावित ब्यक्ति , सम भाव योगी है ।
चार अक्षरों वाला यह शब्द अपनें में अनेक परतो को छिपाए हुए है , एक-एक परत को उठाते जाइए और
सम भाव में प्रवेश करते जाइये , यह होगी गीता - साधना ।
गीता आप को कोई नयी बात नहीं बताता , हम-आप जो करते हैं उनको लेकर गीता बोध पैदा करना चाहता है ।
हमारी अपनी कमजोरी है , हम बनना चाहते हैं परमात्मा लेकिन कुछ छोड़ना नहीं चाहते और यही आदत
हमें न परमात्मा बननें देती और न पशु की तरह भोग में रहनें देती ।
मनुष्य न तो पशु है और न ही परमात्मा लेकिन इसके अन्दर वह सब है जो परमात्मा मय बनाते हैं ।
गीता परमात्मा से मिलाता तो नहीं लेकिन परमात्मा तुल्य बना देता है यदि इसके मार्ग पर चला जाए ।
====ॐ====

गीता ज्ञान - 25

कर्म फल का त्याग परमात्मा मय बनाता है .......गीता श्लोक 5.12

गीता का यह श्लोक क्या कह रहा है ?
क्या है, त्याग ? पहले इस बात को समझना चाहिए । त्याग करना मनुष्य के बश में नहीं यह तो प्रभु का प्रसाद है जो साधना के फल के रूप में मिलता है । जिसको हम त्याग समझते हैं , वह भोग का एक अंग है । जिस कर्म में फल की इच्छा न हो वह कर्म , योग होता है ।

जिसको करते समय यह पता चलता हो की मैं यह कर्म कर रहा हूँ , वह कर्म , भोग कर्म होता है और जिस कर्म के होनें का पता न चले , वह कर्म , योग कर्म होता है ।

आज विज्ञानं कहता है ---जो है वह उर्जा का रूपांतरण है और इस बात को दर्शन प्रारंभ से कहता आया है ।
मनुष्य जिस उर्जा से है वह उर्जा एक परम उर्जा , निर्विकार उर्जा है । जब यह उर्जा मन-बुद्धि के स्पेस में पहुंचती है तब यह विकारों से भर जाती है और मनुष्य गुणों का गुलाम बन जाता है ।

आसक्ति ,कामना , क्रोध , मोह , भय और अहंकार का एक - एक करके त्याग नहीं किया जाता , इन सब का त्याग एक समय में हो जाता है जब --------

अन्तः करन की उर्जा निर्विकार हो जाती है ।
कर्म को अपनें स्वार्थ के लिए नहीं करना चाहिए , कर्म को प्रकृति के प्रतिकूल नहीं करना चाहिए , जिस कर्म से प्रकृति की जरुरत पूरी होती है , वह कर्म , योग कर्म है ।

कर्म को भोग का साधन न बनायें , इसे परमात्मा को अर्पित करे ।

=====ॐ========



Friday, December 18, 2009

गीता ज्ञान - 26

कर्म की रचना कौन करता है ?
गीता श्लोक 5.14 कहता है ------
कर्म,कर्म-फल एवं कर्तापन की रचना परमात्मा नहीं करता , मनुष्य का स्वभाव करता है ।
गीता का यह श्लोक जिस बात को कह रहा है उसको माननें वाले आज कितनें हैं ?---सोचिये इस बात पर
गीता कहता है [ गीता श्लोक 8।3]--
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः , कर्मः अर्थात जिसके करनें से भावातीत की स्थिति मिले वह कर्म है , आप इस कर्म की परिभाषा को किस तरह से देखते हैं ?
जो हम कर्म समझते हैं वे भोग कर्म हैं उनके होने के पीछे गुणों की उर्जा होती है । गीता के लिए ये कर्म एक माध्यम हैं जिनसे वे कर्म होनें की संभावना होती है जो भावातीत में पहुंचाते हैं ।
मनुष्य एक मात्र ऐसा जीव है जो भोग को समझ कर भोग की पकड़ से मुक्त हो कर योग में कदम रख सकता है ।
मनुष्य भोग से योग में पहुँच कर गुणों को पहचान कर गुनातीत को समझ सकता है ।
करता भाव अहंकार की छाया है , यह बात मैं नहीं , गीता कह रहा है [गीता 3.27] और इसकी समझ
कर्म-योग की एक कड़ी है । कर्म फल की चाह एक कामना है जो राजस गुण का एक मजबूत तत्त्व है ।
गीता कह रहा है की कर्म , कर्मफल की सोच तथा करता भाव का होना यह सब परमात्मा रचित नहीं है अपितु
यह सब मनुष्य के स्वभाव से आता है ।
गीता कहता है [गीता -8.3 ]-----मनुष्य का स्वभाव , अध्यात्म है ....अब आप सोचिये एक तरफ -गीता श्लोक 5.12 कहता है ---मनुष्य के स्वभाव कर्म,कर्मफल एवं कर्ताभाव का निर्धारण स्वभाव से होता है और -------
गीता श्लोक 8.3 कहता है मनुष्य क स्वभाव अध्यात्म है तो क्या अध्यात्म यह सब निश्चित करता है ?
नहीं ऐसा नहीं है ------
भोग कर्म भोग के तत्वों को बताते हैं , भोग तत्वों की समझ भोग से योग में ले जाती है इसके कारन
मनुष्य का भोग आधारित स्वभाव अध्यात्म बन जाता है और जब ऐसा होता है तब वह ब्यक्ति भोगी नहीं
योगी बन गया होता है जो यह समझ गया होता है की -------
हम सुखी क्यों हैं ?
हम दुखी क्यों हैं ?
हमारे अन्दर कर्ताभाव क्यों है ?
हम कर्म फल की सोच क्यों कर रहे हैं ?
गीता पढना उत्तम है और गीता पढनें के बाद सोचना अति उत्तम है ऎसी सोच जो सोच के परे पहुंचा दे ।
=====ॐ======

Wednesday, December 16, 2009

गीता ज्ञान --27

गीता में ज्ञान क्या है ?
गीता के सभी 700 श्लोक ज्ञान के श्रोत हैं लेकिन ज्ञान शब्द से परिचय के लिए निम्न श्लोकों को देखना
अच्छा रहेगा ........
2.47- 2.52,
4.38
7.3- 7.6, 7.20, 7.27
13.1- 13.3, 13.5- 13.11
14.6, 14.11, 14.14, 14.17, 14.20, 14.3- 14.4
15.1- 15.3, 15.16
16.13- 16.20
गीता के चालीश सूत्र आप को क्या देते हैं ? इस को आप नीचे देखें -------
गीता कहता है .....[गीता - 13.2]
वह जो क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का बोध कराये , ज्ञान है । ज्ञान की प्राप्ति [गीता सूत्र 15.3 ] बैराग्य के माध्यम से
संभव है ।
बात हो अति सरल दिखती है लेकिन है जटिल । गीता के किसी शब्द का वह अर्थ नहीं है जो हम समझते हैं -
इस बात को समझ कर गीता को अपनें हाँथ में लेना चाहिए । गीता एक ऐसा है जिसमें जिसके मूल
शब्दों का स्पष्टीकरण दिया गया है अतः गीता के शब्दों का अर्थ गीता में खोजना उत्तम होगा ।
अब आप आगे देखिये , क्षेत्र को समझनें के लिए हमको गीता के कमसे कम निम्न श्लोकों को देखना होगा ---
7.3- 7.6, 13.5- 13.6, 14,3- 14.4 , 14.20, 15.16
क्षेत्र वह है जिसमें क्षेत्रज्ञ का निवास है , एक चिड़िया एक घोसला बुनती है और उसमें निवास करती है , हम-आप घर बनाकर उसमें रहते हैं , यहाँ सब का अपना- अपना निवास स्थान हैं और क्षेत्रज्ञ का निवास क्षेत्र में है जो
क्षेत्रज्ञ में ही है ।
अपरा - परा प्रकृतियों के योग में जब क्षेत्रज्ञ होता है तब वह क्षेत्र प्राण मय होता है । अपरा प्रकृति में
आठ तत्त्व हैं ; पञ्च महा भूत , मन , बुद्धि एवं अहंकार और परा निर्विकार चेतना है ।
मन के फैलाव के रूप में दस इन्द्रियाँ , पांच बिषय एवं विकार तत्त्व मिलकर क्षेत्र का निर्माण करते हैं ।
क्षेत्र में ह्रदय एक ऐसा माध्यम है जो क्षेत्रज्ञ का स्थान है [ देखिये गीता-15।11, 15.15, 18.61] , जब यह पता चलता है तब बोध होता है की क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का सम्बन्ध किस तरह से है ?
सविकार पिजड़े में निर्विकार का होना खुद अपनें में एक रहस्य है और इसका बोध ही ज्ञान है जो बैराग्य में मिलता है [ गीता 15.3 ],बैराग्य क्या है ?
जो बिना राग हो , वह बैरागी है , राग क्या है ? राग वह पकड़ है जो राजस-तामस गुणों से तैयार होता है ।
कोई भी ब्यक्ति इस भोग संसार में हर पल बैरागी नहीं है , और कोई भी ब्यक्ति हर पल भोगी नहीं है , यह तो मनुष्य के अन्दर तीन गुणों का समीकरण [गीता - 14।10 ] करता है ।
राजस-तामस गुण अज्ञान के मार्ग पर ले जाते हैं और सात्विक गुण बंधन होते हुए भी ज्ञान - मार्ग पर
ले जाता है । राजस-तामस गुणों में अहंकार नेता होता है और सात्विक गुण में यह छिपा हुआ होता है ।
====ॐ======

Tuesday, December 15, 2009

गीता ज्ञान--24

गीता श्लोक 5.11 कहता है -------
आसक्ति एवं ममतारहित कर्म से कर्म-योगी अपनें तन,मन तथा बुद्धि को निर्विकार उर्जा से भरता है ।
गीता सांख्य के आधार पर बुद्धि - योग की गणित है जो अपनें अधूरे सूत्रों के आधार पर पूर्णता की ओर
ले जाता है । गीता का सूत्र जो ऊपर दिया गया है उसमें आसक्ति तीन गुणों की जननी है और ममता
तामस गुण का तत्त्व है ।
गीता अपनें सूत्र 6.27 में कहता है -----
राजस गुण के साथ परमात्मा से जुड़ना असंभव है और यहाँ कह रहा है की आसक्ति-ममता के बिना किया
गया कर्म , प्रभु से जोड़ता है अर्थात गुण एवं गुणों के भाव प्रभु के मार्ग में अवरोध हैं ।
चलना तो स्वयं से प्रारम्भ होता है लेकिन हम कब और कैसे किसी और की चालसे मोहित हो कर
अपनी चाल को भूल जाते हैं , इसका पता तक नहीं चल पाता, बश यही हम सब की भूल है ।
कर्म एक दरिया है जिसमें कामना रहित ब्यक्ति प्यार की डोर को पकड़ कर गंगा सागर तक की यात्रा
कर सकता है लेकिन गुण करनें दे तब न । हमें पग-पग पर गुणों की हवा से बोध मय रहना पड़ता है और तब
एक दिन गंगा सागर का दर्शन होता है ।
कर्म वह माध्यम है जो सब को मिला हुआ है , कर्म रहित होना असंभव है और कोई कर्म , दोष रहित भी नहीं होता ।
कर्म से सिद्धि मिलती है जो परा-भक्तिके द्वार को खोलती है और कहती है .....जा अब तेरे को किसी सहारे की जरुरत नहीं । कर्म में उन तत्वों को जानना , योग है जो तत्त्व मन को अस्थिर बनाते हैं और वही तत्त्व भोग तत्त्व या
गुण-तत्त्व हैं ।
वह कर्म योग है जिसमें ----
मन बंधन मुक्त हो , बुद्धि स्थिर हो और किसी भी प्रकार की कोई चाह न हो ।
सोच अहंकार का प्रतिबिम्ब है जो पग-पग पर साथ रहता है ।
=====ॐ=======

Monday, December 14, 2009

गीता ज्ञान - 23

गीता श्लोक 5.10 कहता है .........
परमात्मा केंद्रित ब्यक्ति कर्म करता हुआ , कर्मों के बन्धनों से मुक्त रहता हुआ इस भोग संसार में
कमलवत रहता है ।
गीता यहाँ जो कह रहा है उसको समझनें के लिए कम से कम गीता के निम्न पन्द्रह श्लोकों को तो देखना ही
पडेगा -------
2.47-2.48, 3.4, 3.19-3.20, 5.6-5.7, 5.10, 6.4-6.5, 18.49-18.50, 18.54-18.56
गीता के ये श्लोक कहते हैं .......
भोग तत्वों से परिपूर्ण इस संसार में तुम हो , भौतिक रूप से इस के परे पहुँचना सम्भव नहीं लेकिन भोग
तत्वों के प्रति होश बना कर रहनें वाला समत्व योगी द्रष्टा रूप में कमलवत रहता है । यह स्थिति पानें में
एक पल से भी कम समय लग सकता है और कई जन्म भी कम पड़ सकते हैं लेकिन यह पल मिलता सब को है ।
इस पल को जो पकड़ कर कमलवत स्थिति में पहुँच गया , वह है सन्यासी - बैरागी और जो चूक गया वह है भोगी ।
मंदिरों में , तीर्थों में , गुरुओ के आश्रमों में लोग इस कमलवत स्थिति को पाने में ब्यस्त हैं लेकिन ये
लोग इस भोग संसार के गुरुत्व - आकर्षण से कितना बच पाते हैं , यह उनको ही पता होगा ।
साधना में जो लोग अपनी साधना - उर्जा को अपनें अहंकार का भोजन बना दिया , वे तो गये और जो
अपनी उर्जा को अहंकार को पिघलानें में लगा दिया , वे पा लेते हैं उसके आनंद को जो -------
परमानंद है ।
परमानंद में पहुँचा ब्यक्ति परम तुल्य होता है ।
=====ॐ======

Saturday, December 12, 2009

गीता ज्ञान ----22

गीता श्लोक 5.6 कहता है ..........
कर्म में करता भाव का न होना , संन्यास की पहचान है जो योग सिद्धि पर मिलता है ।
गीता में अर्जुन का प्रश्न दो और प्रश्न पाँच में कर्म-ज्ञान , कर्म - योग एवं कर्म संन्यास की बातें पूछी गयी हैं और यह श्लोक प्रश्न पाँच के सन्दर्भ में परम श्री कृष्ण बोलते हैं ।
संन्यास क्या है ? इस बात को समझना जरुरी है ।
सन्यासियों की नगरी काशी में कबीर जी लगभग एक सौ साल तक अपनें सीमित शब्दों के आधार पर बोलते रहे हैं
और कहते हैं ----
मन न रगाये रगाये योगी कपड़ा -----
आसन मारि मन्दिर में बैठे ...
नाम छोडि पूजन लगे पथरा ।
ज्ञान सागर काशी में अल्प शब्दों की किस्ती पर आसीन कबीर जी वह कह रहे हैं जिसको ब्यक्त करनें के लिए गीता में श्री कृष्ण को पाँच सौ छप्पन श्लोकों को बोलना पड़ा था ।
वेश-भूषा , खान-पान , रहन सहन से कोई सन्यासी नहीं हो सकता , हाँ , यह सब सन्यासी बनानें में मदद
कर सकती हैं यदि मार्ग में अहंकार का प्रभाव न आनें पाए तब ।
आप एक और छोटी सी बात को देखें -------
चाह गयी , चिंता गयी , मनवा बे परवाह
और गीता कहता है ----
चिंता करता पन की पहचान है .....
करता भाव अहंकार की छाया है ।
कम पढ़े लिखे कवि की बात में और सांख्य - योगी श्री कृष्ण की बात में क्या आप को कोई अन्तर नजर आता है ?
गीतका संन्यास वह है -----
जिसमें गुणों के तत्वों की पकड़ न के बराबर हो .....
भोग की पकड़ न के बराबर हो ....
काम,कामना की पकड़ न हो ......
क्रोध-लोभ की छाया तक न मिले ....
ममता .मोह , भय एवं आलस्य का अभाव हो ,और.....
अहंकार की हवा न लगनें पाये , लेकिन गीता आगे कहता है .....
ऐसे लोग दुर्लभ होते हैं
चाहे आप परम श्री कृष्ण के संग रहें या कबीर का साथ पकड़ें ...
चाहे आप नानक के संग रहें या.......
परम हंस राम कृष्ण के संग ....
झोली में जो मिलेगा वह .....
वह होगा जो शायद आप को न भाये ....
पहले तैयारी करिए और तब .......
संग खोजिये ।
====ॐ=======

Friday, December 11, 2009

गीता-ज्ञान....21

कोई नाचता दिखता है .....
कोई प्रबचन देता दिखता है ....
कोई चुप पेंड के नीचे बैठा दिखता है .....
लोग उनको देख कर अपना-अपना अर्थ लगाते रहते हैं , लेकिन सत्य क्या है ?
गीता श्लोक 5.5 कहता है --------
सांख्य - योगी को योग-सिद्धि पर जो प्राप्त होता है वही प्राप्ति अन्य योगियों को भी मिलती है जब उनका
योग सिद्ध होता है । हिंदू शाश्रों में लोगों की दो श्रेणियां हैं; आस्तिक एवं नास्तिक की ।
आस्तिक वर्ग में छः मार्ग हैं --वैशेशिका, पूर्व मीमांस, न्याय,योग , वेदांत और नास्तिक में जैन,बौध एवं
चार-वाक् को रखा गया है ।
अब आप इस वर्गीकरण के बारे में सोचें की इस को किसनें और कब तैयार किया होगा ?
भारत में पहले जो धर्म राजा का होता था वही धर्म प्रजा का भी होता था । चंद्र गुप्त [322-298 BC], अपना आखिरी वक्त एक जैन मोंक के रूप में बिताया और अशोक [273-232 BC ] अपना आखिरी समय
बौध भिक्षुक के रूप में गुजारा । भारत लगभग दसवी शताब्दी के प्रारम्भ में गुलामी की ओर जानें लगा तो क्या
चंद्र गुप्त से लेकर दसवी शताब्दी तक जैन-बुद्ध को माननें वाले भारतीय नास्तिक थे ?
बुद्ध -जैन मान्यताओं में सीधे तौर पर परमात्मा का नाम नहीं मिलता लेकिन इनमें वही बाते हैं जो मीमांस , सांख्य एवं न्याय में हैं फ़िर इनको कैसे नास्तिक बर्ग में रखा जा सकता है ?
आदि गुरु शंकर [788- 820 AD ]भारत-भूमि पर सनातन धर्म की हवा बहायी और सभी मीमांसक लोगों को अपना चेला बनाया लेकिन वेलोग क्या सही ढंग से उनसे जुड़ पाये थे ? इस प्रश्न पर संदेह हो सकता है ।
आदि शंकर ऐसी कौन सी नयी बात दी ? और जो दिया वह पहले से था केवल उसका नाम अलग- अलग था ।
शाश्रों का निर्माण सिद्ध योगी नहीं करते उनके साथ रहनें वाले राजनितिक लोग करते हैं । जेसस के
तीन सौ वर्ष बाद क्रिश्चियन धर्म बना और मोहमद साहिब के सौ वर्ष बाद साउदी अरब के खलीफ लोग इस्लाम का प्रसार किया , ऐसा होता रहा है , हो रहा है और आगे भी होता रहेगा ।
गीता सूत्र 5.5 कहता है ----मार्ग अलग - अलग हैं लेकिन सभी मार्गो से जो मिलता है वह एक होता है ।
गीता सूत्र 4.38 कहता है ---योग सिद्धि से ज्ञान मिलता है और गीता सूत्र 13..2 कहता है -------
ज्ञान वह है जिस से प्रकृति-पुरूष का बोध हो ।
बोध मिलनें पर -----
कोई नाचता रहता है ....
कोई गाता रहता है ......
कोई अपनें ज्ञान को शव्दों के माध्यम से बाटता रहता है तो ----
कोई चुप रह कर परम आनंद में होता है ---यह है ......
एक के अनेक रूप ।
====ॐ======

गीता ज्ञान - 20

गीता श्लोक 5.3 कहता है ------

द्वेष,द्वन्द एवं आकांक्षा रहित ब्यक्ति , सन्यासी है ।

हीरे बहुत बड़े नहीं होते , गीता सूत्र अपनें में परम हीरे हैं , आप इनसे दूर न रहें ये तो आप को हर पल बुलाते हैं ।

गीता के ऊपर दिए गए सूत्र को समझनें के लिए पहले आप देखें........

गीता सूत्र 5.10, 5.11, 5.23, 16.21
फ़िर देखें गीता सूत्र .........
3.5, 18.11, 18.48, 2.45, 3.27, 3.33, 5.22, 18.38, 2.14 और इनके बाद इनको आप अपनें जीवन में उतारें तब आप बनेंगे , गीता सन्यासी ।

गीता का सूत्र 5.3 अर्जुन के प्रश्न -5 के संदर्भमें कहा गया है जिसमें अर्जुन कर्मों के संन्यास एवं कर्म-योग को समझना चाहते हैं । अर्जुन का दूसरा प्रश्न कर्म एवं ज्ञान से सम्बंधित था और यहाँ कर्म संन्यास तथा कर्म योग को जानना चाहते हैं , यह है अर्जुन की भ्रमित बुद्धि का नतीजा ।

कर्म-संन्यास शब्द के दो अर्थ हो सकते हैं ; कर्म न करना और कर्म को संन्यास पानें का माध्यम बनाना ।
गीता का अर्जुन संदेह में नहीं है पूर्ण रूप से भ्रमित है , वह एक कदम भी आगे नहीं चलना चाहता और श्री कृष्ण उसे चलाना चाहते हैं । अर्जुन कर्म सन्यास का भाव लगा रहे हैं , कर्म का त्याग करना और परम श्री कृष्ण उनको कर्म की पकड़ से मुक्त करनें की दवा दे रहे हैं , यह दोनों का प्रयाश चलता रहता है और गीता का अंत आजा हैनिराकार परम श्री कृष्ण गीता में एक सिद्ध सांख्य - योगी हैं और अर्जुन मोह के कारण सिकुड़े हुए हैं ।
अर्जुन उठना नहीं चाहते और श्री कृष्ण उनको उठानें का प्रयाश करते हैं ।
सिद्ध योगी अंधकार में डूबे भोगी को बताना चाहते हैं की तुमको परेशांन होनें की कोई बात नहीं है , मैं भी एक दिन तेरे जैसा ही था , वे उसको बाताना चाहते हैं , जिसको उन्होंनें पाया है लेकिन एवरेस्ट से बोल रहे सिद्ध - योगी की बात को तराई में बैठे भोगी को कैसे सुनाई पड़ सकती है ?
गीता में परम श्री कृष्ण कहते हैं --------
हे अर्जुन!कर्म न करनें की बात के बारे में तो तूं सोच न क्योकि कोई भी जीवधारी कर्म मुक्त नहीं हो सकता , कर्म के संचालक गुन हैं , ऐसे गुन प्रभावित सभी कर्म भोग कर्म हैं जिनके सुख में दुःख का बीज होता है , जो भोग के समय सुख की झलक तो दिखाते हैं लेकिन बाद में दुःख मिलता है । आसक्ति रहित कर्म से सिद्धि मिलती है , सिद्धि से सत का पता चलता है और तब वह योगी पारा भक्ति में हर पल हर कर्म में परमात्मा को देखता है ।
हे अर्जुन! यह अच्छा मौका तेरे को मिला है , इसको अपनें हाथ से न जाने दे , तूं इस युद्ध को अपनें कर्म-योग के रूप में देख , तूं इस करम में करम बंधनों को अच्छी तरह से यहाँ समझ सकता है ।
गीता की यात्रा तो अनंत है लेकिन मैं अपनी इस यात्रा को यहीं समाप्त करता हूँ ।
=====ॐ=======

Wednesday, December 9, 2009

गीता ज्ञान --19

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्र मिह विद्यते ।
तत्स्वयं योगसंसिद्ध : कालेनात्मनि विन्दति ॥ गीता-4.38

क्षेत्रज्ञं चापि मां विद्धि सर्व क्षेत्रेषु भारत ।
क्षेत्र क्षेत्रज्ञ योज्ञानं यतज्ञानानाम मतं मम ॥ गीता-13.2
यहाँ गीता सूत्र -4.38 को स्पष्ट करनें के लिए गीता के आठ अध्यायों के उन्तालिश श्लोकों के रस को दिया
जा रहा है और उम्मीद है की यह परम रस आप के अन्दर बहनें वाली उर्जा को रूपांतरित करनें में
आप के संग रहेगा । अब आप उठाइए गीता और देखिये इन श्लोकों को -------------
4.38, 13.2, 13.7-13.11, 2.55-2.72, 14.22-14.27, 2.11, 18.42, 2.46, 6.42, 7.3, 7.19, 12.5, 14.20
गीता श्लोक 4.38 में कहता है ......
ज्ञान वह जो योग-सिद्धी पर स्वत: मिलता है और गीता श्लोक 13.2 में ज्ञान की परिभाषा देता है की ........
ज्ञान वह है जिस से क्षेत्र - क्षेत्रग्यका बोध हो ।
अब आप अपनें ज्ञान की परिभाषा को देखिये और सोचिये की क्या आप की फ्रीक्वेंसी गीता की
फ्रीक्वेंसी से मेल खाती है ?
प्रोफ़ेसर एल्बर्ट आइन्स्टाइन कहते हैं ....ज्ञान दो तरह का होता है ; एक मुर्दा ज्ञान है जो ग्रंथों से मिलता है और दूसरा ज्ञान सजीव ज्ञान है जो बूँद-बूँद चेतन से बुद्धि में टपकता है । चेतना का फैलाव ध्यान से होता है और गीता ध्यान को ज्ञान का श्रोत कह रहा है अतः आइन्स्टाइन की बात वही है जो गीता की है फर्क मात्र भाषा हा है ।
गीता ध्यानी , पंडित , बैरागी , योगी , स्थिर - प्रज्ञा वाले ब्यक्ति , स्थिर मन वाले ब्यक्ति , योगी , सन्यासी और गुनातीत को एक श्रेणी में रखता है और कहता है ------
परमात्मा जिसका केन्द्र है , जिसके पीठ की ओर भोग है , जो ब्रह्माण्ड को ब्रह्म के फैलाव के रूपमें देखता हुआ धन्य - धन्य होता है , जो हर वक्त सम - भाव में रहता है , जो काम कमाना , क्रोध , लोभ, मोह, भय ,आलस्य एवं अहंकार से अछूता है , वह ज्ञानी है तथा वह जानता है की ------
सविकार क्षेत्र , निर्विकार क्षेत्रज्ञ का निवास स्थान है और इस सोच में वह हर पल अपनें तथा लोगों के
क्षेत्र को निर्विका करनें में लगा रहता है ।
इतनी सी बात आप अपनाले की ------
जानें - अनजानें में मनुष्य की खोज उसकी है जो परमात्मामय बनाती है ।
=====ॐ===

गीता ज्ञान - 18

गीता श्लोक 4.21- 4.23 तक
यहाँ गीता कहता है -------
आशा रहित , ईर्ष्या रहित , द्वन्द रहित , आसक्ति रहित , ममता रहित , पाप न करनें वाला , परमात्मा
जिसका केन्द्र हो , वह कर्म-योगी है और ऐसा ब्यक्ति कर्मों का गुलाम नहीं बन पाता।
यह सूखा हुआ तालाब आप को क्या दे सकता है , आप गीता ज्ञान मुझसे नहीं प्राप्त कर रहे हैं , यह जो आप को मिल रहा है वह गीता सागर की बूँद समझ कर यदि आप अपनाते हैं तो मैं अपनें को धन्य भागी समझूंगा ।
अब आप मेरी बात क्या सुनेंगे , सुनना ही है तो सुनिए उसे जो गीता सुना रहा है --------
गीता सूत्र - 2.62-2.63
मन के मनन से आसक्ति उपजती है जो कामना का गर्भ है । कामना जब टूटती है तब
क्रोध पैदा होता है जो एक अग्नि है और पाप कर्मों का मूल-श्रोत भी ।
गीता सूत्र - 3.36- 3,43 तक
काम राजस गुन का मुख्य तत्त्व है जिसका सम्मोहन पाप करनें के लिए प्रेरित करता है और काम का
रूपांतरण , क्रोध है ।
गीता सूत्र - 2.52, 6.27
राजस - तामस गुणों से प्रभावित ब्यक्ति परमात्म से दूर रहता है ।
गीता सूत्र - 5.10
आसक्ति राहित कर्म-करता भोग संसार में कमलवत रहता है ।
गीता सूत्र - 3.19- 3.20
आसक्ति के बिना कर्म करनें वाला ब्यक्ति राजा जनक की तरह बिदेह की तरह रहता है , बिदेह वह है जिसका सबिकार देह निर्विकार हो ।
गीता कहता है , यह तेरे को कैसे प्राप्त हो सकता है ?
इस के लिए आप देखिये गीता सूत्र 6.26 जो कहता है -------
मनुष्य अपनें मन का गुलाम है , यदि तेरी यह गुलामी समाप्त हो जाए तो तूं परमात्मा को नहीं खोजेगा , उसकी आवाज तेरे को मिलनें लगेगी लेकिन इस
काम के लिए तेरे को अपनें मन का हमेशा पीछा करते रहना होगा ।
मनुष्य एवं परमात्मा के मध्य मन का एक झीना परदा है जिसको पार करना है और जब यह सम्भव होता है तब
परमात्मा का आयाम स्वतः दिखनें लगता है ।
पहले गीता को पढो फ़िर स्वयं को गीता में खोजो , यह अभ्यास तेरे को परम धाम की यात्रा करा देगा ।
=====ॐ=====

Monday, December 7, 2009

गीता-ज्ञान .....17

यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः ।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहु: पण्डितं बुधाः ॥ गीता 4.19
गीता यहाँ जो कह रहा है उसे हमें अपनें सोच का विषय बनाना चाहिए , गीता कहता है -----
जो कर्म में अकर्म एवं अकर्म में कर्म देखता है , जिसका कर्म काम-संकल्प रहित होता है , वह पंडित है ।
आप जरा सोचें की आज हमलोग पंडित की क्या परिभाषा करते हैं ?, आज पंडित शब्द मर चुका है , हमलोग इस पवित्र शब्द को मारे हैं , बात तो पचानें लायक नहीं है लेकिन है , सच ।
पंडित , ज्ञानी , सम-दर्शी , स्थिर-प्रज्ञ , गुणातीत, .........
ये सभी शब्द एक की ओर इशारा करते हैं और वह है .....
सन्यासी जो परमात्मा तुल्य ब्यक्ति है ।
यहाँ अब गीता के कुछ सूत्र दिए जा रहे हैं जो आप को काम-संकल्प रहित कर्म की ओर आप के ध्यान को
ले जा सकते हैं ।
गीता श्लोक 2.11------सम-भाव ब्यक्ति पंडित है ।
गीता श्लोक 2.55------कामना रहित , आत्मा केंद्रित ब्यक्ति , स्थिर प्रज्ञ है ।
गीता श्लोक 3.17-3.18-----आत्मा केंद्रित ब्यक्ति भावातीत की स्थिति में कर्म करता है ।
गीता श्लोक 4.18-----------कर्म में अकर्म एवं अकर्म में कर्म देखनें वाला सभी कर्मो को करनें में सक्षम है
गीता श्लोक 6.1-6.4,6.24---संकल्प एवं कर्म-फल की चाह से जो कर्म होते हैं वे कर्म योगी के कर्म हैं और
--------------------------संकल्प से कामना उठती है ।
गीता श्लोक 6.27----------राजस गुन के साथ परमात्मा से जुड़ना कठिन है ।
गीता श्लोक 2.52----------मोह के साथ बैराग्य पाना कठिन है ।
क्या गीता के इस श्लोकों को देखनें के बाद भी कोई संदेह की संभावना है ?
=======ॐ======

Sunday, December 6, 2009

गीता-ज्ञान ....16

कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म य: । ----गीता श्लोक ...4.18
गीता का यह श्लोक कहता है -----
जो कर्म में अकर्म एवं अकर्म में कर्म देखता है , वह सभी कर्मों को कर सकता है और वह बुद्धिमान है ।
गीता - बुद्धि योग के फल को यह श्लोक बता रहा है , बुद्धि योग का प्रारम्भ संदेह से है और अंत श्रद्धा में
होता है । संदेह रहित बुद्धि ही चेतना है जो यह महशूश कराती है की इस ब्रह्माण्ड का भी कोई नाभि केन्द्र [nucleous] है , जिसके फैलाव के रूप में यह ब्रह्माण्ड एवं टाइम-स्पेस फ्रेम है । मन-बुद्धि ज़ब चेतना से भर जाते हैं तब वह योगी कस्तूरी मृग जैसा हो जाता है , वह ! वह कटी पतंग की तरह होता है जिसको पता रहता है की वह कहाँ और कैसे जा रहा है ?
अब आप गीता को देखें ---गीता यहाँ अध्याय चार में कर्म-अकर्म की बात कर रहा है और कर्म की परिभाषा अध्याय आठ के प्रारम्भ में देता है फ़िर अर्जुन कैसे यहाँ अध्याय चार में कर्म-अकर्म को समझ सकते हैं ?
गीता सूत्र 8.3 में कहता है ------
जिसके करनें से भावातीत की स्थिति मिले , वह कर्म है लेकिन हम-आप कर्म की क्या परिभाषा करते हैं ?
गीता कहता है -----------
गुणों के प्रभाव से होनें वाले सभी कर्म अकर्म हैं चाहे वे यज्ञ हों या भोग हों । राम काम बन जाता है यदि भक्ति गुणों के प्रभाव में हो रही हो और काम राम बन जाता है यदि वह काम वासना रहित हो [गीता - 7।11 ] ।
कौन कर्म में अकर्म और अकर्म में कर्म देखता है ?
समत्व-योगी [ गीता सूत्र 2.47-2.51, 18.49-18.50 ] कर्म में अकर्म एवं अकर्म में कर्म देखता है जो द्रष्टा होता है । समत्व-योगी कौन है ? जिसको गुन तत्वों की पकड़ प्रभावित नहीं कर पाती , वह समत्व योगी है ।
समत्व-योगी भोग संसार में कमलवत होता है और उसका केन्द्र परमात्मा होता है ।
गीता कहता है -----
कामना एवं मोह अज्ञान की जननी हैं , अज्ञान भोग का उर्जा - श्रोत है जिसको सहयोग मिलता है अहंकार से ।
सात्विक , राजस एवं तामस गुणों के तत्वों के प्रभाव में कोई ब्यक्ति कर्म - अकर्म को नहीं समझ सकता ,गीता कहता है ---तुम मन्दिर जाते हो - उत्तम है लेकिन यदि किसी कारण से तेरा जाना है तो वह दो कौड़ी का जाना है , तूं इस दो कौड़ी को कुबेर का खजाना बना सकते हो यदि तुम अपनी चाह को समझ जावो ।
बंधन बंधन है चाहे वह सोने की चेन का हो या रस्सी का हो , चाह , मोह , अहंकार ये सभी बंधन हैं जो
ऊपर नहीं जानें देते , नीचे की ओर खीचते रहते हैं ।
भोग में भोग तत्वों को समझाना , गीता का गुन -विज्ञानं है ।
====ॐ=======

Saturday, December 5, 2009

गीता-ज्ञान ....15

नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभु:।
अज्ञानेन आवृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥ गीता-5.15
परमात्मा किसी के पाप कर्मो तथा अच्छे कर्मों को ग्रहण नहीं करता , जिनका ज्ञान अज्ञान से ढका हुआ है , वे ऐसा नहीं समझते ।
गीता का यह श्लोक जितना पारदर्शी है क्या कोई और इतना पारदर्शी हो सकता है ? यह श्लोक एक तरफ़ पाप -कर्म करनें वालों के लिए प्रीतिकर है और दूसरी ओर सही राह पर चलनें वालों के लिए प्रीतिकर नहीं दिखता ।
आसुरी प्रकृति के लोग इस सूत्र का अर्थ लगायेगे ---जब परमात्मा हमारे पाप कर्मों से प्रभावित नहीं होता तो हमें और किसकी डर है और अच्छे कर्म करनें वाले जिनकी नजरें स्वर्ग - प्राप्ति पर टिकी होती हैं , उनको इस सूत्र से कुछ बेचैनी अवश्य होगी ।
गीता का परमेश्वर किसी को बंधक बना कर नहीं रखता , वह कुछ करता नहीं , वह सुनता नहीं , वह सुनता नहीं , वह मात्र द्रष्टा है । दो प्रकार के लोग हैं; एक तो दर्शक हैं और दूसरे द्रष्टा जो दुर्लभ हैं । जब कोई भाव के साथ बिषय से जुड़ता है तो वह दर्शक होता है और जो भावातीत की स्थिति में बिषयों से जुड़ता है , वह है - द्रष्टा ।
गीता का परमात्मा हीरे के मुकुट से खुश नहीं होता , और न हमारी दरिद्रता पर रोता है , गीता का परमात्मा एक माध्यम है जो गुनातीत , भावातीत , सीमा रहित , स्थिर , सर्वत्र , सनातन , अज्ञेय , अविज्ञेय तथा अति सूक्ष्म है । गीता के परमात्मा में वह सब था , यह सब है , और वह सब रहेगा जिसको हम जानते थे , जानते हैं और आगे जानेंगे ।
गीता स्पष्ट कहता है ----गीता सूत्र ..7.12- 7.13 के माध्यम से की परमात्मा और मनुष्य के बीच एक पतला झीना भावों का परदा है , लेकिन जो इस परदे को समझ लेते हैं वे परमात्मा तुल्य हो जाते हैं । परमात्मा रचित यह झीना परदा मनुष्य के रुख को भोग की ओर रखता है जसको त्रिगुणी माया का नाम दिया गया है ।
Prof. Albert Einstein कहते हैं ---मैं परमात्मा को वैसा नहीं देखता जैसी तस्बीर लोगों नें बनाई है , मैं उसको प्रकृति के नियमों में देखता हूँ जिनसे यह ब्रह्माण्ड है । महान वैज्ञानिक वही कह रहा है जो बात गीता कहता है , क्या फर्क है गीता के दो श्लोकों में जिनको ऊपर बताया गया है और आइन्स्टाइन के बचनों में ?
गीता कहता है ---तूं जो चाहे वह कर लेकिन उसका परिणाम तेरे को मिलेगा , तूं उसके परिणाम से बच नहीं सकता अतः तू करके दुखी न हो , करनें के पहले सोच की तूं क्या करनें जा रहा है ?
गीता का कर्म वह नहीं जिसको हम कर्म कहते हैं , गीता का कर्म है --------
भूतभावोद्भवकरो विसर्ग: अर्थात जिसके करनें से भावातीत की स्थिति मिले ,वह कर्म है ---गीता 8.3
और भावातीत है -------
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:----गीता 2.16
अर्थात सत्य भावातीत है और सत्य ही
परमात्मा है ।
====ॐ=====

Friday, December 4, 2009

गीता-ज्ञान ....14

गीता - श्लोक ...4.12 कहता है --------
देव - पूजन से कर्म-फल की चाह पूरी होती है ।
गीता का यह सूत्र अर्जुन के प्रश्न -04 के सन्दर्भ में बोला गया है और यह प्रश्न काम-योग से सम्बंधित है ।
गीता कहता है [ गीता श्लोक - 3.41--3.43 तक ] ------
जब तक मनुष्य का केन्द्र आत्मा नहीं बन जाता तब तक वह आदमी काम के सम्मोहन से पूर्ण रूप से नहीं बच सकता - तो क्या देव पूजन से यह स्थिति सम्भव है ?
कर्म फल की चाह एक कामना है । काम, कामना एवं क्रोध राजस गुण के मूल तत्त्व हैं और राजस गुण भोग का बंधन है । कामना एवं चिंता एक सिक्के के दो पहलू हैं - जहाँ कामना है , चाह भी वहाँ होगी और चाह अहंकार की छाया है [ गीता श्लोक - 3.27 ] फ़िर ऐसे में कौन सा मार्ग उत्तम मार्ग हो सकता है ?
मनुष्य एवं परमात्मा के मध्य भोग प्राप्ति के माध्यमों के रूप में देवताओं का स्थान है [गीता -3.12 ] जो
पूजन से खुश होकर इक्षित भोग की प्राप्ति करवाते हैं । परमात्मा से जुडनें वालों को गीता चार भागों में
ब्यक्त करता है [ गीता- 7.16, 9.25 ], कुछ लोग भोग प्राप्ति के लिए परमात्मा से जुड़ते हैं , कुछ भय निवारण के लिए परमात्मा को याद करते हैं, कुछ में परमात्मा को तत्त्व से जाननें की जिज्ञाशा होती है तो कुछ परम-ज्ञान प्राप्ति के लिए परमात्मा से जुड़ते हैं ---लेकिन इतना समझना काफी होगा की चाह से परमात्मा की शरण नहीं मिलती , फ़िर क्या करना चाहिए ?
राजस-तामस गुणों के तत्वों की पकड़ को समझो जो प्रभु मार्ग में अवरोध हैं लेकिन अहंकार के बश में आकर इनसे दूर न भागो , भागनें वाला जितना भागता है उतना ही और फसता जाता है , यह सब मार्ग हैं , क्या बार बार मार्ग बदल कर कोई अपनें लक्ष्य तक पहुँच सकता है ?
गीता कहता है -------
भोग से भोग में तुम हो , संसार भोग से परिपूर्ण है तुम भाग कर जावोगे भी कहाँ , चाहे हिमालय पर जावो
या कहीं और, जहाँ भी तुम होगे , भोग में होगे अतः अच्छा होगा की अभी जहाँ तुम हो उसे समझनें का
यत्न करो । भोग एक माध्यम है जो एक तरफ़ नरक की ओर ले जाता है तो दूसरी ओर इस का दूसरा छोर प्रभु के आयाम में भी पहुंचाता है , निर्णय आप को करना है की आप को क्या प्रिय है ।
मनुष्य का जीवन एक अवसर है चाहे तो इसे यों ही गुजार दो या फ़िर इसके सहारे परमधाम को प्राप्त करो। एक छोटा सा गीता संदेश अपनें अन्दर बैठा लें ----राजस - तामस गुणों की पकड़ एक स्थूल पकड़ है और सात्विक गुण की पकड़ गहरी सूक्ष्म पकड़ है जिसको तोड़ कर आगे की यात्रा करना इतना आसान नहीं ।
जीवन गति आधारित है , अतः कहीं भी रुक जाना खतरनाक है अतः रुकावट से सावधान रहना , होश का दूसरा नाम है-- जो परमात्मा से जोड़ता है ।
=====ॐ======

गीता-ज्ञान ....13

वीतरागभयक्रोधा मन्मया मामुपाश्रिता:।
बहवो ज्ञानतपसा पूता मद्भावमागताः ॥ गीता श्लोक 4.10
श्लोक कहरहा है ......
राग, भय, क्रोध से अप्रभावित ब्यक्ति परमात्मा मय होता है ।
गीता में अर्जुन का प्रश्न तीन एवं चार काम उर्जा से सम्बंधित हैं और यह सूत्र प्रश्न चार से सम्बंधित है ।
यहाँ सूत्र से यह स्पष्ट होता है ....राग,भय एवं क्रोध साधना के अवरोध हैं लेकिन इनसे अप्रभावित कैसे
रहा जा सकता है ? राग , भय एवं क्रोध , भोग तत्त्व हैं जिनका अपना-अपना रस होता है और इन रसों में
सम्मोहन होता है जो भोग के चारों तरफ़ चक्कर कटवाता रहता है और इस चक्कर में जीवन उसे नहीं
पकड़ पाता जिसको पकड़ना जीवन का लक्ष्य है ।
राग,भय एवं क्रोध क्या हैं ?
राग-क्रोध के लिए आप देखें ...गीता सूत्र-2.62-2.63, 3.37, 6.27
इद्रिय - बिषय जब आपस में मिलते हैं तब मन में बायो-केमिकल परिवर्तन के फल स्वरूप मन में राग का रस बनता है जिस से आसक्ति बनती है , आसक्ति से कामना बनती है और कामना टूटनें का भय क्रोध पैदा करता है ।
राजस गुनके तत्त्व हैं ---राग , आसक्ति , कामना , क्रोध , लोभ और तामस गुन के तत्त्व हैं ---मोह भय तथा आलस्य । राजस गुन के तत्वों के प्रभाव में अहंकार परिधि पर होता है और दूर से दिखता है लेकिन -------
तामस गुन तत्वों के प्रभाव में यह सिकुड़ा हुआ केन्द्र पर होता है जिसको बाहर से नहीं देखा जा सकता ।
मनुष्य को एक निर्विकार उर्जा मिली हुई है जो भोग से परिपूर्ण संसार की हवा के प्रभाव में सविकार हो जाती है क्योंकि गुणों के तत्त्व उस निर्विकार उर्जा में आसानी से घुल जाते हैं ।
गीता श्लोक 4.10 के माध्यम से कहता है -----
राजस-तामस गुन प्रभु के मार्ग में अवरोध हैं , इनसे बचनें का उपाय करो । गीता सूत्र 3.37 कहता है --
काम का रूपांतरण क्रोध है और काम राजस गुन का प्रमुख तत्त्व है ।
राग एवं क्रोध राजस गुन के तत्त्व हैं और भय है तामस गुन का तत्त्व अतः गीता का इशारा सीधे इन दो गुणों की तरफ़ है ।
गीता ज्ञान का मुख्य बिषय है तामस गुन क्योकि परम श्री कृष्ण अर्जुन को युद्ध से पूर्व मोह मुक्त करना
चाहते हैं । कामना एवं मोह अज्ञान की जननी हैं और अज्ञान मनुष्य को इंसान से सैतान बना देता है ।
=====ॐ=====

Thursday, December 3, 2009

गीता ज्ञान - 12

श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः पर धर्मात्स्वनुष्ठितात
स्वधर्मे निधनं श्र्येय: पर धर्मो भयावह:----गीता सूत्र 3.35
हे अर्जुन! गुण रहित अपना धर्म सगुण पराये धर्म से उत्तम है , अपनें धर्म में मरजाना भी उत्तम है और
दूसरे के धर्म को धारण करनें में भय है ।
श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः पर धर्मात्स्वनुष्टितात
स्वभावनियतं कर्म कुर्वन्नाप्नोति किल्विषम ---गीता सूत्र 18.47
हे अर्जन! विगुण स्व धर्म सगुण पर धर्म से उत्तम है , अपनें धर्म में स्वभाव के अनुकूल कर्म होते हैं जिनमें
कोई पाप की संभावना नहीं होती ।
दोनों श्लोकों की पहली लाइन एक हैं और अंत का अक्षर हलंत है तथा दूसरे श्लोक की दूसरी लाइन का आखिरी अक्षर भी हलंत है ।
परम श्री कृष्ण का श्लोक 3.35 अर्जुन के प्रश्न - २ के सन्दर्भ में बोला गया है और प्रश्न कर्म एवं ज्ञान
से सम्बंधित है । गीता श्लोक १८.४७ अर्जुन के आखिरी प्रश्न [प्रश्न - १६ ] से सम्बंधित है और जिसका सम्बन्ध संन्यास-त्याग से है ।
आइये ! अब हम बुद्धि के आधार पर परम श्री कृष्ण की बातों को समझनें के लिए गीता के इन सूत्रों को देखते हैं -----
2.14, 2.45, 3.5, 3.17, 3.27, 3.33, 5.22, 8.3, 14.10, 18.38, 18.59, 18.60
गीता कह रहा है ---
मनुष्य में तीन गुणों का हर पल बदलता एक समीकरण होता है जो प्रकृति से ग्रहण की जानें वाली बस्तुओं से बदलता है । गुण कर्म के श्रोत हैं , ऐसे सभी कर्म भोग कर्म होते हैं ,जिनके सुख में दुःख का बीज होता है ।
गुणों से स्वभाव बनता है , स्वभाव से कर्म होता है । मन्दिर का निर्माण करवाना , यज्ञ करवाना से ले कर मदिरा पीनें तक - सभी गुण आधारित कर्म भोग कर्म हैं ।
गीता कहता है -----
भूतभावोद्भवकरो स: कर्मः और यह भी कहता है -------
स्वभावोअध्यातंम उच्यते --------
जो भावातीत की स्थिति दे , वह कर्म है और मनुष्य का मूल स्वभाव , अध्यात्म है ।
भावातीत में पहुँचा ब्यक्ति करता नहीं द्रष्टा होता है , द्रष्टा के अन्दर बहनें वाली उर्जा निर्विकार होती है जो
तब मिलती है जब अध्यात्म स्वभाव बन चुका होता है । निर्विकार उर्जा का संचारण तब होता है जब
भोग कर्मों में भोग तत्वों को जाना जाता है और साधना का यही काम है ।
महाभारत - युद्ध कौरव-पांडव के बीच हो रहा है , दोनों के अन्दर एक खून बह रहा है , दोनों एक परिवार के हैं , फ़िर वहाँ कौन अपना और कौन पराया है , दोनों के गुण समीकरण तथा मूल स्वभाव भी एक जैसा ही होना चाहिए
कौरव - पांडव में सभी राजस-तामस गुणों से प्राभावित हैं , कोई लोभ में है तो कोई मोह में , वहाँ मात्र एक
श्री कृष्ण ऐसे हैं जो सम भाव में हैं फ़िर परम श्री कृष्ण क्यों चाहते हैं की अर्जुन एक झेन फकीर के रूप में
भावातीत की स्थिति में युद्ध करें ।
श्री कृष्ण के लिए यह युद्ध एक नर्सरी है अर्जुन एक क्यारी हैं जिसमे परम श्री कृष्ण भावातीत का बीज रोपना चाहते हैं और यह भी समझते हैं की ऐसा मौका बार - बार नहीं मिलता तो क्यों न इसका प्रयोग किया जाए ।
आप और हम सब के लिए गीता परम श्री कृष्ण के सांख्य - योग का बीज देना चाहता है , क्या हमें उसे
अपनें में उगाना है ? यदि हाँ तो हो जाइए तैयार , यह गीता ज्ञान आप के साथ है ।
====ॐ=========

Monday, November 30, 2009

गीता-ज्ञान 10

कर्म-त्याग असंभव है ---------
गीता-श्लोक 3.4- 3.5 कहते हैं ..........
मनुष्य गुणों के प्रभाव में कर्म करता है अतः भौतिक स्तर पर कर्म रहित होना सम्भव नहीं और कर्म न करनें से कर्म की सिद्धि नहीं मिलती जो ज्ञान योग की परा निष्ठा है ।
गीता के इन श्लोकों में कर्म-योग का एक समीकरण है जिसको समझनें से गीता का कर्म स्पष्ट होता है और जो इस प्रकार से है ............
गुणों का प्रभाव कर्म-उर्जा को पैदा करता है तथा उसका संचालन भी करता है ।
कर्म रहित होना सम्भव नहीं , सभी गुणों के प्रभाव में होनें वाले कर्म भोग- कर्म होते हैं और ऐसे कर्म दोष पूर्ण भी होते हैं ।
कर्म गीता में संन्यास का माध्यम है और यह एक सहज माध्यम है । कर्म से बैराग्य तक की यात्रा तब
सम्भव है जब यह समझ आए की --------
[क] गुन क्या हैं ?
[ख] हम जो करनें जा रहे हैं उसका परिणाम क्या होगा ?
[ग] कर्म करनें के भाव से गुणों को समझनें का गहरा अभ्याश होना चाहिए ।
अब कुछ और बातों को भी देखते हैं ---------
मनुष्य के अंदर तीन गुणों का हर पल बदलता एक समीकरण होता है [गीता 14.10] जो मनुष्य को कर्म
करनें की उर्जा देता है । गुन एवं कर्म के संभंध को समझनें के लिए देखिये गीता के निम्न श्लोकों को ........
2.14, 2.45, 3.27, 3.33, 5.22, 18.11, 18.38 और अब आगे -----------
कर्म जब बिना आसक्ति के होते हैं तब उन कर्मों से सिद्धि मिलती है तथा जिस से ज्ञान की प्राप्ति होती है,यहाँ देखिये गीता श्लोक 18.49- 18.50, 3.19- 3.20 को ।
आसक्ति का कर्म में न होना बिषय पर आप खूब सोच सकते हैं और आप की सोच जितनी गहरी होगी ,परिणाम
उतना ही अच्छा होगा ।
कर्म-योग की सिद्धि क्या है ?
कर्म होनें के पीछे जब कर्म-तत्वों जैसे चाह, क्रोध, लोभ, अहंकार, मोह , भय आदि की अनुपस्थिति हो तब उस कर्म से सिद्धि का द्वार खुलता है ।
गीता-सूत्र 8.3 में परम श्री कृष्ण कर्म की परिभाषा इस प्रकार से देते हैं -------
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः कर्म संज्ञितः अर्थात ------
जिसके करनें से भावातीत की स्थिति मिले वह कर्म है ....अब आप उस परिभाषा पर नजर डालें जो
आप की अपनी परिभाषा है ।
====ॐ=======

Sunday, November 29, 2009

गीता ज्ञान - 9

गीता श्लोक 3.3 कहता है ---------
गीता का यह श्लोक कर्म एवं ज्ञान के सम्बन्ध में है क्योंकि अर्जुन का दूसरा प्रश्न इन दोनों को समझनें
के लिए होता है ।
गीता के इस सूत्र के माध्यम से परम श्री कृष्ण कहते हैं ........
दो प्रकार के योगी हैं ; एक का केन्द्र बुद्धि होती है और दूसरे का केन्द्र कर्म होता है ।
जो लोग बुद्धि मार्ग से साधना करते हैं उनको तत्व-ज्ञानी , सांख्य-योगी या ज्ञान - योगी का नाम दिया जाता है ।
प्रोफ़ेसर एल्बर्ट आइन्स्टाइन के सम्बन्ध में कहा जाता है की वे कई घंटे अपनें बाथ-टब में गुजारते थे जहाँ साबुन की झांक में उनको तारे दीखते थे और बाथटब में ब्रह्माण्ड दिखता था । यह महानतम वैज्ञानिक कहता है ----ज्ञान दो प्रकार का होता है ; एक मुर्दा ज्ञान है जो किताबों से मिलता है और दूसरा सजीव ज्ञान होता है जो चेतना से बुद्धि में बूँद-बूद टपकता है ।
बुद्धि का आधार है - तर्क और तर्क संदेह आधारित होता है । संदेह से श्रद्धा तक की ज्ञान मार्ग की यात्रा
बहुत कठिन यात्रा है और इस यात्रा में कामयाब होनें वालों को शादियों बाद देखा जाता है जो दुर्लभ योगी
होते हैं । शाश्रों को पढनें से ज्ञान की प्राप्ति होती है - यह कहना पुर्णतः सत्य नहीं है क्योकि गीता श्लोक
13.2 में परम श्री कृष्ण ज्ञान के सम्बन्ध में कहते हैं -------
क्षेत्र- क्षेत्रज्ञ का बोध , ज्ञान है। अब आप परम के छोटे से सूत्र को समझिये , जिसमें योग का प्रारम्भ ,
मध्य एवं अंत है । क्षेत्र क्या है ? विकारों के साथ अपरा- परा प्रकृतियों का योग , तीन गुनतथा आत्मा- परमात्मा से क्षेत्र की रचना है जिसमें निर्विकार आत्मा- परमात्मा को क्षेत्रज्ञ बताया गया है ।
गीता कहता है -----
परिधि से केन्द्र तक की अनुभूति से ज्ञान मिलता है अर्थात हम भोग से भोग में हैं , संसार भोग का माध्यम है , मनुष्य का जीवन भोग के चारों तरफ़ घूमता रहता है और इस चक्कर में वह आत्मा - परमात्मा से अपनें को दूर करता चला जाता है तथा इस भाग-दौर में एक दिन जीवन लीला का अंत आजाता है ।
भोग से बैराग्य तथा बैराग्य में आत्मा- परमात्मा की झलक पाना , मनुष्य के जीवन का उद्धेश्य है ।
कर्म - योग में कर्म की पकड़ की साधना, भोक कर्म को योग-कर्म में बदल देती है और योग कर्म के माध्यम से बैराग्य में योग - सिद्धि मिलनें पर आत्मा- परमात्मा का बोध होता है ।
====ॐ=======

Friday, November 27, 2009

गीता ज्ञान - 8

यहाँ गीता के निम्न श्लोकों को देखना है ---------
2.45, 2.60-2.64, 3.5-3.7, 3.27, 3.33-3.34, 3.37-3.40, 14.10, 16.21
न्यूटन का विज्ञानं कहता है ........
जब दो बस्तुएं एक दूसरे से दूर होती हैं तब उनके मध्य का खिचाव कम होनें लगता है और -------
कण विज्ञानं में क्वार्क्स के सम्बन्ध में कहा जाता है की जब दो क्वार्क्स को एक दूसरे से दूर करते हैं तब
उनके मध्य का खिचाव बढ़ जाता है ।
गीता के गुन विज्ञानं में जब गोता लगाया जाता है तब जो मिलता है वह इस प्रकार होता है -------
मन के अन्दर उठते न्यूरांस एवं बिषयों के मध्य की दूरी तथा उनके मध्य के खिचाव में सीधा अनुपात होता है
अर्थात जैसे - जैसे दूरी बढती है वैसे- वैसे उनके बीच का खिचाव भी बढता जाता है ।
गीता सूत्र 3.34 कहता है -------
बिषयों में छिपे राग- द्वेष इन्द्रियों को अपनी ओर खीचते हैं और गीता सूत्र 2.62-2.63 कहते हैं .........
बिषय-इन्द्रिय का मिलन मन में मनन पैदा करता है, मनन से आसक्ति आती है , आसक्ति से कामना
का जन्म होता है तथा कामना टूटनें पर क्रोध पैदा होता है ।
अब गीता सूत्र 3.37-3.40 तक पर नजर डालते हैं ............
गीता यहाँ कहता है --------
काम -कामना राजस गुन के तत्त्व हैं । क्रोध काम का रूपांतरण है जिसका सम्मोहन बुद्धि तक रहता है , क्रोध में बुद्धि में स्थित ज्ञान के ऊपर अज्ञान की चादर आजाती है , मन-बुद्धि अस्थिर हो जाते हैं और वह ब्यक्ति इस स्थिति में जो भी करता है वह पाप होता है ।
गीता सूत्र 3.6-3.7 को देखनें से पता चलता है की --------
कुछ लोग हठात इन्द्रियों को नियोजित करते हैं लेकिन ऐसा करनें से अहंकार सघन होता है और अहंकार
साधना में सब से बड़ा रुकावट है । इन्द्रियों से मैत्री बना कर मन स्तर पर नियोजित
करना चाहिए ।
गीता यह नहीं कहता की साधना को बंधन समझना चाहिए , साधना एक यात्रा है जिस पर मिलनें वाला हर
अनुभव अपना अलग रस टपकाता है और उस रस का आनंद उठाना चाहिए ।
======ॐ==========

Thursday, November 26, 2009

गीता-ज्ञान .....7

कामना रहित आत्मा से आत्मा में संतुष्ट , स्थिर - प्रज्ञ होता है ......गीता 2.55
अर्जुन का पहला प्रश्न गीता श्लोक 2.54 के माध्यम से स्थिर - प्रज्ञ से सम्बंधित है और ऊपर जिस बात को
परम श्री कृष्ण कह रहे हैं वह अगला श्लोक है ।
अब आप श्री कृष्ण की बात को देखनें के बाद इस बात पर सोचें की -------
[क] आत्मा से आत्मा में संतुष्ट रहना क्या है ?
[ख] क्या आत्मा ज्ञेय माध्यम है ?
[ग] क्या आत्मा को मन-बुद्धि स्तर पर जाना जा सकता है ?
जब इन प्रश्नों से संतुष्टि मिलेगी तब वह आयाम मिलेगा जिसमें ...........
पीठ तो होगी भोग संसार की ओर और नेत्र होंगे परम प्रकाश में तथा वह ब्यक्ति होगा-------
आत्मा से आत्मा में संतुष्ट ।
गीता कहता है ---योग सिद्धि पर ज्ञान के माध्यम से आत्मा का बोध ह्रदय में होता है और आत्मा अब्यक्त
एवं अचिन्त्य है [गीता श्लोक ...4.38, 13.24, 2.25] फ़िर परम श्री कृष्ण मोह में उलझे अर्जुन को क्यों
और कैसे सबसे पहले आत्मा को ब्यक्त करना चाहा है ?
आत्मा के लिए गीता के निम्न 23 श्लोकों को देखना चाहिए -------
2.18- 2.30, 10.20, 13.17, 13.32- 13.33, 15.7, 15.8, 15.11, 15.15, 14.5, 18.61
गीता ऊपर के श्लोकों के माध्यम से आत्मा की एक तस्बीर बनाता है जिसको बुद्धि स्तर पर समझना
आसान हो सके , आइये ! देखते हैं इस तस्बीर को --------
आत्मा विकार सहित देह में निर्विकार रूप में ह्रदय में है जो कुछ करता नहीं लेकिन इसके बिना कुछ
होना सम्भव भी नहीं । आत्मा देह में एक द्रष्टा है । आत्मा ह्रदय में परमात्मा है जो शरीर के कण-कण में है।
आत्मा आदि- अंत रहित है और स्थिर है । आत्मा किसी भी रासायनिक, भौतिक या जैविक बिधि से
न तो रूपांतरित किया जा सकता है और न ही बिभक्त किया जा सकता है । आत्मा देह समाप्ति पर मन के साथ गमन करता है । मन जब निर्विकार होता है तब आत्मा का फ्यूजन परमात्मा में हो जाता है और यदि मन
विकारों के साथ होता है तब वह आत्मा नया शरीर धारण करता है ।
स्थिर- प्रज्ञ यह नहीं समझता की वह आत्मा केंद्रित है क्योंकि उसके जाननें के माध्यम --मन-बुद्धि गुन रहित होते हैं । स्थिर प्रज्ञ द्रष्टा होता है [गीता श्लोक 14.19, 14.23 ] और वह संसार को भावातीत की स्थिति में देखता है ।
जब तन, मन एवं बुद्धि निर्विकार होते हैं तब वह ब्यक्ति परा साधना में पहुंचा होता है जहाँ से ज्ञान मिलता है [गीता श्लोक 18.50] और ह्रदय का द्वार खुलता है तथा वह साधक परम प्रकाश की किरणों को देख कर
धन्य हो उठता है ।
परम प्रकाश क्या है और उसको कौन देखता है ? एवं उसे कब प्राप्त करता है ? - -यह रहस्य एक ऐसा रहस्य है जिस पर ध्यान का
अस्तित्व टिका हुआ है ।
विकार से निर्विकार .....
बिषय से बैराग्य ..........
गुणों से गुनातीत ........
भावों से भावातीत ----
की यात्रा का नाम
गीता है ।
====ॐ========

Wednesday, November 25, 2009

गीता ज्ञान - 6

मोह के साथ बैराग्य नहीं मिलता -----गीता 2.52
गीता बुद्धि - योग की गणित है अतः सोचिये और चिंता रहित सोच में डूबिये क्योंकि .........
[क] भोग की चिंता का कारण अहंकर होता है , और ----
[ख] परम की चिंता सत की छाया होती है ।
अब आप इस बात पर सोच सकते हैं .......
अर्जुन कुरुक्षेत्र में क्या करनें गए हैं ?-----
१- बैरागी बननें के लिए या ------
२- राज्य की सत्ता प्राप्त करनें के लिए।
यदि कारण नम्बर -२ के लिए अर्जुन वहाँ हैं फ़िर परम श्री कृष्ण उनको युद्ध प्रारम्भ होनें से पूर्व
बैरागी क्यों बनाना चाहते हैं ?
बैराग्य क्या है ?
भोग - कर्मों में भोग-तत्वों की पकड़ से बच जाना ज्ञान प्राप्ति की ओर ले जाता है , ज्ञान से प्रकृति-पुरूष का बोध होता है , फलस्वरूप भोग- तत्वों की पकड़ समाप्त होती है जिसको कर्म-संन्यास कहते हैं ।
भोग- कर्मों में गुणों की छाया का न होना उन कर्मों को कर्म-योग बना देता है जिसके माध्यम से ज्ञान
मिलता है और ज्ञान बैराग्य में पहुँचानें का माध्यम है ।
अर्जुन का गीता में दूसरा प्रश्न [गीता श्लोक -3.1] के माध्यम से कर्म एवं ज्ञान से सम्बंधित है और पांचवा
प्रश्न गीता श्लोक 5.1 के माध्यम से कर्म-योग एवं कर्म-संन्यास से सम्बंधित है कर्म, कर्म-योग, कर्म-संन्यास , ज्ञान और बैराग्य का एक अटूट समीकरण है जिसको समझनें के लिए गीता के कम से कम निम्न श्लोकों को देखना चाहिए --------
2.52, 13.2, 4.38, 4.10, 13.7-13.11, 6.27, 5.1-5.4
कोई भी ब्यक्ति कर्म से बच नहीं सकता , कर्म तो करना ही है लेकिन कर्म करते समय भोग-तत्वों के प्रति होश बनाना कर्म-योग में पहुंचाता है , कर्म-योग की सफलता कर्म-संन्यास है , कर्म-संन्यास में ज्ञान की
प्राप्ति होती है जो भोग की ओर पीठ कर देती है और मुह बैराग्य की ओर हो जाता है और बैरागी
हर पल आत्मा पर केंद्रित रहता हुआ परमात्मा मय रहता है ।
गीता कहता है ------
तुम मेरे साथ रहो , मैं तेरे को कर्म से बैराग में पहुँचानें का काम करूँगा तेरे को बस मेरे मुताबिक बदलते रहना है और यह काम ऐसा है जिसको कोई नहीं चाहता।
जब तक पढनें से होना न हो वह पढ़ना अहंकार पैदा करता रहेगा और अहंकार अग्नि है।
गीता से जो मिलता है वह अवर्नातीत है लेकिन गीता से जो खोता है उसे कोई खोना नहीं चाहता --बस यही
कठिनाई हमें भटका रही है ।
===ॐ======

Tuesday, November 24, 2009

गीता-ज्ञान....5

गीता-श्लोक .....2.14
श्लोक कह रहा है ------बिषय एवं इन्द्रियों के योग से जो सुख-दुःख मिलता है वह सर्दी - गर्मी की तरह
अल्प कालीन होता है ।
श्लोक को समझनें के लिए हमें गीता के निम्न श्लोकों को देखना चाहिए ---------
5.22, 18.38, 3.34, अब इन श्लोकों को समझते हैं -------
श्लोक 5.22
इंदियों एवं बिषयों के मेल से जो प्राप्त होता है उसका नाम भोग है , भोग सुख में दुःख का बीज होता है और ऐसा
सुख क्षणिक होता है ।
श्लोक 18.38
इंडिय - बिषय के मिलनें वाला सुख राजस-सुख होता है । ऐसा सुख भोग के समय अमृत सा भासता है
लेकिन इस सुख में दुःख का बीज होता है।
श्लोक 3.34
बिषयों के अन्दर राग-द्वेष होते हैं जो इन्द्रियों को आकर्षित करते रहते हैं।
गीता के ऊपर बताये गए चार श्लोक कर्म-योग की नीव हैं , जो इन श्लोकों को नहीं पकड़ा , वह कर्म-योग को नहीं अपना सकता ।
गीता गुणों का विज्ञानं है , यह कहता है ---राजस-तामस गुन धारी भोगी होते हैं और गुणों से अप्रभावित
ब्यक्ति योगी होता है [ 7.3, 7.19, 14.19, 14.20, 14.23 और 9.12, 9.13, 16.8 को देखिये ]।
गीता-साधक को गुणों का रस प्रभावित नहीं करता , यह साधक गुणों के रस को भ्रम समझता है और भोगी के लिए ये परम लगते हैं ।
हमारी इन्द्रियाँ, संसार- जो भोग तत्वों से परिपूर्ण है , उसमें स्थित भोग तत्वों से आकर्षित होती हैं ।
आकर्षित इन्द्रियां मन-बुद्धि को भी प्रभवित करती हैं और इस प्रकार बिषय से बुद्धि तक भोग - तत्वों के
प्रभाव का एक माध्यम सा बन जाता है जिसको गुन धारी नहीं समझ सकता ।
संसार के भोग तत्वों की समझ, भोगी से योगी बना देता है और यह काम कर्म-योग का पहला चरण है ।
बिषय से वैराग तक की साधना बिषय, इन्द्रियाँ एवं मन तक तो मनुष्य के हाथ में है जो अभ्यास से
सम्भव है और आगे की यात्रा स्वतः होती है ।
बिषय से मन तक की गहरी साधना बैरागी बनाती है जो परमात्मा के द्वार को खोलती है ।
====ॐ=========

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