Monday, June 11, 2012

गीता में अर्जुन के आठवें प्रश्न का चौथा भाग

अर्जुन गीता में अपनें आठवें प्रश्न के चौथे भाग में पूछ रहे हैं:-------

अधिभूतं च किम् प्रोक्तम् [ 1 ] ? अधिदैवं किम् उच्यते [ 2 ] ? …... गीता श्लोक – 8.1

अधियज्ञ : कथं कः अत्र , देहे , अस्मिन् मधुसूदन [ 3 ]

प्रणयकाले च कथं ज्ञेयः असि नियतात्मभिः [ 4 ] …... गीता श्लोक – 8.2

भावार्थ

और अधिभूत क्या कहा गया है[1 ] ?अधिदैव किसे कहते हैं[ 2 ] ?

अधियज्ञ कौन है और इस देह में कैसे रहता है[ 3 ] ?और युक्त चित्त वाले पुरुषों द्वारा अंत समय में आप कैसे जानें जाते हैं[ 4 ] ?

ऊपर गीता के सूत्रों के जो अंश आप के सामनें हैं उनमें अर्जुन चार बातों को जानना चाह रहे हैं / यदि आप इन के सम्बन्ध में आदि शंकर , श्रीधर , रामानुज , माधवाचार्य , प्रभुपाद एवं सर्वपल्ली राधाकृष्णन जैसे कुछ प्रमुख दार्शनिकों की सोच को देखेंगे तो निम्न दो बातें दिखेंगी ----

[]भक्त हो कर भी लोग बुद्धि-तर्क के आधार पर गीता के सूत्रों को देखते हैं

[]सभीं लोग यह नहीं देखनें का प्रयाश किये कि प्रभु इन बिषयों पर गीता में अन्यत्र क्या कहा

है?अपितु शब्दों के आधार पर गीता को पुराणों के साथ जोड़ कर देखनें का यत्न

किया है/

अब देखिये प्रभु क्या उत्तर कितना स्पष्ट है

अधिभूतं क्षरः भावः ..... गीता 8.4 , पुरुषः अधिदैवतम् .... गीता 8.4

देहे अहम् अधियज्ञः ... गीता 8.4

अर्थात

सभीं क्षर अधिभूत हैं,अधिदैव पुरुष है,देह में अधियज्ञ मैं हूँ

दो शब्द हैं क्षर एवं अक्षर जो जन्म जीवन एवं मृत्यु चक्र से नियोजित हैं वे हैं क्षर और जो समयातीत है वह है अक्षर / तत्त्व स्तर पर क्षर कोई नहीं है और आकार रूप में कोई अक्षर नहीं है , इस बात को देखना होगा / जीवों के देह में आत्मा अक्षर है और देह क्षर है , यह बात तो सभीं हिंदू समझते हैं लेकिन क्या कभी आप देह को तत्त्व से देखनें का यत्न भी किया है ? उत्तर है नही / क्षर एवं अक्षर का योग है साकार जीव और प्रकृति - पुरुष का योग है यह देह , फिर प्रकृति क्या है ? और पुरुष क्या है ?

ऊपर आप देखे कि प्रभु कह रहे हैं , अधिदैव पुरुष है यहाँ पुरुष क्या है ? , इस बात को हम आगे चल कर देखेंगे / प्रकृति दो प्रकार की है ; अपरा और परा / अपरा में आठ तत्त्व है ; पञ्च महाभूत , मन , बुद्धि एवं अहंकार [ देखिये गीता - 7.4 , 7.5 , 7.6 ] और परा है चेतना जो जीव का एक माध्यम है /

आज इतना ही , अगले अंक में कुछ और बातें देखेंगे ----------






Tuesday, June 5, 2012

गीता में अर्जुन के आठवें प्रश्न का तीसरा भाग

गीता में अर्जुन अपनें आठवें प्रश्न में तीसरा उप प्रश्न कुछ इस प्रकार करते है :------

किम् कर्मः ? गीता सूत्र – 8.1

और उत्तर रूप में प्रभु कहते हैं … ...

भूतभावोद्भवकर : विसर्गः कर्मसज्ज्ञितः . गीता सूत्र – 8.3

अर्थात

भूतों में भाव उत्पन करनें के त्याग को कर्म कहते हैं

गीता के इस आंशिक सूत्र का अर्थ श्रीधराचार्य , आदि शंकर , रामानुज , सर्वपल्ली राधाकृष्णन एवं अन्य सभी लोग अलग अलग ढँग से लगाते हैं लेकिन इस सुत्रांश को समझनें के लिए कर्म से सम्बंधित गीता में दिए गए 180 श्लोकों को ध्यान से देखना होगा / कुछ लोग इस सुत्रांश का अर्थ यह भी लगाते हैं कि जीव उत्पन्न करनें की देह में जो ऊर्जा है उसे बनाए रखनें के लिए मनुष्य जो भी करता है उसे कर्म कहते हैं

लेकिन गीता-साधना से जो गुजरेगा वह कर्म की परिभाषा कुछ इस प्रकार से करेगा-------

भावों के माध्यम से निर्भाव की स्थिति में पहुंचनें के लिए मनुष्य को जो कुछ भी तन,मन एवं बुद्धि के सहयोग से करना होता है उसे कर्म कहते हैं/

गीता में कर्म को समझनें के लिए गीता के निम्न सूत्रों को एक साथ अवश्य देखना चाहिए … ......

8.3

3.5

18.11

18.48

3.27

3.28

3.33

18.59

1860

7.12

4.13

18.50

18.41

18.19

2.45

14.5

3.4

4.18

18.49

13.21

5.10

4.38

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कर्म इन्द्रियाँ एवं मन गुण तत्त्वों के प्रभाव में जो करते हैं उसे भोग - कर्म कहते हैं , सभी भोग कर्मों में दोष होते हैं लेकिन उनमें सहज कर्मों को करते हुए उनमें स्थिति गुण ऊर्जा को समझनें की साधान को कर्म - योग कहते हैं / गुण तत्वों के प्रभाव में बिषय एवं इंद्रिय के सहयोग से जो भी होता है वह भोग है और सभी भोग कर्म करते समय सुख का अनुभव कराते हैं लेकिन उनका अंत परिणाम दुःख देता है अर्थात भोग कर्म के सुख में दुःख का बीज पल रहा होता है /

कर्म साधना जब अपनें आखिरी सीढ़ी को पार करती है तब -----

कर्म में अकर्म दिखनें लगता है और अकर्म में कर्म दिखनें लगता है

कर्म स्वतः होते हैं और उन कर्मों का द्रष्टा भावातीत स्थिति में मन होता है और इन्द्रियाँ समभाव में रहती है/

==== ओम् ======


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