Sunday, July 31, 2011

गीता अध्याय पांच भाग दस

गीता अध्याय – 05 भाग – 10 का अगला चरण

गीता सूत्र –5.15

श्री कृष्ण कह रहे हैं …....

किसी के पाप – पुण्य को प्रभु नहीं ग्रहण करते लेकिन जो ऐसा नहीं समझते वे अज्ञानी होते हैं /

गीता सूत्र –5.16

यहाँ प्रभु कह रहे हैं …...

ज्ञान अज्ञान को ऐसे दूर करता है जैसे सूर्य का प्रकाश अँधेरे को दूर कर देता है //

अब इन दो सुत्रों के सम्बन्ध में गीता के दो और श्लोकों को देखते हैं ------

गीता श्लोक –4.38

योग सिद्धि का फल ज्ञान है //

गीता श्लोक –13.3

क्षेत्रज्ञ एवं क्षेत्र का बोध , ज्ञान है //

गीता सागर में आप जितना चाहें डूब कर मजा ले सकते हैं //


=====ओम========


Wednesday, July 27, 2011

गीता के एक सौ सोलह सूत्र अगला अंश

गीता के एक सौ सोलह सूत्रों का अगला अंश यहाँ आप देख सकते हैं -------

गीता सूत्र –14.19

तीन गुणों को करता देखनें वाला धृष्ट रूप में प्रभु में बसता है //

गीता सूत्र –14.22

तत्त्व वित्तु तीन गुणों की छाया से परे बसता है //

गीता सूत्र –14.25

कर्म में अकर्म एवं अकर्म में कर्म देखनें वाला संभव योगी गुणातीत होता है //

गीता सूत्र –5.24

वह जो अपनें अंदर परम आनंद एवं परम प्रकाश देखता है वह ब्रह्म निर्वाण में होता है //

गीता सूत्र –6.15

मन को ऐसा बना देना की उस पर प्रभु दिखानें लगे , उस मार ्ग का नाम है , ध्यान //

गीता सूत्र –3.27

करता भाव अहंकार की छाया है , गुण कर्म – करता हैं //

गीता एक ऐसा बिषय है जिसको सबनें अपनाया है चाहे वे भक्ति मार्गी हों या अद्वैत्य मार्गी . चाहे वे आदि शंकराचार्य हों या दर्शन शास्त्र के चिन्तक सर्वपल्ली राधाकृषनन , आखिर क्या है गीता में जो सब को अपनी ओर खीचता है ? आप इस प्रश्न के सम्बन्ध में सोचें //


=====ओम======


गीता अध्याय पांच भाग नौ

गीता अध्याय – पांच का अगला सूत्र -----

सूत्र –5.14

कर्म,कर्म करता भाव और कर्म फल की रचना प्रभु नहीं करते,यह सब स्वभाव जनित हैं//

यहाँ आप देखिये , श्री कृष्ण का प्रभु कौन है ? क्यों की अभी तक तो स्वयं को ही परम ईश्वर बता रहे थे , अब क्यों पभु शब्द का प्रयोग किया है ? एक बार पुनः सूत्र को देखिये … ..

न कर्तृत्वम् न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभु/

न कर्म फल संयोगं स्वभावः तु प्रवर्तते//

गीता में पग – पग पर उलझनें हैं जबकि गीता उलझनों को सुलझानें की गणित है/

यहाँ श्री कृष्ण कहते हैं , प्रभु कर्म , कर्म – कर्तापन एवं कर्म – फल की रचना नहीं करता अर्थात श्री कृष्ण प्रभु नहीं हैं और गीता में लगभग 80 श्लोकों में स्वयं को ब्रह्म , प्रभु महाकाल , परम ईश्वर कहते हैं / कर्म , कर्म कर्तापन एवं कर्म – फल की रचनाकार स्वभाव है , ऎसी बात श्री कृष्ण कह रहे हैं लेकिन आप क्या सोचते हैं ?

तीन गुणों के आपसी प्रतिक्रियाओं का फल है , कर्म जिसको वेदों में एवं गीता में कर्म विभाग एवं गुण विभाग के नाम से कहा गया है / गुण स्वभाव का निर्माण करते हैं , स्वभाव से कर्म होता है /

गीता आगे कहता है , गुण कर्म करता हैं करता भाव का होना अहंकार की छाया है /

प्रभु यहाँ तो कह रहे हैं,प्रभु कर्म की रचना नहीं करता लेकिन गीता में यह भी कहते हैं,तीन गुण एवं उनके भाव मुझ से हैं लेकिन उनमें मैं नहीं,मैं गुणातीत एवं भावातीत हूँ/

आगे आप बुद्धि - योग में गीता के इस सूत्र पर सोच सकते हैं , मैं तो मात्र एक इशारा सा कर रहा हूँ /


====ओम======


Sunday, July 24, 2011

गीता अध्याय पांच भाग आठ

गीत अध्याय पांच में हम आगे देखनें जा रहे हैं निम्न श्लोकों को ------

पिछले अंक में हमनें देखा था श्लोक – 5.13 को और अब इस श्लोक के सम्बन्ध में गीता के कुछ और सूत्रों को देखते हैं /

सूत्र – 2.60

यहाँ प्रभु कह रहे हैं …...

अर्जुन , मन आसक्त इन्द्रिय का गुलाम होता है //

mind is controlled by impetuous sense

सूत्र – 3.7

यह सूत्र कहता है …...

इन्द्रिय नियोजन मन से होना चाहिए //

senses should be controlled by the mind

सूत्र – 2.67

यह सूत्र कह रहा है ….

बिषय में आसक्त इन्द्रिय मन के माध्यम से प्रज्ञा को हर लेती है //

a sense attached to passion carries away Pragya [ the pure intelligence ] through mind


अब सोचना है इन बातों पर----

गीत कहता है … ..

मन इन्द्रियों का गुलाम है

इन्द्रियाँ मन माध्यम से प्रज्ञा को भी प्रभावित करती हैं

और

इन्द्रियों का नियंत्रण मन से होना चाहिए//

इस बिषय,इन्द्रिय,मन,बुद्धि एवं प्रज्ञा समीकरण को कैसे हल किया जाए?

बिषय के प्रति होश मय होना इन्द्रिय – निग्रह है

इन्ग्रिय निग्रह ही मन – योग है

मन – योग को ही अभ्यास – योग कहते हैं

मन अभ्यास योग में मन को आत्मा-परमात्मा कर केंद्रित करनें का अभ्यास करना होता है

शांत मन प्रभु का अंश है[इंडियाणाम् मनश्चास्मि]

शांत मन निर्विकार होता है

और निर्विकार मन ही प्रभु का द्वार है//


====ओम=======


Sunday, July 17, 2011

गीता अध्याय पांच भाग सात


गीता अध्याय – 05 के अगले सूत्र -----


गीता सूत्र –5.11


कर्म के तीन माध्यम हैं ; तन , मन एवं बुद्धि / योगी अपनें तन , मन एवं बुद्धि से जो भी करता है वह कर्म उसे और निर्मल बना देता है अर्थात … ...


योगी के सभी कर्म ब्रह्म से ब्रह्म में ब्रह्म के लिए होते हैं //


गीता सूत्र –5.12


कामना रहित कर्म मनुष्य को भोग से बाधते हैं और कामना रहित कर्म शांति का श्रोत है //


गीता सूत्र –5.13


सर्व कर्माणि मनसा संयस्य आस्ते सुखं वशी /


नव द्वारे पुरे देही न एव कुर्वन् न् कारएन् //


जिस योगी का मन कर्म में भाव रहित रहता हो उस योगी का आत्मा नौ द्वारे वाले देह में निर्विकार रहता है //


यह सूत्र कुछ संदेह पैदा करता है ;


गीता में अधिकाँश जगहों पर आत्मा को यह कहा गया है की यह कभीं विकार युक्त नहीं होता लेकिन एक ऐसे योगियों का भी दल है जैसे पतांजलि जो यह मानते हैं की आत्मा को निर्विकार बनाना केवल ध्यान से संभव नहीं हठ – योग से गुजरना जरूरी है और इस दर्शन के आधार पर हठ – योगियों नें एनेक विधियों को सामनें रखा / आत्मा के दो रूपो को यहाँ बताया जाता है ; परागात्मा [ वह जो भोग में आसक्त आत्मा होता है ] और प्रत्यगात्मा [ निर्विकार आत्मा ] // गीता का आत्मा - परमात्मा


करता एवं अकर्ता [ द्रष्टा ] दोनों हैं लेकिन ध्यान के लिए एक मार ग को ही अपनाना उत्तम रहता है /


गीता सूत्र –14.11


यहाँ प्रभु श्री कृष्ण कह रहे हैं … ...


सात्त्विक गुण में कोई योगी तब पहुँचता है जब उसके देह के सभीं द्वार बंद हो चुके होते हैं//


गीता के दो सूत्र;सूत्र- 5.13एवं सूत्र –14.11ध्यान के लिए परम सूत्र हैं,अगर आप को ध्यान में रूचि हो तो आप इन दो सूत्रों को पकड़ कर रखें//




====ओम=====


Friday, July 15, 2011

गीता अध्याय पांच भाग छः

गीता अध्याय पांच मे श्लोक 5.8 से 5.10 तक में तत्त्व वित्तु के सम्बन्ध मे बताया गया है /

यहाँ हम गीता के अन्य अध्यायों से कुछ अन्य सूत्रों को देखते हैं जिनका सीधा सम्बन्ध तत्त्व वित्तु से है /

सूत्र –18.51 – 18.55

ब्रह्म भूत योगी वह है जिसकी इन्द्रियाँ बश में हों , मन – बुद्धि शांत हों एवं संदेह रहित हों , जो काम , कामना , क्रोध , लोभ , मोह , भय , आलस्य एवं अहंकार रहित हो / तत्त्व वित्तु या ब्रह्म भूत योगी परा भक्त होता है /

सूत्र – 8.14 – 8.15

यहाँ भी लगभग वही बातें बतायी गयी हैं जिनको अभीं हम ऊपर देखे हैं /

सूत्र – 13.8 – 13.10

यहाँ प्रभु सूत्र – 18.51 – 18.55 तक की बातों को ग्यानी की पहचान के रूप में बता रहे हैं /

गीता सूत्र –16.1 – 16.3

यहाँ प्रभु कहते हैं … ...

मनुष्यों को दो श्रेणियों में देखा जा सकता है ; दैवी प्रकृति के लोग और आसुरी प्रकृति के लोग /

दैवी प्रकृति के लोगों की पहचान के सम्बन्ध में वही बातें बतायी गयी हैं जिनको आप ऊपर अभीं गीता सूत्र 18.51 – 18.55 के सन्दर्भ में देखा है //

गीता सूत्र –10.4 – 10.5

यहाँ प्रभु कहते हैं … ...

मेरी कृपा से समभाव एवं स्थिर – प्रज्ञता मिलाती है //

श्री नानकजी साहिब कहते हैं …...

पंचा का गुरू एक धियानु

होश मय रहना चाहते हो तो -----

ध्यान को अपना गुरू बना लो //

ध्यान में प्रभु के प्रसाद रूप में गुणातीत की मन – बुद्धि की स्थिति मिलती है जिसमें

परम सत्य का बोध होता है//


=====ओम========


Wednesday, July 13, 2011

गीता अध्याय पांच भाग चार


गीता अध्याय पांच के कुछ और सूत्रों को आज हम देख रहे हैं-------


गीता सूत्र –5.7


कर्म बंधनों से मुक्त योगयुक्त कर्म – योगी निर्विकार रहता है //


यहाँ इस श्लोक को भी देखते हैं------


गीता श्लोक –6.18


योगयुक्त योगी वह है जिसका मन शांत हो , इन्द्रियाँ तृप्त हों जो निस्प्रिय स्थिति में रहता हुआ कर्म करता हो और जो विकारों से मुक्त रहता हो //


गीता सूत्र –5.8 + 5.9


इन्द्रियों की क्रियाओं एवं इन्द्रियों का द्रष्टा स्वयं को इन्द्रियों से अलग देखनें वाला तत्त्ववित्त योगी होता है //


गीता सूत्र –5.10


आसक्ति रहित स्थिति में कर्म जिससे होते हैं वह कभी पाप नहीं कर सकता / ऐसा ब्यक्ति पाप कर्मों के मध्य ऐसे रहता है जैसे जल मे कमल का पत्ता रहता है बिना जल से प्रभावित रहते हुए //


यहाँ गीता के इस श्लोक को भी देखते हैं------


गीता श्लोक –18.48


कैसा कोई कर्म नहीं जो दोष मुक्त हो लेकिन सहज करों का त्याग करना उचित नहीं //


गीता को आप के समीप लाना मेरा काम है , मैं इस कोशिश में हूँ की लोग गीता को अपना मित्र बनाएँ और सत मित्र का दर्जा परम गुरू का दर्जा होता है //


गीता में प्रभु श्री कृष्ण कह रहे हैं …....


कर्म ही तेरा गुरू है-----


कर्म ही तेरी भक्ति है-----


कर्म ही ज्ञान गंगा है----


और ----


कर्म ही मुक्ति पथ है , फिर ऐसे में हे अर्जुन तुम कर्म से क्यों भाग रहे हो ?


कर्म से भागो नहीं , कर्म से बढ़ो नहीं , कर्म का रागी न बनो , कर्म का त्यागी न बनों , कर्म के उन तत्त्वों को समझो जो तुमको बंधक बनाना चाहते हैं और जब तुम ऐसा करनें में सफल हो जाओगे तब तुम कर्म सन्यासी स्वतः बन जाओगे //




=====ओम======


Monday, July 11, 2011

गीता अध्याय पांच का तीसरा भाग

गीता अध्याय पांच के अगले सूत्र ------

सूत्र –5.2 + 5.6 +[ 6.1, 6.2 ]

सूत्र – 5.6

बिना योग मे उतरे संन्यास में कदम रखना कष्ट प्रद होता है और बिना योग संन्यास में पहुँचना कठिन भी है //

सूत्र – 5.2

कर्म – योग एवं कर्म संन्यास दोनों मुक्ति पथ हैं लेकिन संन्यास से उत्तम कर्म योग है//

सूत्र –6.2

कर्म – योग एवं कर्म संन्यास दो नहीं एक के दो नाम हैं , संकल्प धारी कभीं योगी नहीं हो सकता //

गीता सूत्र – 6.1

कर्म त्याग एवं कर्म – ऊर्जा का प्रयोग न करना किसी को संन्यासी नहीं बनाता,कर्म में जब

कर्म – फल की सोच न आती हो तो वह कर्म कर्म योग होता है और वह कर्म – योगी,

कर्म सन्यासी होता है//

अब ऊपर दिए गए सूत्रों का सारांश देखें ….......

बिना कर्म – योग कर्म संन्यास संभव नहीं ----

कर्म में आसक्ति , कामना एवं अन्य भोग तत्त्वों की पकड़ का न होना ही

उन भोग तत्त्वों का संन्यास होता है ------

कर्म होनें में यदि संकल्प हो तो वह भोग कर्म होगा उस कर्म को कर्म योग बनानें में

गुण – तत्त्वों की पकड़ को ढीली करनी पड़ेगी //

कर्म - योग एवं कर्म संन्यास दो नहीं एक यात्रा के दो भाग हैं ;

कर्म योग से यात्रा प्रारम्भ होती है और कर्म संन्यास जब आता है तब वहाँ से अब्यक्त , अब्यय सनातन शाश्वत में छलांग भरनी होती है जो

कोई कृत्य नहीं स्वतः होती है //

गीता बुद्धि - योग की गणित है जिसकी समझ बुद्धि को शांत करके प्रभु के आयाम में

स्थिर कर देती है //

क्या कर रहें हैं ?

क्या करना है ?

कैसे करना है ?

क्यों करना है ?

इन सभी प्रश्नों की गणित का नाम है -----

गीता


====ओम=====


Thursday, July 7, 2011

गीता अध्याय पांच भाग दो


गीता अध्याय –05भाग एक में कुछ बातों को हमनें देखा अब अध्याय का प्रारम्भ हो रहा है और आप सादर आमंत्रित हैं लेकिन आप से एक प्रार्थना है,आप अपनें मन को अपनें साथ न रखें तो अच्छा रहेगा और आप गीता में खूब मजा ले सकते हैं/


गीता सूत्र 5.1


अर्जुन कह रहे हैं------


आप पहले कर्म – संन्यास की बात करते हैं और फिर कर्म – योग की,आप कृपया मुझे यह बाताएं कि इन दोनों में मेरे लिए कौन सा उत्तम रहेगा?


Arjuna says ------


sometimes you praise renunciation of actions and somethimes you talk about karma – Yoga , you may please tell me which one out of these two would be better for me ?


कर्म – योग और कर्म – संन्यास में अर्जुन भ्रमित हो रहे हैं और ऐसा होना स्वाभाविक भी है/


अध्याय तीन में अर्जुन ज्ञान-कर्म के सम्बन्ध मे प्रभु की बातों को सूना और अध्याय चार में कर्म योग एवं कर्म संयाय से सम्बंधित कुछ बातों को भी सूना और सब उननेंके बाद अब यहाँ अर्जुन कह रहे हैं कि आप मुझे स्पष्ट रूप से बाताएं की कर्म – योग और कर्म संन्यास मे उत्तम कौन सा है विशेष तौर पर मेरे लिए


प्रश्न तो सीधा है लेकिन उत्तर बहुत ही टेढा लेकिन गीता समाप्ति पर जो बात सामनें आती है वह इस प्रकार की होती है;


कर्म में कर्म की पकड़ों की अनुपस्थिति उस कर्म को कर्म योग में बदल देती है//


कर्म योग में उतरा योगी धीरे-धीरे सभीं बंधनों को पार कर जाता है जिसको कहते हैं कर्म संन्यास//


कर्म संन्यासी को कर्म में अकर्म और अकर्म में कम दिखता है//


कर्म संन्यामे बिना कर्म – योग उतरना अति कठिन है//


कर्म में भोग तत्त्वों की पकड़ का न होना ही कर्म संन्यास है क्योंकि ….


पूर्ण रूप से कर्म का त्याग हो नहीं सकता//


कर्म कर्ता मनुष्य नहीं मनुष्य स्थित गुण समीकरण होता है//


गुण समीकरण स्वभाव का निर्माण करता है//


स्वभाव से कर्म होता है//


मनुष्य तो कर्म का द्रष्टा है//




=====ओम=====


Friday, July 1, 2011

गीता अध्याय पांच

अब हम गीता अध्याय पांच में उतर रहे हैं लेकिन उतरनें से पहले हम अपनी पिछली यात्रा

को एक बार देखते हैं------

[]अध्याय एक में अर्जुन की बातों से मोह की झलक दिखती है[देखिये सूत्र –1.28 – 1 30 ] /

[]मोह की दवा के रूप में प्रभु आत्मा का प्रयोग करते हैं अध्याय –02में लेकिन इसका

कोई असर अर्जुन पर नहीं पड़ता बल्कि अर्जुन प्रभु की बात को सुन कर[सूत्र –2.53 ]एक नया

प्रश्न बना लेते हैं-स्थिर – प्रज्ञ की पहचान क्या है?

[]अध्याय तीन में अर्जुन के दो प्रश्न हैं;कर्म और ज्ञान में मेरे लिए कौन सा उत्तम है?और

मनुष्य न चाहते हुए भी पाप क्यों करता है?

[]अध्याय चार में अर्जुन का एक प्रश्न है-आप तो वर्तमान में हैं और सूर्य का जन्म सृष्टि

के प्रारम्भ में हुआ था फिर आप उनको काम – योग की शिक्षा कैसे दिए होंगे?

अब अधय –05में आकार अर्जुन पूछ रहे हैं …..

कर्म संन्यास एवं कर्म – योग में उत्तम कौन सा है?

एक बात याद रखना------

जबतक बुद्धि में प्रश्न हैं तबतक बुद्धि में संदेह रहता है

जबतक बुद्धि में संदेह हैं तबतक वह बुद्धि सत्य को पकड़ नहीं सकती

श्रद्धा से सत्य की समझ आती है

और संदेह से भोग की उलझन मिलती है//

मनुष्य पहले औरों को झोखा देना सीखता है फिर अपनें को धोखा देनें लगता है और ….

मनुष्य अबसे अधिक धोखा प्रभु को देता है//

अर्जुन भी साकार श्री कृष्ण को धोखा दे रहे हैं;एक तरफ भगवान कहते हैं और दूसरी तरफ झूठ

के सहारे उनको खुश रखना चाहते हैं/गीता में अर्जुन कभीं भी श्री कृष्ण को परम ब्रह्म का

आश्रय नहीं समझते और गीता का अंत आ जाता है//

अब हम अगले अंक में गीता अध्याय –05के29श्लोकों को एक – एक करके देखेंगे//


=====ओम=====




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