Saturday, December 29, 2012

गीता ज्ञान - 04

गीता श्लोक - 13.13 + 13.14

सर्वतः पाणिपादं तत् सर्वतोऽक्षिशिरोमुखं 
सर्वतः श्रुतिमत् लोके सर्वं आवृत्य तिष्ठति 

सर्व इन्द्रिय गुण आभासम् सर्वे इंद्रिय विवार्जितम् 
असक्तं सर्वभूत् च एव निर्गुणं गुणभोक्तृ च 

भावार्थ 

वह संसार में सब को ब्याप्त करके स्थित है ---
उसकी इन्द्रियाँ सर्वत्र हैं 

वह इंद्रिय रहित है , लेकिन ----
सभीं इंद्रिय बिषयों को समझता है 
वह आसक्ति रहित है , लेकिन ---
सबका धारण  - पोषण कर्ता है 
वह निर्गुण है , लेकिन ---
गुण भोक्ता है 

गीता इन दो सूत्रों के माध्यम से निराकार को साकार माध्यम से इस सहज ढंग से स्पष्ट करता है जिससे इन दो सूत्रों पर मनन करनें वाले के अंदर :.......
निराकार 
निर्गुण 
की समझ जग उठे 

गीत में प्रभु के 552 श्लोकों में आप को जो मिलेगा उसका सम्बन्ध ----

न्याय , मिमांस , भक्ति , वैशेषिक , योग एवं वेदान्त से गहरा है लेकिन इन सबको आओ एक साथ कैसे पकड़ सकते हैं , आप को सोचना होगा की आप इन में से किसको अपनाते हैं और एक बार बस एक बार जब आप का मार्ग तय हो जाएगा तब आप उस मार्क से जहाँ पहुंचेगे अन्य मार्गों से भी लोग वहीं पहुंचाते हैं
 जहाँ :----
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड उस एक के फैलाव स्वरुप दिखता है और वह ब्राह्मण के कण - कण में दिखनें लगता है पर आप  इस अनुभूति को ब्यक्त न कर सकेंगे /

======= ओम् =====

Saturday, December 22, 2012

गीता ज्ञान - 03

गीता श्लोक 2.11 से गीता श्लोक 2.30 तक

गीता के इन 20 श्लोकों के माध्यम से प्रभु श्री कृष्ण अर्जुन को किस दिशा की ओर ले जाना चाह रहे हैं ?
अध्याय - 01 एवं अध्याय - 02 के प्रारम्भ में अर्जुन की बातों को सुननें तथा उनको देखनें से प्रभु को उस राज की मूल दिख जाती है जिसके प्रभाव में अर्जुन युद्ध न करनें की बात पकड़ रखी है और वह जड़ है - मोह का सम्मोहन /
गीता श्लोक - 1.27 से गीता श्लोक - 1.30 में अर्जुन जो बातें कह रहे हैं वे मोह के लक्षण हैं और इन बातों को सुननें के बाद प्रभु अर्जुन को मोह मुक्त कराना चाहते हैं / अर्जुन यहाँ इन श्लोकों में कहते हैं :-----
  • मेरे अंग कॉप रहे हैं
  • मेरा गला सूख रहा है
  • मेरे अंग शिथिल हो रहे हैं
  • मुझे रोमांच हो रहा है
  • त्वचा में जलन हो रही है
  • मेरा मन भ्रमित हो रहा है
प्रभु अपनें गीता श्लोक - 2.11 से 2.30 के मध्य ऎसी बातों को बता रहे हैं जिनकी समझ उसे होती है जो -----
  1. स्थिर प्रज्ञ योगी होता है
  2. ज्ञानी होता है
  3. जो वैराज्ञ को पार करके गुणातीत की स्थिति में होता है
  4. जिसको समाधि का परम रस मिला हुआ होता है

अब आप सोचें , इस बिषय पर की क्या ------

एक मोह में डूबा ब्यक्ति आत्मा , परमात्मा , स्थिर प्रज्ञता , गुणातीत की स्थिति को , वैराज्ञ को , ज्ञान को , परम प्रकाश को समझ सकता है ?

प्रभु गीता श्लोक - 2.11 से 2.30 में कहते हैं ......

इंद्रिय - बिषय के संयोग की निष्पत्ति अनित्य एवं विनाशशील होती  है
सत् की कोई कमी नहीं और असत्य का अपना कोई अस्तित्व नहीं
आत्मा , अचिन्त्य , अप्रमेय , अघुलनशील , अदाह्य , अशोष्य , अविभाज्य है / आत्मा अनादि है , आत्मा सनातन है , आत्मा अति सूक्ष्म है और आत्मा परमात्मा ही है / आत्मा को कोई शस्त्र काट नहीं सकते , अग्नि इसे जला नहीं सकती , जल इसे गला नहीं सकता , वायु इसे सुखा नहीं सकती और आत्मा अचल स्थिर है / आत्मा जीर्ण देह को त्याग कर नया देह धारण करती है /
ज्ञान - योग की गंभीर बातों को सुननें के बाद अर्जुन के मन - बुद्धि में बह रही मोह प्रभावित तामस गुण की ऊर्जा की आबृति बढ़ जाती है और वे प्रश्न करना प्रारम्भ करते हैं /
प्रश्न संदेह के लक्षण हैं ,
संदेह अज्ञान की उपज है ,
 अज्ञान राजस एवं तामस गुणों की ऊर्जा से उत्पन्न होता है
 जो ज्ञान को ढक कर रखता है /

एक बात :

ज्ञान प्राप्ति के लिए कुछ करना नहीं होता .....
सभीं मनुष्य ज्ञानी रूप में पैदा होते हैं .....
संसार में ब्याप्त भोग की हवा उनके ज्ञान को ढक लेती है
अज्ञान का बोध ही ज्ञान है
ज्ञान वह ऊर्जा है जिससे परम सत्य दिखता है
==== ओम् ======

Saturday, December 15, 2012

गीता ज्ञान - 02

कुरुक्षेत्र में प्रभु श्री कृष्ण अर्जुन को कहते हैं :
" अर्जुन !  तुम कामना रहित मन - बुद्धि के साथ युद्ध कर "
कामना रहित स्थिति में मन  - बुद्धि का होना क्या है ?
साधना , योग , तप , सुमिरन और ध्यान , जितनें भी मार्ग हैं जो प्रभु से पहचान कराना चाहते हैं , उनका मात्रा एक लक्ष्य है और वह है , कामना रहित स्थित में मन - बुद्धि को पहुंचाना /
जब मनुष्य का मन - बुद्धि फ्रेम कामना रहित हो जाता है तब उस फ्रेम पर जो होता है उसे प्रभु कहते हैं और उसे देखनें वाले को चेतना /
चेतना वह है जिसके पास कोई ऐसा माध्यम नहीं की वह जो देख रही  है उसे अन्यों को बता सके /
चेतना जब प्रभु को देखती है त्योंही वह ब्यक्ति स्वयं प्रभु मय हो उठता है /
==== ओम् ====

Sunday, December 9, 2012

गीता ज्ञान -01

योग और भोग 

गीता [ श्लोक - 4.1 , 4.2 , 4.3 ] में प्रभु कहते हैं :

" मैं इस अबिनाशी योग को सूर्य को बताया था , सूर्य अपने पुत्र वैवस्वत मनु को बताया , मनु अपनें पुत्र इक्ष्वाकु  को बताया , इस प्रकार परम्परागत यह योग राज ऋषियों  तक पहुंचा लेकिन बाद में  धीरे - धीरे लुप्त होता गया / तुम मेरा भक्त एवं सखा हो अतः आज मैं इस योग को तुमको बताया है "  /
यह बात द्वापर की है और प्रभु स्वयं कह रहे हैं और योग की शिक्षा अर्जुन को दे रहे हैं पर अर्जुन प्रभु की बात पर संदेह करते हैं , उनको विश्वास नहीं हो रहा और आज की स्थिति क्या है ? इस बात पर आप सोचो /
मनुष्य मात्र एक ऐसा जीव है जो योग - भोग के मध्य एक साधरण पेंडुलम की भांति घूम रहा है / मनुष्य को जब पता चलता है कि कोई योगी उसकी बस्ती में आया है तो तुरंत भागता है , उसकी ओर लेकिन जब वह वहाँ पहुँच जाता है तब भोग उसे वापिस खीचनें लगता है , उसे उस घडी तरह - तरह की बाटें याद आनें लगती हैं और वह फ़ौरन वहाँ से भागता है अपनें भोग कर्म की ओर / 
मनुष्य का जीवन दो केन्द्रों वाला है  ; एक मजबूत केंद्र है भोग और दूसरा कमजोर केंद्र है योग / ज्यामिति में ऎसी आकृति जिसके  दो केंद्र हों उसे इलीप्स कहते हैं जो अंडाकार होता है / आप स्वयं को देखना ; जब आप  पूजा में बैठते हैं तब आप को चैन नहीं , देह के उस भाग में खुजली होनें लगती है जहाँ पहले कभीं नहीं हुयी होती , परिवार के लोगों पर ऎसी साधारण सी बातों पर आप गर्म हो उठते हैं जिन पर पहले कभीं नहीं क्रोधित हुए होते , आखीर ऐसा क्यों होता है ? 
योग का अर्थ है , प्रभु की ओर रुख करना
भोग का अर्थ है प्रभु को पीठ पीछे रखना और जो दिखे उसे बटोरना

गीता [ श्लोक - 2.69 ] में प्रभु कहते हैं :------

या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी 
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने : 
" वह जो सब के लिए रात्रि सामान है , वह योगी को दिन सा दिखता है
और जो योगी को रात्रि सा दिखता है वह अन्य को दिन सा प्रतीत होता है "
भोगी और योगी की यह है परिभाषा / 
सभीं जीव भोग योनि में हैं जो मात्रा भोग के लिएबनाए गए हैं  ; भोग अर्थात काम और भोजन के लिए बनाए गए हैं लेकिन मनुष्य के सामनें जो दिखता है वह इस प्रकार है ----

  • भोग से भोग में मनुष्य का अस्तित्व है 
  • भोग में होश बना कर योग में कदम रखना उसका मार्ग  है 
  • योग में आखिरी श्वास भरते हुए परम पद की ओर चलना उसका आखिरी लक्ष्य है 
  • भोग एक माध्यम है जो योग में बदल जाता है और योग प्रभु को दिखाता है /

==== ओम् =====



Monday, December 3, 2012

गीता के तीन मोती

गीता श्लोक - 4.38 

कर्म - योग की सिद्धि में ज्ञान की प्राप्ति होती है 

गीता श्लोक - 4.18

कर्म - योग सिद्धि के बाद कर्म अकर्म और अकर्म कर्म सा दिखानें लगता है 

गीता श्लोक - 13.2

क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का बोध , ज्ञान है 
*     Fruit of the  perfection of action - yoga  is wisdom .
**   A man of wisdom sees inaction in action and action in inaction .
*** Awareness of physical body with its elements and the Supreme One is wisdom .

Elements of physical body of a living one ----

[a] 10 senses [ इन्द्रियाँ ] 
[b] 05 subjects [ बिषय ] 
[c] mind , intelligence and ego [ मन , बुद्धि , अहँकार ] 
[d] 05 Basic elements [ पांच महा भूत ] 
[e] Immutable - Unchanging One [ अब्यय ] 
ध्यान के लिए आज इतना ही
==== ओम् =====

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