Monday, November 26, 2012

गायत्री और जपजी का मूल मन्त्र


  • मूल  मंत्र का प्रारम्भ एक ओंकार से है और गायत्री का प्रारम्भ है
  • एक ओंकार [] वेदों का आत्मा है और एक ओंकार श्री ग्रन्थ साहिब का आत्मा भी है
  • मूल मंत्र आदि गुरु नानकजी साहिब के ह्रदय में भरे परम अब्यक्त भाव का वह अंश हैं जो आंशिक रूप से जपजी के नाम से ब्यक्त हो पाया है
  • गायत्री ऋग्वेद में ऋषि विश्वामित्र रचित मन्त्र है
  • मूल मंत्र को समझनें के लिए आदि गुरु जैसा ह्रदय चाहिये न की संदेह से भरी बुद्धि और गायत्री को समझनें के लिए विश्वामित्र जैसा ह्रदय 
  • मूल मंत्र गीता में परम श्री कृष्ण के उन पांच सौ बावन  श्लोकों का सार है जिनको परम प्रभु अर्जुन को मोह मुक्त करानें के लिए बोलते हैं
    और जपजी के मूल मन्त्र में आदि गुरु श्री नानक जी साहिब वह परम अब्यक्त भावातीत भाव है जिमें वे जीवन भर बहते रहे 
    =एक ओंकार 

Thursday, November 15, 2012

गीता दर्शन - 1

गीता श्लोक - 7.27
इच्छा द्वेष समुत्थेन द्वंद्वमोहेन भारत 
सर्वभूतानि सम्मोहम् सर्गे यन्ति परंतप 
प्रभु श्री कृष्ण सीख दे रहे हैं :-------
इच्छा - द्वेष से उत्पन्न द्वंद्व एवं मोह हैं .....
इन भोग तत्त्वों से सभीं सम्मोहित हैं .......
ये तत्त्व अज्ञान की पहचान हैं /
Desire and aversion germinate delusion of duality .....
And these elements are passionate elements ......
Which are symptoms of Agyana [ ignorance ] 
=== ओम् =====

Friday, November 9, 2012

गीता सूत्र - 18.2

गीता श्लोक 18.2 कहता है -----
" काम्यानां कर्मणाम् न्यासं इति संन्यासं "
अर्थात
काम्य कर्मों का त्याग ही कर्म संन्यास है 
क्या हैं काम्य कर्म ?
काम्य शब्द काम से बनता है और काम से कामना शब्द का जन्म होता है / ऐसे कर्म जिन केहोनें के  पीछे किसी न किसी तरह भोग - भाव छिपा हो उनको काम्य कर्म कहते हैं , यह बात गीता में तब  दिखती है जब गीता  में बसेरा बना लिया गया हो /
आसक्ति , कामना , क्रोध , लोभ , मोह , भय , आलस्य एवं अहँकार - ये हैं गुण तत्त्व जिनको कर्म बंधन भी कहते हैं ; जब इन में से किसी एक के सहारे कोई कर्म होता है तब उस कर्म को काम्य कर्म कहते हैं चाहे वह कर्म पूजा सम्बंधित ही क्यों न हो / 
वहाँ जहाँ चाह है 
वहाँ प्रभु की राह बंद रहती है 
और 
मनुष्य जब चाह रहित होता है तब सामनें प्रभु का द्वार खुला हुआ दिखता है /
==== ओम् ======

Monday, November 5, 2012

गीता की दो बूँदें

गीता सूत्र - 14.7
राग - रूप राजस गुण के तत्त्व हैं
गीता सूत्र - 2.65
राग - द्वेष रहित प्रभु - प्रसाद प्राप्त ब्यक्ति होता है
ऊपर के सूत्रों में तीन बातें हैं ------
 राजस गुण , राग - रूप एवं द्वेष ,
 आइये देखते हैं इन शब्दों को, गीता दृष्टि से ----
तीन गुण सात्त्विक , राजस एवं तामस प्रभु से हैं लेकिन प्रभु स्वयं गुणातीत है / सात्त्विक गुण में मन - बुद्धि संदेह रहित निर्मल संसार के द्रष्टा के रूप में होते हैं और राजस- तामस गुण संदेह युक्त बुद्धि रखते हैं / प्रभु की प्रीति में सात्त्विक गुण रखता है , भोग की ओर राजस गुण  सम्मोहित करता है और तामस गुण न सात्त्विक और न ही राजस की ओर रुख करनें देता /
 सात्त्विक गुण में समभाव  की स्थिति में मन - बुद्धि होते हैं , राजस गुण में अहँकार परिधि पर होता है और मनुष्य अपनें कद को खीच - खीच कर लंबा दिखाना चाहता है जबकी तामस गुण में मनुष्य सिकुड़ा हुआ होता है , भय में डूबा हुआ /
आसक्ति , काम , कामना , क्रोध , लोभ , मोह , भय और अहँकार रहित सात्त्विक गुण धारी समयातीत आयाम में रहता हुआ भोग संसार का द्रष्टा बना  हुआ परम आनंद में मस्त रहता है /
==== ओम् ======= 

Thursday, November 1, 2012

गीता के दो सूत्र

गीता सूत्र - 3.34
बिषय राग - द्वेष ऊर्जा से परिपूर्ण हैं 
गीता सूत्र - 2.64
राग - द्वेष से अप्रभावित अनन्य भक्त होता है 
पांच ज्ञानेन्द्रियाँ है और उनके अपनें - अपनें प्रकृति  में स्थित बिषय हैं / गुण प्रभावित ब्यक्ति का मन उसकी इन्द्रियों का गुलाम होता है और उसकी बुद्धि उस के  मन का गुलाम होती है / गुण प्रभावित ब्यक्ति अर्थात भोगी की इन्द्रियाँ बिषयों की तलाश में रहती हैं और जब किसी इंद्रिय को उसका बिषय मिल जाता है तब वह उसमे रमना चाहती है / बिषय में स्थित राग - द्वेष  की ऊर्जा गुण प्रभावित के इंद्रिय को सम्मोहित कर लेती  है / इंद्रिय से सम्मोहित इंद्रिय मन को अपनें बश में रखती है और वह मन बुद्धि को अपनें बश में रखता है , इस प्रकार उस ब्यक्ति के मन - बुद्धि क्षेत्र में अज्ञान सघन हो कर  ज्ञान को ढक लेता है /
अनन्य भक्त वह है जो परमात्मा में बसा होता है 
गुण , बिषय , इंद्रिय , मन एवं बुद्धि के आपसी सम्बन्ध को आप यहाँ देखे
 अब समय है गीता के इन दो सूत्रों पर ध्यान करनें का ........
==== ओम् ======

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