Monday, May 20, 2013

गीताज्ञान - 20

मन - बुद्धि और भगवान 

गीता में प्रभु कहते हैं :-----

[क] दो प्रकार की बुद्धि है ....
[ख] जिस बुद्धि में  भोग बसता है उस बुद्धि में मैं नहीं बसता ...
[ग] भोग और भगवान एक साथ एक बुद्धि में नहीं बसते .....
और 
भागवत पुराण के प्रारम्भ में कुंती कहती है :---
इंद्रियों के माध्यम से हम जहां तक पहुँचते हैं उसके तह में परमात्मा बसता है 
एवं
 गीता में प्रभु यह भी कहते हैं :----
बुद्धिमानों की बुद्धि , मैं हूँ //

ऊपर  दी गयी बातें हमें किधर संकेत दे रही हैं ?

मूलतः बुद्धि तो एक है ....
बुद्धि जब बासना से प्रभावित होती है तब उस बुद्धि को प्रभु कृष्ण गीता  में अनिश्चयामिका बुद्धि कहते हैं / यह बुद्धि गुणों के प्रभाव में भोग को परम समझनें लगती  है और वह ब्यक्ति योग नहीं भोग आश्रित हो जाता है /
दूसरी स्थिति ठीक इसके विपरीत की है जहाँ बुद्धि निश्चयात्मिका बुद्धि होती है जो भोग में भी भगवान की झलक देखती है /
निर्विकार और गुणों से अप्रभावित बुद्धि , बुद्धिमानों की बुद्धि होती है जिसका केंद्र भोग नहीं भगवन होता है /

बिषय ...
से इंद्रियों का नियंत्रण 
इंद्रियों के प्रति होश ....
मन के प्रति होश बनाता है 
और मन का होश निर्विकार बुद्धि के होनें का  कारण है 
तथा ...निर्विकार बुद्धि का केन्द्र भगवान होता है //

=== ओम् ====

Monday, May 6, 2013

गीता ज्ञान - 19

इन्द्रियाँ , बुद्धि , चेतना और आत्मा
गीता और अन्य भारतीय दर्शन से जुड़े हुए  साहित्य को पढ़ते समय ऊपर दिए गए शब्द  बार - बार दिखते हैं  आइये आज हम इनको समझते हैं ।
* 11 इन्द्रियाँ ( 5 ज्ञान + 5 कर्म + 1 मन ) , बुद्धि चेतना और आत्मा का आपसी गहरा सम्बन्ध है ।
* दस इन्द्रियाँ जहां मिलती हैं उस जोड़ को मन कहते हैं । मन दोनों प्रकार की इन्द्रियों का नियंत्रक है लेकिन इसे नियंत्रण करनें की उर्जा बुद्धि से मिलती है ।
* बुद्धि को उर्जा चेतना से मिलती है और चेतना का सीधे सम्बन्ध आत्मा से है ।
* विकार रहित इन्द्रियाँ निर्विकार मन जे साथ होती हैं औए निर्विकार मन निश्चयात्मिका बुद्धि के होने का माध्यम है । चेतना और आत्मा कभीं भी सविकार नहीं होती । बिषय , इन्द्रिय एवं मन तक का तंत्र साधना से नियंत्रित होते  हैं लेकिन मन के ऊपर बुद्धि , वुद्धि के ऊपर चेतना और चेतना के ऊपर आत्मा का सीधे साधनाओं से सम्बन्ध नहीं होता ।
       मनुष्य मात्र एक ऐसा प्राणी है जो गुणों को समझ कर किसी भी साधना के माध्यम को अपना कर अपनें मन तंत्र जो निर्विकार बना कर प्रभुमय हो सकता है ।
*** ॐ ***

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