Thursday, April 30, 2009

जागो रे

छोटे गोदी के बच्चे की भाति हम भारतीय कहानियां सुनानें एवं सुननें में आनंद लेते हैं और
कहानियों से विज्ञान , पश्चिम में निकलता है----ऐसा क्यों ?
१- भारत सूर्य के सात अलग-अलग रंगों के घोडों की कहानियां हजारों वर्षो से सूना रहा है और पश्चिम के लोग
सूर्य की किरण में red,orange,yellow,green,blue,indigo,violet सात रंगों की अलग - अलग सात
किरणों को खोज निकाला ।
२- भारत हजारों वर्षों से परम-प्रकाश की बात सारेविश्व को बता रहा है लेकिन प्रकाश की गति को नापा पश्चिम
के लोगों ने और इसका पूरा विज्ञान विकशित किया ।
३- गीता सूत्र 13.15 परमात्मा के सम्बन्ध में वही बात बताता है जो बात Heisenberg अपनें इलेक्ट्रोनके
Law of uncertainity में बताई है ।
४- गीता सूत्र 15.13 में ग्रेविटी की बात बताता है । राम- रावण युध्य तथा महाभारत युध्य में अनेक सर
पृथ्वी पर गिरे लिकिन इसको देख कर तथा इस सम्बन्ध में कहानियों को सुन कर कोई भारतीय ग्रेविटी
का सिद्धांत न दे सका , इसका सिद्धांत एक सेव के फल को जमीं पर गिरते देख कर दिया सर आइजक
न्यूटन नें --ऐसा क्यों हुआ ?
५- गीता सूत्र 7.9 अग्नि में तेज की बात बताता है लेकिन इस का विज्ञान दिया Max Planck नें क्यों कोई
भारतीय इस विषय पर नहीं सोचा ?
६- गीता सूत्र 7.8 कहता है --शब्द का स्वभाव है आकाश में गूंजना और इस सिद्धांत को पकड़ कर पूरा विज्ञान
विकशित हुआ पश्चिम में --ऐसा क्यों हुआ ?
७- भारत में अग्नि एवं शून्य को पकडा गया लेकिन दोनों का विज्ञान बना पश्चिम में --क्यों ?
हम भारतीय कब उठें गे ? जागो भारत बुद्धिजीवी जागो कब तक कहानियों को सुनाओगे और सुनते रहोगे ?

कहानियों को सुननें की आदत हमारी पुरानी है इसको बदलनें के लिए होश पैदा करनें की जरुरत है ।
कहानियां बच्चों को सुलानें के लिए तो ठीक हैं लेकिन उनके लिए यह जहर है जो बुद्धि केंद्रित लोग हैं ।
भारत में विज्ञान को भी कहानी में बदल दिया जाता है और पश्चिम में कहानिओं से विज्ञान निकाला जाता है ।

=======ॐ======

वेद्-परिचय - १

भारत के ऋषि इतिहास बनानें के पक्ष में रूचि नहीं रखते थे , मात्र उस राह की ओर इशारा किया जिस राहपर वे स्वयं चलते थे ।
आज कोई ठोस प्रमाण उपलब्भ नहीं जिस के आधार पर यह कहा जा सके की ----------
०० वेदों की रचना कब हुयी ?
०० वेदों के रचनाकार कौन थे ?
०० वेदों की रचना में कितना समय लगा ?
क्या सूर्य जब जाता है तब कोई छाया छोड़ जाता है ? नहीं छोड़ता वैसे ही परम तुल्यब्यक्ति अपनी छाया नहीं
छोड़ता । हमारे आदि ऋषि सत्य से सत्य में जीते थे , जिनका भूत एवं भविष्य उनके वर्तमान में ही होते थे ।
वेदों की रचना जब हुयी तब उस काल के लोग टाइम-स्पेस में रहते हुए भी टाइम-स्पेस से मानशिकरूप से
प्रभावित नहीं थे । धीरे - धीरे समय गुजरा और वेद् उनलोगों के पास आगये जो लोग बुद्धि केंद्रित थे ।
बुद्धि-केंद्रित लोग वेदों को अपनें-अपनें नजरिये से देखना प्रारम्भ कर दिया और वेद् अपनी मूल आकृत को
खोनें लगे ।
महाभारत का समय 5561 bce - 800 bce के मध्य मानी जाती है , भारत के प्रशिद्ध पुरातत्व ग्यानी श्री
बी बी लाल इसको 836 bce मानते हैं । गीता में तीन वेदों की बात कही गयी है जबकि आज चार वेद् हैं --यह
चौथा वेद् कब और क्यों आया....यह बात आप के लिए है , आप इस पर सोच सकते हैं ।
सत-युग का मानव त्रेता-युग के मानव से भिन्न था , द्वापर का मानव त्रेता-युग के मानव से भिन्न था और
कलि-युग का मानव द्वापर के मानव से भिन्न है --यह परिवर्तन अपनें साथ सब में परिवर्तन लारहा है , इस
परिवर्तन चक्र में मूल को खोजना इतना आसान नहीं ।
आज जो वेद् हैं उनमे प्रारम्भिक वेदों को खोजना ही वेद्-साधना है ।
======ॐ=======

Tuesday, April 28, 2009

दिब्य चक्षु क्या है ? --१

आत्मा-परमात्मा की खोज - कर्म नही , कर्म का फल है
आत्मा- परमात्मा की आहत ह्रदय में सुनाई पड़ती है जब उसमें परम प्रीति की लहर उठती है
परम प्रीति की लहर तब उठती है जब --------
इन्द्रीओं से बुद्धि तक बहनें वाली उर्जा निर्विकार हो जाती है और ----
ऐसा तब होता है जब -------
ऐश्वर्य दृष्टि मिलती है - आप देखिये गीता के निम्न श्लोकों को ----
सूत्र -11.1-११ .4
सूत्र - 11.8
सूत्र - 18.75

अर्जुन परम श्री कृष्ण से अपना १०वा प्रश्न सूत्र ११.१ से ११.४ के माध्यम से इस प्रकार करते हैं -----
हे प्रभु ! आप जो कुछ भी कह रहे हैं ,सत्य है लेकिन यदि मैं आप का अबिनाशी निराकार स्वरूप को देख लेता तो -- --------
परम श्री कृष्ण सूत्र ११.८ के माध्यम से उत्तर देते हैं -------
तूं बात तो ठीक कह रहा है लेकिन अपनें प्राकृत आंखों से तो देख नहीं सकता अतः मैं तुझको ऐश्वर्य दृष्टि देता हूँ ।
परम श्री कृष्ण अपनें निराकार ऐश्वर्य रूपों को दिखाते हैं लेकिन इस से अर्जुन की मनो दशा में कोई परिवर्तन नही आता , यदि अर्जुन- परम श्री कृष्ण को समझे होते तो आगे प्रश्न न करते लेकिन अर्जुन ऐसा सब कुछ देखनें के बाद भी ०६ प्रश्न और करते हैं ।
परमात्मा की जब हवा लगाती है तब वह ब्यक्ति प्रश्न रहित हो जाता है । प्रश्न क्यों उठते हैं ?
प्रश्न संदेह की छाया हैं और संदेह अंहकार की छाया हैं । संदेह मन-बुद्धि तंत्र को ब्याकुल कर देते हैं और यह तंत्र
कम्पन स्थिति में आ जाता है तथा निर्णय लेने में असफल होता है ।
जब अंहकार पर संदेह होनें लगे तब समझना चाहिय की मन-बुद्धि से संदेह भाग रहा है ।
अंहकार पर संदेह का होना ह्रदय में प्रीति की लहर उत्पन्न करता है और प्रीति परमात्मा से मिलाती है।
अर्जुन को मोका मिला , परम उनको दिब्य दृष्टि दी लेकिन अर्जुन चुक गए ,गवा दिया यह मौका पर संजय को
[सूत्र १८.७५ ] दिब्य दृष्टि मिली थी, वेद्ब्यास जी से, जिस को वे नहीं गवाए और कुरुक्षेत्र में धृत- राष्ट्र को उन्हीं
दिब्य नेत्रों से गीता उपदेश सुनाया जो उपदेश परमसे अर्जुन को मिल रहा था ।
दिब्य दृष्टि प्राप्त ब्यक्ति संदेह रहित, प्रश्न रहित , परम प्रीति में डूबा परमात्मा से परमात्मा में अपनें को तथा
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को देखता है ।
गीता के माध्यम से आप भी दिब्य दृष्टि पा सकते हैं बश आप को परम से जुड़ना पडेगा ।
अर्जुन की तरह जब श्री कृष्ण गीता-उपदेश दे हरे थे तब हम-आप भी वहाँ थे लेकिन हमलोग भी चुक गए थे पर गीता में परम स्वयं अपनी आवाज के माध्यम से उपस्थित हैं- क्या आप -------
गीता में परम श्री कृष्ण को खोजेंगे ?
परमात्मा तो पलकों में बसा है लिकिन समझनें की कोशिश कौन करता है ?
गीता का परमात्मा भोग साधनों की प्राप्ति में कोई मदद नहीं करता पर ऐसी होश उठाता है की ------
यह मालूम हो जाता है की भोग बंधन क्या है ?---यही होश परमात्मा से मिलाती है ।
======ॐ======

Monday, April 27, 2009

अयोध्या - ४

तुलसी दास ४२ साल की उम्र में रामचरित मानस लिखना प्रारम्भ किया
रामचरित मानस दो वर्ष सात महीनों में पूरा हुआ
रामचरित मानस की मूल-प्रति आज भी काशी नरेश के पास है
तुलसीदास राम के परम-प्रीतिमें डूबे भक्त थे लेकिन राम-मन्दिर की जगह मस्जिद देखनें के बाद क्या
उनकी आखों से प्रीति की आंशूकी दो बूंदे भी न निकली होंगी ?
बाबरी-मस्जिद बननेंके ४-५ वर्ष बाद तुलसी पैदा हुए थे क्या वे अपनें बचपन में राम-मन्दिर और बाबरी मस्जिद
की कहानी नहीं सुनी होगी ?
तुलसीदास बाबरी मस्जिद के सामनें बैठ कर रामचरित मानस की रचना प्रारंभ किया लेकिन ध्यान में उन्हें
कभी भी राम मन्दिर न दिखा --यह कैसे सम्भव हो सकता है ? यदि दिखा होता तो वे कुछ तो लिखे होते ।
बाबरी मस्जिद के ठीक २८ साल बाद अकबर गद्दी पर बैठे और उनके शाशन काल में अनेक हिंदू लोग ऊँचे-ऊँचे
पदों पर थे लेकिन उनमें सी किसी एक नें भी राम मन्दिर की बात अकबर के सामनें नही रखा--क्या कारन था ?
रामचरित मानस अकबर के गद्दी पर बैठनें के २० वर्ष बाद लोगों को उपलब्ध हो गया था , अकबर हिंदू-मुसलमान
सब को एक नजर से देखते भी थे लेकिन क्या कारण था की लोग राम-मन्दिर की बात उनके सामनें नहीं लाये ?
ऐसी कौनसी घटना घटी की बाबरी मस्जिद बनने के ४६४ वर्ष बाद लोगों में ऐसी उर्जा आगई की लोग उसको
तोड़ डाले ?बाबरी मस्जिद की खुदाई की गई और वहां १०वी शताब्दी में बने मन्दिर के अवशेष मिले , वह मन्दिर
किनका था--जैनियो का , बुद्धों का या फ़िर हिन्दुओं का ?---आप इस बात पर सोचना ।
अयोध्या का सम्बन्ध थाईलैंड एवं इंडोनेशिया से भी है --थाईलैंड में Ayurthhaya city तथा इंडोनेशिया में
Yogyakarta शहर की स्थापना अयोध्या नाम के ऊपर की गई है । इतिहास में अयोध्या का क्षेत्रफल २५० वर्ग
किलो मीटर में फैला माना गया है ।
तुलसीदास रामचरित मानस की रचना का प्रारम्भ तो अयोध्या में किया लेकिन कुछ दिन बाद वे कशी जा कर
अपनी रचना को पूरा किया --तुलसीदास क्यों अयोध्याको छोडा ?
तुलसीदास सरयू नद्दी में दुबकी भी ली होगी क्या सरयू के पानी में उनको राम की खुशबू नही मिली की वे
अयोध्या से काशी चले गए ?
६०० ईशापूर्व में अयोध्या एक ब्यापारिक केन्द्र था , यहाँ दूर-दूर से लोग आते थे और ऐसा भी कहा जाता है की
बुद्ध यहाँ प्रायः आया करते थे । 500 AD Chinese Fa-Hein यहाँ आए थे और यहाँ अनेक बुद्ध - मठों के
होनें की बात को इन्हों नें अपनें लेख में लिखा भी है पुनः दो सौ वर्ष बाद एक और चीनी जिज्ञाशु Xuang Zhang
भी आए जो अयोध्या में अनेक हिदू मंदिरों के होनें की बात लिखी है अर्थात २०० वर्ष में यहाँ कुछ धार्मिक
परिवर्तन अवश्य हुआ होगा ।
भारत में आदि शंकराचार्य के बाद ८-१० वी शताब्दी के मध्य काफी परिवर्तन हुआ भारत से मिमांश, शांख्य ,
जैन-दर्शन तथा बोध-दर्शन लुप्त होनें लगे और उनकी जगह पर भक्ति -बाद की लहर उठी --लोग मंदिरों में ढोल
पिटनें लगे बुद्धि पर जोर देनें की बाद समाप्त हो गई और इसका फ़ायदा उठाया अफगान के लुटेरों नें --भारत
अंततः गुलाम हो गया। यदि आप पश्चिम एवं भारत के इशापुर्ब दर्शनों को एक साथ देखे तो आप को दोनों में कोई
विशेष अन्तर नही मिलेगा --पश्चिम में अरिस्तोतल का तर्क -दर्शन था तो भारत में मीमांस एवं शंख्या का
गहरा तर्क-दर्शन था जिससे एक गहरा विज्ञान निकल सकता था लेकिन ऐसा हुआ नही । पश्चिम में धर्म-धरती
को फाड़ कर विज्ञान निकला है और भारत की धर्म-धरती इतनी सकत थी की इसके अंदर छिपा विज्ञानं का बीज कभी अंकुरित न हो पाया ।
परमात्मा करे वह ऋषि-मुनिओं द्वारा तैयार किया गया बीज अब आगे भविष्य में अंकुरित हो ।
=====ॐ=====

Sunday, April 26, 2009

अयोध्या - ३

बाबर अयोध्या में राम-मन्दिर को एक मस्जिद में बदल दिया संन १५२८ में ---
और ----४६४ साल बाद उस मस्जिद को तोड़ दिया गया, सन १९९२ में ---हिन्दुओं की आँख खुलनें में इतने साल लग गए----आप इस सम्बन्ध में क्या सोचते हैं ?
राजाको हमारे हिंदू धर्म में परमात्मा का दर्जा मिला हुआ है- लोग राजा को नरेश कहते हैं जो मंदिरों का निर्माण करवाते थे और राजा जिस धर्म को मानता था, प्रजा का भी वही धर्म होता था ।
मनु से मौर्या तक अयोध्या बिभिन्न आयामों से गुजरा है । वैदिक सभ्यता [रिग-वेद१७०० ईशा पूर्व -११०० ईशा पूरब ] से सम्बंधित जैन के प्रथम तीर्थंकर - आदि नाथ का सम्बन्ध अयोध्या के सुर्यबंशी कुल से है और अन्य चार और तीर्थंकरों का भी सम्बन्ध अयोध्या से रहा है ।
मौर्या साम्राज्य का पहला राजा चंद्र गुप्त मौर्या [३२२-२९८ ईशा पूर्व ] अपनें आखिरी समय में जैन भिक्षुक बन गए थे और उनका पोता अशोक महान [३०४- २३२ ईशा पूर्व ] अपनें आखिरी दिनों में बुद्ध-भिक्षुक बन गए थे ---ऐसा क्यों हुआ ? क्योंकि उस समय में जैन-बुद्ध का प्रभाव अधिक था । ऐसी बात भी इतिहास में मिलती है की बुद्ध कई बार अयोध्या आए थे और उनका अयोध्या से गहरा लगाव भी था ।
चलिए! चाहे कुछ भी रहा हो लेकिन मनु से मौर्या तक अयोध्या पर जैन-बुद्ध का गहरा प्रभाव था --यह बात स्पष्ट है । मनु से कुश तक का अयोध्या सूर्य बंशी राजावों का था और मौर्या समय में इस पर जैन-बुद्ध का प्रभाव पडा , ऐसी भी बात स्पष्ट है ।
मिश्र की सभ्यता फारोह [pharaoh] राजाओं से जानी जाती है जो ३१५०-३१ ईशा पूर्व में थी । अभी - अभी 21वी शताब्दी में फ्रंशिशी वैज्ञानिकों को एक चेओप राजा की पिरामिड मिलिहै जो २५६०-२५३२ ईशा पूर्व की मानी जाती है । फारोह राजा सूर्य बंशी राजा थे जो सूर्य की उपासना करते थे । यहाँ हमें इतिहास के गहराई में झाकना पड़े गा --अयोध्या के राजा और मिस्र के राजा दोनों सूर्यवंशी थे क्या इन दोनों में कोई सम्बन्ध था ?
अफ्रीका में सूडान की राजधानी खार्तूम से लगभग २००कि मी नील नदी के किनारे उत्तर-पश्चिम में ६ मीटर से ३० मीटर ऊंची पिरामिड मिले हैं जो कुश राजाओं से सम्बंधित हैं । मिस्र सभ्यता का यह भाग २७००ईशा पूर्व से ३५० बाद ईशा तक कुश राजाओं के अधीन था । क्या श्री राम के पुत्र कुश और मिस्र के कुश राजाओं के मध्य कोई सम्बन्ध हो सकता है ? अयोध्या के कुश सूर्यवंशी थे और मिस्र के कुश भी सूर्यवंशी थे ।
१३९१ ईशा पूर्व में मिस्र में मूसा हुए जो यहूदी, ईसाइयत और इस्लाम में पैगम्बर माने जाते हैं , इनको जन्म के समय टोकरी में रख कर रक्त सागर में फेक दिया गया था और भारत में श्री कृष्ण को ५५६१-८०० ईशा पूर्व में जन्म के साथ टोकरीमें रख कर यमुना पार भेज दिया गया था। मिस्र में मूसा से वहां के फारोह राजाओं को डर था और मथुरा के राजा कंश को कृष्ण से भय था ---क्या दोनों में आप को समानता नहीं दिखती ।
======ॐ=======

Saturday, April 25, 2009

अयोध्या--२

लंका में श्री राम-रावण युद्ध तो शायद कुछ दिनों का रहा होगा लेकिन श्री राम-मन्दिर से सम्बंधित विवाद सन १९९२ से चल रहा है और ऐसा लगता है - क्या कभी रुकेगा भी ?
श्री राम १४ वर्षों तक जंगल में थे , अपनें प्रवाशके आखिरी दिनों में लंका जाकर रावण से लड़ाई लड़ी ---- यहाँ आप कोसमझाना है की -----इस लड़ाई में श्री राम का साथ कितनें लोगों ने दिया ? ----श्री राम के साथ जो प्राणी थे , वे थे जंगल के पशु एवं पंछी ।
हम मनुष्य अपनें को जीवों में सर्ब श्रेठ मानते हैं और हमारे अंदर परमात्मा की सोच भी है लेकिन जब परमात्मा अवतरित होता है तब हम उसको क्यों नक्कारते हैं ?
अयोध्या में बाबरी मस्जिद तोड़ कर राम-मन्दिर खोजनें वाले तो लाखों में थे लेकिन जब राम थे तब उनके साथ हम में से कोई नही था---क्या हमें इस बात का अफ्शोश नही है ?
हम मुर्दा-पूजक हैं --हमें अपनें से उंचा कद पसंद नही आता । हम सत - पुरूष के साथ चलते तो नही लेकिन उनके जानें के बाद उसकी मूर्ति बना कर उनको पूजते जरुर हैं ।
महाबीर[599-527 bc] एवं बुद्ध [556-486 bc ] के समय अयोध्या कोशल राज्य का एक प्रमुख अंग था । उस समय यह शिशुनाग राजाओं के अधीन था [684-493 bc ] । अयोध्या, साकेत एवं श्रावस्ती, कोशल
राज्य के प्रमुख अंग थे , साकेत का अर्थ होता है---स्वर्ग सा-जिस के उपर मैथिलि शरण गुप्त नें किताब भी लिखा है और 600 bc. के आस-पास अयोध्या एक ब्यापारिक केन्द्र भी था । अयोध्या 322-185 bc. के मध्य जिन का था , वे मौर्या थे -चन्द्रगुप्त मौर्य २५ वर्ष राज्य करके जैन भिक्षुक बन गए थे और उनका पोता अशोका अपनें आखिरी दिनों में बौध भिक्षुक का जीवन बिताया था । अब हम अगले अंक में मौर्य समय के अयोध्या को देखेंगे ।
=====ॐ==========

Friday, April 24, 2009

अयोध्या -- 1

आत्मा के बाद हमारा अगला पड़ाव परमात्मा है और परमात्मा की अनुभूति तीर्थों में होती है ।
गीता के परमात्मा से मिलनें के पहले हम वह जगह तलाश रहे है जहाँ से कोई ऐसी खिड़की मिले जिसमें
झाकनें पर परमात्मा दिखे ....तो आइये चलते हैं काशी के बाद अयोध्या में ।
जो कल बौध तथा जैनिओं का तीर्थ था वह आज हिदुओं का भी तीर्थ है और जिसका नाम अयोध्या है ।
तीर्थ शब्द हमें क्या इशारा देता है ?
जब एवं जहाँ एक भ्रमण करते परम-प्रीतिमें डूबे जिज्ञासु के चलते कदम एकाएक रुक जाय , शरीर में रोमांच
उठनेंलगे , आँखे नीचेकी ओर झुक जाय , उनमें आँशू भर आए और उसे ऐसा लगनें लगे जैसे एक छोटे गोदी के
बच्चे को एक बड़े इन्तजार के बाद उसके माँकी गोदी मिल गई हो , तब वह स्थान उस जिज्ञासु का तीर्थ होता है ।
जैनिओं में एक शब्द है---तीर्थंकर...बड़ा प्यारा शब्द है , तीर्थंकर एक चलता - फिरता तीर्थ होता है ।
तीर्थंकर जहाँ होता है उसके चारों तरफ़ पाँच मील की एरिया तीर्थ बन जाता है । तीर्थंकर एक रेडियो धर्मी
पदार्थ जैसे युरेनिंयम की तरह होता है जो अपनें ऊर्जा से उस क्षेत्र को चार्ज कर के रखता है । जब कोई खोजी
उस क्षेत्र में पैर रखता है तब उसे सत्य की खुशबूं स्वयं मिलनें लगाती है ।
तीर्थ वह घाट है जिसके सामनें परम का आयाम होता है और पीठ पीछे भोग से परिपूर्ण संसार होता है ।
तीर्थ के एक तरफ़ माया और सामनें मायापति होता है । तीर्थ वह है जहाँ एक तरफ़ साकार, सविकार एवं
गुणों के तत्तों का सम्मोहन होता है और सामनें निर्विकार,निराकार, गुनातीत तथा भावातीत का आयाम होता है ।
तीर्थ वह है जहाँ से निर्विकार में छलांग भरी जाती है ।
जैन मान्यता में २४ तीर्थकर हैं जिनमें पहले तीर्थंकर हैं आदि नाथ या रिषभ देव और २४वे हैं महाबीर ।
आदि नाथ के साथ चार और तीर्थंकरों का सीधा सम्बन्ध अयोध्या से है और आदि नाथ तो सुर्यबंशी कुल में
अयोध्या में ही पैदा भी हुए थे । आदिनाथ के पुत्र थे -भारत जिनके नाम से हिन्दुस्तान का नाम भारत पडा ।
कहानी पर रुक जाना अज्ञान है और कहानी को नाव बनाकर उस पार पहुंचनें का नाम है ध्यान जो सत्य को
दिखाता है । सिंध नदी की सभ्यता की खोज में पशुपतिनाथ की मूर्ती मिली है जिसको हिंदू लोग शिव मानते है
लेकिन बैल के साथ आदि नाथ की मूर्ती का वर्णन जैन मान्यता में काफ़ी पुरानी है ।
आप से हमारी एक प्रार्थना है ----यहाँ अयोध्या को इतिहास की खिड़की से देखा जा रहा है , अगले कुछ अंकों में अयोध्या को मिस्र [egypt] की सभ्यता से भी जोड़ा जाएगा पर आप को इनमें उलझनें की जरुरत नही
है आप अयोध्या को एक तीर्थ समझें और सत्य की खोज में उसका सहारा लें । अयोध्या सत -युग से आज तक
तीर्थ है और रहेगा , अयोध्या कल एक रहस्य था , आज एक रहस्य है और कल भी रहस्य ही रहेगा--इसमें
हमें -आप को डूबना है जिससे हम वह पा सकें जिसकी खोज हम कई जन्मों से कर रहे हैं । गीता के दो सूत्रों
को आप देखिये----सूत्र ९.१९ और १३.१२ , सूत्र कहते हैं...........
परमात्मा सत है ,असत है ,जीवन है , मृत्यु है और न सत है , न असत है ----फ़िर क्या है ?
अयोध्या के घाट पर बैठ कर दाहिनें तरफ़ स्थित स्मशान को देखिये जहाँ मृत्यु में अमरत्व को देखा जा सकता है
घाट पर साधुओं को चिलम पीते भी आप देखेंगे जो लोग नशे के माध्यम से समाधि का मजा लेना चाहते है
अर्थात असत्य से सत्य की उनकी खोज बेहोशी की स्थिति में चल रही है जिस से परमात्मा तो नही मिलेगा
मौत जरुर मिलेगी ।
अयोध्या में आप को आप मिलेंगे और आप परमात्मा से परमात्मा में हैं । आप अयोध्या में भ्रमण करें जब
कोई स्थान आप को खीचनें लगे तो आप चुप चाप आँखे बंद करके वहाँ बैठ जाए , मन में उठते भावों में बहे नही
उन भावों को देखते रहें --देखते-देखते एक ऐसी घड़ी आयेगी की आप इस अयोध्या से उस अयोध्या में पहुँच
गए होंगे जो परम- अयोध्या है .......परमात्मा आप को ऐसा अवसर दे ।

=======ॐ=========

Thursday, April 23, 2009

आत्मा ---३

एकांत में बैठ कर अपनें सीने पर अपना हाँथ रखकर कुछ पल ह्रदय की धड़कन को सुनतेहुए आत्मा को महशुश करे ....आप यदि कुछ दिन ऐसा करेंगे तो आप स्वयं कुछ अवश्य पाएंगे-------
आइए अब कुछ गीता-सूत्रों को देखते हैं ।
१- आत्मा ह्रदय में धड़कता परमात्मा है --------------गीता-सूत्र १०.२० , १३.२२ , १५.७ , १८.६१
२- आत्मा अचल,स्थिर,सर्व ब्यापी , जन्म-मृत्यु से परे है --गीता-सूत्र २.२० , २.२४
३- शरीर में आत्मा सर्वत्र अकर्ता , विकार रहित द्रष्टा रूप में है --गीता-सूत्र १३.३२ , १३.३३
*** अब गीता की इन बातों के आधार पर आत्मा को बुद्धि के आधार पर समझते हैं...है तो यह काम कठिन
क्योंकि आत्मा की पकड़ बुद्धि सीमा के बाहर है ---यह तो एक अनुभूति है जो योग-सिद्धि से मिलतीहै ।
> वैज्ञानिक कहते हैं----जहाँ सर पर चोटी रखीजाती है वहाँ शरीर को नियंत्रित करनें का केन्द्र है जो अपनीं
सुबिधा के लिए मस्तिष्क की रचना करता है तथा जो शरीर समाप्ति के बाद भी जीवित ररता है । कुछ
लोग इसको चेतना [consciousness] और कुछ लोग मन कहते हैं । विज्ञान को अब कुछ तो ऐसा
दिखा है जो समयातीत सा दीखता है ।
> विज्ञानं का क्वांटम भौतिकी में आज जो भी है वह चेतना का फैलाव है और ऐसी कोई भी सूचना नही
जिसकी आत्मा न धड़कती हो जैसे एटम में एलेक्ट्रोंन चल रहे हैं प्रोत्रोंन - नयूत्रोंन में क्वार्क्स के जोड़े
धडक रहे हैं ----अर्थात सब का केन्द्र धडक रहा है और सब में जिव किसी न किसी रूप में है चाहे हम
उसे स्वीकार करें या न करें ।
## हम तभी किसी नतीजे पर पहुँच सकते हैं जब हम यातो सब की स्वीकारें या सब को नक्कारें ...कभी हाँ
और कभी ना की यात्रा पर कभी कुछ नही मिलता ।
## विज्ञान कहता है -------
जब दो हलके न्युक्लियाई आपस में मिलते हैं तब बहुत अधिक ऊर्जा निकलती है और एक शक्तिशाली
एटम बनता है ....इस प्रक्रिया को डबल फ्यूजन कहते हैं । गीता सूत्र ७.४---७.६ , १३.५,१३.६, १४.३, १४.४
जीव - उत्पत्ति के सम्बन्ध में ट्रिपल नुक्लियर फ्यूजन की बात करते है जो इस प्रकार है --------
++ जब नर - मादा के अपनें -अपनें एटम मिलते हैं तब उन दोनों की अपरा एवं परा प्रकृतियाँ मिलती हैं जो
सिंगल फ्युजेंन है और इस फ्युजेंन में आत्मा का कण जब आजाता है तब डबल फ्युजेंन के साथ एक
नए जीव के भारी कण का निर्माण होता है ।
Try to understand the single nuclear-fusion of nuclear-physics and double nuclear fusion of gita
----perhaps gita-nuclear fusion will bring you closer to the fact where your own beingness
will be clear to you...which is the ultimate truth।
=======ॐ ========

Wednesday, April 22, 2009

आत्मा क्या है ?------२

आप के लिए कुछ प्रश्न
१- विज्ञान विकास के साथ और अतृप्त क्यो होरहा है ?
२- आज विज्ञानं क्या खोज रहा है ?
३- सजीव क्या है ? और निर्जीव क्या है ?
४- कौन जड़ और कौन चेतन है ?
५- १४ मिलिओंन वर्ष पूर्ब १०० मिलिओंन वर्ग प्रकाश-वर्ष क्षेत्रफल का प्राथमिक हाइड्रोजन एटम जो बनाथाऔर जिस से ब्रह्माण्ड की रचना हुयी थी वह किस से और किस में बना था ?
यदि आप वैज्ञानिक सोच रखते हैं तो आप इन प्रश्नों को गंभीरता से देखें । आज २१वी शताब्दी विज्ञानं की
शताब्दी है , सभींलोगो का केन्द्र मन-बुद्धि तंत्र है , सब संदेह में जीते हैं क्योकि जितना गहरा संदेह होता है , उतना
गहरा विज्ञानं निकलता है । विज्ञानं की उर्जा संदेह है और गीता की उर्जा श्रद्धा है --श्रद्धा एवं संदेह एक साथ एक
बुद्धि में नही रह सकते । आप यह न सोचें की यहाँ गीता को विज्ञानं के साथ जोडनें का प्रयत्न किया जा रहा है ।
विज्ञानं की सीमा जहाँ समाप्त सी दिखने लगाती है वहाँ से गीता प्रारंभ होता है ।
५००० इशा पूर्व गीता आत्मा को ब्यक्त करनें के सम्बन्ध में कहा ---------
आत्मा सर्व ब्यापी , अच्छेद्य , अदाह्य , अक्लेद्य , अशोष्य तथा नित्य है [गीता सूत्र..२.२४] ।
आत्मा नाश रहित, अजन्मा, अव्यय है [गीता सूत्र ..२.२१] ।
आत्मा अचिन्त्य, निर्विकार , [सूत्र ..२.२५] है ,यह न तो मारता है , न मारा जा सकता है [गीता सूत्र..२.१९] ।
यह बात गीता की ७००० वर्ष पुरानी है लेकिन आज की कण -भौतिकी [particle physics ] की खोज क्या
यही खोज नही है ?----सोचिये और खूब सोचिये जब तक आप की बुद्धि रुक न जाए --जब बुद्धि रुक जाती है तब
सत्य की अनुभूति होती है ।
आज का क्वांटम विज्ञानं [quantum mechanics ] कहता है ----कोई भी सूचना पुरी तरह से समाप्त नही
की जा सकती और आज जो भी है वह चेतना का फैलाव है अर्थात विज्ञान में आज न तो कोई चीज जड़ है न ही
कोई चीज मुर्दा है । क्या आप जानते हैं की ---कब्र में दफन ब्यक्ति के बाल एवं नाखून बढ़ते रहते हैं --ऐसा क्यों
होता है जबकि वह ब्यक्ति मुर्दा हो चुका होता है ? यदि उनमें विकास हो रहा है तो उनमे प्राण ऊर्जा भी होनी चाहिए
और प्राण ऊर्जा का दूसरा नाम ही आत्मा है
हिंदू मान्यता कहती है ---कामना का गुलाम जब मरता है तब वह भूत बन जाता है । गीता सूत्र ८.६ एवं १५.८
कहते हैं---जब आत्मा शरीर छोड़ कर जाता है तब उसके साथ मन एवं इन्द्रियाँ भी रहती हैं तथा अतृप्त सघन
कामनाएं आत्मा को नया शरीर धारण करनें के लिए बाध्य करती हैं । यह बात तो गीता की है अब आप विज्ञानं
को देखिये----विज्ञानं कहता है ....बड़े तारे अपने अंत समय में ब्लैक होल [black hole ] में बदल जाते हैं और
अपनें आस-पास के तारों को निगल जाते हैं अर्थात भूत बन जाते हैं ।
हमारा काम है आप के बुद्धि के उपर पड़े चादर को उठाना और जब ऐसा सम्भव होगा तबआप पढ़ेगे नही- लोग
आप को पढेंगे ।
=======ॐ======

Tuesday, April 21, 2009

आत्मा क्या है ----१

तिहास कार गीता को 5561 b c --800 b c के मध्य की उपज बताते हैं और हम भारतीय तब से आज तक आत्मा को अपनें-अपनें अधरों पर चिपका रखे हैं जिस को न तो अंदर ह्रदय में पहुचनें देते और न ही बाहर निकलनेंदेते बात क्या है ?---ज़रा सोचिये ।
भारत का बच्चा - बच्चा जानता है की आत्मा अमर है जो शरीर के बाद भी जिंदा रहता है लेकिन अकेले अंधेरे में
जानें में घबडाता है ---हमेआत्मा का ज्ञान क्यों नहीं बदल पाया ?
आत्मा को गीता में समझनें के लिए आप इन श्लोकों को देखें --------
२.१९---२.३०
३.४
८.४
१०.२०
१३.१६ १३.२२ १३.२९ १३.३२ १३.३३
१४.५
१५.७ १५.८
१८.६१
आठ अध्यायों के २४ सूत्र यहाँ आप केलिए दिए गए जिनको आप गीता में देख सकते हैं ।
गीता में परम श्री कृष्ण आत्मा को कुछ इस प्रकार से ब्यक्त किया है-------
आत्मा शरीर में द्रष्टा है , निर्विकार है, अपरिवर्तनीय है , समयातीत है , अप्रभावित है , अब्य्य है , आत्मा परमात्मा
है , आत्मा को तीन गुन शरीर में रोक कर रह्कते हैं और आत्मा जब शरीर छोड़ कर जाता है तब इसके साथ
मन-इन्द्रियाँ भी होती हैं ।
परम श्री कृष्ण कहते हैं की आत्मा अचिन्त्य है अर्थात जिसके बारे में सोचना सम्भव नहीं पर स्वयं गीता में सबसे
पहले आत्मा पर ही बोलते हैं ....ऐसा क्यों ?
गीता का अर्जुन मोह ग्रसित है , मोह ग्रसित ब्यक्ति में अज्ञान-भरा होता है , जिसकी बुद्धि संदेह में उलझी होती है --
और ऐसे ब्यक्ति से परम श्री कृष्ण यह उम्मीद करते हैं की वह आत्मा को समझ कर उनकी बात को स्वीकार कर
लेगा.....क्या ऐसा सम्भव है ?
गीता सूत्र ४.२८ कहता है----योग सिद्धि पर ज्ञान के माध्यम से आत्मा का बोध होता है ,गीता सूत्र १३.२ कहाता है
---ज्ञान वह जिस से क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का बोध हो और गीता सूत्र २.४२--२.४४ तक एवं सूत्र १२.३, १२.४ कहते हैं----
परमात्मा की अनुभूति मन-बुद्धि से परे की अनुभूति है तथा एक साथ एक बुद्धि में भोग -भगवान् को रखना
सम्भव नहीं --अब आप सोचें की आत्मा को कैसे जाना जा सकता है....वह कौन सा माध्यम है जो परमात्मा-
आत्मा मय कर सकता है ?
आत्मा एक सहारा है --हमारे शरीर में प्राण के रूप में, जो रह-रह कर हमे अपनी ओर खिचता रहता है
=====ॐ=====

Monday, April 20, 2009

मन्दिर-१२[काशी विश्वनाथ]

हमेंवह जगहें पुकार रही हैं ---------
१- गोकुल की वह जगह जहाँ दुर्बाषा ऋषि को परम श्री कृष्ण परम ज्ञान दिया ।
२- वह जगह जहाँ सीता श्री राम को पुकारी थी जब रावन उनको ले जा रहा था ।
३- काशी का वह घाट जहाँ शिव एक अछूत के रूप में आदिशंकराचार्या को ज्ञान दिया था ।
४- द्वारिका का वह मन्दिर जहाँ मीरा कन्हैया की मूरत में समायी थी ।
५- काशी का कबीर चौरा जहाँ कबीरजी राम-धुन गुनगुनाते थे ।
क्या आप कभीं काशीमें रहें हैं ? ........यदि नहीं तो जाना भी नहीं ...और यदि गए होंगे तो निराशा ही हुयी होगी ।
आप इन सभी प्रश्नों के बारे में सोचना लेकिन बाद में ।
काशी जाया नहीं जाता --काशी तो बुलाता है ---लेकिन कब ? ---इस प्रश्न को भी आप समझेंगे ,बाद में ।
जो काशी आप जानते हैं वह --वह काशी नहीं है जिसकी तलाश हमको है ।
बर्तमान काशी का विश्वनाथ मन्दिर वह मन्दिर नहीं है जहाँ ज्योतिर्लिन्गम है ।
यह काशी वह काशी नहीं जो शिव के त्रिशूल पर है जो टाइम-स्पेस में नहीं है और है भी ।
हाँ.....यह काशी वह काशी जरुर है जो--------
गंगा के तट पर है
जहाँ से गंगा का रुख बदलता है और---------
जहाँ से शिव-काशी में प्रवेश मिल सकता है ।
काशी एवं सभी तापोभूमियाँ तो पुकार रही हैं लेकिन सुनता कौन है ?
काशी में रहकर यदि कोई अपनें को ऐसा टियून करले जिस से उसकी पूरी ऊर्जा चेतना पर केंद्रित हो जाए, संसार
के रहस्य का पता चल जाए और यह पता चले की हम क्या हैं तब-------
बर्तमान काशी में वह चाभी मिलती है जिस से परम काशी का द्वार खुलता है तथा जिसके माध्यम से हम देखते हैं
१- ज्योतिर्लिन्गम के परम प्रकाश को जो पूरे ब्रह्माण्ड के होनें का श्रोत है ।
२- कबीर दास की वाणियों को जो वह गाया करते थे ।
३- नानकजी को गंगा में दुबकी लेते हुए ।
४- आदि शंकराचार्य को मरण कंटिका घाट पर जहाँ उनको शिव के अस्तित्व का पता चला ।
५- काशी में गूंज रही उस परम धुन को भी हम सुन सकते हैं जिस से ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति हुयी है ।
काशी को आप मनोरंजन का स्थान न समझें --यह प्रयोग शाला है जो मनुष्य का पूरा रूपांतरण करता है

========ॐ=========

Sunday, April 19, 2009

मन्दिर-११[मन्दिर और चंदन]

मंदिर चंदन और नारियल के सम्बन्ध को समझना साधना के मार्ग को सुगम बनाता है अतः यहाँ हम कुछ इस सम्बन्ध में मन-बुद्धि के स्तर पर समझनें की कोशिश कर रहे हैं ।
चंदन और नारियल मध्य भारत और उत्तर भारत में नहीं पाया जाता यह केरल और मैसूर की देन हैं । शंकराचार्य
के बाद उत्तर भारत में पूजा एवं मन्दिर-साधना का मार्ग एक नया मोड़ लिया- ज्यादा तर मंदिरों का आधिपत्यकेरल के नम्बूदरी पाद ब्राहमणों के हाथ में चला गया क्योंकि आदि शंकराचार्य भी नम्बूदरी-ब्रह्मण थे ।
मंदिरों के पुजारिओं को नारियल चाहिए था क्योंकि वह उनके भोजन का अभिन्न अंग था अतः पूजा के माध्यम से
वे लोग नारियल को दक्षिण से उत्तर में ले आने में सफल हो गए । अब आप ज़रा सोचिये की आज से हजारों वर्ष पूर्व में आवागमन के कितनें साधन थे , लोगों के आवागम के क्षेत्र कितनें सीमित थे ऐसे में नारियल केरल से
केदार नाथ कैसे पहुँच सकता था ? शंकाराचार्य के पूर्व मध्य भारत तथा उत्तर-भारत में मीमांसक , बुद्ध, महावीर
एवं तंत्र का अधिक जोर था और इन साधनाओं में किसी चीज की जरुरत नहीं पड़ती क्योंकि इनका सम्बन्ध साकार
से सीधे तौर पर नहीं होता।
हिंदू लोग चंदन का प्रयोग करते हैं और सूफी लोग लोबान का क्या गंध का साधना से कोई सम्बन्ध है ?
यह बिषय भी कम रोचक नहीं अतः हम यहाँ चन्दनं को समझनें की कोशिश करते हैं। चंदन कहाँ-कहाँ लगाया जाता है ? सर पर वह स्थान जहाँ चोटी रखी जाती है, मस्तक का मध्य भाग, ज्ञानेन्द्रियाँ, भुजाओं का मध्य भाग,
कंठ,ह्रदय, नाभि, मेरु-दंड का निचला भाग आदि चंदन लगाने के स्थान हैं । तंत्र-साधना में चक्रों की ऊर्जा को
रूपांतरित करनें की ध्यान बिधियाँ हैं और पूजा-पाठ तथा साकार साधना में यही काम चंदन के माध्यम से करनें
का प्रयाश किया जाता है । आगे चल कर जब हम चक्र-साधना की बात को देखेंगे तब आप को स्पष्ट हो पायेगा की
चक्रों का हमारे जीवन में क्या महत्व है ?
चंदन जहाँ भी होगा एक रेडियो-धर्मी पदार्थ की तरह अपने चारों तरफ़ एक विशेष प्रकार का ऊर्जा-क्षेत्र
बना लेता है जिसके अंदर रहनें वाले के अंदर की उर्जा का रुख बदलनें लगता है। आप कभीं चंदन लगा कर देखना -
और तब हमारी कही जा रही बातों पर सोचना-आप को बड़ा मजा मिलेगा । ॐ की साधना के लिए चंदन एक
अति आवश्यक बस्तु है , आगे चलकर तंत्र-साधना के अंतर्गत चक्र-विज्ञानं में हाँ आज्ञा चक्र के सन्दर्भ में पुनः
चंदन की कुछ और बातों को देखेंगे ।
=======ॐ========

Thursday, April 16, 2009

मन्दिर-१० [तब और अब के मन्दिर]

** मन्दिर वह जहाँ---------
१- मन सिकुड़ता है और चेतना फैलती है
२- वह आँख मिलती है जिससे परमात्मा दिखता है
३- परमात्मा की आवाज गूंजती रहती है
जानें या अनजानें में होश मय साधक जब पहुंचता है तब उसका तन, मन और बुद्धि निर्विकार हो उठते हैं।
** परम प्रीति में डूबा प्रेमी मन्दिर से खिचता चला जाता है उसको कोई रोक नहीं सकता ।
*** कल के मन्दिर और आज के मन्दिर
१- कल के मन्दिर प्रयोग शालाएं थे जहाँ से गणित, ज्योतिष, ज्ञान, विज्ञान की उत्पत्ति हुई और आज के मन्दिर
राजनीति के केन्द्र बन गए हैं।
२- पहले के मन्दिर साधकों द्वारा बनाए गए हैं और आज के मन्दिर अंहकार की उपज हैं जिनको पूजीपति
बनवाते हैं ।
३- आज हम निर्विकार ऊर्जा से परिपूर्ण प्राचीनतम मंदिरों की ऊर्जा पर विकारों की ऊर्जा की चादर चढ़ा दी है।
४- बंगाल के व्याकरनी भत्तोजी एक बार मन्दिर गए और वहाँ से परम धाम चले गए।
५- कल के मन्दिर गाते थे और आज के मंदिरों में बेमन लोग गाते हैं ।
६- कल के मन्दिर हमारे अन्तः कर्ण की सफाई करते थे और आज के मंदिरों की सफाई की जाती है ।
७- कल के मन्दिर वैरागी बनाते थे और आज के मन्दिर भोग-साधनों की प्राप्ति के माध्यम हैं ।
८- कल के मन्दिर एवं मन्दिर जाने वाले दोनों जीवित होते थे और आज दोनों मुर्दे हैं ।
९- कल के मन्दिर और मूर्तियाँ हमें वह सुन्दरता देती थी जिनसे लोग आकर्षित होते थे और आज मंदिरों
तथा मूर्तियों को सजाया-सवारा जाता है ।
१०- कल के मन्दिर हमें पुकारते थे और आज के मन्दिर ...........किसको पुकारते हैं और कौन सुनता है ।
मन्दिर निराकार परम ऊर्जा के श्रोत थे लेकिन दुःख के साथ कहना पड़ रहा है की आज इनको बरात-घर की तरह प्रयोग किया जा रहा है .......सोचिये हम क्या कर रहे हैं ?
=======ॐ======

Wednesday, April 15, 2009

मन्दिर-९[मन्दिर और ध्वनी]

मन्दिर एक माध्यम है
मन्दिर योग-सिद्धि प्राप्त योगिओं की देन है जिस के माध्यम से वे अपनीं मन-बुद्धि से परे की अनुभूति को ब्यक्त किया है।
आइये इस सन्दर्भ में गीता के कुछ सूत्रों को देखते हैं-------
सूत्र- ७.८
आकाश में शब्द और वेदों में ओंकार मै हूँ----परम श्री कृष्ण
सूत्र- ९.१७
रिग-वेद, साम-वेद , यजुर्वेद तथा ओंकार मै हूँ---परम श्री कृष्ण
सूत्र-१०.२५
ॐ तथा जप-यज्ञ मै हूँ --------परम श्री कृष्ण
सूत्र- १०.३५
ब्रिहत्साम तथा गायत्री मै हूँ---परम श्री कृष्ण
अब हम इन सन्दर्भों को आधार बना कर मन्दिर को देखते हैं .........
१- अजन्ता में बुद्ध- प्रार्थना गृह है जिसके दीवारों पर चोट करनें पर तबले की धुन निकलती है ।
२- बिशुद्धा नन्द काशी में एक मन्दिर के अंदर मंत्रों के उच्चारण से कुछ गिलहरिओं को मृत्यु दिया था
जिसकी पुष्टि ब्रिटिश-डाक्टरों नें की थी और पुनः मंत्रो के उच्चारण से उनको जिंदा भी किया था ।
एक बात आप गंभीरता से सोचना--पहले मन्दिर बस्तिओं से दूर घने जंगलों में बनाये जाते थे जहाँ सब की पहुँच
सम्भव नहीं थी और अब लोग अपनें-अपनें घरों में मन्दिर बना रहे हैं --इसके पीछे क्या कारन हो सकता है?
पहले मंदिरों को साधना के अनुसार बनाया जाता था--जैसे यदि तंत्र-साधना करनी हो तो मन्दिर के बाहरी
दीवारों पर कामुक मूर्तियाँ बनायी जाती थी और गर्भ-गृह रिक्त होता था , ध्वनी आधारित मंदिरों की दीवारें
कुछ ऐसी होती थी जो ध्वनी को रूपांतरित करनें की क्षमता रखती थी ।
मन्दिर के गर्भ-गृह में बैठ कर मंत्रों का जब जाप किया जाता है तब उस जाप से जो ध्वनी गूंजती है वह दीवारों
से टकरा कर एक अलग ध्वनी उत्पन्न करती है जिस में मनुष्य के अंदर बहनें वाली ऊर्जा को रूपांतरित
करनें की क्षमता होती है ।
गायत्री और ब्रिह्त्साम छंद में ऐसी क्या बात है की इनको परमात्मा का दर्जा दिया गया है ?
मंत्र दो प्रकार के होते हैं---एक मंत्र ऐसे होते हैं जिनके जाप करनें से जाप करता स्वयं को रूपांतरित करता है और
दूसरे ऐसे मंत्र होते हैं जिनको सुनकर रूपांतरित होनें की संभावना अधिक होती है- जिनको श्रुति-छंद कहते हैं ।
======ॐ======

Tuesday, April 14, 2009

मन्दिर--८ [मन्दिर की बनावट ]

ध्यान में लीनएक योगी और एक प्राचीन मन्दिर के छाया-चित्रों को देखो------
ऐसा योगी जिसकी शिखा ऊपर की ओर खड़ी हो, वह पद्म-आशन में बैठा हो और ध्यान की गहराई में पहुंचा हो, वह
योगी सजीव मन्दिर ही होता है। मन्दिर के ऊपर आकाश को निहारता ध्वज-दंड योगी की चोटी है, मन्दिर का गुम्बज योगी का सर है, मन्दिर की काया योगी की काया है ।
मन्दिर कोई स्थान या ईमारत नहीं यह तो द्वार है --द्वार कुछ करता नहीं केवल लोगों को देखता रहता है।
मन्दिर-द्वार के बाहर भोग- संसार होता है और अंदर गर्भ-गृह में वह शुन्यता होती है जो सीधे परम को दिखाती है।
मन्दिर के घंटे को क्या आप नें कभीं बजाया है? यदि नहीं तो बजा कर देखना। घंटे से जो ध्वनि गूंजती है उस
ध्वनि में स्वयं को दुबोनें का यत्न करना, हो सकाता है आप को ओंकार की वह परम ध्वनि मिले जिसकी चर्चा संत
जोसेफ बायबिलमें करते हैं और गीता जिसको ॐ, अब्यक्त ध्वनि एक अक्षर कहता है।
मन्दिर का परिक्रमा स्थल
मन्दिर के गर्भ-गृह के चारों तरफ़ परिक्रमा के लिए जगह होती है जहाँ लोग परिक्रमा करनें के बाद गर्भ-गृह में
प्रवेश करते हैं। परिक्रमा का अर्थ है संसार की भाग-दौड़ --संसार की भाग -दौड़ से थाकानें के बाद मनुष्य यह
समझ सकता है की वह क्यों,किसके लिए और कब तक भागता रहेगा।मन्दिर की परिक्रमा हमें बताती है की तुम
यहाँ क्यो आए हो?
मन्दिर का गर्भ-गृह
मन्दिर के गर्भ गृह के मध्य में मूरत हो सकती है या कुछ नहीं भी हो सकता। गर्भ-गृह के मध्य बिन्दु को यदि
ऊपर की ओर ध्वज- दंड से मिलाया जाए तो मन्दिर दो भागों में बिभाजित होता है। गर्भ गृह में मंत्रों का जाप होता
है, जाप से उठनें वाली ध्वनि चारों तरफ़ मन्दिर की दीवारों से टकराकर एक अलग ध्वनि पैदा करती है जो अंदर
की ऊर्जा को रूपांतरित करती है।
गर्भ-गृह में कोई खिड़की नहीं होती। भारत में जब ब्रिटिश आए तब उनके साथ धर्म-प्रचारक भी आए। ब्रिटिश
लोग भारतीय मंदिरों को शरीर के लिए हानिकर बताया लेकिन जब वे मन्दिर के पुजारिओं को देखा तो उनको
बिश्वाश न हुआ की यहाँ रहनें वाले इतनें स्वस्थ होंगे?
मन्दिर संसार एवं परम के मध्य एक रहस्य है जो अपनें इन्द्रीओं से कुछ नहीं ब्यक्त करता लेकिन उसकी चुप्पी वह सब कह देती है जिस को हम सुनना नहीं चाहते।
======ॐ=======

गीता-मकरंद

आप गीता -मकरंद में आमंत्रित है------
१- करता भावअंहकार की छाया है गीता-३.२७
२- गुणों के भावों से सम्मोहित ब्यक्ति गुनातीत परमात्मा से
दूर रहता है गीता-७.१२,७.१३
३- कर्म करता गुण हैं गीता- २.४५, ३.५, ३.२७
४- गुणों को करता समझनें वाला द्रष्टा- साक्षी होता है गीता- १४.१९, १४.२३
और आगे देखिये................
राग से वैराग तक की पैदल यात्रा का नाम कर्म-योग है
और वैराग में ज्ञान प्राप्ति से आत्मा-परमात्मा की उडानका नाम ज्ञान-योग है।

ज्ञान से वासना रहित निर्विकार प्यार की अनुभूति मिलती है।

निर्विकार प्यार में परमात्मा बसता है।

चाह रहित प्यार को निर्विकार प्यार कहते हैं ।

निर्विकार प्यार का केन्द्र ह्रदय है

वासना का स्थान भ्रमित मन तथा अज्ञान से भरी बुद्धि होती है ।
और आगे देखिये.........
अमेरिका के वैज्ञानिक अपनें खोज के आधार पर कहते हैं------
निर्विकार प्यार में मस्तिष्क के छः प्रकोष्ट सक्रीय रहते हैं और वासना में मात्र एक प्रकोष्ट सक्रीय रहता है।
वासना से हम सम्मोहित इस लिए होते हैं की हम तृप्त हो जाए लेकिन क्षणिक तृप्ति और अधिक अतृप्ति पैदा करदेती है । अब आप समझ सकते हैं की योगी क्यों तृप्त रहता है और भोगी कभीं तृप्त हो नहींपाता ।
योग अर्थात परमात्मा के प्रीती में डूबा ब्यक्ति सदैव खुश रहता है ।

=======ॐ========

Monday, April 13, 2009

मन्दिर--७

खजुराहो की मूर्तियों के तन से कामऔर मनसे राम टपकता है----क्यों?
खजुराहो मंदिरों में बाहर दीवारों पर कामुक मूर्तियाँ हैं और अंदर गर्भ-गृह रिक्त है---क्यों?
मध्य- भारत चंदेला चंद्र-मुखी राजपूतों के अधीन सन ९०० से १६०० इस्बी तक था। खजुराहो उनकी राजधानी थी।
खजुराहो के मंदिरों का निर्माण चंदेला राजाओं द्वारा सन १२०० के आस-पास किया गया है। राजपूत दू प्रकार के होते हैं--चंद्र-मुखी और सूर्य-मुखी। सूर्य मुखी राजाओं में श्री राम आते हैं जिनकी चर्चा हम आगे करेंगे। खजुराहो मंदिरों को आपनें देखा है या नहीं --यह बात आप जानते होंगे लिकिन यहाँ हम आप को इन मंदिरों से मिलाने का प्रयत्न कर रहे हैं। आप आगे चलनें के पहले उपनिषद की इन पंक्तियों को देख लें-----
Health,a light body,freedom from cravings, a gloving skin, sonorous voice, fragrance of body, these signs indicate the progress in the practice of meditational techniques.
गीता-सूत्र ७.११ में परम श्री कृष्ण कहते हैं--शास्त्रानुकूल काम, मैं हूँ --अब आप इस बात पर सोंचें की ऐसा काम क्या हो सकता है? आगे हम अपनें ब्लॉग के मध्यम से आप को तंत्र-साधना के बारे में भी बताएँगे जहाँ शास्त्रानुकूल काम को आप अच्छी तरह समझ सकते हैं। वासनायुक्त काम संसार से जोड़ता है और वासना रहित काम ब्रह्म से जोड़ता है। खजुराहो-मंदिरों की दीवारों की कामुक-मूर्तियाँ संसार की ओर इशारा करती हैं और गर्भ-गृह की रिक्तता उस परम शुन्यता की ओर इशारा करती है जिसमें ब्रह्म की अनुभूति मिलती है।
खजुराहो के मन्दिर अगम्य जंगल में बनाये गए हैं जहाँ उस समय पहुँचना इतना आसननहीं रहा होगा जितना आसान आज है। चंदेला लोग तंत्र-साधक थे। तंत्र में काम-उर्जा को निर्विकार बनाया जाता है जिससे
निर्विकार उर्जा से सत्य को समझा जा सके।
विकार निर्विकार का मध्यम है
और
काम राम को पानें का माध्यम है
=====ॐ=====
यह सूत्र तंत्र- साधना का परम सूत्र है

मन्दिर जानें से क्या होगा?---मन्दिर-६

विज्ञानं सभीं सूचनाओं को चार प्रकार से देखता है--ठोस[solid] , तरल[liquid], गैस[gas], और प्लास्मा [plasma] । विज्ञानं कहता है------सभीं स्टार प्लास्मा से बनें हैं, प्लास्मा गैस का ऐसा माध्यमहै जिसमें कुछ आजाद एलेक्ट्रोंस होते हैं और यह गैस इलेक्ट्रो-मग्नेटिक माध्यम से प्रभावित होता है। आप सोच रहे होंगे -----
यह बात यहाँ मन्दिर के सम्बन्ध में क्यों बतायी जा रही है?----तो अब आप इस राज को समझिये।
छोटे बच्चे को उसके अविभावक उसकी उँगलियों को पकड़ कर चलाते हैं और एक दिन वह बच्चा अपनें मां- पिता की उंगली को पकड़ कर उनको चलाता है। ईशा पूर्व में लोग अति सरल थे धर्म के नाम पर सब कुछ उन्हें स्वीकार था । उस समय लोग विज्ञानं शब्द से परिचित भी न थे। उस समय जो परम गणित-विज्ञानं लोगों ने दिया वह तो उनका प्रकृत का अनुभव था। प्रकृत को समझनें के लिए उन्होंने अपने बुद्धि को खोला और फलस्वरूप गणित-विज्ञानं निकला। Prof. Albert Einstein says---Future religion will be a cosmic religion based on experiences and free from all dogma।
प्राचीनतम मन्दिर सिद्ध योगियों के सिद्ध स्थान हैं जहाँ प्लास्मा रूपी चेतना का सघन माध्यम होता है
जिसमें आजाद एलेक्ट्रोंन की तरह चेतन मय कण गतिमान होते हैं जिनको स्थिर होनें के माध्यम की तलाश रहती
है। ये चेतन मय कण संदेश बाहक कण होते हैं जो योगियों के अनुभव को देना चाहते हैं जिससे ज्ञान के दीपक को
जलाये रखा जा सके। मन्दिर एक ऐसा स्थान है जहाँ कामुक, कामना तृप्ति के लिए भ्रमित लोग और सत्य के
खोजी भी होते हैं। प्रति दिन मन्दिर जानें से एक दिन आही जाता है जब हम अन जानें में वहाँ के उर्जा-क्षेत्र से पूरी
तरह चार्ज हो जाते हैं और वहाँ गति शील योगियों के चेतनमय संदेश वाहक कण हम में प्रवेश कर जाते हैं और हम रूपांतरित हो जाते हैं। यदि हमारा रूपांतरण होश में होता है तब हम बुद्ध बन जाते हैं और यदि रूपांतरण बेहोशी में हुआ तो हम पागल भी हो सकते हैं। मन्दिर जाना अच्छा है --आप जायें लेकिन इसको मनोरंजन का साधन न बनाये। मन्दिर प्रयोगशाला है जहाँ वे जाते हैं जो किसी भी कीमत पर सत्य को पाना चाहते हैं।
=======ॐ=======

Saturday, April 11, 2009

मन्दिर की मूरत कहती है

मन्दिर हम रोजाना जाते हैं --क्यों? कुछ तो कारन होगा--कुछ देर इस बात पर सोचें आप को शान्ति मिलेगी और हो सकता है आप की सोच आप को वह देदे जो आपके घर कोही मन्दिर बनादे। मन्दिर पहुचनेंवालों के साथ एक लम्बी लिस्ट होती है--मांगों की-जिस को हम बड़ी चालाकी से छिपाके ले जाते हैं। मूरत के सामनें हम खड़ा होकर अंदर ही अंदर बोलते ही जाते हैं, मांगते ही जाते हैं कभी सोचते भी नहीं की क्या मूरत भी हमसे कुछ कह रही है?जी हाँ मूरत भी कुछ कहती है,क्या आप सुनना चाहते हैं? तो सुनिए..............
बावले! तूं क्या कर रहा है? तूं रोजाना आता है और पुनः वापस चला जाता है, यह तेरा आवागमन कब तक चलता
रहेगा? क्या तू नहीं समझता की मैं तेरे अन्तः करन की बात को समझती हूँ? कामनापूर्ति से जो आनंद मिलाता है , वह अल्पावधि का होता है, वासना के बिषय बदलते रहनें से क्या होगा? वासना के मूल को ही क्यों नहीं समझ लेते? तूं मेरी तरह क्यों नहीं बन जाता? तूं मुझको अच्छी तरह से देख--मेरे पास वह सब है जो तेरे पास है जैसे तन, इद्रियाँ, पर क्या मैं कभीं इनका प्रयोग करती हूँ? यदि तूं इस असीमित भोग संसार में परमानन्द का मजा लेना चाहता है तो कछुए की तरह अपनें इन्द्रियों को नियंत्रित कर लो और तब तुझको पता चले गा की संसार क्या है? माया क्या है? और तूं क्यों परेसान है? तूं इन्द्रीओं के साथ इन्द्रिय रहित होनें का अनुभव कर, मन के साथ अमन की स्थिति को समझ, कामना के साथ सम-भाव को समझ, शोर से भरे इस संसार में परम शुन्यता को पकड़, तब तूं स्वयं चलता-फिरता मन्दिर हो जाएगा और इस मन्दिर की द्रष्टा मूरत--जीवात्मा को जान कर
परममय हो जाए गा ।
==========ॐ=========

Friday, April 10, 2009

मन्दिर--५

मनुष्य गुलाब का पेड़ है और मन्दिर एक नर्सरी है जहाँ इस पेड़ पर साकार-भक्ति की कलियाँ आती हैं।
क्या आप कभी गुलाब के नर्सरी की सैर किया है? यदि नहीं तो करना।गुलाब की कलियों को गौर से देखना आप को
प्रकृत का वह राज मिल सकता है जिसकी आप को तलाश है। कलीचारोंतरफ़ से काँटों से घिरी होती है, अपनें में
प्रकृत को बंद करके रखती है और वह इधर - उधर नहीं देखती, सीधे ऊपर की ऑरउसका रुख होता है,उसे किसी की
परवाह नहीं होती ।
पेड़ पर कली प्रकृत से प्रकृत में होती है और एक दिन फूल बनकर प्रकृत में फ़ैल जाती है। कली कोबंधन मुक्त होना
ही पड़ता है तब उसे प्रकृत अपनाती है। मन्दिर में जब साकार भक्ति की कली आती है तब विरक्ति भरती है। विरक्ति का अर्थ है--काम, कामना , अंहकार, क्रोध , लोभ ,और मोह के बंधन से मुक्त होना। विरक्ति से मनुष्य
प्रकृत से प्रकृत में अपनें को पाताहै। विरक्ति का आर्थ है बैराग, वैराग से ज्ञान मिलता है जो यह बताता है ---
तुम कौन हो? प्रकृत क्या है? और प्रकृत तथा तुम्हारा सम्बन्ध क्या है?
क्या कभी आप कली को तोडा है? कली को तोड़नें में अधिक शक्ति की जरुरत पड़ती है जब की फूल को
आसानी से तोडा जा सकता है। कली बंधन में होती है और फूल बंधन मुक्त होता है । मन्दिर उत्तम है लेकिन यहाँ
संसार के बंधनों से मुक्त शादियों बाद कोई हो पाता है---मन्दिर की साकार भक्ति यदि वैराग उत्पन्न करनें में
कामयाब होती है तब परा-भक्ति का द्वार स्वतः खुल जाता है जो बंधन में बंद कली को बंधन-मुक्त फूल में बदल
देती है। परा-भक्त फूल की तरह परम-खुशबू को फैलता रहता है जो उसे मन्दिर के माध्यम से मिली होती है।
साकार-भक्त कभीं तृत्प नहीं हो पाता और परा-भक्त कभीं अतृप्त नहीं हो ता । साकार भक्त संसार में डूबा
होता है कभीं-कभीं उसकी गर्दन उपर संसार से परे के आयाम कोभी स्पर्श कर लेती है और तब उसको भनक
मिलाती है उसकी---जिससे एवं जिसमें संसार है। आप मन्दिर तो जाते ही हैं---कभीं मूरत को गौर से देखना।
क्या कभीं मुस्कुराती मूरत आप को मिली है? शायद नहीं मिली होगी --मिलेगी भी कैसे मिल नहीं सकती क्यों?
कारण है और गहरा कारन है। साकार-भक्ति जब पकती है तब समभाव आता है , समभाव से भावातीत की यात्रा
प्रारंभ होती है जो अब्यक्त होती है। मन्दिर की मूरत समभाव की द्योतक है जो मन्दिर-साधना का आखिरी सीमा
है। मन्दिर की मूरत कहती है---मूरख भाग लिया ....बहुत , अब और कितना भागे गा, पा लिया सब कुछ और
क्या पाना है ....अब तो तूं भी मेरे जैसा बन जा और तब तूं वह पा जायेगा जो सब के होनें का श्रोत है।
गीता भोग से योग, काम से राम, राग से वैराग्य भाव से भावातीत तथा गुन से निर्गुण बना कर आजाद
करता है। गीता-सूत्र 14.5 कहता है---तीन गुन आत्मा को स्थूल शरीर में रोककर रखते हैं अर्थात निर्गुणी का
आत्मा स्थूल शरीर में आजाद रहता है जो किसी भी समय परम-आत्मा में मिल सकता है ---इस बात को
परमहंश राम कृष्ण कहते हैं---मायामुक्त योगी तीन सप्ताह से अधिक समय तक स्थूल शरीर के साथ नहीं रह
सकता।
मन्दिर भाव-भावातीत के मध्य समभाव उत्पन्न करनें का पड़ाव हैं।
=======ॐ=======

Thursday, April 9, 2009

मन्दिर---४

मन्दिर अंक तीन में हमनें देखा की साकार मन्दिर निराकार मन्दिर के द्वार हैं, अब कुछ और बातोंको देखते हैं
गीता-सन्दर्भ - श्लोक
7.16 6.37 13.2 9.25 9.26 12.5--12.7
गीता-सूत्र ७.१६ कहता है......
गीता सूत्र - ६.३७ के माध्यमसे अर्जुन का सातवाँ प्रश्न है----
श्रदावानएवं असंयमी योगी का मन जब विचलित हो जाता है,उसका योग खंडित हो जाता है तब उसकी क्या गति होती है? इस सन्दर्भ में श्लोक ७.१६ परम द्वारा कहा गया है। यहाँ आप योग शब्द का अर्थ परमात्मा से जुडनें से
लगायें--गीता में योग शब्द का अर्थ है--परमात्मा से जुडनें का माध्यम। सूत्र ७.१६ कहता है-------
परम कहते हैं......चार प्रकार के लोग हैं जो परमात्मा से जुड़े दिखतेहैं------एक श्रेणी उनकी है जो भोग प्राप्ति
के लिए जुड़ते हैं,दूसरे वे हैं जो मोह एवं भय के कारन जुड़ते हैं, तीसरे वे हैं जो बुद्धि केंद्रित लोग हैं जो परमात्मा को
अपने बुद्धि में कैद करना चाहते हैं और चौथी श्रेणी उनकी है जो ज्ञान प्राप्ति चाहते हैं। गीता-सूत्र १३.२ ज्ञान की
परिभाषा देता है-----ज्ञान वह जिससे क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का पता चले। क्षेत्र में विज्ञानं एवं मनो विज्ञानं तथा वह सब आता है जिसको हम समझ सकते है, जिनको मन-बुद्धि पकड़ पानें में समर्थ हैं लेकिन क्षेत्रज्ञ क्षेत्र का नुक्लिअस है
जिस से क्षेत्र का अस्तित्व है। क्षेत्र विकार सहित है और क्षेत्रज्ञ विकार रहित है जो जीवात्मा के नम से जाना जाता
है तथा जिसको परमात्मा का अंश समझा जाता है।
गीता-सूत्र ९.२५
यहाँ पूजकों की तीन श्रेणियां बताई गई हैं---देव-पूजक, पित्र-पूजक, भूत-पूजक। आगे गीता-सूत्र ९.२६ कहता है की इनसे परे भी एक श्रेणी होती है को निष्काम परमात्मा में लींन रहते है।
भक्ति में तल्लीन दिखने वालों की दो श्रेणियां हैं--एक वे लोग हैं जो कामना- पूर्ति के लिए मन्दिर जाते हैं और दूसरी श्रेणी उनकी है जो निष्काम परमात्मा का स्मरण करते रहते हैं।यहाँ पहली श्रेणी के लोग मन्दिर को
अपना घर समझते हैं और दूसरे लोग अपनें घर को भी मन्दिर समझते है।गीता सूत्र १२.५ कहता है की निराकार उपासना अति कठिन उपासना है अतः साकार से निराकार में पहुचना सुलभ है।निराकार में पहुँचा भक्त परमात्मा
में समा गया होता है उसके लिए पूरा ब्रह्माण्ड ही परमात्मा होता है, वह परमात्मा को खोजता नही, खोजेगा भी कैसे, वह जहाँ भी होता है उसके चारों तरफ़ परमात्मा की उर्जा प्रवाहित होती रहती है।
मन्दिर में जब तक मन की आब्रित्तियां रूकती नहीं तब तक वह आप के लिए मन्दिर नहीं हो सकता।
जहाँ आप का अंहकार प्रीती में नहीं बदलता वह मन्दिर आप के लिए परमात्मा का द्वार नहीं बन सकता।
जहाँ आप लोगों से अपनें तन-मन से घीरे होते हैं वह आप के लिए मन्दिर नही हो सकता।
मन्दिर उस तह खानें का द्वार है जिसमें प्रवेश करता पुनः भोग-संसार में नहीं दिखता।
========ॐ========

मन्दिर--३

प्रकृत को धारण करनें वाले नियमों की जो एक झलक दे, वह धर्म है।
धर्म शब्द को ब्यक्त करनें के लिए आज अनेक शब्द हैं लेकिन मन्दिर से वह परम धर्म झांकता है जो इन्द्रियों की
पकड़ से परे का है। गीता कहता है--ब्रह्म की अनुभूति मन-बुद्धि के परे की है और मन्दिर से ऐसी ही अनुभूति हो
सकती है।
मन्दिर दो प्रकार के होते हैं---एक मन्दिर वे मन्दिर हैं जिनको हम सब जगह देखते हैं और दुसरे मन्दिर
वे हैं--जिनको इन मंदिरों से प्राप्त किया जा सकता है। यह बात शायद आप को प्रीतिकर न लगे लेकिन सत्य को
कैसे छिपाया जा सकता है? जो मन्दिर हम जनाते हैं वह कामना पूर्ति के श्रोत हैं और दूसरे मंदिरों से कामना का
उठना समाप्त हो जाता है।
सभी धर्म कहते हैं---परमात्मा सब का एक है लेकिन पता नही क्यों सब की पीठ एक दूसरे की ओरहै।
क्या कारन हो सकता है?----कारन है अंहकार। जुंगकहते हैं ४० वर्ष से ऊपर उम्र के लोगों में शायद ही कोई
ब्यक्ति मिले जिस में परमात्मा की जोच किसी न किसी प्रकार की न हो और जर्मन विचारक नित्झे कहते हैं--
परमात्मा शब्द भयभीत लोगो की उपज है। जीवित प्राणियों में मनुष्य सब का सम्राट है और सब से कम भयभीत
जिव है। यदि भय की उपज परात्मा होता तो आज पृथ्वी पर सभी जानवरों के अपनें अपनें मन्दिर होते और यह
पृथ्वी मंदिरों से भर गयी होती।
मन-मन्दिर का गहरा सम्बन्ध है--मन्दिर वह स्थान है जहा मन शांत होता है। आज हम जिन-जिन मंदिरों में जाते हैं वे मन्दिर अपनें में वह चाभी छिपाए हुए हैं जिस से परम मन्दिर खोला जा सकता है।

Tuesday, April 7, 2009

मन्दिर--२

मन्दिर-सन्दर्भ में कुछ बातोंको हमनें पहले अंक में देखा अब कुछ और बातों को देखते हैं।
१- सिंध घाटी की सभ्यता[७०००--१००० ईशा पूर्ब] की खुदाइयों में भी पूजा-गृहों को पाया गया है।
२- यूनान में डेल्फी के ओराकलकी स्थापना ईशा पूर्ब ८०० वर्ष मानाजाता है जो एक मन्दिर था और जहाँ से
भविष्य में झाका जाता था।
३- मिस्रकी सभ्यता को लोग वहाँ के फराह राजाओं के कारन जानते हैं जो सूर्य के उपासक थे और पिरामिड्स की
रचनाएँ करवाया। यह समय था इशापूर्ब ३२००--३१ वर्ष।
४- इशापूर्ब में जेरुसलेम के मन्दिर में अनेक मूर्तियाँ थी जो नित्य पूजी जाती थी।
५- २००० ईशापूर्ब से पारसी लोग सूर्य-देवता की पूजा कर रहें हैं।
६- इस्टर द्वीप में २० फीट से भी ऊँची-ऊँची पत्थर की विशाल मूर्तियों का रहस्य आज भी रहस्य ही है। यहाँ सभी
मूर्तियाँ समुन्द्र की ओरमुह करके खडी हैं, ग्राम-देवताओं की तरह।
७- ईशा पूर्ब २०० से इशाबाद २५० वर्ष में बनी अजंता की कृतियाँ भी क्या मन्दिर नही हैं?
८- चीन के हुनान प्रदेश में ईशा पूर्ब ६८ वर्ष का बौध मन्दिर है जहाँ भारत के बौध भिक्षुक पहली बार चीन धर्म
प्रचार के लिए पहुंचे थे।
९- ८४९ ईशा बाद मेमार में पागन में पहाडों को कट कर बौध मंदिरों के शहर का निर्माण किया गया था जिसको
मंगोल के लोग बरबाद किया लेकिन अवशेष आज भी पड़े हैं।
१०- चंदेला राजाओं द्वारा सन १२०० के आस-पास तंत्र - साधना के लिए खजुराहो के मंदिरों का निर्माण कराया
गया था जो आज पर्यटन का केन्द्र है।
तंत्र-विज्ञानं के जन्म दाता शिव हैं,शिव को शून्य का आविष्कारक भी माना जाता है, प्राचीनतम
मंदिरों का सीधा सम्बन्ध शिव- लिंगम से है,शिव को तो लोगों ने पूजा यहाँ तक की आदि शंकाराचार्य को शिव का
अवतार भी माना गया लेकिन उनके विज्ञानं को लोगों नें अपनें पूजा से दबा दिया क्योंकि इसका सीधा सम्बन्ध
काम[sex] से है। गीता में भी परम श्री कृष्ण के १३ सूत्र हैं जिनमें काम-नियंत्रण की ध्यान बिधि भी दी गयी है।
परम श्री कृष्ण सीधी बात करते हैं की मनुष्य पाप-कर्म काम के सम्मोहन में करता है।
मन्दिर मनुष्य के मन की उपज है जहाँ यह विश्राम करता है।
मन्दिर परिषर के बाहर भोग-संसार की पकड़ मजबूत होती है और अंदर परम-शून्यता का खिचाव गहरा होता है।
======ॐ =======

मन्दिर रहस्य [१]

मन और मन्दिर का गहरा सम्बन्ध दिखता है, हम यहाँ मन्दिर की एक श्रंखला प्रारम्भ कर रहे हैं जो मन-साधना
के सम्बन्ध में आगे चल कर आप को मदद करेगी। आइये अब हम कुछ ऐतिहासिक बातोंकी स्मृति में चलते हैं।
कुरुक्षेत्र का प्राचीन शिव-मन्दिर........गीता-श्लोक-१
कुरुक्षेत्र को गीता महाभारत युध्य से पहले धर्म-क्षेत्र की संज्ञा देता है जैसा की गीता-श्लोक-१ से स्पस्ट है---क्यों यह
धर्म क्षेत्र था? गीता साधना में आप इस बिषय को अपना एक लक्ष्य बना सकते हैं। थानेश्वर और कुरुक्षेत्र एक शहर
के दो नामलगते हैं। डेल्ही-चंडीगढ़ मार्ग पर करनालसे ३० मिनट की दूरी पर तीर्थ स्थान कुरुक्षेत्र है। थानेस्वर ५१
शक्ति-पीठों में एक है। राज्य बर्धन के छोटे भाई प्रभाकर बर्धन के पुत्र--हर्ष बर्धन थानेश्वर के राजा 590-657
समयावधि में थे। महमूद गजनी थानेश्वर को 1011 में अपनें अधिकार में ले लिया था और लूटनें के इरादे से इस
प्राचीन मन्दिर को तोड़ दिया था। पूर्व में भारत की सारीसंपत्ति मंदिरों में बंद होती थी। गुजतात में सोम नाथ का
मन्दिर भी इसके द्वारा ही तोडा गया था। सन १९५१ तक थानेश्वर एक गाँव जैसा था। ऐतिहासिक दृष्टि से यह स्थान
घग्गर नदी के तट पर है जो प्राचीनतम पवित्र नदी सरस्वतीमें मिलाती थी। थानेश्वर इलाका सिंध नदी की सभ्यता
का क्षेत्र है जो अपनें में अनेक ऐतिहासिक रहस्यों को छिपाए हुए है।
अयोध्या का राम-मन्दिर
बाबर 1526-1530 तक भारत पर शाशन किया और सन 1528 में राम-मन्दिर को तोड़वा कर मस्जिद में इसे
बदल दिया ----ऐसी मान्यता है। बाबर के दस वर्ष बाद अकबर गद्दी पर बैठे समय में भारत के सभी भक्ति
से परिपूर्ण महान संतों का आगमन हुआ। बाबरी मस्जित के ठीक ४६ वर्ष बाद उसी राम-मन्दिर परिषर से राम
चरित मानस की रचना प्रारम्भ किया लेकिन पता नहीं क्यों राम-मन्दिर की जिक्र नही कर पाए। कहते हैं की
तुलसी दास के साथ हर पल हनुमानजी रहते थे और रम की मूरत उनके दिल में बसी थी पर राम का जन्म स्थान
उनके मानस-पटल परक्यों नही आया? अकबर के दरबार में अनेक उच्चाधिकारी हिंदू थे पर सब क्यों चुप थे ---
सोचनें का विषय लगता है।
काशी विश्व नाथ मन्दिर --काशी
औरन्जेब सन 1669 में इस मन्दिर को तोडा था जो अपनें में १२ ज्योतिर्लिन्गम में से एक को धारण किए हुए है।
काशी विश्वनथ मन्दिर ११२ वर्ष तक जीर्ण अवस्था में रहा जिसको अहिल्या बाई १७८० में पुनः बनवाया और
पंजाब के राजा रंजित सिंह १८३९ में स्वर्ण कलश से इस को सुसोभित किया। काशी नरेश को गीता और महाभारत
में जगह मिली है पर यह मन्दिर जीर्ण अवस्था में १०० वर्ष तक पड़ा रहा।

Monday, April 6, 2009

दर्द का रिश्ता--३

कभी आप अकेले में बैठ कर क्या अपनें अंदर छिपे दर्द को मह्शूश करनें की कोशिश की है? यदि नही तो अब कोशिश करके देखें।
कभी अकेले में आँख से टपकते आशुओं के साथ यात्रा किया है? यदि नही तो करके देखिये। यदि इन दो का अनुभव
आप को है तो आप ----गीता के भक्त हैं, आप ज्ञानी हैं जिसको क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का बोध होता है,आप परमात्मा से भरे हुए स्थिर प्रज्ञा योगी हैं और आप इस भोग-संसार में कमलवत रह रहे होंगे। आप चलते- फिरते गीता हैं,आप जहाँ
भी रहेंगे आप के चारोंतरफ़ परम श्री कृष्ण की उर्जा का माध्यम होगा जो जागनें के इक्षुक लोगों को परम-उर्जा से
भरता होगा और आप साकार रूप में निराकार परमात्मा तुल्य होंगे।
आज का युग विज्ञानं का युग है जो सब के चहरे पर मुस्कान लानें का पूरा प्रबंध कर रहा है लेकिन क्या लोग प्रशन्न हैं? मनों- विज्ञानं का एक सिद्धांत है---जो हम भुलानें की कोशिश करते हैं उसे हम भूल नही पाते
हम जितना प्रयत्न भुलानें के लिए करते हैं वह और गहरा होता चला जाता है। दर्द को प्रकट करते है हमारेआंशू
दर्द जब अपनी सीमा पर पहुंचता है तब वह आंशू बन कर टपकता है। आंशू को पकड़ कर यदि होश पूर्बक उलटी
दिशा में यात्रा की जाए तो दर्द के केन्द्र पर पंहुचा जा सकता है जो दर्द नही है। यदि दर्द के केन्द्र पर पूरी उर्जा केंद्रित
की जाए तो यह पता चल जाता है की ये भावभरे आंशू भावातीत से आते हैं और भावातीत परमात्मा है।
गीता-सूत्र 7.12,7.13 कहते हैं----सभी भाव परमात्मा से उठते हैं लेकिन परमात्मा भावातीत है।
क्या आप आंशू के माद्यम से परमात्मा की यात्रा करना चाहते हैं? यदि हाँ तो अपनें आंशुओं से मैत्री स्थापित करें।
========ॐ========

Sunday, April 5, 2009

दर्द का रिश्ता--२

नानकजी कहते हैं---नानक दुखिया सब संसार और महानमनो वैज्ञानिक जुंगका कहना है--मनुष्य दुःख को कभी
छोड़ना नही चाहता।दुःख-सागर में होश की किस्ती से सफ़र करनें वाला जो अपनें जीवन का अंत ही देखता रहता
है वह उस अंत में अनंत की अनुभूति पा सकता है।ओस्कर वाइल्ड कहते हैं---there are two misfotunes in one,s life--one is to get and other is not to get----यहाँ पहली स्थिति को हम दुःख कहते हैं और दूसरी स्थिति को सुख कहा जाता है। दुःख-दर्द और सुख-आनंद की एक कहानी यहाँ दी जा रही है जो आप को सत्य की
राह दिखा सकती है।
एक गाव में एक साधारण आदमी था,उसके परिवार में तीन लोग थे --एक वह,एक उसकी पत्नी और एक
उनकी प्यारी सी बेटी थी। एक दिन पत्नी का स्वर्ग-बासहो गया,अब वह आदमी अपनी बेटी के साथ रहनें लगा और
अपना पूरा समय बेटी पर गुजारनेंलगा। धीरे-धीरे दो वर्ष ही गुजर पाए थे की बेटी बीमार पड़ गयी। उस आदमी नें
बेदी के इलाज में अपना सब कुछ खो दिया लेकिन बेटी ठीक न हो पायी।बेटी दिन प्रति दिन सिमतनेंलगी थी और
एक दिन दम तोड़ गयी। अब आप सोच सकते हैं की उस आदमी पर क्या गुजर रही होगी? वह आदमी बिचारा
पागल सा हो गया और गाँव-गाँव भटकनें लगा। एक दिन की बात है--वह एक गाँव के बाहर एक पेंड के नीचे बैठ
कर आराम करते-करते सो गया और एक स्वप्न देखा की वह स्वर्ग में है। सर्ग में बाल देवों की एक अंत हीन पंक्ति
उसकी ओर आरही है,सभी बाल देवों के हाँथ में जलती मोमबत्तियां हैं लेकिन उसकी बेटी एक बुझी हुयी मोम बत्ती
लेकर क़तर में चल रही है, वह दौड़ा दौड़ा बेटी के पास गया और पूछा ---बेटी तेरी मोमबत्ती क्यों बुझी हुयी है?
बेटी कहती है--पिता जी क्या करू हमारे साथी बार-बार इसको जलाते हैं लेकिन आप के आशु इसे बार-बार बुझा
देते हैं। इतनें में उसकी नींद टूट जाती है और वह उस दिन से खुश रहनें लगता है।
दर्द में होश की एक बूंद परमानन्द का सागर बन सकती है
======ॐ =======

Saturday, April 4, 2009

दर्द का रिश्ता --१

दर्द परम धाम एवं नर्क ,दोनों का द्वार है।
दर्दमेंरुक जानानर्क की ओरलेजाता है और दर्द की मैत्री परम-धाम की यात्रा है।
मीरा में दर्द उठा मीरा उस दर्द को स्वीकारा और जीवन भर उसके साथ रहीऔर कहते हैं मीरा द्वारिका धीशकी मूर्ति में समा गयी थी। कहानियाँ अपनें में परम सत्य को छिपाए होती हैं,उन सत्यों को खोजना ही साधना है। कहानियो को मनोरंजन का साधन बनाना नर्क की ओर की यात्रा है और कहानियों में सत्य को खोजना ही परमात्मा की खोज है। कहानियो का एक छोर नर्क की ओर होता है और दूसरा छोर निर्वाण की ओर इशारा करता है।
मीरा[1498-1546] नानक[1469-1539] कबीर[1398-1518] भारत भूमि पर एक साथ 20 वर्ष तक रहे और वह वक्त था अकबर का। मीरा अपनें दर्द को मथुरा से द्वारिका तक फैलाया,उनका केन्द्र था कन्हैया।
कबीर अपंनीभूख की दर्द को राम से जोड़ कर काशी के अहंकारी तर्क-शास्त्रिओं में वेदान्त की लहर उठानी चाही।
नानक कहते हैं-----नानक दुखिया सब संसार और अपनें इस मूल-मंत्र के साथ पंजाब से कर्बला,मक्का और
जेरुसलेम तक की यात्रा करते रहे। नानक-कबीर का केन्द्र राम था और मीरा का केन्द्र कन्हैया था। आप के
दर्द का केन्द्र क्या है? मीरा कम उमर में अपनें सभी सम्बन्धियों को खो दियाथा जैसे माँ,पिता,पति, सशुर आदि।
वृन्दाबन में जब उनका रहना सम्भव न हो सका तब उनको द्वारिका में शरण लेनी पड़ी थी। मीरा के आखिरी वक्त
के समय उनके खानदान का एक सदस्य मेवार का राजा था जिस को मीरा से बहुत लगाव था। राजा अपनें सेना का एक दल द्वारका मीरा को लेने केलिए भेजा सेनापति के आग्रह के सामनें मीरा ना न कह पायी और बोली--
ठीक है मैं चलूंगी लेकिन पहले कन्हैया से पूछ लू---आप लोग यही विश्राम करें। कहानी कहती है की मीरा गयी
कन्हैया के सामनें और उस मूर्ती में समा गयी। आप क्या समझ रहे हैं ---क्या यह बात सही है?----सही होनी
ही चाहिए परम-भक्त मूर्ती में समाया ही होता है।
मीरा का दर्द परम-धाम दिया और आप अपनें दर्द से क्या उम्मीद करते हैं?



Thursday, April 2, 2009

क्या आप जानते हैं?---४

जब जिंदगी तमसागर में डूब रही हो , दुख के घने बादलों से दर्द की बुँदे टपक रही हों, जिंदगी का आखिरी छोर दिख
रहा हो,अपनें जब पराये से दिखते हों, तब अन्तः करण में एक अब्यक्त भावकी उर्जा शरीर में भरनें लगती है जो हमें वह देती है जिसको ब्यक्त नही किया जा सकता। इस सम्बन्ध में आप देब फुल्टन के अनुभव को देखे----------
सन १९८९ फरवरी माह की बात है,मेरी मां जो ५५ वर्ष की थी ब्रेन-टुमरसे जूझ रही थी,उनको मशीन से भोजन एवं श्वाशदी जा रही थी, वे पूर्ण रूपसे कोमा में थी। एक दिनकी बात है, मै बच्चे को जन्म देनें के लिए हस्पताल जा रही थी और घर में डोक्टोर्समां को मशीन से अलग कर रहे थे क्योंकि अब उन्हें कोई उम्मीद न थी।
मांका कई बार आपरेसन पहले हो चुका था पर परिणाम निराशापूर्ण ही था। मां घर में आखिरी स्वाश भर रही थी और मैं प्रशव- दर्द में तड़प रही थी। मैनें बच्चे को जन्म दिया और बोली---मां को टेलीफोन करो। मां को टेलीफोन किया गया । उधर घर में मां उठकर बैठ गयी थी और बोल रही थी की मेरी बेटी नें बच्चे को जन्म दिया है। मां से मैं बात की मां बोली---हाँ बेटी मुझे पता है , मैं भी तेरे फ़ोन का इंतजार कर रही थी। पहले तो मुझे
यकीं न हुआ पर मां जो कई सालों से चुप थी, उनकी आवाज मुझे ऎसी लगी जैसे आकाश-वाणी हो रही हो। मैं घर
आयी मां मेरे बेटे को अपनें गोदी में लिया और उस से बातें करनें लगी। इस घटना से तो सप्ताह बाद मेरी मां मुझे
बिना बताये शरीर छोड़ दिया।
एक मां किस मध्यम से अपनें बच्चे से जुड़ी होती है---आप इस पर सोचें।
======ॐ=======

क्या आप जानते हैं?--३

मनुष्य के अंदर सूचना भेजने और सूचना प्राप्त करनें के सेंसर कुदरत लगा रखी है--हम सूचना भेजते रहते हैं और
दूसरे द्वारा भेजी गयी सूचना को ग्रहण भी करते हैं लेकिन इस बात पर यकींन कितनें करते हैं? मनुष्य में चेतना एक ऐसा तत्त्व है जो सूचनाओं के भेजने तथा उनको ग्रहण करनें का काम करती है लेकी चेतना क्या है? इस बात के प्रति कितनें लोग संवेदनशील हैं। मन,बुद्धि,चेतना तथा आत्मा का एक ऐसा माध्यमकुदरत से हमें मिला हुआ है जो क्या है के बारेमें सोचना हमें संदेह की ओरले जाता है। मन-बुद्धि को कुछ हद तक समझनें का प्रयत्न तो किया जा सकता है लेकिन चेतना-आत्मा को बुद्धि में कैद करना असंभव बात है। चेतना चेतन मय कणोंको हर पल छोड़तीहै जैसे एक राज-धर्मी पदार्थ करता है। बच्चा चाहे जितनी दूरक्यों न हो उसके अन्तः करणकी गहरी
संवेदनाएं अज्ञात माध्यम से उसकी माँ तक पहुंचती रहती हैं और माँ उनसे अप्रभावित नही रह पाती। चेतना की
उर्जा आत्मा से है,आत्मा स्वयं परमात्मा का अंश है ।
बच्चा अपनें माँ की गोदी में जन्नत का आनंद पता है लेकिन पिता की गोदी में उसको ऐसा अनुभव नही
मिल पाता। पिता दिन-रातभोग संसार में भागता फिरता है--उसको अपना परिवार चलाना है की सोच एक पल भी
कही रूकनें नहीं देती। पिता का सांसारिक सफर यदि बेहोशी भरा है तो वह पिटा विकारों से भरता चला जाता है।
धीरे-धीरे उसकी विकार रहित उर्जा विकारों से भर कर नकारात्मक उर्जा में बदल जाती है जिसकी भावों को खीचनें
की शक्ति रूपांतरित हो कर उसे परिवार से दूर करनें लगाती है। सनासर पिता को अपनें बच्चे से दूर करता है और माँ----माँ बच्चे कोगोदी में लेकर संसार की तरफ़ पीठ करके बैठ कर अपनें बच्चे में खोई रहती है जिसको गीता
परा-भक्ति कहता है। एक बच्चा माँ को विकार रहित करके निर्विकार बना कर परमात्मातुल्य बना देता है और
पीता जो मन-बुद्धि का गुलाम होकर अंहकार से भरा हुआ स्वयं को सब कुछ समझता हुआ संसार के गुरुत्व में
उलझ कर स्वयं के परिवार से दूर होता चला जाता है -----और एक दिन आ ही जाता है जब--------
वह अपनें ही घर में स्वयं को बेगाना सा देखनें लगता है।
संसार में बेहोशी भरा जीवन नर्क का जीवन है और होश भरा जीवन परमानन्द है---आप सीसा चाहें वैसा आप का
जीवन ह सकता है ............लेकिन इतना याद रखें ............
माँ की जगह कोई नही भर सकता
=========ॐ========

Wednesday, April 1, 2009

आप जानते हैं [भाग-२]

गीता का परम धाम मां की गोदी है जिसको बुद्धनिर्वाण,महाबीर निर्ग्रन्थ कहते हैं। हमें निर्वाण-निर्ग्रन्थ का अनुभव तो नही लेकिन मां की गोदी को कौन भूल सकता है? गीता कहता है ---गुनातीत,समत्व-योगी बाल स्वभाव में परमात्मा से परमात्मा में खेलता रहता है और संसार को एक द्रष्टा के रूप में देखता रहता है। भी गीता यह कहता है---समत्व-योगी सदियों के बाद आता है जो हमारे रुख को परम की ऑरकरना चाहता है। हम सतपुरूष के साथ रहते है,उनके पैर से पैर मिलाकरचलते भी है लेकिन कुछ दुरी तक ही। हम सत पुरूष के साथ
रह कर उनके चलनें,उठानें,बैठनें तथा बोलनें को सीखते हैं और जब सीखजाते हैं तब उनको समाप्त करनें का प्रबंध
करनें लगते हैं। यीशु को सूली पर किसने लटकाया , सुकरात को जहर किसने दिया , दया नन्द सरस्वती को किसने जहर दिया ---उनके ही समर्थकोंनें । इतिहास बताता है की हमनें सभीं पवित्र लोगों को मारा एक मां को
छोड़ कर लेकिन अब क्या हो रहा है, आप नित-प्रतिदिन समाचार पत्रों में पढ़ रहे हैं। आज मां के बीज को गर्भ मेंही समाप्त किया जा रहा है ----यह हम लोग क्या कर रहे हैं? मां को अपने बच्चे से सम्पर्क्के लिए किसी साधन की जरुरत नही, मां हजारों मील दूर रह कर भी अपनें बच्चे की सभीं संवेदनाओं को प्राप्त करती रहती है।
मां तो आत्मा है वह कैसे बदल सकती है तो फ़िर क्या हम भोग में इतनें डूब चुके हैं की मां भी हमारे लिए एक
भोग-तत्त्व बन गयी है।
मां मां है और मां ही रहेगी हमें स्वयं के बारे में सोचना है।
=====ॐ=====

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