Thursday, November 16, 2023

पतंजलि योग दर्शन में प्राणायाम क्या है ?


प्राणायाम भाग - 02

प्राणायाम भाग - 01 में स्थूल शरीर में स्थित 10 प्रकार के प्राण ( वायु ) , शरीर में उनके केंद्र  तथा कार्यों को बताया गया और अब इस अंक में पतंजलि योग दर्शन में प्राणायाम को समझने के लिए साधनपाद सूत्र : 46 - 53 ( 08 सूत्र) को देखते हैं ।

 पहले ऊपर व्यक्त 08 सूत्रों की रचना के संबंध में देखते हैं और इसके बाद इन सूत्रों के आधार पर योग साधना की प्रारंभिक बातों भी देखा जाएगा ।

अब ऊपर के तीन सूत्रों का हिंदी भाषान्तर देखते हैं 

शरीर की वह मुद्रा जिसमें स्थिर सुख मिले , उसे आसन कहते हैं (साधनपाद सूत्र : 46 )।

जब आसन अभ्यास में स्थिर सुख मिलने लगे तब आसन अभ्यास के साथ चित्त को अनंत पर एकाग्र करने का का भी अभ्यास प्रारंभ कर देना चाहिए (साधनपाद सूत्र: 47 )। 

आसान सिद्धि प्राप्त योगी सभीं प्रकार के द्वंद्वों से मुक्त रहने लगता है ( साधन पाद सूत्र : 48 ) ।

अब साधन पाद के अगले सूत्र : 49 - सूत्र : 53 तक को देखते हैं ….

तस्मिन् सति श्वास प्रश्वास गति विच्छेद: प्राणायाम: 

आसन सिद्धि से स्वत प्राप्त श्वास - प्रश्वास गति विच्छेद को प्राणायाम कहते है । इस सूत्र को और स्पष्ट रूप से आगे समझा जा सकता है जब चार प्रकार के प्रणयामों की चर्चा होगी , तब ।

पतंजलि साधन पाद सूत्र : 50

स तु बाह्य आभ्यंतर स्तंभ वृत्ति ।

देश काल संख्या परिदृष्टो दीर्घ सूक्ष्म : ।।

सूत्र के शब्दों को समझते हैं …

बाह्य > बाहर अर्थात श्वास अर्थात रेचक प्राणायाम , आभ्यंतर > अंदर अर्थात पूरक प्राणायाम 

और स्तम्भ वृत्ति > दोनों की अनुपस्थिति अर्थात कुंभक प्राणायाम 

सूत्र भावार्थ 

➡तीन प्रकार के प्रणायामों की बात महर्षि यहां कर रहे हैं जो  रेचक प्राणायाम ,पूरक प्राणायाम और कुम्भक प्राणायाम नाम से जाने जाते हैं ।  रेचक और पूरक प्रणायमों में श्वास क्रिया देश , काल एवं संख्या की दृष्टि से दीर्घ एवं सूक्ष्म होनी चाहिए , इस बात को आगे समझा जाएगा ।

अंदर की वायु को बाहर निकालने को रेचक प्राणायाम  , देह के बाहर की वायु को नासिका से अंदर लेने को पूरक प्राणायाम कहते हैं । रेचक और पूरक के संगम को बाह्य कुंभक तथा पूरक एवं रेचक के संगम को अंतः कुंभक प्राणायाम कहते हैं ।

अब देश , काल और संख्या को समझते हैं …

रेचक , पूरक और कुंभक की अवधि लंबी होनी चाहिए , संख्याएँ प्रति मिनट कम होती जानी चाहिए और वे सूक्ष्म होनी चाहिए । सूक्ष्म का अर्थ है गति धीमी होनी चाहिए ।

एक सामान्य ब्यक्ति 02 सेकेण्ड में एक श्वास लेता है । इस समय को धीरे - धीरे बढ़ाते  जाना चाहिए । श्वास और प्रश्वास एवं कुंभक की अवधि लंबी होनी चाहिए । रेचक और पूरक की क्रियाएं सूक्ष्म होनी चाहिए और इनकी संख्या समय इकाई के आधार पर धीरे - धीरे कम होती जानी चाहिए।

पतंजलि साधन पाद सूत्र : 51

" बाह्य आभ्यंतर बिषय आक्षेपी चतुर्थः "

पिछले सूत्र - 50 में तीन प्रकार के प्राणायान बताए गए - रेचक , पूरक और कुंभक और अब बाह्य कुंभक नाम के चौथे प्राणायाम की बात महर्षि पतंजलि कर रहे हैं अर्थात कुंभक प्राणायाम दो प्रकार का है ; अंतः कुंभक और बाह्य कुंभक । श्वास लेते समय जब श्वास का अंत होता है और कुछ समय बात प्रश्वास क्रिया प्रारंभ होती है अर्थात श्वास - प्रश्वास के संगम को जहां दोनों अनुपस्थित रहते हैं , अंतः कुंभक और प्रश्वास और श्वास के संगम को जहां दोनों अनुपस्थित रहते हैं उसे बाह्य कुंभक कहते हैं। 

साधन पाद सूत्र : 52 + 53

" तत : क्षीयते प्रकाश आवरणम् "

 प्राणायाम सिद्धि से प्रकाश को ढकने वाले आवरण (अविद्या ) क्षीण  हो जाता है और चित्त में धारणाकी योग्यता आती है । अब धारणा को देखते हैं ⤵️

किसी सात्त्विक आलंबन से चित्त का बध जाना , धारणा है । धारणा सिद्धि से ध्यान में प्रवेश मिलता है और ध्यान सिद्धि से संप्रज्ञात समाधि साधना का द्वार खुल जाता है । आगे चल कर धारणा , ध्यान और संप्रज्ञात समाधि को अलग से समझा जाएगा अभीं आसन सिद्धि संबंधित कुछ विशेष बातों को भी देख लेते हैं ⤵️ 

योगाभ्यास किसी जल श्रोत के तट पर करने से परिणाम अच्छे और शीघ्र मिलते हैं । जहां आसन अभ्यास करना हो वह स्थान शुद्ध , समतल और शांत होना चाहिए । आसन अभ्यास से समाधि की यात्रा प्रारंभ होती है अतः आसन अभ्यास जी जगह का चुनाव उचित होना चाहिए । 24 घंटे में दो अमृत बेला आती हैं ; सूर्योदय के ठीक पहले और सूर्यास्त के ठीक पहले । अमृत बेला आसन अभ्यास की उत्तम बेला होती है।  शरीर स्वास्थ्य और पेट साफ होना चाहिए। आसन सिद्धि का अभ्यास योग में उतरने का पहला चरण है अतः कुछ सावधानियां को ठीक से समझ लेना चाहिए । योगाभ्यास कर रहे योगी के लिए सम्यक निद्रा एवं सम्यक जागरण का अभ्यासी होना चाहिए । साधक को सम्यक और शुद्ध साकाहारी भोजन करना चाहिए । 

आसन अभ्यास करते समय सिर , गर्दन तथा स्पाइनल कॉर्ड  एक रेखा में भूमि पर लंबवत एवं तनाव मुक्त स्थिति में होने चाहिए । किसी एक सात्त्विक आलंबन पर चित्त एकाग्र करने का अभ्यास भी आसन अभ्यास के साथ करते रहना चाहिए।

~~< ॐ <~~ 

Friday, November 10, 2023

सांख्य दर्शन और पतंजलि योग दर्शन आधारित प्रकृति और पुरुष का आपसी संबंध कैसा है ?


सांख्य दर्शन और पतंजलि योग दर्शन के आधार पर पुरुष - प्रकृति के आपसी संबंध किस प्रकार से है ? 

इस विषय के संबंध में निम्न संदर्भों को समझें हैं ⬇️

1- पतंजलि योग साधन पाद सूत्र : 20 , 21

2 - सांख्य कारिका : 56 से 60 तक 

अब आगे ⤵️

पतंजलि साधन पाद सूत्र : 20

" द्रष्टा दृश्यमात्र : शुद्ध : अपि प्रत्यय अनुपश्य : "

अनुपश्य का अर्थ है ,  पीछे से देखना 

द्रष्टा ( पुरुष )  शुद्ध है और दृश्य ( प्रकृति ) मात्र है । 

अर्थात पुरुष शुद्ध चेतन है और प्रकृति केवल है । केवल हुई का अर्थ है पुरुष के लिए हैं जैसा आगे चल कर स्पष्ट होता है।

जो चित्त पर प्रतिविम्बित होता है , द्रष्टा ( पुरुष ) उसी को देखता है ।

बुद्धि , अहंकार और मन के समूह को सांख्य चित्त की संज्ञा देता है । इस प्रकार पुरुष का जब संयोग प्रकृति से होता है तब पुरुष चित्ताकार हो जाता है अर्थात निर्गुण पुरुष त्रिगुणी चित्त के गुलाम जैसा व्यवहार करने लगता है। अब अगले सूत्र में देखें ….

पतंजलि साधन पाद सूत्र : 21

" तदर्थ एव दृश्यस्यात्मा " 

तत् अर्थ एव दृश्यस्य आत्मा 

<> दृश्य ( प्रकृति ) , तत् (पुरुष ) के लिए है ।

पतंजलि साधन पाद सूत्र : 20 +21के साथ 

अब साधन पाद सूत्र : 20 और 21 का एक साथ सार देखें ..

" पुरुष शुद्ध चेतन निर्गुण ऊर्जा है और त्रिगुणी जड़ है । प्रकृति पुरुष के किए एक माध्यम है जिसकी मदद से वह संसार का अनुभव प्राप्त करता है "


सांख्य कारिका - 56

सृष्टि के निमित्त 23 तत्त्व (महत् , अहँकार , 11 इन्द्रियाँ , 05 तन्मात्र और 05 महाभूत )पुरुष के लिए मोक्ष प्राप्ति के साधन हैं

सांख्य कारिका : 57 - 58 

👌 यह प्रकृति का स्वार्थ नहीं अपितु स्वार्थ की तरह परार्थ कार्य भी करती है । पुरुष मोक्ष का कारण , प्रकृति है । जैसे अचेतन दूध चेतन बछड़े का निमित्त होता है वैसे अचेतन प्रकृति , चेतन पुरुष के मोक्ष का माध्यम है। जैसे लोग अपनी अपनी उत्सुकताओं को पूरा करने के लिए अलग - अलग क्रियायों में प्रवृत्त होते हैं वैसे ही पुरुष मोक्ष हेतु प्रकृति भी प्रवृत्त रहती

सांख्य कारिका :  59 - 60 

प्रकृति , पुरुष हेतु उपकारिणी है । जैसे एक नर्तिकी नाना प्रकार के भावों - रसो से युक्त नृत्य को प्रस्तुत करके निवृत्त हो जाती है वैसे ही प्रकृति भी पुरुष को अपना प्रकाश दिखा कर मुक्त हो जाती है । जैसे उपकारी व्यक्ति दूसरों पर उपकार करते हैं तथा अपने प्रत्युपकार की आशा नहीं रखते उसी तरह गुणवती प्रकृति भी निर्गुणी पुरुष के लिए उपकारिणी है और स्वयं के प्रत्युपकार की आशा नहीं रखती ।

सांख्य कारिका : 56 - 60 का सार⬇️


प्रकृति और उसके 23 कारण ( बुद्धि , अहंकार , 11 इंद्रियां , 05 तन्मात्र और 05 महाभूत )  पुरुष को कैवल्य प्राप्ति के साधन हैं । त्रिगुणी जड़ प्रकृति शुद्ध निर्गुणी पुरुष  जो प्रकृति से जुड़ कर चित्ताकार हो जाता है , उसके लिए निःस्वर्थ उपकारिणी है ।


~~ ॐ ~~


Wednesday, November 1, 2023

सांख्य दर्शन में बुद्धि तत्त्व भाग - 2

सांख्य दर्शन में …. 

महत् ( बुद्धि ) तत्त्व की निष्पत्ति किससे और कैसे हुई ? भाग - 02

सांख्य दर्शन में प्रकृति - पुरुष संयोग से उत्पन्न पहला तत्त्व महत् ( बुद्धि ) है , देखें निम्न स्लाइड को  ⬇️

संदर्भ कारिका : 3 + 22 + 24 - 28 ⬇️

स्लाइड में बुद्धि , मूल प्रकृति का कार्य और अहंकार का कारण है । अहंकार गुणों के आधार पर तीन प्रकार का हैं > सात्त्विक , राजस और तामससात्त्विक  अहंकार के कार्य रूप में 11 इंद्रियां है । राजस अहंकार से किसी तत्त्व की निष्पत्ति नहीं है , यह सात्त्विक और तामस अहंकार की मदद करता है ।  तामस अहंकार से 05 तन्मात्रो की निष्पत्ति है तथा तन्मात्रो से पांच महाभूतो की निष्पत्ति है । 

यहां ध्यान में रखना होगा , प्रकृति त्रिगुणी है अतः कार्य - कारण सिद्धान्त के अनुसार इसके 23 तत्त्व भी त्रिगुणी ही होंगे। अब आगे चलते हैं ⤵️

सांख्य दर्शन में निम्न करिकाओं के आधार पर महत् (बुद्धि )तत्त्व , उसकी उत्पत्ति , गुण और स्वभाव 

3

22 - 23

28 - 33

35 - 37

40 - 45

योग > 18


विकृत हुई त्रिगुणी जड़ अचेतन मूल प्रकृति का कार्य , बुद्धि  है । सांख्य के कार्य - कारण सिद्धान्त के अनुसार कार्य में कारण उपस्थित रहता है अतः बुद्धि भी त्रिगुणी है। प्रकृति के 23 तत्त्व पुरुष के tools हैं जिनके माध्यम से अनुभव प्राप्त कर पुरुष कैवल्य प्राप्त करता है ।

अब बुद्धि से संबंधित ऊपर टेबल में दी गयी 18 सांख्य कारिकाओं के सार को  देखते हैं ⬇️

कारिका - 3

 पुरुष - प्रकृति संयोग के साथ अविकृति मूल प्रकृति विकृत हो जाती है और उससे  07 कार्य - कारण (बुद्धि , अहंकार , 05 तन्मात्र )  और 16 कारण ( 11 इन्द्रियाँ + 05 महाभूत ) के रुप में 23 तत्त्व उत्पन्न होते हैं "

कारिका - 22

प्रकृति - पुरुष संयोग से महत् की उत्पत्ति है । महत् से अहँकार की उत्पत्ति है  , अहँकार से 11 इंद्रियों की उत्पत्ति है एवं  05 तन्मात्रों की उत्पत्ति है और तन्मात्रों से 05  महाभूतों की उत्पत्ति है ।

कारिका - 23

बुद्धि के 04 सात्त्विक रूप 

धर्म - ज्ञान - वैराग्य - ऐश्वर्य 

◆ बुद्धि के 04  तामस रूप 

अधर्म - अज्ञान - अवैराग्य  - अनैश्वर 

कारिका : 67 - 68 में धर्म , अधर्म , ज्ञान , अज्ञान , वैराग्य , राग , ऐश्वर्य और अनैश्वर्य को 08 भावों के रूप में बताया गया है ।  इन 08  भावों में से ज्ञान को छोड़ शेष 07 प्रकृति के बंधन हैं  लेकिन ज्ञान  होते ही प्रकृति इन 07 बंधनों से मुक्त हो जाती है । ऐसा तब होता है जब पुरुष को स्व बोध हो जाता है ।  पुरुष स्व बोध के बाद कैवल्य प्राप्त करता है और प्रकृति आवागमन से मुक्त हो कर अपने मूल स्वरूप में लौट जाती है ]

कारिका - 29

बुद्धि , अहँकार और मन के लक्षण ही इनकी असामान्य वृत्ति हैं जैसे बुद्धि का लक्षण ज्ञान है , अहँकार का लक्षण अभिमान है और मन का लक्षण संकल्प हैं और ये लक्षसन ही उनकी असामान्य वृत्तियाँ हैं । 10 इंद्रियों की वृत्तियाँ भी असामान्य ही हैं , इस संबंध में कारिका - 28 को देखें जो निम्न प्रकार है ⬇️

कारिका : 28

👌 रूप आदि पञ्च तन्मात्र पञ्च ज्ञान इंद्रियों की वृत्तियां हैं जैसे चक्षु का रूप - रंग देखना , श्रोत का शब्द सुनना , रसना का रसानुभूति , घ्राणका  गंध लेना और त्वचा का स्पर्श की अनुभूति करना । इसी तरह कर्म इंद्रियों में वाक् का वचन बोलना ,पाणि का आदान ( लेना ) ,पाद का विहरण करना , पायु का उत्सर्जन करना और उपस्थ का आनंद लेना ही वृत्ति है ।

 प्राण , अपान , व्यान , उदान और समान रूपी वृत्तियां , सामान्य वृत्तियां हैं क्योंकि इनके होने का केवल एक कारण नहीं , अनेक कारण हैं अतः ये सामान्य वृत्ति हैं । सामान्य वृत्ति में कारण एक होता है और असामान्य वृत्ति के एक से अधिक कारण होते हैं ।

कारिका - 30

जब बुद्धि , अहँकार और मनके साथ कोई एक इंद्रिय संयुक्त होती है तो वह चतुष्टय कहलाती है । 

💐 दृष्ट बिषयों में इन चारों (चतुष्ठय , बुद्धि , अहंकार और मन )की वृत्ति कभीं एक साथ तो कभीं क्रमशः (संशय से निश्चय होनें पर ) भी होती है ।

👌 अदृष्ट बिषय में मन , बुद्धि और अहंकार की वृत्ति इंद्रिय आधारित होती है जैसे अदृष्ट रूप के  चिंतन में चक्षु आधारित ही वृत्ति होगी और अदृष्ट गंध की अनुभूति घ्राण आधारित होगी।

कारिका - 31

👉मन , बुद्धि और अहंकार परस्पर एक दूसरे के अभिप्राय से अपनीं - अपनीं वृत्तियों को जानते हैं । 

कारिका - 32

💐 यहां 13 प्रकार के करण बताए गए हैं ( 11 इन्द्रियाँ , बुद्धि और अहंकार ) ।

👌 करण के तीन कार्य होते हैं 👇

1 - आहरण या लेना या ग्रहण करना 

2 -  धारण करना 

3 - प्रकाशित करना ( ज्ञान देना ) 

 💮 05 कर्म इन्द्रियाँ ग्रहण एवं धारण दोनों करती हैं ।

 💮 05 ज्ञान इंद्रियाँ केवल प्रकाशित करती हैं । 

💐 इन 05 कर्म इन्द्रियों एवं ज्ञान इन्द्रियों के अपनें - अपनें कार्य हैं  और ये कार्य ऊपर व्यक्त 03 भागों

 (आहरण , धारण और प्रकाशित करना ) में विभक्त हैं। 

कारिका - 33

कारिका : 32 में 13 प्रकार के करण बताए गए। इनमें 10 इंद्रियाँ बाह्य करण हैं और मन , बुद्धि एवं अहंकर को अंतःकरण कहते हैं ।

अंतःकरण के बिषयभूत 10 बाह्य करण हैं । 

💐 बाह्य करण केवल वर्तमान काल के बिषयों को ग्रहण करते हैं जबकि अंतःकरण तीनों कालों के बिषयों को ग्रहण करते हैं ।

कारिका : 35

💐 13 करणों ( बुद्धि + अहँकार + मन + 10 इंद्रियाँ ) में अंतःकरण ( मन , बुद्धि और अहंकार )  द्वारि (स्वामी ) हैं और अन्य 10 ( 10 इन्द्रियाँ ) द्वार  हैं क्योंकि मन - अहंकार से युक्त बुद्धि तीनों कालों के बिषयों का अवगाहन (गहरा चिंतन ) करती है । 

💐 तीनों अंतःकरण स्वेच्छा से अगल - अलग द्वारों ( 10 इन्द्रियों ) से  अलग - अलग बिषय ग्रहण करते हैं

कारिका : 36 + 37

💐 सभीं इंद्रियाँ ( मन + 10 इंद्रियाँ )तथा अहंकार दीपक की भांति हैं और एक दूसरे से भिन्न गुण वाले हैं । जैसे दीपक अपनी परिधि में स्थित सभीं बिषयों को प्रकाशित करता है वैसे 12 करण ( 11 इंद्रियां + अहंकार ) सम्पूर्ण पुरुषार्थ 

(धर्म + अर्थ + काम + मोक्ष ) को प्रकाशित करके बुद्धि को समर्पित करते हैं । 

💐 पुरुषके सभीं उपभोग की व्यवस्था बुद्धि करती है और वही बुद्धि प्रधान ( प्रकृति ) और पुरुष के सूक्ष्म भेद को विशेष रूप से जानती है ।

कारिका - 40 

1.बुद्धि , अहँकार , 11 इन्द्रियाँ और 5 तन्मात्रों का  समूह सूक्ष्म या लिंग शरीर है ।

2.लिङ्ग शरीर आवागमन करता है ।

3.लिंग शरीर  08 भावों से युक्त रहता है (8 भाव : धर्म , ज्ञान , वैराग्य , ऐश्वर्य , अधर्म , अज्ञान , अवैराग्य , अनैश्वर , देखें कारिका : 44 - 45 और कारिका : 23 जहां बुद्धि के 4 सत्त्विक रूपों में धर्म , ज्ञान , वैराग्य और ऐश्वर्य बताया गया है और तामस रूपो में शेष 4 भावों को बताया गया है )।

कारिका - 43

💐 धर्म , ज्ञान , वैराग्य और ऐश्वर्य ये 04 प्रकार के भाव  निम्न 03 प्रकारसे प्राप्त होते हैं ⤵️

1- सांसिद्धिक (जन्मजात मिले होते हैं )

2 -  प्राकृतिक (स्वयं प्रकृति से मिलते हैं )

 3 - वैकृतिक (गुरु द्वारा मिलते हैं ) 

 ⚛️ ^ इन 03 प्रकारके धर्मों पर सूक्ष्म शरीर आश्रित होता है और कलल (अस्थि - मांस ) आदि , स्थूल देह पर आश्रित होते हैं ।

कारिका : 44 - 45

💐 धर्म से ऊर्ध्वगति तथा अधर्म से अधोगति होती है , ज्ञान से मोक्ष प्राप्ति तथा अज्ञान से बंधन प्राप्त होता है ।

वैराग्य से प्रकृति में लय तथा राग ( अवैराग्य ) से संसार मिलता है । ऐश्वर्य से अविघात ( बाधा मुक्ति ) और अनैश्वर से नाश होता है ।

कारिका - 41

# बिना पंचभूत आश्रय , लिङ्ग शरीर  स्थिर नहीं हो सकता , उसे स्थिर होने के लिए पांच महाभुतों का आश्रय चाहिए होता है ।

कारिका - 42 

लिङ्ग शरीर प्रकृति को प्रकाशित  करता है । यह मोक्ष प्राप्ति हेतु अलग - अलग शरीर धारण  करता रहता है ।  

~~ ॐ ~~ 

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