Saturday, November 19, 2011

मन की चंचलता को देखें

गीता सूत्र –6.35

असंशयं महाबाहो मनः दुर्निग्रहम् चलं

अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गुह्यते

अर्जुन का प्रश्न था ; मैं अपनी मन की चंचलता के करण आप के उपदेश को पकडनें में असमर्थ हो रहा हूँ , आप कृपया मुझे उचित राह दिखाएँ / प्रभु इस प्रश्न का जो उत्तर देते है शायद इतनें बड़े प्रश्न का इतना छोटा उत्तर कोई और अभीं तक नहीं दिया होगा / प्रभु के सूत्र 6.35 का क्या भाव है , आप देखें यहाँ विश्व के दो महान दार्शनिकों की भाषा में ------

स्वामी प्रभु पाद जी महाराज कहते हैं ….....

भगवान श्री कृष्ण कहते हैं , हे महाबाहु कुंती पुत्र ! निःसंदेह चंचल मन को बश में करना अत्यंत कठिन है , किन्तु उपयुक्त अभ्यास द्वारा तथा विरक्ति द्वारा ऐसा संभव है //

Dr S.Radhakrishanan says ….....

Yoga is hard to attain , I agree, by one who is not self – controlled ; but by the self – controlled it is attainable by striving through proper means .

गीता सूत्र 6.35 का सीधा अर्थ है -----

अभ्यास से एवं वैराज्ञ से मन शांत होता है लेकिन अभ्यास किसका?और वैराज्ञ को कैसे प्राप्त करें?यह दो प्रश्न इस सूत्र की गंभीरता को अपनें में समेटे हुए है/गीता सूत्र6.26में प्रभु कहते हैं,अर्जुन जहां-जहां तेरा मन उलझता है उसे वहाँ – वहाँ से खीच कर आत्मा-परमात्मा पर लानें का निरंतर अभ्यास करते रहो,ऐसा करने से शांत स्थान पर रखे[जहां वायो का प्रभाव न हो]दीपक की ज्योति की तरह तेरा मन स्थिर हो जाएगा;यह है अभ्यास – योग/अब बात रही वैराज्ञ की तो उसे

देखिये;अभ्यास का फल है वैराज्ञ,वैराज्ञ में सीधे कदम रखना असंभव है,वैराज्ञ योग की सिद्धि पर मिलता है जहाँ योगी को ज्ञान की प्राप्ति होती है और वह आत्मा के माध्यम से प्रभु में स्थिर हो जाता है[देखिये गीता- 4.38सूत्र को यहाँ] /


अभ्यास से वैराज्ञ

वैराज्ञ से ज्ञान

ज्ञान से क्षेत्र – क्षेत्रज्ञ का बोध

और बोध से

आत्मा के माध्यम से परमात्मा में स्थित हो जाना

यह है गीता का परम सन्देश


=====ओम्======


Thursday, November 17, 2011

मन को कैसे पकडें

गीता सूत्र – 6.33 , 6.34

:अयम् योगः त्वया प्रोक्तः साम्येन मधुसूदन

एतस्य अहम् पश्यामि चंचलत्वात् स्थितिम् स्थिराम्

चंचलम् हि मनः कृष्ण प्रमाथि बलवत् दृढम्

तस्य अहम् निग्रहम् मन्ये वायो:इव सु-दुष्करम्


इन दो सूत्रों को स्वामी प्रभुपाद जी इस तरह से देख रहे हैं -----

अर्जुन कह रहे हैं , हे मधुसूदन ! आपने जिस योग पद्धति का संक्षेप में वर्णन किया है , वह मेरे लिए अब्यवहारिक तथा असहनीय है , क्योंकि मन चंचल तथा अस्थिर है //

हे कृष्ण ! क्योंकि मन चंचल [ अस्थिर ] , उच्छृंखल , हठीला तथा अत्यंत बलवान है , अतः मुझे इसे बश में करना वायु को वश में करनें से भी अधिक कठिन लगता है //


Dr S. Radhakrishanan ऊपर से सूत्रों को कुछ इस प्रकार से देखते हैं --------

Arjuna said : This Yoga declared by you to be of the nature of equality [ evenness of mind ] , O Madhusudana [ Krishna ] , I see no stable foundation for , on account of reslessness .

For the mind is verily fickle , O Krishna , it is impetuous , strong and obstinate . I think that it is as difficult to control as the wind .

दो विश्व स्तर के दार्शनिकों की बात आप देखे अब और क्या कहा जा सकता है इन दो सूत्रों के सम्बन्ध में ? मैं तो इन दो महान आत्माओं के सामनें एक कण के समान भी नहीं हूँ लेकिन एक अनपढ़ की तरह इन दो सूत्रों के माध्यम से अर्जुन जो कहना चाह रहे वह कुछ इस प्रकार से समझ रहा हूँ : ------

अर्जुन को अब इतना तो पता चल रहा है कि प्रभु की बातें उनके सर के ऊपर – ऊपर से निकल जा रही हैं और वे प्रभु की बातों को पकड़ना भी चाह रहे है/अर्जुन कह रहे हैं,हे कृष्ण!मेरा मन बहुत चंचल हो रहा है और उसकी चंचलता को मैं नियंत्रित करने में अपनें को असमर्थ देख रहा हूँ आप कृपया मुझे यथा उचित राह दिखाएँ जिससे मैं अपनें मन को स्थिर कर सकूं और आप की बातों को समझ सकूं/अर्जुन यहाँ आ कर कुछ ऎसी बात कर रहे हैं जिनसे यह समझा जा सकता है कि अब उनके मार्ग की दिशा सही हो सकती है/यहाँ एक बात बहुत गहरी दिख दिख हैऔर वह है कि मन जबतक स्थिर नहीं,मन जबतक शांत नहीं,मन जबतक प्रश्न रहित नहीं तहतक कोई कुछ समझ नहीं सकता;वह कभी दो कदम आगे चलेगा तो कभीं दो कदम पीछे और परिणाम रहित उसकी यात्रा

होगी/

मन की स्थिरता बुद्धि को निर्विकार बनाती है

निर्विकार बुद्धि चेतना के फैलाव में मदद करती है

और चेतना के फैलाव से सत्य का बोध होता है


====ओम्======


Tuesday, November 15, 2011

मन से ब्रह्म की यात्रा

गीता सूत्र – 6.7

जीत – आत्मन:प्रशान्तस्य परम – आत्मा समाहितः

शीत – उष्ण सुख दुखेषु तथा मान अपमानयो:

स्वामी भक्ति वेदान्त जी इस सूत्र के माध्यम से प्रभु श्री कृष्ण की बात को कुछ इस प्रकार से समझा रहे हैं - जिसनें मन को जीत लिया है , उसनें पहले ही परमात्मा को प्राप्त कर लिया है , क्योंकि उसनें शांति प्राप्त कर ली है / ऐसे पुरुष के लिए सुख – दुःख एवं मान - अपमान , सर्दी - गर्मी एक से होते हैं /

Dr S.Radhakrishnan explains this sutra in this way – When one has conquered his [ lower ] and has attained to the calm of self – mastery , his Supreme Self abides ever concentrate , he is at peace in cold and heat , in pleasure and pain , in honour and dishonour .

इस सुत्र के साथ गीता सूत्र – 5.19 को भी देखें जो इस प्रकार है ------

गीता सूत्र – 5. 19

इह एव तै:जितः सर्गः येषां साम्ये स्थितं मनः

निर्दोषं हि समं ब्रह्म तस्मात् ब्रह्मणि ते स्थिताः

स्वामी भक्ति वेदान्त जी इस सूत्र के सम्बन्ध में कह रहे हैं - जिसके मन एकत्व तथा समता में स्थित हैं उन्होंने जन्म तथा मृत्यु के बंधनों को पहले ही जीत लिया है / वे ब्रह्म के सामान निर्दोष हैं और सदा ब्रह्म में ही स्थित रहते हैं / Dr. S.Radhakrishanan about this sutra says , Even here [ on earth ] the created [ world ] is overcome by those whose mind is established in equality . God is flawless and the same in all . Therefore are these [ persons ] established in God .

गीता के दो सूत्रों को आप देखेऔर इन सूत्रों के बाते में विश्वस्तर के दो महान ब्यक्तियों की सोच को भी देखा अब आप अपनी सोच को देखें कि आप इनके सम्बन्ध में क्या सोचते हैं ? मेरी सोच कुछ इस प्रकार है - वह जिसकी सत्य मित्रता अपनें मन के साथ है वह समभाव – योगी सभी द्वैत्यों के परे परम शांति में स्थित ब्रह्म – आयाम में स्थित परमानंद का मजा लेता रहता है - He who has established true friendship with his mind he remains in evenness – yoga and fully merged in the Supreme formless One enjoys the supreme bliss .


====ओम्=====



Sunday, November 13, 2011

मन एक राह है


गीता अध्याय –06


[ योग संन्यास ]


गीता सूत्र –6.7


जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः /


शीतोष्णसुखदुखेषु तथा मान अपमानयो : //


स्वामी प्रभुपाद इस सूत्र के सम्बन्ध में कह रहे हैं ------


जिसनें मन को जीत लिया है , उसनें पहले ही परमात्मा को प्राप्त कर लिया है , क्योंकि उसनें शांति प्राप्त कर ली है / ऐसे पुरुष के लिए सुख – दुःख , सर्दी - गरमी एवं मान - अपमान एक से हैं //


Dr. Radhakrishanan views are as under -----


When one has conquered one,s self [ lower ] and has attained to the calm of self – mastery , his Supreme Self abides ever concentrate , he is at peace in cold and heat , in pleasure and pain , in honour and dishonour .


जीतनें के दो तरीके हैं ; एक है लड़ाई के माध्यम से और दूसरा है मित्रवत स्थिति में उसे रूपांतरित करके उसका नियंता बन जाना / पहला रास्ता हठ योगियों का है और दूसरा है ध्यानियों का / मन से लड़ना अहंकार को सघन कर्ता है , यह बात हमेशा अपनें अंदर रखनी चाहिए उनको जो हठ योग में उतर रहे हैं और ध्यानी को धीरे - धीरे अपनें ह्रदय की ऊर्जा को बदलना होता है जो स्वतः होता रहता है जहां मात्र द्रष्ट भाव की साधना होती है , जो बिषय से प्रारम्भ हो कर मन पर विसर्जित हो जाती है और आगे की यात्रा निर्वाण की यात्रा होती है जो ब्यक्त नहीं की जा सकती //


Lord Krishna says ----


Do continuous practice to make your mind your best friend and when friendship is established you will be in evenness – yoga which leads to NIRVANA .




=====ओम्======


Friday, November 11, 2011

टाइम स्पेस रहस्य

गीता ब्रह्माण्ड रहस्य एवं जीव उत्पत्ति

यहाँ देखते हैं गीता के निम्न सूत्रों को

3.5

3.27

3.33

5.13

7.4

7.5

7.6

7.8

7.9

7.12

7.13

7.14, 7.15

8.16

8.17

8.18

8.19

820

8.21

8.22

9.8

10.21

13.6

13.7

13.13

1320

13.21

13.34

14.3

14.4

14.5

14.11

14.19

14.21

14.27

15.6

15.7

15.12

15.16

15.17

15.18



गीता के 10 अध्यायों से 41 सूत्रों को चुनकर यहाँ दे रहा हूँ . आप लोग इनको खूब पी सकते हैं /

Prof. Albert Einsteinकहते हैं …....

जब मैं गीता में ब्रह्माण्ड रहस्य को पढता हूँ कि परमात्मा ब्रह्माण्ड एवं जीवों का निर्माण कैसे किया ? तब मुझे संदेह रहित ऐसा ज्ञान मिलता है जैसा कहीं और नहीं देखता /

अब आप को गीता के 41 सूत्रों का भाव मैं देने की कोशीश कर रहा हूँ और आप सबसे प्रार्थना है कि आप लोग इन सूत्रों को जरुर पढ़ें -------

परमात्मा सम्पूर्ण टाइम – स्पेस का नाभि केंद्र है ; परमात्मा से परमात्मा में तीन गुण माया का निर्माण करते और ये गुण परमात्मा से हैं लेकिन परमात्मा गुणातीत है / माया दो प्रकृतियों को बनाती है जिसमें पञ्च महाभूत , मन , बुद्धि , अहंकार , चेतना हैं / माया में जब ऐसी परिस्थिति आती है कि ये दोनों प्रकृतियाँ आपस में मिलती हैं तब प्रभु से प्रभु का क्वांटा स्वरुप आत्मा इनमें मिल जाती है और जीव का निर्माण हो जाता है / सम्पूर्ण Time – Space Pulsating mode में है और इस pulsation से प्रकृति - पुरुष का योग होता रहता है / प्रकृति एवं पुरुष का योग जीव निर्माण का कारण है /

एक परमात्मा समयातीत है बाक़ी सभी समयाधीन हैं अर्थात आज हैं , कल नहीं रहेंगे और परसों कहीं और प्रकट हो जायेंगे / गीता कहता है , यह पृथ्वी एक दिन समाप्त हो जायेगी लेकिन दूसरी ऎसी ही पृथ्वी बन भी रही है काहीं और अतःयहाँ मात्र सब का रूपान्तरण एवं नवीनीकरण होता रहता है और कोई समाप्त नहीं होता पर समाप्त हुआ सा दिखत भर है / गीता कहता है , ब्रह्म - लोग सहित सभीं लोक पुनरावर्ती हैं / आज पृथी पर जो जीव हैं उनके यहाँ रहने की अवधि है -1000 [ चरों युगों की अवधि ] और फिर इतने समय तक यहाँ अन्धेरा ही अन्धेरा होगा और कोई सूचना न होगी जो बता सके की यहाँ क्या था / इस समय के गुजरने के बाद पुनः जहां नयी पृथ्वी बनी होती है वह अबतक इस स्थिति में आ गयी होती है कि वहाँ जीव उत्पन हो सकते हैं और वहाँ जीव उत्पन्न होते हैं / ज जैसा यहाँ है कल यहाँ वैसा नहीं रहेगा लेकिन परसों कहीं और ऐसा ही होगा / गीता में वही बात है जो आज पार्टिकल विज्ञान एवं क्वांटम विज्ञान में है लेकिन गीता की बातों में स्पष्ट की कमी जरूर है क्यों की आज जो गीता है उसे हम जैसे लोग पीछले पांच हजार सालों से बदल रहे हैं लेकिन यदि अप गहराई में गीता देखेंगे तो आप को जरुर आनंद मिलेगा /

====ओम्---- -



गीता आपकी आँखों को खोलता है

गीता अध्याय –06

[ ] योग – संन्यास

गीता में आप सूत्र 6.1 – 6.6 तक को देखा अब इनसे साथ गीता के निम्न सूत्रों को भि देखा लें जिनका सम्बन्ध गीता के सूत्र 6.1 – 6.6 से है ------

गीता सूत्र – 4.41

योग सन्यस्त कर्माणम् ज्ञान सज्छिन्न संशयम्/

आत्मवन्तं न कर्माणि निबधंति धनञ्जय/

Those who are keeping expectation in his action and having doubt , he is always slave of his action .

वह जो कर्म फल की कामना से कर्म करता है और संदेह युक्त जिसकी बुद्धि है वह अपनें कर्मों का गुलाम होता है//

गीता सूत्र – 5.2

संन्यासः कर्म योगः च निः श्रेयस करौ उभौ तयो: /

तयो:तु कर्म संन्यस्यात् कर्म योग:विशिष्यते//

action renunciation and Action – Yoga both lead to salvation .

कर्म संन्यास एवं कर्म योग दोनों मुक्ति पथ हैं//

ऊपर दिए गए गीता के दो सूत्र कह रहे हैं--------

कामना एवं संदेह रखनें वाली बुद्धि वाले मनुष्य से जी कर्म होते हैं वह उनका गुलाम बन कर रहता है और कर्म संन्यास एवं कर्म योग दोनों मुक्ति पथ हैं//

Gita – sutra as given above say …....

A man who does work with desire and doubtful state of mind and intelligence he remains slave of his works and action renunciation and action – yoga both lead to salvation .

गीता के इन दो सूत्रों से आप समझ रहे होंगे कि कर्म योग एवं कर्म संन्यास दो अलग – अलग मार्ग हैं लेकिन इसी बात नहीं हैं ; बिना कर्म में उतरे कर्म संन्यास का ख्वाब देखनें वाला कभी कर्म संन्यासी नहीं बन सकता और बिना कर्म संन्यासी बनें निष्कर्म – सिद्धि नहीं मिलती जो ज्ञान योग की परा निष्ठा है / कर्म योग की सिद्धि में कर्म अकर्म दिखनें लगते हैं और अकर्म में कर्म दिखनें लगता है अर्थातमनुष्य कि दिशा बदल जाती है //

सभीं बातों की एक बात

जो आप से हो रहा हो उसका द्रष्टा बनें रहिये

जो आप से हो रहा हो उसके पीछे किसी कारण की ऊर्जा नहीं होनी चाहिये

जो आप कर रहे हैं उनके पीछेचाह , क्रोध , अहंकार , मोह , लोभ , भयमें से किसी एक की ऊर्जा नहीं होनी चाहिए //


=====ओम्=====



Sunday, November 6, 2011

मन से उसे देखो

गीता अध्याय –06

[ ] योग – सन्यास

गीता सूत्र –6.6

बंधु:आत्मा आत्मनः तस्य येन आत्मा एव आत्मना जित: /

अनात्मनः तु शत्रुत्वे वर्तेत आत्मा एव शत्रु-वत्//

गीता के इस सूत्र का अर्थ स्वामी प्रभुपाद जी कुछ इस प्रकार से ब्यक्त करते है ------

जिसनें मन को जीत लिया है उसके लिए मन सर्वश्रेष्ठ मित्र है किन्तु जो ऐसा नहीं कर पाया है उसके लिए मन सबसे बड़ा शत्रु बना रहेगा //

Dr S. Radhakrishnan explaines this verse of Gita as under -------

For him who has conquered his [ lower ] self by the [ higher ] Self his Self is a friend but for him who has not possessed his [ higher ] Self , his very Self will act in enemity like an enemy .

दो विश्व प्रशिद्ध दार्शनिकों की बात को आप यहाँ देख रहे हैं और इनके बातों में अपनी सोच को कही ठहराना आप का काम है / आप क्या समझते हैं किसी को जीत कर मित्र बनाना सुलभ है ? वह जो हारता है हमेशा इस ताक में रहता है कि कब मौका मिले और मैं अपना बदला लूं , उसे जो अपना मित्र समझता है वह अपनें ही आंगन में आतें बिछाता है / बुद्ध कहते हैं , मन को अपना मित्र बनाओ , मन से मैत्री साधो और जब मन मित्र बन जाएगा फिर आप से परम सत्य दूर नहीं रहेगा / गीता में प्रभु श्री कृष्ण [ सूत्र – 10.22 ] में कहते हैं , मन मैं हूँ / कौन सा मन वह मन है जिसके लिए प्रभु कह रहे हैं कि इंद्रियों में मन मैं हूँ ? प्रकृति में हम हैं , प्रकृति से हमारा गहरा सम्बन्ध है , हम प्रकृति के अलग स्वयं को नहीं कर सकते / प्रकृति में दो प्रकार की ऊर्जा बह रही हैं ; एक निर्विकार ऊर्जा है और दूसरी ऊर्जा तीन गुणों की उर्जा है / वह ऊर्जा जो तीन गुणों की है वह भोग की ऊर्जा है और वह ऊर्जा जो निर्विकार ऊर्जा है , परम से जोड़ती है / वह मन जिसमें निर्विकार ऊर्जा बह रही होती है वह मन मित्र होता है और वह मन जिसमें गुणों की ऊर्जा बह रही होती है वह शत्रु होता है / गीता में प्रभू उस मन के सम्बन्ध में कह रहे हैं कि इन्द्रियों में मन मैं हूँ जिसमें निर्विकार उर्जा बह रही होती है //

भाषा एक माध्यम है

भाषा एक साधन है

और

साधन कभीं साध्य नहीं बन सकता

गीता की भाषा के रस को पहचानों उसके रंग को देख कर क्या करोगे ?


========ओम्=============



Wednesday, November 2, 2011

उसे कैसे पहचानें


गीता अध्याय –06भाग –11


[ ] योग – संन्यास


सूत्र – 6.5


उद्धरेत् आत्मनाआत्मानंआत्मानं अवसादयेत् /


आत्मा एव हि आत्मनः बंधु : आत्मा एव रिपु : आत्मन : //


इस सूत्र में 15 शब्द हैं और उनमें से 07 शब्दों में आत्मा , आत्मन एवं आत्मानं शब्द हैं ; इस सूत्र को गंभीरता से देखें ------


इस सूत्र का अर्थ भक्ति वेदान्त प्रभुपाद जी कुछ इस प्रकार से करते हैं -------


मनुष्य को चाहिए कि वह अपने मन की सहायता से अपना उद्धार करे और अपनें को नीचे न गिरनें दे यह मन बद्धजीव का मित्र है और शत्रु भी //


Dr. S. Radhakrishanan,s understanding of this verse is as under -----


Let a man lift himself by himself ; let him not degrade himself ; for the Self alone is the friend of the self and the Self alone is the enemy of the self .


औरमैं इस सूत्र को कुछ इस प्रकार से समझता हूँ ------


मनुष्य मन केंद्रित होता है ; मनुष्य का मन उसका मित्र एवं शत्रु दोनों है ; मन जब गुणों के प्रभाव में रहता है तब वह शत्रु होता है और जब निर्विकार होता है तब मित्र होता है //


धमपदके माध्यम सेभगवान बुद्धकहते हैं ------


अत्ता ही अत्तनों नाथो


अत्ता ही अत्तनों गति //


Self is the Lord of the self


Self is the goal of the self


The ultimate Supreme is within and the identification process of the Ultimate One is the Dhyana .






गीता सूत्र – 10.22 में प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं … ....


इन्द्रियाणाम् मनः अस्मि;इंद्रियों में मन मैं हूँ//


सूत्र – 6.5 में कह रहे हैं , मनुष्य का मन ही उसका मित्र एवं शत्रु है और सूत्र – 10.22 में कह रहे हैं , मनुष्य में इंद्रियों का जोड़ – मन मैं हूँ , इन दो सूत्रों से आप क्या प्राप्त कर रहे हैं ?


परमात्मा रात भी है और दिन भी , परमात्मा सुख भी है और दुःख भी


परमात्मा प्यार भी है और वासना भी , परमात्मा अंदर भी है और बाहर भी


परमात्मा दूर भी है और नजदीक भी /


और परमात्मा मित्र भी है और शत्रु भी क्योंकि प्रकृति के तीन गुण प्रभु से हैं पर प्रभु गुणातीत है//


गुण प्रभावित मन शत्रु है और निर्गुण मन मित्र होता है//


======ओम्======




Sunday, October 30, 2011

योगारूढ़ योगी एवं हम

गीता सूत्र –6.4

यदा हि न इंद्रिय – अर्थेषु न कर्मसु अनुषज्जते/

सर्वसंकल्पसंन्यासी योग – आरूढ़:तदा उच्यते//

वह जिसके कर्म होनें में संकल्प का अभाव हो

वह जिसके कर्म भोग – भाव की ऊर्जा से न हो रहे हों

वह योगारूढ़ योगी होता है,उस काल में//

He whose actions are not based on certain determinations ….

He whose actions do not have attachment and passion …......

He is said to be established in Yoga .

प्रभु श्री कृष्ण युद्ध क्षेत्र में , दोनों सेनाओं के मध्य स्थित हैं और अर्जुन को बता रहे हैं -----

हे अर्जुन ! योगारूढ़ की स्थिति परम स्थिति होती है जहां पहुंचा योगी परम सत्य को समझता है और परम सत्य को समझनें के बाद और कुछ समझनें को बचाता ही नहीं और वह परम शांति में संसार का द्रष्टा बन कर प्रभु में डूबा रहता है /

योगारूढ़ की स्थिति में तन में,सभीं कर्म इंद्रियों में,सभीं ज्ञानेन्द्रियों में,मन में एवं बुद्धि में बह रही ऊर्जा पूर्ण रूप से निर्विकार ऊर्जा होती है और निर्विकार ऊर्जा से इंद्रियों की क्षमता इतनी गहरी होती है कि उनके लिए कोई निराकार सूचना नहीं रह जाती/योगारूढ़ योगी पहले तो कुछ बोलता नहीं और जब बोलता भी है तब कोई उनकी भाषा को सही ढंग से समझ नहीं पाता/योगारूढ़ बोलता है कुछ और उसका अर्थ सभीं सुननें वावे अपना-अपना लगाते हैं/योगरुध योगी की आँखें पूर्व की ओर रहती हैं और सुननें वालों की आँखें पश्चिम की ओर रहती हैं//योगी हमें कुछ अपना अनुभव देना चाहता है पर हम उसे अपने रंग में रंगने का पूरा-पूरा आयोजन करते रहते हैं//


=========ओम्==========


Thursday, October 27, 2011

कर्म एक माध्यम है योग का

[]योग-सन्यास

सूत्र – 6.3

आरूढ़रुक्षो:मुने:योगं कर्म कारणं उच्यते

योग आरू ढ़स्य तस्य एव शम:कारणं उच्यते

कर्म योग में उतरनें का उत्तम माध्यम है और जब योगारूढ़ की स्थिति मिलती है तब सभीं कर्मों का त्याग स्वतः हो जाता है /


Action is the best mode of entering into Yoga and when depth in Yoga is achieved all actions are renunciated and whatever remains there is pure senenity .

प्रभु श्री कृष्ण इस सूत्र के माध्यम से कह रहे हैं -------

जो तुम कर रहे हो उसे तुम योग का माध्यम बना सकते हो , कहीं भागानें की जरुरत नहीं / कर्म के प्रति उठा होश तुमको योगी बना देगा और तुम स्वतः कर्म – त्यागी बन बैठोगे और तुमको पता भी न चल पायेगा / कर्म संन्यासी का यह अर्थ नहीं कि तुम कर्म करना छोड़ दोगे , कर्म तो करते ही रहना है लेकिन कर्म के बंधन स्वतः अनुपस्थित हो जाते हैं / कर्म में कर्म बंधन हैं , गुण तत्त्व जैसे आसक्ति , कामना , क्रोध , लोभ , मोह , भय एवं अहंकार /


========ओम्==========


Saturday, October 22, 2011

संन्यासी एवं योगी कौन

गीता अध्याय –06

[]योग – संन्यास


हमारी गीता अध्याय – 06 की यह यात्रा अब उन सूत्रों से गुजर रही है जिनका सीधा सम्बन्ध योग –संन्यास से है , आईये देखते हैं अगले सूत्र को ------

गीता सूत्र –6.2

यं संन्यासं इति प्राहु : योगं

तं विद्धि पांडव

न हि असंयस्त संकल्प :

योगी भवति //

संन्यास एवं योग दोनों एक हैं

संकल्प धारी कभी योगी नहीं हो सकता//

Yoga and Renunciation both are same ; one with deternmination can not enter into Yoga .

गीता का यह सूत्र अपनें में एक अलग दर्शन है और ऎसी बातें करनें वाला मनुष्य ब्रह्म स्तर का तो होता ही है / गीता के सूत्रों को पिछले पांच हजार सालों से हम लोग बदल रहे हैं ; प्रभु क्या कहे थे इसकी फ़िक्र किसी को नहीं और कोई उसे खोजता भी नहीं लेकिन गीता के नाम पर अपनें विचारों को लोग खूब पीला रहे हैं /

भोग की साधना में जब भोग तत्त्वों की ओर साधक की पीठ हो जाती है तब वह साधक भोग – तत्त्वों का त्यागी हो जाता है जिसको संन्यासी कहते हैं;संन्यासी भोग तत्त्वों की पकड़ का/यही ब्यक्ति जब साधना में आगे चलता है और जिसकी साधना में राजस – तामस गुणों की पकड़ नहीं होती तब वह ब्यक्ति योगी कहलाता है/संन्यास साधना में पहले घटित होता है और योगी वही मनुष्य संन्यास के घटित होनें से साथ बन जाता है पर योगी-संन्यासी एक आयाम है जो किसी भी समय बदल सकता है/जबतक भोग की तरफ साधक की आँखे नहीं होती तबतक वह योगी-संन्यासी बना रहता है//


=====ओम्======


Monday, October 17, 2011

गीता अध्याय छ चरण तीन


गीता अध्याय –06


तीसरा चरण


[]योग – संन्यास


सूत्र – 6.1


अनाश्रितः कर्म फलं कार्यं कर्म करोति यः /


सः संन्यासी च योगी च न निः अग्नि : न च अक्रिय : //


जिस कर्म में कर्म फल का आश्रय न हो-----


वह कर्म योगी - संन्यासी बनाता है , कर्म को त्यागना संन्यास नहीं //




Action without the expectation of its result makes one Yogin and Sannyasin but renunciation of action is not the identification of a Sanyasin or Yogin .


गीता में यहाँ प्रभु योगी और संन्यासी एक के दो संबोधन के रूप में प्रयोग का रहे हैं और


कह रहे हैं -------




  • कर्म योगी वह जो जीवन निर्वाह के लिए जो कर्म होनें चाहिए इनका त्याग नहीं करता



  • वह कर्म योगी कर्म सन्यासी होता है जिसके कर्म में फल की सोच न हो



  • कर्म – योग की साधना जब कर्म संन्यास घटित होता है तब वह कर्म भोग से योग में बदल जाता है



  • बिना संन्यास घटित हुए कर्म कर्म – योग नहीं बनाता


    और



  • बिना कर्म – योग निर्वाण नहीं मिलता




==============ओम्==============


Friday, October 14, 2011

गीता अध्याय छ अगला अंक

गीता अध्याय – 06

[ ] योग का फल

पिछले भाग में हमने गीता सूत्र – 6.27 को देखा और अब इस सूत्र के सम्बन्ध में गीता के कुछ और सम्बंधित सूत्रों को यहाँ देख रहे हैं ------

गीता सूत्र –2.52

मोह एवं वैराज्ञ एक साथ एक मं - बुद्धि में नहीं रहते

गीता सूत्र –15.3

यह सूत्र बताता है , वैराज्ञ से भोग संसार का बोध होता है

गीता सूत्र –14.19 , 14.20

प्रकृति के तीन गुणों को कर्ता देखनें वाला पाप रहित संभव में द्रष्टा होता है

गीता सूत्र –14.23

गुणों को जो कर्ता देखता है वह समभाव में होता है

गीता सूत्र –6.29

सभी भूतों को आत्मा से आत्मा में देखनें वाला समभाव योग – युक्त योगी होता है

गीता सूत्र –6.30

सभी भूतों को मुझसे एवं मुझमें जो देखता है उसके लिए मैं अदृश्य रहीं रहता , यह बात श्री कृष्ण कह रहे हैं



गीता और आप का सम्बन्ध बना रहे और मुझे क्या चाहिए?



=====ओम्=======


Monday, October 10, 2011

राजस गुण प्रभु राह का अवरोध है

गीता अध्याय –06

[]योग का फल

गीता सूत्र –6.27

प्रशांत मनसं हि एनं

योगिनं सुखं उत्तमम् /

उपैति शांत – रजसम्

ब्रह्म भूतं अकल्मषम् //

शाब्दिक अर्थ

पूर्ण शांत मन के साथ योगी उत्तम सुख में रहता है

राजस गुण शांत होनें पर मनुष्य ब्रह्म मय हो जाता है//

For supreme happiness comes to the yoginwhose mind is peaceful , whose passions are at rest , who is stainless and has become one with God .

ऊपर के गीता सूत्र को जब आप बार – बार मनन करेंगे तब आप को निम्न समीकरण मिलेगा /

राजस- गुण प्रभु राह का सबसे मजबूत रुकावट है//

गीता गुण – विज्ञान है जिसमें कहीं - कहीं भक्ति की एकाध किरण दिखती है जो सांख्य – योग के सन्दर्भ में होती है लेकिन लोग गीता को भक्ति में खूब ढाला / गीता के प्रारंभ में [ गीता सूत्र – 2.47 से 2.52 तक ] में प्रभु श्री कृष्णसम – भाव के साथ बुद्धि योग शब्द का प्रयोग किया है और समभाव की स्थिति को समत्व – योग का नाम दिया है / गीता गुणों का विज्ञान है और विज्ञान को ऊर्जा बुद्धि से मिलती है जबकी भक्ति की ऊर्जा ह्रदय से आती है / प्रभु श्री कृष्ण गीता के माध्यम से बहुत ही सीधा समीकरण देते हैं कुछ इस प्रकार से ----------

  • तीन गुण मुझसे हैं लेकिन मैं गुणातीत हूँ

  • तीन गुणों का माध्यम माया है

  • माया का गुलाम मुझसे दूर रहता है

  • मैं मायापति हूँ लेकिन माया का मेरे ऊपर प्रभाव नहीं रहता

  • माया से माया में वैज्ञानिक टाइम – स्पेस है

  • वैज्ञानिक तें-स्पेस में सभी जड़ – चेतन हैं


=====ओम्======


Thursday, October 6, 2011

गीता अध्याय छ भाग सात मन

[ ] योग का फल

गीता सूत्र –6.26

अर्जुन अपनें गीता सूत्र 6.33 एवं 6.34 के माध्यम से एक प्रश्न पूछते हैं , कुछ इस प्रकार ----

हे प्रभु , मैं अपनें अस्थिर मन के कारण आप के उपदेश को समझनें में असमर्थ हो रहा हूँ , क्या कोई उपाय है कि मैं अपनें मन को स्थिर कर सकूं ? प्रभु का इस सम्बन्ध में गीता सूत्र – 6. 34 है लेकिन प्रश्न का स्पष्ट उत्तर गीता सूत्र – 6.26 में हैं जहां प्रभु कहते हैं -----

मन जहाँ - जहां रुकता हि उसे वहाँ - वहाँ से उठा कर मुझ पर केंद्रित करो , इस प्रकार का अभ्यास योग से मन शांत हो जाएगा /

Through Gita Verse 6.26 The Supreme Lord Krishna says , whatsoever makes the wavering and unsteady mind wander away let him restrain and bring it back to the control of the Self alone .

अब आगे-----

यहाँ ऐसा नहीं लगता कि अर्जुन का मन अस्थिर है,क्योंकि अस्थिर मन वाला अस्थिर संदेह वाली बुद्धि रखता है और वह यह नहीं समझता कि उसका मन अस्थिर है,वह अज्ञान में है/कौन समझता है कि वह अज्ञानी है?जो यह समझता है कि वह अज्ञानी है उसी समय वह ज्ञानी हो जाता है लेकिन यहाँ अर्जुन का यह कहना कि मैं आप की बात को अपनें मन की अस्थिरता के कारण नहीं समझ पा रहा,कुछ अलग सा दिख रहा है/मैं जो बात गीता में है उसको आप के सामनें रखा है आगे आपका मन भ्रमित हो तब इस बिषय पर सोचना/मन क्यों भ्रमित होता है और क्यों भ्रमित होता है?मन के पास भ्रम का गहरा अनुभव होता है और वह भ्रम को अपना घर समझता है/मन आत्मा की भाँती अमर है जो आत्मा के साथ रहता है और आत्मा को अगला जन्म अपनी कामनाओं को पूरा करनें के लिए,लेने को बाध्य करता है/हमारे पास भ्रम – संदेह,अहंकार,आसक्ति,कामना,क्रोध,लोभ,मोह एवं भय के अलावा और है ही क्या?और इन सबके साथ हमारा मन रहता है/मन को इन तत्त्वों से हटा कर प्रभु पर केंद्रित करना ही साधना का लक्ष्य होता है//


=====ओम्==============


Sunday, October 2, 2011

गीता अध्याय छ भाग छ

गीता अध्याय –06

[ ] योग का फल

सूत्र –6.22 – 6.23

यं लब्ध्वा च अपरं लाभम् मन्यते न अधिकं ततः /

यस्मिन् स्थितः न दुखेन् गुर ुणा अपि विचाल्यते //

तं विध्यात् दुःख – संयोग वियोगम् योग – संज्ञितम् /

सः निश्चयेन योक्तब्य : योगः अनिविर्ण्ण – चेतसा //

मनुष्य को चाहिए कि वह संकल्प – श्रद्धा के साथ योगाभ्यास में लगा रहे , योग से बिचलित न हो , मन को कामना रहित रखे , मन से इन्द्रियों का नियोजन करे / मन कामना एवं भोग – संकल्प रहित हो तथा इन्द्रियों का द्रष्टा बना रहे , यह अभ्यास ही ध्यान है /

मन प्रभु पर ऐसे स्थिर हो जैसे वायु रहित स्थान में रखे दीपक की ज्योति स्थिर रहती है , मन गुण तत्त्वों जैसे आसक्ति , कामना , क्रोध , लोभ , मोह , भय एवं अहंकार का द्रष्टा बना रहे और मन इन्द्रियों का भी द्रष्टा बना रहे तबवह योगी योगारूढ़ स्थिति में होता हैजहां से वह कभीं भीसमाधिमें सरक सकता है //


=====ओम=======



Wednesday, September 28, 2011

गीता अध्याय छ के योग सूत्र

गीता अध्याय –06

[]योग का फल

गीता सूत्र –6.21

सुखं आत्यंतिकम् यत् तत् बुद्धि ग्राह्यं अतीन्द्रियं/

वेत्ति यत्र न च एव अयं स्थितः चलति तत्त्वं//

ध्यान की गहराई में पहुंचा योगी बुद्धि माध्यम से उस परम आनंद में पहुचता होता है जो उसे परम सत्य से कुछ ऐसा जोड़ देता है कि वह उस से कभीं अलग नहीं हो पाता //

Meditation is the source of supreme delight perceived by the intelligence and which is beyond the reach of senses . Such yogin who is enjoying the beautitude of meditation is so merged with the absolute reality that he no longer falls away from it .

अध्याय – 06 में ध्यान के सम्बन्ध में बहुत ही प्यारे सूत्र हैं जो धीरे - धीरे पत्थर जैसे कठोर ब्यक्ति को भी ध्यान के माध्यम से द्रवीभूत करते हैं // गीता में हमनें देखा कि ध्यान से मन – बुद्धि परम पर ऐसे स्थिर हो जाते हैं जैसे वायु रहित स्थान में रखे गए दीपक की ज्योति स्थिर होती है औरगीता हमें यह भी बताया कि जबतक मन – बुद्धि निर्विकार नहीं होते तबतक उनमें प्रभु की सोच आ नहीं सकती / ध्यान वह माध्यम हैजो मन – बुद्धि में बह रही गुण प्रभावित उर्जा को निर्गुणी बनाता है /


=====ओम========


Saturday, September 24, 2011

गीता अध्याय छ योग का फल भाग दो

गीता अध्याय –06

[]योग का फल


गीता सूत्र –6.20


यत्र उपरमते चित्तं निरुद्धं योग सेवया/

यत्र च एव आत्मना आत्मानं पश्यन्//

योग में ज्योंही चित्त भोग – भाव की उर्ज से मुक्त हो जाता है---

उस मन की स्थिति में वह योगी आत्मा की अनुभूति से गुजरता है//


During meditation when mind reaches to the state of pure senenity , the yogin realizes the presence of the Soul within . This state of mind opens the door where one realizes himself to be out of his own boby and this is the experience of Samadhi .


योग , तप एवं ध्यान एक माध्यम हैं जहां मनुष्य स्वयं को देखता है उन आँखों से जिनके पर्दों पर भोग की चादर नहीं पडी होती , जिन आँखों में प्रभु की रोशनी होती है और जिन आँखों से सत्य एवं असत्य स्पष्ट रूप से दिखते हैं और वह भी दिखता है जिससे सत्य एवं असत्य हैं /

ध्यान वह प्रक्रिया है------

जो इन्द्रियों से मन … .

मन से बुद्धि में बहा रही ऊर्जा को निर्विकार करती है …

और

निर्विकार मन – बुद्धि वह दर्पण हैं जिस पर … .

प्रभु प्रतिबिंबित होता है//


====ओम=====




Tuesday, September 20, 2011

गीता अध्याय छ भाग तीन

गीता अध्याय –06

[ ] योग का फल

यहाँ हम गीता अध्याय के निम्न सूत्रों को देखनें जा रहे हैं :-----


6.19

620

6.21

6.22

6.23

6.26

6.27

2.52

15.3

14.19

1420

14.23

6.29

630

x

x


गीता सूत्र –6.19

यथा दीप : निवात – स्थ : न इन्गते सा उपमा स्मृता /

योगिनः यत - चित्तस्य युज्जतः योगम् आत्मन : //

ध्यानारुढ – योगी का चित्त उस तरह से स्थिर होता है जैसे वायु रहित स्थान में दीपक की ज्योति स्थिर रहती है//

As a lamp in a windless place does not flicker , such is the state of mind of the yogin who is fully stablized in yoga .

Serenity of mind is a mode of the union of indivisual Soul with the Whole Cosmos .


समुद्र के तूफ़ान को देखते हो जो इस तुफान को देख कर भय में डूब गया वह समुद्र की परम शांति को न देख पायेगा/समुद्र के तूफानी लहरों के साथ जो ताल मेल बैठा लिया उसे वह लहरें समुद्र की उस गहराई को दिखा सकती हैं जहां से वे उठ रही होती हैं लेकिन जिस से वे उठ रही होती है वह परम शांत होता है/संसार में भोग से सम्मोहि मन तूफानी समुद्र की लहरों जैसा होता है और ध्यान उन मन की तूफानी लहरों को वहाँ पहुँचा देता है जहां से वे उठ रही होती हैं लेकिन वह स्वयं शांत रहता है/

शांत मन दर्पण पर प्रभु प्रतिबिंबित होता है //


=====ओम=====


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