Thursday, February 22, 2024

पतंजलि योग दर्शन की सबीज समाधि सम्बन्धित परमहंस योगानंद एवं परमहंस रामकृष्ण के जीवन की कुछ घटनाएं


पतंजलि योग सूत्र में सबीज समाधि के संदर्भ में परमहंस योगानंद और परमहंस रामकृष्ण से संबंधित कुछ घटनाएं 

[ ऊपर फोटो में बाए से दाहिने परम सिद्ध क्रियायोगी श्री श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय जी ,मध्य में सिद्ध क्रियायोगी ,लाहिड़ी महाशय जी के शिष्य श्री रामगोपाल मजूमदार जी और दाहिनी तरफ परमहंस योगानंद जी हैं जब वे 11 वीं कक्षा के विद्यार्थी थे  ]

( परमहंस योगानंद और परमहंस रामकृष्ण से संबंधित जो घटनाएं  यहां दी जा रही हैं वे क्रमशः परमहंस योगानंद जी द्वारा लिखित किताब , Autobiography of a Yogi और रामकृष्ण बचनामृत आधारित हैं )

पहले पतंजलि योगसूत्र में संप्रज्ञात समाधि की परिभाषा को समझते हैं । ऐसा करने से परमहंस योगानंद एवं परमहंस रामकृष्ण जी के जीवन की संप्रज्ञात समाधि संबंधित घटनाओं को समझने में आसानी हो जायेगी ।

 पतंजलि योग सूत्र विभूति पाद सूत्र - 3 में सबीज समाधि की परिभाषा निम्न प्रकार है ….

“ तत् एव अर्थ मात्र निर्भासं स्वरुपशून्यमिव समाधि: “

यहां तत् शब्द ध्यान के लिए प्रयोग किया गया  है । धारणा , ध्यान और समाधि , अष्टांगयोग के आखिरी तीन अंग हैं । पतंजलि योग सूत्र में अष्टांगयोग साधना में धारणा की दृढ़ भूमि ध्यान में प्रवेश कराती है और ध्यान की दृढ़ भूमि सबीज समाधि में बदल जाती है । जब धारणा , ध्यान और समाधि एक साथ घटित होती हैं तब इस स्थिति को संयम कहते हैं ।

अब ऊपर प्रस्तुत सूत्र का हिंदी भाषान्तर देखते हैं , “ ध्यान - अभ्यास की दृढ़ भूमि जब सबीज समाधि में रूपांतरित होती है तब ध्यान का सात्त्विक आलंबन का स्थूल स्वरूप सूक्ष्म एक प्रकाश बिंदु जैसा प्रकाशित भर होता रह जाता है और उसी आलंबन पर योगी समाधि में प्रवेश कर जाता है । समाधिस्थ योगी का स्थूल शरीर पूर्ण रूपेण संवेदन मुक्त निष्क्रिय अवस्था में आ गया होता है । 

अब इस संदर्भ में परमहंस जी के जीवन में घटित कुछ घटनाओं को समझते हैं ….

 यह घटना तब की है जब वे  8 - 10 वर्ष के थे 

# एक दिन संध्या बेला में धान के खेतों में टहलते हुए  ऊपर आकाश में पंक्तिबद्ध उड़ते हुए बगुलों ( herons )  के झुंड को देख कर गदाधर को सबीज समाधि लग गई थी । यह उनके जीवन की पहली संप्रज्ञात समाधि थी।

# दूसरी समाधि तब लगी थी जब वे गांव की स्त्रियों के संग भजन गाते हुए देवी पूजन हेतु पास के एक गांव जा रहे थे । रास्ते में जाते हुए भजन गाते - गाते परमहंस रामकृष्ण जी समाथिस्थ हो गाए थे , स्त्रियां घबड़ा गई थीं लेकिन गांव के मुखिया की बहन परमहंस जी की इस स्थिति स्थिति से परिचित थी । वाह स्त्री रामकृष्ण जी के कान में ॐ ॐ बोलने लगी और कुछ समय बाद वे पुनः होश में आ गए थे । 

# तीसरी समाधि उन्हें उस समय लगी जब वे गांव के नाटक में शिव बन कर रंगमंच पर उतरे थे । जब उनकी स्मृति में शिव की मूर्ति प्रकट हुई तब क्या था ! संवाद बोलना तो दूर रहा वे स्वयं मूर्तिवत हो गए मानो वे पत्थर की शिव की मूर्ति हों । 

परमहंस रामकृष्ण जी की ऊपर दी गई तीन घटनाएं आप को संप्रज्ञात समाधि को समझने में मदद कर सकती हैं । 

 समय से पहले समाधि में उतरने से कभी - कभी योगी मानसिक संतुलन खो सकता है । इस विषय से संबंधित परमहंस रामकृष्ण जी और परमहंस योगानंद जी के जीवन से संबंधित दो घटनाओं को संक्षिप्त में दिया जा रहा है …

# 1855 में दक्षिणेश्वर मंदिर में मूर्ति स्थापना के बाद गदाधर के बड़े भाई श्री रामकुमार जी को  दक्षिणेश्वर में प्रधान पुजारी नियुक्त किया गया ।  अचानक 1856 में उनकी मृत्यु हो जाने के बाद उनके स्थान पर गदाधर को नियुक्त किया गया को इस समय दक्षिणेश्वर परिसर में ही रह रहे थे। प्रायः मां काली की जब वे पूजा करते होते थे , मां से बाते करते - करते समाधिस्थ हो जाया करते थे। कुछ समय बाद 1857 में 21 वर्ष की उम्र में  गदाधर का मानसिक संतुलन असामान्य हो गया और लोग उन्हें पागल समझने लग गए थे । ऐसा क्यों हुआ ? इसके लिए योगानंद जी से संबंधित निम्न घटना को देखिए ⤵️

श्री श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय के शिष्य श्री श्रीयुक्तेश्वर गिरी जी थे जो परमहंस योगानंद जी के गुरु थे । योगानंद बार - बार अपनें गुरु से हठ किया करते थे कि वे उन्हें समाधि में उतार दें । श्री युक्तेश्वर जी हर बार यही कहते रहते थे की जब समय आएगा , तुम्हें समाधि लग जाएगी , चिंता मत कर । योगानंद जी कहां रुकने वाले थे , वी समाधि में उतरने के विकल्प को तलाशने लगे ।

 योगानंदजी के संस्कृत आचार्य एक दिन श्री लाहिड़ी महाशय जी के शिष्य श्री राम गोपाल मजूमदार का जिक्र कर बैठे । फिर क्या था ! योगानंद अपनें आचार्य से उनका पता लिए और चल पड़े रामगोपाल जी से मिलने । श्री मजूमदार जी त्रिकाल दर्शी सिद्ध योगी थे जो जंगल में अकेले एक छोटी आदिवासियों की बस्ती में एक झोपड़े में रहा करते थे । योगानंद अपनी इस यात्रा को अपनें गुरु श्री श्रीयुक्तेश्वर गिरी को नहीं बताया था । श्री रामगोपाल मजूमदार जी से जब योगानंद समाधि में उतरने के लिए उनकी मदद मांगी , तब वे मुस्कुराते हुए बोले , योगानंद ! तुम्हारे गुरु मेरे गुरु भाई हैं , मैं उन्हें अच्छी तरह जानता हूं । जब समय आएगा वे तुम्हें समाधि में उतार देंगे , तुम्हें इधर - उधर भागने की आवश्यकता नहीं । जब योगानंद बहुत हठ करने लगे तब वे बोले , योगानंद ! पहले तुम मेरे प्रश्न का उत्तर दो फिर मैं तुम्हें समाधि में उतार दूंगा । योगानंद बहुत खुश हुए और बोले ठीक है । श्री रामगोपाल जी बोले , अच्छा बताओ कि

यदि एक 10 वाट के बल्ब में 1000 वाट की बिजली प्रवाहित कर दी जाय तो उस बल्ब का क्या होगा ? 

योगानंद बोले ,बल्ब जल जाएगा। श्री राम गोपाल जी बोले अब तुम्हें पता चल गया होगा की तुम्हारे गुरु तुम्हें क्यों समाधि में नहीं उतारना चाहते क्योंकि अभी तुम समाधि की ऊर्जा को सम्हाल नही सकते , तुम अपना मानसिक संतुलन खो सकते हो या तुम शारीरिक तौर पर अपंग हो सकते हो या  तुम्हारी मौत भी हो सकती है । अब तुम लौट जा और भूल जा कि तुम्हें समाधि में उतरना है , जब वक्त आएगा तुम स्वत : समाधि में उतर जाओगे ।

अगले दिन सुबह योगानंद जब अपनें गुरु श्री श्रीयुक्तेश्वर गिरी जी के सामने आए  तब श्री युक्तेश्वर जी मुस्कुराए और बोले , योगानंद ? तुम्हारी समस्या का हल तो मिल गया होगा ? योगानंद सिर झुकाए खड़े रहे । परमहंस रामकृष्ण जी के साथ यही हो रहा था और वे समाधि की ऊर्जा को सम्हाल नहीं पा रहे थे और बार - बार अपना मानसिक संतुलन खो बैठते थे ।

अपनें पिछले जन्म में योगी योग यात्रा में जहां और जिस स्तर पर योग साधना में होता है , उसका वर्तमान जीवन पिछले जन्म की साधना से आगे चलने के लिए उसे मिला हुआ होता है लेकिन वर्तमान का स्थूल शरीर तो पिछले जन्म के शरीर जैसा नहीं होता ! शरीर के सभी तत्त्वों ( बुद्धि , अहंकार , 11 इंद्रियां और स्थूल शरीर इस लायक होना चाहिए जिससे समाधि के प्रेसर को बर्दास्त कर सके अन्यथा शारीरिक एवं मानसिक समस्याएं आ सकती हैं । योग साधना केवल सिद्ध योगी की देख - रहे में होनी चाहिए और ऐसे योगी दुर्लभ है ।

~~ ॐ ~~

Monday, February 19, 2024

वेदांत दर्शन आधारित तत्त्वों की प्रलय


🌄 वेदांत दर्शन में तत्त्वों की प्रलय

श्रीमद्भागवत पुराण :11.2 , 11. 3 आधारित 

स्वायंभुव मनु के कुल में चौथे बंशज ऋषभ देव जी हुए जो जैन परम्परा के पहले तीर्थंकर माने जाते हैं । इनके 100 पुत्रों में से 09 योगीश्वर हो गए थे । सातवें मनु श्राद्धदेव जी के बड़े पुत्र इक्ष्वाकु के दूसरे पुत्र निमी हुए जो पहले विदेह राजा जनक कहलाए ।  ऋषभ देव जी के 100 पुत्रों में से 09 योगिश्वर हो है थे । श्रीमद्भागवत पुराण में कुल 54 विदेह राजाओं को बताया गया है जिनमें निमी पहले थे और मां सीता जी के पिता 21 विदेह राजा जनक थे।

पहले विदेह राजा जनक ( निमी ) और 09 योगीश्वरों के संवाद के अंतर्गत तत्त्वों की प्रलय निम्न प्रकार से बताई गई है।   

1 -  वायु पृथ्वी की गंध को खीच लेता है और पृथ्वी जल में बदल जाती है ⤵️

2 - वायु जल का रस खीच लेती है , और जल अग्नि में बदल जाता है ⤵️

3 - अंधकार अग्नि के रूप को ले लेता है और अग्नि वायु में बदल जाता है ⤵️

4 - आकाश वायु की स्पर्श शक्ति को ले कर उसे उसे अपने में लीन कर लेता है ⤵️

5 - काल आकाश से शब्द ले लेता है और आकाश तामस अहंकार में लीन हो जाता है ⤵️

यहां तक 05 तन्मात्रों और 05 महाभूतों का लय तामस अहंकार में हो चुका है , अब आगे देखते हैं ⬇️

# 10 इंद्रियां + बुद्धि राजस अहंकार में लीन हो जाते हैं।

# मन और 10 इंद्रियों के अधिष्ठातृ देवताओं का समूह

सात्त्विक अहंकार में लीन हो जाते हैं ⤵️

अब तामस , राजस और सात्त्विक अहंकार बचे हुए हैं जिनके लय को आगे देखते हैं ,⬇️

➡️तीन अहंकार महत् तत्त्व  में लीन हो जाते है।

➡️ महत् तत्त्व  प्रकृति में लीन हो जाता है ।

➡️ त्रिगुणी प्रकृति ब्रह्म में लीन हो जाती है ।

इसके बाद क्या होता है ⬇️ 

प्रलय के फलस्वरूप न दृष्टा होता है , न दृश्य , जो बच रहता है वही वेदांत दर्शन का नित्य - सनातन ब्रह्म है ।

▶️ ब्रह्म से ब्रह्म में यह जगत है और प्रलय में यह जगत ब्रह्म में समा जाता है ।

~~ ॐ ~~


Friday, February 16, 2024

पतंजलि योगसूत्र में धारणा से मोक्ष तक की योग यात्रा


पतंजलि योग सूत्र दर्शन में संप्रज्ञात , असंप्रज्ञात और धर्ममेघ समाधियां एवं कैवल्य - मोक्ष  रहस्य 

किसी सात्विक आलंबन से चित्त बाध कर रखने का नियमित और निरंतर अभ्यास चित्त का उस आलंबन से जुड़े रहने का अभ्यासी बना देता है । लंबे समय तक आलंबन पर चित्त के जुड़े रहने के अभ्यास से ध्यान की सिद्धि मिलती 

है । ध्यान सिद्धि से विषय वितृष्णा का भाव गहराने लगता है ।  जब उसी आलंबन पर लंबे समय तक ध्यान स्थिर रहने लगता है तब संप्रज्ञात समाधि मिलती है ।मूलतः संप्रज्ञात  समाधि लंबे समय तक ध्यान में रहने का परिणाम है। संप्रज्ञात समाधि में आलंबन का स्वरूप सूक्ष्म हो गया होता है , केवल अर्थ मात्र प्रकाशित ( निर्भसित ) ,होता रहता है । जैस - जैसे संप्रज्ञात समाधि सघन होती जाती है और धारणा , ध्यान और संप्रज्ञात समाधि की सिद्धि एक साथ एक एक ही समय एक ही आसन में योगारूढ़ योगी को मिलने लगती है तब इसे संयम कहते हैं । इस योगाभ्यास का निरंतर अभ्यास करते रहने से संयम की सिद्धि मिलती है जिसके फलस्वरूप सिद्धियां मिलती हैं । जिस विषय पर संयम सिद्धि की जाती है , इस विषय से संबंधित सिद्धि मिलती है । पतंजलि योग दर्शन विभूति पाद में ऐसी 45 सिद्धियों की चर्चा की गई है। जैसे - जैसे साधना आगे बढ़ती जाती है ,  बुद्धि ऋतंभरा प्रज्ञा हो जाती है अर्थात सत्य से भर जाती है । चित्त राजस और तामस गुणों से मुक्त हो जाता है केवल सात्त्विक गुण की वृत्तियों का संचार होता रहता है । यहां ध्यान में रखना होगा कि चित्त त्रिगुणी होता है क्योंकि यह  त्रिगुणी प्रकृति का कार्य है । अब त्रिगुणी न रह कर  केवल एक सात्त्विक गुणी रह जाता है । 

ऋतंभरा प्रज्ञा से प्राप्त विवेक ज्ञान से प्रकाशित चित्त से पिछले संस्कार धूल जाते हैं लेकिन विवेक ज्ञान से नया सत् आधारित संस्कार निर्मित हो जाता है । विवेक ज्ञान पिछले श्रुति - अनुमान आधारित ज्ञान से ( वह ज्ञान जो शास्त्र आदि एवं अध्यात्मिक आचार्यों से मिलता है ) भिन्न होता 

है । समाधिष्ठ अवस्था में  चित्त कर्म एवं कर्म वासनाओं से मुक्त हो जाता है लेकिन जैसे ही समाधि टूटती है पिछले संस्कार और कर्म वासनाएं सक्रिय हो जाती हैं , फलस्वरूप समाधि टूटते ही योगी कस्तूरी मृग जैसा हो उठता है , अपनें कस्तूरी(समाधि )  की तलाश में बेचैन हो उठता है और वह पुनः उसी समाथिष्ठ अवस्था में लौटना चाहता है ।  जब योगी संयम सिद्धि से मिली सिद्धियों से विचलित नहीं होता तब योग यात्रा आगे चल कर असंप्रज्ञात समाधि में बदल जाती है जहां धारणा - ध्यान का स्थूल आलंबन का सूक्ष्म प्रकाशित स्वरूप का भी क्षय हो जाता है । अब बिना आलंबन , बिना कारण , अपने - आप असंप्रज्ञात  समाधि घटित होने लगती है और योगी विवेक ख्याति में होता है।

असंप्रज्ञात समाधि का निरंतर योगाभ्यास करते रहने से आगे चल कर धर्ममेघ समाधि घटित होती है । यहां विवेक ज्ञान से निर्मित संस्कार का भी क्षय हो जाता है और प्राप्त विभूतियों से भी वैराग्य हो जाता है । धर्ममेघ  समाधि कैवल्य का द्वार होती है । कैवल्य में ज्ञान अनंत हो जाता है , ज्ञेय अल्प हो जाता है , पुरुषार्थ शून्य हो जाता है और योगी गुणातीत होता है। कैवल्य कैवल्यावस्था में योगी औरों के लिए होता है लेकिन अपनें लिए वह नहीं होता , ऐसा प्रकृति लय और विदेह योगी अपनें स्थूल शरीर त्याग के दृष्टा रूप में आवागमन चक्र से मुक्त हो जाता है जिसे मोक्ष कहते हैं । 

~~ ॐ ~~ 

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