Thursday, April 26, 2012

गीता में अर्जुन का दूसरा प्रश्न

गीता श्लोक –3.1 , 3.2

ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिः जनार्दन /

तत् किम् कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव //

ब्यामिश्रेण इव वाक्येन बुद्धिम् मोहयसि इव में

तत् एकम् वद निश्चित्य येन श्रेयः अहम् आप्नुयाम् //

अर्जुन कह रहे हैं-----

हे केशव!जब आप को ज्ञान कर्म की अपेक्षा श्रेष्ठ दिखता है तब आप मुझे इस युद्ध – कर्म में क्यों लगाना चाह रहे हैं?आप के नाना प्रकार के वचनों से मैं भ्रमित हो रहा हूँ,आप कृपया मुझे वह स्पष्ट बताएं जो मुझे कल्याणकारी हो?

इस प्रश्न का उत्तर गीता सूत्र –3.3से3.35के मध्य होना चाहिए लेकिन ऐसा है नहीं,उत्तर के लिए आप को गीता-सागर में तैरना ही होगा/

गीत अध्याय दो में ज्ञान - योग के मूल विषय आत्मा के सम्बन्ध में प्रभु मोह ग्रसित अर्जुन को ऎसी बातें बता रहे हैं जो गुण प्रभावित बुद्धि से समझाना संभव नहीं / गीता कहता है - बुद्धि दो प्रकार की होती है ; एक बुद्धि वह है जो गुण प्रभावित होती है जिसके माध्यम से हम भोग को ही भगवान समझते हैं और दूसरी बुद्धि गुणों से अप्रभावित बुद्धि होती है जो एक दर्पण सा होती है और जिस पर प्रभु के अलावा और कुछ नहीं होता / ज्ञान की बात अर्जुन यहाँ कर रहे हैं और प्रभु ज्ञान की परिभाषा अध्याय – 13 में सूत्र दो के माध्यम से कुछ इस प्रकार से देते हैं … ....

क्षेत्रक्षेत्रज्ञयो: ज्ञानं यत् तत् ज्ञानं मतं मम

अर्थात

वह जो क्षेत्र एवं क्षेत्रज्ञ का बोध कराये, ज्ञान है/

अर्जुन के प्रश्ना का सीधा सा जबाब आप को कुछ इस प्रकार से मिलता है जब आप सम्पूर्ण गीता को पीते हैं तब … ......

भोग कर्मों में भोग तत्त्वों का जब स्वतः त्याग हो जाए और भोग कर्म योग में बदल जाए तब कर्म योग की सिद्धि के फल के रूप में जो बोध होता है वह है ज्ञान/ज्ञान प्राप्ति के ठीक पहले वैराज्ञ मिलता है जहाँ परमानंद की अनुभूति के साथ ज्ञान में कदम पहुँचता है//

===ओम्=====


Thursday, April 19, 2012

अर्जुन का गीता में पहला प्रश्न

गीता में अर्जुन का पहला प्रश्न

गीता श्लोक –2.54

स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव

स्थितधी:किम् प्रभाषेत किम् आसीत व्रजेत किम्

हे केशव ! समाधि में स्थित परमात्मा को प्राप्त स्थिरप्रज्ञ पुरुष का क्या लक्षण है ? वह कैसे बोलता

है ? कैसे बैठता है ? और कैसे चलता है ?

गीता में अर्जुन के इस प्रश्न के सम्बन्ध में प्रभु श्लोक – 2.55 से 2.72 तक के सूत्रों का प्रयोग किया है /

अर्जुन के प्रश्न को कम से कम पांच बार आप पढ़ें और तब इन बातों पर सोचें … ....

अर्जुन को यह पता नहीं कि स्थिरप्रज्ञ की पहचान क्या है लेकिन अर्जुन यह जानते हैं की … ...

स्थिर प्रज्ञ-----

समाधि में स्थित होता है … ..

परमात्मा की अनुभूति उसे मिलती रहती है

क्या इन दो बातों के ज्ञान से अर्जुन तृप्त नहीं कि आगे वे जानना चाह रहे हैं … ....

स्थिर प्रज्ञ कैसे बोलता है? ,कैसे बैठता है?और कैसे चलता है?

यहाँ अर्जुन की बातों से एक बात तो स्पष्ट है कि अर्जुन समाधि शब्द से परिचित हैं लेकिन समाधि का उनको कोई अनुभूति नहीं है लेकिन इतना उनको जरुर मालूम है कि ऐसा योगी परमात्मा मय होता जरुर है /

आगे आप गीता के माध्यम से अर्जुन के इस प्रश्न के सम्बन्ध में देखें

स्थिर प्रज्ञ योगी वह होता है जो कामना,क्रोध,लोभ,मोह,भय एवं अहँकार रहित होता है//

==== ओम्=====


Sunday, April 15, 2012

गीता में अर्जुन का समर्पण

गीता श्लोक – 18.66 से श्लोक 18.73 तक

पिछले अंक में हमनें भक्ति के सम्बन्ध में गीता सूत्र – 18.66 को देखा जहाँ प्रभु श्री कृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं , सभीं धर्मों को त्याग कर तुम मेर शरण में आ जा , मैं तेरे को सभीं पापों से मुक्त कर दूंगा / ,,

आइये अब देखते हैं अगले श्लोकों को … .......

श्लोक –18.67

प्रभु कह रहे हैं , वह जिनकी आस्था तप में नहीं , भक्ति में नहीं और जो नास्तिक हैं उनके मध्य में गीता ज्ञान की चर्चा करना उचित नहीं / “

श्लोक –18.68

इस श्लोक के माध्यम से प्रभु कह रहे हैं , मेरे परम प्रेम में डूबे भक्तों के मध्य जो गीता की चर्चा प्रीती में डूब कर करता है वह मुझे प्राप्त करता है / “

श्लोक –18.69

वह जो मेरे भक्तों को गीता सुनाता है वह मेरा परम प्रिय होता है , ऎसी बात श्री कृष्ण कह रहे हैं /

श्लोक –18.70

प्रभु यहाँ कह रहे हैं , वह जो धर्म रूप में मेरे एवं तेरे सम्बादों को गीता के माध्याम से समझेगा , वहज्ञानी होगा / “

श्लोक –18.71

प्रभु यहाँ कह रहे हैं , जो श्रद्धामें डूबा हुआ और दोष रहित हो कर गीता का श्रवण करता है , वह सभीं पापों से मुक्त हो जाता है / “

श्लोक – 18.72

यह सूत्र प्रभु का गीता में आखिरी सूत्र है , यहाँ प्रभु कह रहे हैं , क्या तूनें इस गीता शास्त्र को स्थिर मन से सुना ? और क्या तेराअज्ञान जनित मोहसमाप्त हुआ ? “

गीता श्लोक –18.73

यह श्लोक अर्जुन का गीता में आखिरी श्लोक है जहाँ अर्जुन प्रभु को धन्यबाद करते हुए कह रहे हैं , हे प्रभु ! आप की कृपा से मेरा मह नष्ट हो गया है , मैनें अपनी खोयी हुयी स्मृति प्राप्त कर ली है , अब मैं संदेहरहित स्थिति में हूँ और आप के आज्ञा का पालन करूँगा / “

गीता के आखिरी सात सूत्रों को आप यहाँ देखे जिनका सम्बन्ध प्रभु श्री कृष्ण एवं अर्जुन से है और उनके भावों को भी देखा , अब समय आ गया है कि आप इन सूत्रों से या तो संदेह में यात्रा करें या संदेह रहित हो कर अर्जुन की भांती प्रभु सपर्पित हो कर संसार का द्रष्टा बन कर मजा लें , परमानंद का /


==== ओम्=====


Friday, April 13, 2012

मेरी शरण में आ जा

गीता श्लोक –18.66

सर्वधर्मान् परित्यज्य माम् एकम् शरणम् व्रज

अहम् त्वा सर्वपापेभ्य : मोक्षयिष्यामि मा शुच :

सभीं धर्मों को त्याग कर मेरे एक की शरण में आ जाओ.मै तुझे सभीं पापों से मुक्त कर दूंगा/

Relinquishing all Dharmas surrender unto Me exclusively , I will liberate you from all shins .”

माम् एकम् अर्थात केवल मेरे , प्रभु कह रहे हैं हे अर्जुन ! तुम इधर - उधर की धार्मिक बातों में अपने मन एवं बुद्धि को न उलझाओ , तुम अपनें मन एव बुद्धि को मुझ पर , मात्रा मुझ पर केंद्रित करो और यदि तुम ऐसा करनें में सफल हुए तो मैं तुमको सभीं पापों से मुक्त कर दूंगा / यहाँ धर्म का अर्थ है शास्त्रों का बंधन ; हमारे शास्त्र भी एक सीमा के बाद बंधन बन जाते हैं , शास्त्रों को जीवन भर अपनी पीठ पर रख कर ढोना ही बंधन है / शास्त्रों की बाते एक दूरी तक यात्रा तो सही दिशा में कराती हैं लेकिन उनकी भी सीमायें हैं जहाँ पहुंचा कर वे हमें धन्यबाद करती हैं और कहती हैं यहाँ हमारी सीमाएं समाप्त होती हैं और आगे की यात्रा अब आप स्वयं करें / प्रभु कह रहे हैं , हे अर्जुन तुम अपने को मुझे सर्पित कर दो , क्या समर्पण स्व का प्रयास है ? जी नहीं समर्पण प्रयास नहीं है यह प्रभु का प्रसाद है जो साधना के फल के रूप में मिलता है / जबतक हम अपनें मन – बुद्धि का गुलाम बनें रहते हैं तबतक समर्पण की सोच आ नहीं सकती / अब गीता मेंश्लोक – 18.66 के बादमात्र 12 और श्लोक हैंजिनमें सेप्रभु के 06 श्लोक हैंऔरअर्जुन का मात्र एक श्लोक हैऔर शेष आखिरी पञ्च श्लोक संजय के हैं / गीता का समापन आ गया है , ज्ञान – योग , कर्म – योग , भक्ति . सांख्य – योग , समत्व – योग एवं बुद्धि - योगकी सारी बातें अर्जुन को बदलनें में असफल हो रही हैं और अंत में आ कर प्रभु कह रहे हैं किहे अर्जुन ! तुम सबकुछ भूल जाओ और मुझे सार्पित हो जाओ , मुझे अपना बनाओ , कर्ता न बन कर द्रष्टा बन जाओ और देखो मैं क्या तुमसे कराता हूँ और जो कराउंगा वह तुझे पापों से दूर भी रखेगा /

==== ओम्======


Thursday, April 12, 2012

भक्त कभी रोता है और कभीं गाता है

लोग भक्त के जीवन को कष्ट मय देखते हैं लेकिन भक्त क्या समझता है?

समझना गुणों के सम्मोहन में उलझी बुद्धि का काम है , निर्विकार बुद्धि [ देखें गीता - 7.10 ] समझनें का कम नहीं करती वह द्रष्टा होती है : सत्य का द्रष्टा / भक्त समझता नहीं है वह सत्य में जीता है और सत्यमें मरता है , आइये देखते हैं एक दृष्टान्त … ......

रामकृष्ण परमहंसजीदक्षिणेश्वरके मंदिर में जीवन भर पुजारी रहे / एक दिन पंजाब से एक तत्त्व ज्ञानी श्रीतोतापुरीजीमहाराज रामकृष्ण जी से मिलनें लाहौर से पैदल चल कर कोलकता आये / तोतापुरी जी मंदिर परिसर में ही श्री रामकृष्णजी के साथ रुके और कुछ दिनों तक राम कृष्ण जी को देखते रहे / एक दिनतोतापुरीजी बोले , रामकृष्ण तुम कबतक इस पत्थर की पूर्ति के सामनें नाचता रहेगा ? इससे कबतक बातें करता रहेगा ? आखिर कबतक इसके आगे आंशू बहाता रहेगा ? कभीं उस पार की भी यात्रा कर और देख उस स्थान को भीजहाँ माँ स्वयं के लिए रहती है / रामकृष्ण बोले , क्या कह रहे हैं आप , वह तो यहीं रहती हैं हमारे सामनें जहाँ हैं , उस पार क्या है कुछ नहीं मात्र मंदिर की दिवार है ? तोतापुरी बोले , नहीं यह तो तेरा एक भ्रम है , माँ यहाँ नहीं रहती उनका असली स्थान उसपार है जहाँ वह नहीं ले जाती किसी को , स्वयं जाना होता है और वह मार्ग इसी पत्थर की मूर्ति से निकलता भी है / रामकृष्ण जी समझे या नहीं कहना कठिन है लेकिन उस पार की यात्रा के लिए राजी हो गए / तोतापुरीजी बोले , ठीक है तूं जैसा कर रहा है वैसा करता रह , जब ठीक समय आ जायेगा तब मैं तुझे उस पार ले चलूँगा /

एक दिन सुबह – सुबह रामकृष्ण जी आरती कर रहे थे , आरती करते हुए नाच भी रहे थे और तोतापुरी ठीक पीछे खड़े हो कर सब कुछ देख रहे थे / रामकृष्ण जी जब भावविभोर हो गए तब तोतापुरीजी उनके मस्तक के ठीक बीच में जहाँ चन्दन का टीका करते हैं वहाँ काट दिया और वहाँ से खून बहनें लगा और रामकृष्ण जी वेहोश हो कर नीचे गिर पड़े / काफी समय बाद जब उनको होश आया तब वे बोले , माँ मैं तो वहीं ठीक था , दुबारा तूं मुझे यहाँ क्यों लायी और रोने लगे ?”

भक्त भक्ति की धारा के मध्य बसा रहना चाहता है वह कभीं एक किनारे नहीं लगना चाहता / भक्ति की मध्य धारा में वह भार रहित होता है और बहता रहता है लेकिन जब वह संसार की ग्रेविटी में फस जाता है तब उसे असुविधा जरुर होती है लेकिन यह स्थिति क्षणिक होती है /

भक्त भगवन को नहीं खोजता,भगवान भक्त से अपनी निगाह कभीं नहीं उठाता

भक्त बगवान में बसा और होता है और भगवान भक्त के ह्रदय में


=====ओम्=======


Tuesday, April 10, 2012

भक्ति भाग एक

भक्ति भाग एक

क्या है भक्ति?

भारतीय आध्यात्मिक धारा में छः उप धाराओं की बातें हमें शास्त्रों में मिलती हैं - न्याय , वैशेषिक , सांख्य , पूर्व मिमांस , योग एवं वेदान्त / यहाँ भक्ति का कोई नाम नहीं जबकि हिंदू परम्परा में जहाँ देखो वहीं भक्ति के अनेक रूप देखनें को मिल रहे हैं / भक्ति आखिर है क्या ? क्यों लोग भक्ति को अपनानें में एक मिनट भी नहीं सोचते और यदि योग , वेदान्त , न्याय , मिमांश आदि की चर्चा की जाए तो लोग अपनें - अपनें कान बंद कर लेते हैं / वह जिसका एक छोर साकार में हो और दूसरा छोर निर्विकार में , वह जिस्सका एक छोर ज्ञेय हो और दूसरा अज्ञेय हो , वह जिसका एक छोर संसार में हो और दूसरा अनंत में , वह जो अपरा से प्रारम्भ हो कर परा में पहुंचाता हो , वह है भक्ति /

भक्ति स्व का कृत्य नहीं प्रभु का प्रसाद है ; भक्ति देखनें में जितनी सरल दिखती है साधना की दृष्टि वह उतनी ही कठिन है / न्याय , मिमांस , बैशेषिका , सांख्य , योग एवं वेदान्त सभीं मार्ग जहाँ अंततः पहुँच कर अपना अस्तित्व खो देते हैं उसका नाम हैपरा भक्ति / परा भक्ति साधनाओं का फल है जो साधक को कटी पतंग सा बना कर रखती है और लोगों की निगाह में वह भक्त दुखी दिखता है पर वह होता है परम आनंद में / मीरा , नानक , चैतन्य , कबीर , रहीम जिस भी भक्त को आप देखें आप समझेगे की इनके जीवन में दुःख के अलावा और कुछ नहीं पर उनकी निगाह में उनका जीवन परम आनंद में होता है /

भक्ति का प्रारंभ अपरा अर्थात साकार से होता है और जैसे-जैसे भक्ति पकती जाती है साकार निराकार में रूपांतरित होता जाता है और अंततः न भक्त बचता है और न साकार माध्यम,जो रहता है वह होता है शुद्ध चेतना/

रामकृष्ण परमहंस जी के लिए माँ काली की मूर्ति एक पत्थर की मूर्ति नहीं थी , वे उस मूर्ति के साथ वार्तालाप करते रहते थे / कहते हैं मेवाड का राजा जब मीरा को द्वारिका से वापिस लानें के लिए अपनें सेनापति को भेजा तब मीरा बोली , आप लोग यहीं बाहर रुके , मैं चलूंगी , जरुर चलूंगी , आप सब के प्यार को मैं ठुकरा नहीं सकती लेकिन पहले कन्हैया से पूछ लू / मीरा द्वारकाधीश के सामनें गयी , अपनी आँखे बंद की और उस मूर्ति में समा गयी और आज तक बाहर न निकल सकी / लोग कहते हैं , यह कहानी सच्चाई से दूर है लेकिन ऎसी बात वे कहते हैं जो बुद्धि केंद्रित हैं ; जहाँ बुद्धि आप को चला रही हो वह मार्ग सदेह रहित नहीं हो सकता और जहाँ श्रद्धा हो वहाँ संदेह नहीं और वहा जो रहता है वह सत्य ही होता है /


=====ओम्=====


Saturday, April 7, 2012

गरुण पुराण अध्याय पञ्च का अन्ति भाग

विष्णु भगवान पाप कर्म करनें वालो के सम्बन्ध में कुछ और बातों को कुछ इस प्रकार से यहाँ बता रहे हैं ------------

  • छोटी बालिका के साथ ब्याभिचार करने वाला अजगर की योनि में पहुँचता है

  • गुरु की पत्नी के साथ सम्बन्ध स्थापित करनें वाला विषखोपडा बनता है

  • रानी और मित्र की पत्नी से जो सम्बन्ध रखता है वह गधे की योनि में पहुँचता है

  • गुदा द्वार से मैथुन करनें वाला सूअर बनता है

  • शुद्र नारी के साथ सम्बन्ध स्थापित करनें वाला बैल या घोड़ा बनता है

  • देवताओं के अंश का भोजन जो करता है वह मुर्गा बनता है

  • ब्रह्म हत्या करनें वाला गधा या ऊँट या भैंस बनता है

  • शराबी भेडिया कुत्ता या सियार बनता है

  • दूसरे की पत्नी को हडपने वाला , किसी की धरोहर को अपनानें वाला ब्रह्म राक्षस कहलाता है

  • बरहन के धन पर अधिकार जमानें वाले की सात पीढियां नश्र हो जाती हैं

  • बलात्कार एवं चोरी का धन मनुष्य का कुल चन्द्रमाँ एवं तारामंडल तक नाश होता है

  • ब्राह्मण के धन से तैयार की गयी सेना कभी सफलता नहीं प्राप्त करती

  • ब्राह्मण की वह जमीन जो डान में उसे मिली होती है उको हडपने वाला 60,000 सलों तक विष्ठा का कीड़ा बन कर रहता है

  • जो स्वयं दान दी गयी जमीन को पुनः अपनें कब्जे में लेता है वह महा प्रलय तक नरक में रहता है

  • ब्राह्मण की आजीविका को छीननें वाला बन्दर या कुत्ता बनता है

बुरे कर्म करनें वाले नरक की यातनाओं को भोग कर ऊपर बतायी गयी योनियों में जन्म लेते हैं और हजारों सालों तक यातनाओं को झेलते रहनें के बाद पुनः पक्षियों की योनियों में जन्म लेते हैं जहाँ वर्षा , जाड़ा , धुप आदि का दुःख भोग कर पुनः मनुष्य योनि उनको मिलती है / अंडज , स्वेदज , उद्भज और जरायुज ये चार प्रकार की योनियाँ हैं / मनुष्य अपनें कर्मों के आधार पर बिभिन्न योनियों से गुजरता है और बार – बार जन्म लेता है और मरता है , यह क्रम तबतक चलता रहता है जबतक मनुष्य योनि में वह कुछ ऐसा नही करता जो उसे परम गति प्रदान कराये / परम गति प्राप्त करने वाला दुबारा जन्म नहीं लेता /

गरुण पुराण अध्याय पांच का अंतिम भाग यहाँ समाप्त होता है


=====ओम्=========




गीता और हम भाग तेरह

गीता रहस्य एवं हम –13

गीता के दो सूत्र जिन पर आप मन ध्यान में उतर सकते हैं

गीता श्लोक –6.26

यतः यतः निश्चरति मनः चंचलमम् अस्थिरम्/

ततः ततः नियम्य एतत् आत्मनि एव वशम् नयेत्//

यतः यतः चंचलं च अस्थिरं मनः निश्चरति

एतत् नियम्य ततः ततः नयेत् वशम् आत्मनि एव

यह कभीं स्थिर न रहनें वाला मन[चंचल मन]जहाँ-जहाँ रुकता हो उसे वहाँ वहाँ से उठा कर परमात्मा पर केंद्रित करते रहो/

To whatever and wherever the restless and unsteady mind wanders , this mind should be restrained then and there and braught under the control of the self alone .

जब कोई ऐसा करनें में सक्षम हो जाता है तब उसके मन की यह स्थिति होती है ----

गीता श्लोक –6.19

यथा दीपः निवातस्थः न इंगते सा उपमा स्मृता/

योगिनः यतचित्तस्य युज्जत:योगम् आत्मनः//

यथा दीपः निवातस्थ न इंगते उपमा स्मृता

योगिनः सा आत्मनः यतचित्तस्य युज्जतः योगम्

जिस प्रकार वायु रहित स्थान में स्थित दीपक चलायमान नहीं होता वैसे ही उपमा परमात्मा के ध्यान में लगे हुए योगी के जीते हुए चित्त की कही गयी है

As a flame in a windless place does not waver , the analogy is cited of one perfected in the science of uniting the individual consciousness with the ultimate consciousness ; just as the self realized being whose controlled mind unwaveringly engages in the science of uniting the individual consciousness with the ultimate consciousness .

गीता के दो सूत्र दो बाते बता रहे हैं------

मन तब शांत होता है जब तन में प्रभु की ऊर्जा की आहट मिलने लगती है

और शांत मन एक शांत स्थान में रखे दीपक की स्थिर ज्योति की भांति होता है

जो प्रभु केंद्रित होता है/

ऊपर दी गयी बात अभ्यास – योग की बुनियाँद है


====ओम्========


Wednesday, April 4, 2012

गीता रहस्य एवं हम अगला सोपान

गीता सांख्य – योग की गणित है

शून्य में अनंत और अनंत में शून्य की गणित गीता गणित है/

मन की शून्यता में अनंत की अनुभूति होती है और अनंत रूपी संसार में शून्यता की अनुभूति ही ब्रह्म की अनुभूति है/हिंदू परम्परा में वैशेषिका,न्याय,सांख्य,योग,वेदान्त एवं पूर्व मिमांस – छः मार्गो को बताया गया है जो असत् से सत् में पहुंचानें का प्रयाश करते हैं/हिंदू लोग नास्तिक वर्ग में जैन,बुद्ध एवं चार्वाक को रखते हैं/

कथा उपनिषद [ 400 BCE ] में Proto Samkhya का सन्दर्भ मिलता है लेकिन ईश्वर कृष्ण

[ 350 CE – 350 C.E ] Saamkhya Karika लिखा जिसको सांख्य – योग का मूल ग्रन्थ कहा जा

सकता है / कपिल मुनि को सांख्य – योग का जनक कहते हैं और इनका उल्लेख गीता श्लोक 10.26 में भी किया गया है / सांख्य – योग का प्रचार – प्रसार 09 CCE के आस – पास अधिक रहा है और लगभग उसी समय आदि शंकराचार्य [ 788 – 820 CE ] का अद्वैत्य बाद भारत में फैलानें लगा और सांख्य एवं वैशेषिक जैसे वैज्ञानिक दर्शनों का लोप होनें लगा /

सांख्य कहता है ----

Kowlege could be attained through …...

[A] Direct perception

[B] Logical inference

{C} Verbal testimony

सांख्य कहता है , प्रकृति - पुरुष से संसार का अस्तित्व है और गीता श्लोक – 15.16 कहता है -----

द्वौ इमौ पुरुषौ लोके क्षरः च अक्षरः एव च/

क्षरः सर्वाणि भूतानि कूटस्थः अक्षरः उच्यते//

संसार में नाशवान् एवं अनाशवान् दो प्रकार के पुरुष हैं सभीं जीवों के देह तो नाशवान हैं और आत्मा अनाशवान है /

Samkhya believes in plurality of consciousness but Gita differs it , it says consciousness is one .

संख्या - योग के तत्त्व हैं पञ्च महाभूत , मन , बुद्धि , अहँकार , पञ्च ज्ञानेन्द्रियाँ , पञ्च कर्म इन्द्रियाँ , पञ्च बिषय और चेतना लेकिन गीता में इन तत्त्वों के साथ आत्मा एवं परमात्मा को भी जोड़ दिया गया है / गीता की गणित सांख्य की गणित से अधिक स्पष्ट है जहाँ संदेह की कोई गुंजाइश नहीं दिखती लेकिन सांख्य में संदेह की जगह है / गीता अपनें में वैशेषिका , न्याय , सांख्य , भक्ति सबकी आत्मा को धारण किये हुए है और स्वर्ग से परे अपनी निगाह रखनें के कारण इसे वेदान्त भी कहते

हैं / गीता में प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं -------

गीता श्लोक –2.42 , 2,43 , 2,44 2.45 , 2.46

वेद भोग प्राप्ति के अनेक साधनों की प्रशंसा करते हैं और अनेक यज्ञों के माध्यम से कामना प्राप्ति के उपाय भी बताते हैं लेकिन हे अर्जुन तूं इन बातों से ऊपर उठो और ब्राहमण बन जाओ / ब्राह्मण वह है जो ब्रह्म में डूबा रहता है और उसका वेदों से नाममात्र का सम्बन्ध रह जाता है /




Monday, April 2, 2012

गीता और हम में गीता सूत्र एक

गीता का पहला श्लोक

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः

मामकाः पाण्डवाश्चैव किमकुर्वत संजय

धृतराष्ट्र पूछ रहे हैं------

संजय!धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्र समवेता:युयुत्सवः

मामकाः च एव पाण्डवा:किम् अकुर्वत//

अर्थात

" हे संजय ! धर्म क्षेत्र कुरुक्षेत्र में एकत्रित युद्ध की इच्छा वाले मेरे और पांडु के पुत्रोंनें क्या किया ?”

यह बात धृतराष्ट्र जी अपनें सहयोगी संजय से पूछ रहे हैं ; धृतराष्ट्र कौरवों के पिता हैं और जन्म से अंधे हैं /

धर्म क्षेत्र कुरुक्षेत्र

कुरुक्षेत्र कैसे धर्म क्षेत्र है?

पश्चिम में सिंध नदी के आसपास से लेकर पूर्व में बंगाल की खाडी तक किसी न किसी रूप में आर्य लोगों की उपस्थिति का संकेत मिलता है जिसमें गंधार , मुल्तान , कराची , तक्षशिला , पुरुषपुर

[ पेशावर ], हिसार , कुरुक्षेत्र , दिल्ली , मेरठ , कौसल [ अयोध्या के आस पास का क्षेत्र जैसे श्रावस्ती , गोरखपुर , काशी , मिथिला , मगध एवं अंग [ बंगाल का क्षेत्र + ओडिशा का क्षेत्र ] का नाम सर्बोपरी है / वेदों में कुरुक्षेत्र को स्वर्ग में रहनें वालों का तीर्थ कहा गया है लेकिन हिंदू शात्रों में 07 तीर्थों का नाम है जिसमें कुरुक्षेत्र का नाम नहीं है और जो हिंदू तीर्थ हैं , उनका नाम कुछ इस प्रकार से है … ...

काशी,द्वारका,अयोध्या,मथुरा,उज्जैन,हरिद्वार,कांची

कुरुक्षेत्र का समय - समय पर नाम बदलता रहा है जैसे उत्तरावेदी , ब्रह्म वेदी एवं धर्मक्षेत्र आदि /

चीनी दार्शनिक XUANG XANG यहाँ 636 AD में आये थे और यहाँ पर अनेक बौद्ध साधना गृहों के होनें की बात लिखी है लेकिन आज एक भी नहीं दिखता , कहाँ गए ये सब साधना गृह ?

अशोक[ 273 BCE – 232 BCE ]से हर्षवर्धन[ 590 – 657 CE ]तक कुरुक्षेत्र बौद्ध मान्यता वाले बादशाहों के अधीन रहा है लेकिन आज यहाँ बुद्ध – धर्म से सम्बंधित किसी साधना-गृह को देखना कठिन है/

अगले अंक में हम कुछ और बातो को देखेंगे

====ओम्=======



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