Wednesday, March 31, 2010

श्री गुरु ग्रन्थ साहिब एवं गीता - 16

जपजी मूल मंत्र सूत्र - 8
SAIBHANG .... SELF RADIATING
अब हम मूल मंत्र के आठवें चरण पर हैं । चौदह चरणों में आठवाँ चरण मध्य का चरण है जहां परम
प्रकाश की किरण की झलक तो मिलनी ही चाहिए । बहुत सी बस्तुएं प्रकृति में है जो स्वप्रकाषित हैं , जिनसे
प्रकाश निकलता रहता है और सभी एक बात की ओर हमें खीचती है और वह है परम प्रकाश का श्रोत - ब्रह्म
जो हर काल में सर्वत्र प्रकाशित है एवं जिसके प्रकाश से सब प्रकाशित हैं ।

मैक्स प्लैंक , आइन्स्टाइन , दिब्रोगली एवं सर्फती आदि जैसे वैज्ञानिक प्रकाश को अपनाया और ऐसा अपनाया
की प्रकाश का रहस्य आज भी रहस्य है लेकीन उनका भौतिक जीवन प्रकाश की खोज में समाप्त हो गया ।
प्रोफ़ेसर आइन्स्टाइन को जब परम प्रकाश की किरण दिखी तो वे उसकी गणित बनानें में जुट गए लेकीन
अपनें पच्चास साल के वैज्ञानिक जीवन में उसे ब्यक्त न कर पाए जो उन्होंनें देखा ।

गीता श्लोक - 14.6, 13.17, 15.6, 13.32,13.33,10.20, 13.22, 15.17 कहते हैं ---
सूर्य , चन्द्रमा एवं अन्य प्रकाश परम प्रकाश से हैं , सूर्य , चन्द्रमा एवं अग्नि का तेज परम तेज से हैं ।
परम प्रकाश सम्पूर्ण लोकों में है लेकीन वह प्रकाश उसको दीखता है जिसके अन्दर निर्विकार ऊर्जा
प्रवाहित होती है ।

जर्मनी का महान कबी गेटे जब आखिरी श्वाश भर रहा था तब बोला ......
बूझा दो सारे दीपों को क्योंकि अब मैं परम प्रकाश में हूँ , धन्य होगा वह कबी और धन्य होंगे वे लोग जो उसके
साथ थे । आदि गुरु नानक जैसा परम भक्त कई सदियों के बाद अवतरित होता है और हम जैसे भोगियों को
परम प्रकाश से अवगत कराना चाहता है लेकीन हमारी आँखों में भोग का अन्धकार इंतना गहरा बैठा है की
हम उसकी बातों को अनसुनी कर देते हैं और जहां हैं वहीं रह जाते हैं ।
परम प्रकाश में थे ......
आदि गुरु नानक ....
कबीर साहिबजी .....
परम हंस राम कृष्ण ....
चैतन्य महा प्रभु ....
योगा नंदजी और
परम प्रकाश में वह पहुंचता है
जो करता है नित जाप ...
जपजी साहिबजी का , लेकीन जप लोगों को दिखानें के लिए नहीं होना चाहीये , जप से परम के आयाम में
पहुंचनें का मार्ग दिखना चाहिए ।
जपजी का जप करता जब अपनें को जप में नमक के पुतले की भाँती घुला देता है , जब उसके पास .....
न तन होता है ----
न मन होता है ----
बुद्धि परम पर टिकी होती है , तब उस भक्त को ----
परम प्रकाश की किरण दिखती है ।

==== एक ओंकार सत नाम =====

Tuesday, March 30, 2010

श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी एवं गीता - 15

जपजी मूल मंत्र - 7 ...... अजुनी

आदि गुरु श्री नानकजी साहिब द्वारा अलमस्ती में गाया गया जपजी का मूल मंत्र छोटे - छोटे चौदह
सूत्रों की जप माला है और जिसकी सातवीं मणि है - अजुनी ।
आदि गुरु परम के दीवानें थे , आदि गुरु परम फकीर थे , आदि गुरु परा भक्त थे और ऐसे फकीरों के गीतों का
कोई अर्थ नहीं होता , इनके गीत में वह परम ऊर्जा होती है जो तन , मन एवं बुद्धि से अप्रभावित होती है ।
बुद्धि स्तर पर अजुनी का अर्थ है वह जिसके होने का सम्बन्ध योनी से न हो अर्थात जो स्वतः है जिसके होनें के लिए स्त्री - पुरुष के योग की जरुरत नहीं , वह तो तब था जब कुछ न था , वह अब है जब संसार है और तब भी
रहेगा जब पुनः कुछ न होगा । वह अजुनी हर काल में , हर युग में ठीक वैसा होता है जैसा परा भक्त
अपने ह्रदय में देखता है ।

अजुनी को बुद्धि स्तर पर समझनें केलिए आप को गीता के निम्न श्लोक आप की मदद कर सकते हैं ----
4.6, 7.25, 9.18, 10.3, 10.32, 10.33, 10.40, 13.17, 13.31
आदि गुरु श्री नानक जी साहिब का मूल मंत्र एक माध्यम है जो अपरा भक्ति से परा भक्ति में धीरे - धीरे पहुंचाता है जहां भक्त के पास ------
** न तन होता है .....
** न मन होता है ....
** बुद्धि परम में डूबी होती है , और वह योगी ......
** पुरे ब्रह्माण्ड में ब्रह्म को ही देखता हुआ ......
** अपनें को धन्य समझता है ।
वह जो पुरे ब्रह्माण्ड के कण - कण में प्रभु को देखता है ----
वह जो परा भक्त है -----
वह जो परम श्रद्धा से परिपूर्ण है , वह ----
अजुनी का अर्थ नहीं लगाता , वह ----
अजुनी में निवास करता है ।

==== एक ओंकार सत नाम =====

श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी एवं गीता - 14

मूल मंत्र सूत्र - 6 .... अकाल मूरत

अकाल मूरत शब्द का क्या भाव है ?
[क] कैथोलिक के डूम्स - दिन .....
[ख] कुरान शरीफ के क़यामत के दिन .....
[ग] विज्ञान में बिग बैंग ......
[घ] विज्ञान में बिग क्रंच .....
और गीता में ......
गीता श्लोक 8.17 - 8.22 तक की समझ का नाम है -----
अकाल मूरत [ timelessness ]

अकाल मूरत एक अति शूक्ष्म माध्यम है जिस से एवं जिसमें ------
** बिग बैंग एवं बिग क्रंच की घटना घटती है
** जिस से एवं जिसमें क़यामत के दिन की घटना घटती है
** जिसमें dooms day की घटना घटती है
** और जो ब्रह्मा के दिन की समाप्ति एवं ब्रह्मा की रात का आगमन का द्रष्टा है ।
जपजी साहिब का अकाल मूरत एक द्रष्टा एवं साक्षी है जो निराकार है और जिस से एवं जिसमें सब होनें वाले हो - हो कर उसमें ही बिलीन भी होते रहते हैं ।
अकाल मूरत गीता का अब्यक्त भाव , परम अक्षर , एक अक्षर एवं ब्रह्म है जिस से टाइम स्पेस है और जो
टाइम स्पेस में है , टाइम स्पेस से प्रभावित नहीं है और जो -----
टाइम - स्पेस से परे भी है ।

==== एक ओंकार सत नाम ======

Sunday, March 28, 2010

श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी एवं गीता - 13

मूल मंत्र सूत्र - 5 निर्वैर [ Nirvair ] ---- Enmity

[क] महाबीर कहते हैं .......
मित्ति मे सब्ब भूयेसू , बैरं मज्झ न कवई
[ख] बुद्ध कहते हैं ......
नहि बरेंन बेरामि सम्मंतोध कुदाचन ।
अबेरेंन च संमंति एस धम्मो सनन्तनो ॥
और आदि गुरु नानकजी साहिब कहते हैं - वैर को निर्वैर में बदलनें की दवा है मूल मंत्र
का जाप ।
मूल मंत्र के चौदह सोपानों में हम अब पांचवे सोपान पर हैं - निर्वैर । एक ओंकार , सत नाम , करता पुरुष , निर्भय से गुजर कर अब हम है निर्वैर पर ।
वैर की समझ स्वतः निर्वैर बनाती है । गीता कहता है ----
साकार से निराकार में , अपरा भक्ति से परा भक्ति में पहुँचना अति कठिन काम है , हजारों में कोई एक
पहुचता है और ऐसे लोग सदियों बाद प्रकट होते है और दुर्लभ होते है ---
देखिये गीता सूत्र - ---
7.3, 7.19, 12.5 को ।

आदि गुरु श्री नानकजी साबिब को शरीर त्यागे 470 वर्ष हो चुके हैं और बुद्ध को शरीर त्यागे 2496 वर्ष
हो चुके हैं लेकीन क्या इन जैसा कोई आज तक आ पाया ? जी नहीं आ पाया है और न ही आयेगा क्योंकि
प्रकृति में रिवर्स गिअर नहीं है । कहते हैं बुद्ध आनंद से बोले हैं की यदि मैं दुबारा आया तो लोग हमें
मात्रेय नाम से जानेगे - मैत्रेय का अर्थ है -- निर्वैर ।
आदि गुरु नानक जी साहिब कहते हैं - यदि तेरे में वैर भाव है तो तुम उसे समझनें की कोशीश करो ।
गीता कहता है वैर अहंकार की छाया है [ गीता - 3.27 ] जो करता भाव से जन्म लेता है ।
जपजी का मूल मंत्र जप करता में वह ऊर्जा पैदा करता है जो जप करता को पारस बना देता है और उस पारस
से सभी गुण तत्वों की पकड़ समाप्त हो जाती है और सम भाव शरीर के कण - कण में भर जाता है ।
जप जी साहिब का मूल मंत्र जो ऊर्जा प्रवाहित करता है वह -----
वासना को प्यार में बदल देता है .....
अहंकार को श्रद्धा में बदलता है .....
और करता भाव को रूपांतरित करके .....
द्रष्टा बनाता है और गीता में सांख्य - योग के माध्यम से परम श्री कृष्ण अर्जुन में यही ऊर्जा प्रवाहित करते हैं ।
गीता में श्री कृष्ण के पांच सौ चप्पन श्लोकों में जो ज्ञान मिलता है वही ज्ञान रस जप जी के मूल मंत्र में है ।

=====एक ओंकार सत नाम =====

Saturday, March 27, 2010

श्री ग्रन्थ साहिबजी एवं गीता - 11

आदि गुरु मूल मंत्र सूत्र - 4 .... निर्भव [ Nirbhau ] --- Fearlessness

मैं कोई धर्म गुरु नहीं हूँ , मैं कोई मंदिर का पुजारी नहीं हूँ, मैं कोई विद्वान् नहीं हूँ - मैं एक साधारण
गृहस्त हूँ और अपनें जीवन में जो देखा है , जो किया है , जो पाया है उसके आधार पर उनको देखनें का
प्रयाश कर रहा हूँ जो मुझे अपनी ओर रह - रह कर खीचते रहते हैं जैसे श्री ग्रन्थ साहिब जी की आवाजें जो
सुबह सुबह गुरु द्वाराओं से सुनाई पड़ती हैं और गीता जो हमारे जीवन की ऊर्जा श्रोत है । यदि
हमारी बात आप को दुःख पहुंचाती हो तो आप मुझे अपना शिष्य समझ कर माफ़ कर देना ।

यहाँ हम गीता के निम्न सूत्रों को आधार बना कर मूल मंत्र सूत्र - 4 ... निर्भव को समझनें की कोशिश करनें जा रहे हैं --------
1.28 - 1.46 तक जहां मोह के लक्षण के सम्बन्ध में बातें हैं ।
2.52, 15.3, 13.2, 14.7, 14.8, 18.72 - 18.73
गीता कहता है --- भय तामस गुण का मुख्य तत्त्व है और जो प्रभु के मार्ग का एक प्रमुख रुकावट भी है ।
गुण तत्त्व भोग संसार की ओर खीचते हैं और प्रभु बैराग्य में बसता है ।

भय , मोह एवं भाव का गहरा सम्बन्ध है ; मोह - भय साथ - साथ होते हैं जो तामस गुण की उपज हैं । गुणों की ऊर्जा भाव पैदा करती है और भाव भगवान् से दूर रखते हैं । आदि गुरु श्री नानकजी साहिब निर्भय से प्रभु
को देखनें की बात कह रहे हैं और गुरुद्वाराओं में जो लोग आते हैं , उनको देखिये - ऐसा लगता है , उनके
चेहरों से जैसे ये बिचारे भय में डूबे हुए हैं , सिकुड़े हुए हैं और मत्था टेक कर पुनः वापिश भागनें की उपाय सोच रहे हैं -- ऐसा क्यों हो रहा है ? यदि ये लोग इतनें भयभीत हैं तो यहाँ आते ही क्यों हैं ?
गुरुद्वारा आनें वाले तो एकाध होते हैं ज्यादातर लोगों को यहाँ आना ही पड़ता है और कोई चारा भी तो नहीं ।
आदि गुरु साहिब अपने मूल मंत्र के माध्यम से बताना चाहते हैं -----------
भय के मूल को समझो , क्यों भयभीत हो ? जो तुम में भय पैदा कर रहा है उसको क्यों नही त्यागते ,
क्यों उसे अपनाए घूम रहे हो ? भय एक मर्ज है जिसकी की दवा प्राप्त करनें के लिए यहाँ आये हो ,
दवा मिल भी रही है लेकीन यह दवा तेरे को पसंद नही आ रही क्यों की तू उसे त्याग्नें को तैयार नहीं जो तेरे भय का कारण है फिर ऐसे में यहाँ आनें से क्या होगा ?
गुरुद्वारा में मत्था टेक कर भागनें वालों की संख्या बड़ी है , भागनें वालों का भय उनको वहाँ रुकनें नही देता क्योंकि
गुरुवाणी की हर आवाज उनके अन्तः कर्ण में जो उर्जा पैदा करती है वह उनकी असली तश्वीर उनके सामनें
ला कर खडी कर देती है जिसको वे छिपा कर रक्खना चाहते हैं ।

आदि गुरु नानकजी साहिब कहते हैं --- प्रेमिका जब अपने प्रेमी से मिलनें जाती है तो क्या वह भय में होती है ?
जिस प्यार में भय है वह प्यार प्यार नहीं वासना है । यदि तुन प्रभु को अपना प्यारा समझते हो तो फिर उस से
डरते क्यों हो ? खोल दो अपनी किताब को उसके सामनें और फिर देखो उसके रहम को । गीता कहता है ---
प्रभु किसी के पाप - पुन्य को ग्रहण नहीं करता , प्रभु किसी के कर्म , कर्म- फल एवं करता भाव की भी रचना
नहीं करता । तुम जो भी कर रहे हो वह सब गुण तुमसे करवा रहे हैं और इस राज को तुम नहीं समझते ।
तुम में जो गुण प्रभावी होता है , तेरे में वैसा भाव बनता है और तुम वैसा कर्म करते हो , जिसका फल तेरे को
सुख या दुःख का अनुभव देता है , इसमें प्रभु का कोई हाँथ नहीं होता ।
भय अज्ञान की जननी है ---
भय में मन बुद्धि अस्थीर होते हैं ------
भय में ब्यक्ति कभी हाँ तो कभी ना कहता है ----
भय में ब्यक्ति के ऊर्जा का नाश होता है ------

भय नरक का द्वार खोलता है ------
प्रभु का आनंद पाना है तो .....
भय की साधना मूल मंत्र को अपना कर करो

=== एक ओंकार सत नाम =====

Friday, March 26, 2010

श्री गुरु ग्रन्थ साहिब एवं गीता - 10

मूल मंत्र सूत्र - 3

करता पुरुष

करता पुरुष को गीता में समझनें के लिए आप देखें निम्न श्लोकों को .......
2.45, 3.5, 3.27, 3.33, 5.14 - 5.15, 9.29, 7.12 - 7.13, 18.59 - 18.60

करता पुरुष शब्द से सीधा भाव जो निकलता है वह है -- वह जो कर्म करता हो , लेकीन नानक जी साहिब एक सिद्धि प्राप्त योगी थे , जो हर पल प्रभु में रहते थे , जो स्वयं को भी कर्म करता नहीं समझते थे , जो ब्रह्माण्ड के हर कण में प्रभु की आवाज सुनते रहते थे , जो हर में प्रभु की खुशबू पाते थे , ऐसे गुनातीत परम ऊर्जा से परिपूर्ण योगी जब कुछ बोलता है तो उसकी आवाज की आब्रिती को पकडनें में शादियाँ लग जाती हैं जैसे आइन्स्टाइन की थिअरी आफ रिलेटिविटी , अतः आदि गुरु यदि प्रभु को करता पुरुष कह रहे हैं तो इस शव्द में जरूर कोई निर्विकार ऊर्जा होगी ।

गीता कहता है ---- प्रभु किसी के कर्म , कर्तापन एवं कर्म फल की रचना नहीं करता , प्रभु का कोई प्रिय - अप्रिय नहीं है , वह सब में सम भाव से है और अपनें परम भक्तों के ह्रदय
में रहता है । गीता आगे कहता है ---गुण कर्म करनें की ऊर्जा देते हैं , गुण कर्म करता है , गुण प्रभावित सभी कर्म भोग कर्म हैं , गुणों से स्वभाव बनता है , स्वभाव से कर्म होते हैं । गीता आगे और यह भी कहता है --- गुणों का श्रोत प्रभु है , प्रभु गुनातीत है और गुण मनुष्य को प्रभु से दूर रखते हैं एव तीन गुणों के प्रभु निर्मित माध्यम को माया कहते हैं । माया से माया में
विज्ञान का टाइम - स्पेस है ।
हम आपको अपने विचारों में बंदी नहीं बनाना चाहते , हमारा उद्देश्य है आप को कुछ ऎसी जानकारियाँ देना जो आप में सोच पैदा कर सकें और उस सोच के आधार पर आप स्वयं कुछ कदम प्रभु की ओर रख सकें ।
साधना में दो मार्ग हैं ; या आप सब को स्वीकारें या सब को नक्कारें - दोनों मार्ग एक जगह आगे चल कर मिलते हैं जिसका नाम है - वैराग्य । वैराग्य से आगे की यात्रा परा भक्ति या ज्ञान के माध्यम से आगे चलती है जिसको ब्यक्त करना कठीन है । प्रभु को या आप करता पुरुष के रूप में अपनाएं या अकर्ता पुरुष के रूप में उसे द्रष्टा के रूप में देखें , इन दोनों से जो मिलेगा वह एक होगा , जिसकी अनुभूति तो होगी लेकीन जो ब्यक्त नहीं किया
जा सकता ।
** आदि गुरु का करता पुरुष गीता का गुनातीत है ....
** आदि गुरु का करता पुरुष गीता का द्रष्टा है ........
** आदि गुरु का करता पुरुष टाइम - स्पेस का न्युक्लिअस है ......
** आदि गुरु का करता पुरुष माया से अछूता है लेकीन माया पति है ।
आप अपनी साधना में करता पुरुष के अनंत रूपों में से किसी एक रूप को पकड़ सकते हैं लेकीन इतना होश
रखना -----
[क] प्रारभ में पकड़ मजबूत होनी चाहिते ....
[ख] धीरे - धीरे यह पकड़ अपने आप ढीली होती जानी चाहिए और .....
[ग] अंत में आप को कटी पतंग की तरह हो जाना है जैसे ......
आदि गुरु श्री नानक जी थे ।

=== एक ओंकार सत नाम =====

Thursday, March 25, 2010

श्री ग्रन्थ साहिबजी एवं गीता - 9

सत नाम [ The ultimate truth ]

गीता में सत नाम को समझनें के लिए आप देखें गीता के निम्न सूत्रों को -----
2.16,4.38, 7.4 - 7.6, 7.10, 7.12 - 7.13,
9.4- 9.6, 9.8, 9.19,
10.8, 10.20, 10.25, 10.32,
11.37
13.2, 13.5 - 13.6, 13.12, 13.24,
14.3 - 14.4
15.3, 15.16,
18.40,
आठ अध्यायों के 28 श्लोक क्या कहते है ? इस बात को आप आगे देखेंगे ।
जब कोई देखनें वाला न हो , जब कोई सुननें वाला न हो तब भी जो रहता है , वह है - सत नाम
लाओत्सु कहते हैं - उसका क्या नाम है , मैं नहीं जानता लेकीन काम चलानें के लिए मैं उसे ताओ नाम से पुकारता हूँ और शांडिल्य ऋषि कहते हैं -- नाम तो इशारा मात्र हैं जो अधूरे हैं ।
सैमुअल बैकेट का एक छोटा सा नाटक है - वेटिंग फॉर गोदोद । नाटक का मंचन चल रहा था , तीन दिनों का कार्य क्रम था , बहुत से लोग आ रहे थे , यह जाननें के लिए की गोदोद क्या है , लेकीन नाटक तो समाप्त हो गया पर गोदोद का पता न चल पाया । लोग नाटक कार को घेर लिए और पूछे - गोदोद कहाँ है ? नाटक कार बोला - यदि हमें मालुम होता तो आप देख चुके हुए होते , अब आप सोचें की गोदोद कहाँ है एव कौन है ?
सत नाम की अनुभूति मनुष्य को ज्ञान के माध्यम से तब होती है जब वह साकार माध्यमों से अपनें मन - बुद्धि के परे के आयाम में होता है - यहाँ आप देख सकते हैं गीता - 12.3 - 12.4, 4.38, 13.24, 13.2, 15.3 को ।
एक ओंकार का जप जब मन - बुद्धि को प्रभु पर स्थीर कर देता है तब जो अनुभूति होती है वह है सत नाम की ।
गीता कहता है बिना असत , सत तक पहुँचना कठिन है और सत भावातीत है [ गीता - 18.40, 2.16 ] और
मनुष्य गुणों का गुलाम है एवं गुण प्रभु के मार्ग के अवरोध हैं अर्थात जब तक मनुष्य गुणों के बंधनों से मुक्त नहीं होता तब तक सत नाम उसकी बुद्धि में नहीं बस सकता ।
सत नाम कोई साकार माध्यम नहीं है यह तो सभी साकार माध्यमो के अभ्यास का फल है ।
नामों के जाप से वहाँ पहुँचना जहां नाम नहीं , अब्यक्त भाव हो ....
भावों से वहाँ पहुँचना जहां भावातीत हो ......
गुणों से वहाँ पहुँचना जो निर्गुण है ......
काम से वहाँ पहुँचना जो निर्विकार काम है [ गीता - 7.11]......
जाप से वहाँ पहुँचना जहां जाप करता जाप में बिलीन हो गया हो .....
उसका नाम है -----
सत नाम

====एक ओंकार सत नाम ======

Wednesday, March 24, 2010

श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी एवं गीता - 8

एक ओंकार





[क] श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी का प्रारम्भ एक ओंकार से है .....

[ख] वेदों में हर एक मंत्र का प्रारम्भ ॐ से है .....

[ग] गायत्री ॐ से प्रारम्भ होता है , और ...........


** गीता में [ गीता सूत्र - 10.35 ] परम श्री कृष्ण कहते हैं --- गायत्री , मैं हूँ ।

** गीता में परम श्री कृष्ण कहते हैं [ गीता सूत्र - 7.8, 8.12 - 8.13, 10.23 - 10.26, 10.31, 14.21, 17.23 ]एक ओंकार , ॐ , ब्रह्म , मैं हूँ ।


और आगे --------


[क] संत जोसेफ [ बायबिल में ] का वह शब्द क्या है जो प्रभु है ?

[ख] तिब्बती प्रथा में उनका मूल मंत्र - ॐ मणिपद्मे हम क्या है जिसको सम्राट तितोरी के महल के ऊपर आकाश में सूना गया था ।

[ग] झेंन लोगों की ध्वनि रहित ध्वनि क्या है ?

[घ] कुरान शरीफ की आयतों की धुन जब आकाश में गूंजती है तब उस धुन में कौन सी धुन होती है ?

गीता में प्रभु को स्पष्ट करनें के लिए जो उदाहरण दिए गए हैं , वे सब .......

* भाव आधारित हैं ....
* भक्ति आधारित हैं ....
* बुद्धि आधारित हैं ...
* साकार हैं .....
* निराकार हैं ।

श्री ग्रन्थ साहीब जी अपरा भक्ति से परा भक्ति में पहुंचाता है जहां ज्ञान के माध्यम से
प्रभु ऊर्जा का बोध ह्रदय में होता है और गीता मूलतः बुद्धि आधारित ध्यान का माध्यम है ।


बुद्धि स्तर पर आप सोचते होंगे की एक ओंकार क्या क्या है ? तो आप पहले इसको जाननें की कोशिश करें --


16 billion years पूर्व आकाश में एक 100 light years ब्यास वाला hydrogen atom स्वतः बना और स्वतः फूट पडा जिसके फल स्वरुप ब्रह्माण्ड की रचना प्रारम्भ हुई और आज तक जो फ़ैल रहा है , वह एटम किस से और किस में बना ? विज्ञान के पास बिग बैंग से पूर्व की कोई जानकारी नही है और ऋग्वेद कहता है -----


वह स्वतः अपनी मर्जी से गतिमान हो पडा और ब्रह्माण्ड बना एवं जीव विकशित हुए ।


Big Bang का primeval seed श्री गुरु ग्रन्थ साहिब जी का एक ओंकार , वेदों का आत्मा - ॐ है जो मनुष्य के ह्रदय में एक परम निर्विकार ऊर्जा संचालित करके मनुष्य को प्रभु से जोड़ता है ।


श्री गुरु ग्रन्थ साहिब की धुन में अपनें को उडनें दे .......

आयातों में कभी उडनें की कोशीश करें .....

ॐ की धुन में कभी बह कर देखें ........

एक ओंकार सत नाम में कभी अपनें को डुबो कर देखें , हो सकता है ----

इनसे गुजरानें के बाद आप स्वयं को जान कर धन्य हो उठें ।





====एक ओंकार सत नाम ======

Tuesday, March 23, 2010

Shri Granth Sahib and Gita - 7

MOOL MANTRA [ The Prologue ]

[1] EK ONKAR ..... The nucleus of time space
[2] SAT NAM ....... The pure truth
[3] KARTA PURUKH .... The source of creation
[4] NIRBHAU ................. The symbol of fearlessness
[5] NIRVAIR .................. The one who does not hate
[6] AKAL MOORAT ...... The immortal one - sanatan
[7] AJUNI ........................ The one who is not affected by birth- life - death cycle
[8] SAIBHANG ............... Self effulgent
[9] GURU PRASAD ....... Realised by one who is blessed one
[10] JAP ........ Realised by chanting mantras
[11] AAD SACH ........ HE was true before the BIG BANG
[12] JUGAD SACH ........ The universe is truth
[13] HAI BEE SACH ..... HE is one who will remain truth
[14] NANAK HOSI BEE SACH ... HE is - who is , who was and who will be truth
The mool mantra is a chanting mantra as it is kown by all of us but infact it is something beyond chanting. The mool mantra is a self radiating one like a radio active matter having everlasting energy. It is the way to knowing and beholding the eternal, indestructible essential centre
of our being . When a meditator merges in the beautitude of mool mantra he does not perceive time space .
From devine love we descend, into devine joy we ultimately disappear and in between the beauiful journey we call it the life is enveloped in the ecstacy of devine love - the realization of this comes through the mool mantra - chanting .
From today onwards we shall be in MOOL MANTRA OF JAPJI SAAHIB WHICH IS THE
STARTIING POINT IN ----
SHRI GURU GRANTH SAHIBJI --- YOU ARE INVITED TO MERGE YOURSELF IN THE
BEAUTITUDE OF MOOL MANTRA .

==== EK ONKAR SAT NAAM ======

Shri Granth Saahib and Gita - 7

Mool Mantra [ The Prologue ]


[1] Ek Onkar --- The primeval seed of time space

[2] Sat nam ---- The pure truth

[3] Karta Purukh --- The source of creation

[4] Nirbhau --------- Fearlessness

[5]

श्र गुरु ग्रन्थ साहिब एवं गीता - 6

आदि गुरु नानक एवं कबीरजी साहिब मिलन

यह मिलन था , गंगा एवं यमुना का , जहां से ......
प्रकट होती हैं ......
अब्यक्त , निराकार सरस्वती ।

सूफियों की एक किताब है - किताबों की किताब जिसके सभी सफे कोरे थे , लेकीन लोगों नें इस किताब
का प्रकाशन करा कर इसको मारनें का पूरा प्रयाश किया , पर मार न पाए ।
नानकजी साहिब अपनें ह्रदय में स्थित किताबों की किताब को अपनें परम भक्त श्री गुरु अंगद जी साहिब को
अपनें अंत काल में सौप दिया जिसको दसवें गुरु गोबिन्दजी साहिब तक एक गुरु दूसरे को सौपता रहा लेकीन
आखिरी गुरु नें उस अब्यक्त किताबों की किताब को आखिरी गुरु का दर्जा दे कर श्री गुरु ग्रन्थ जी साबिब के रूपमें मनुष्यसमुदाय को कृतार्थ कर दिया । दसवें गुरु जी साहिब श्री ग्रन्थ साहिब जी को गुरु बना कर यह बतानें का प्रयाश किया की बाबर से औरंगजेब तक - लगभग 180 वर्षों में जो काम लड़ाई से न प्राप्त किया जा सका उसे प्यार कके माध्यम से प्राप्त किया जा सकता है और भक्ति वह मार्ग है जो भोग से परम धाम तक का मार्ग है ।

एक बार आदि गुरु श्री नानक जी अपने पूरी यात्रा में काशी में कबीरजी साहिब के पास मेहमान थे । कबीरजी साहिब के भक्तो में उत्सुकता थी की उनको दो परम गुरुओं की बातों को सुननें का मौक़ा मिलेगा ।
श्री गुरु नानकजी साहीब तीन दिन रहे लेकीन दोनों के मध्य कोई चर्चा नहीं हुई , भक्तों को यह घटना कुछ मायुश किया । चौथे दिन श्री गुरु नानकजी साहिब जानें को तैयार हुए , कबीरजी साहिब उनको बिदा करनें के लिए बाहर छोडनें आये । दोनों परम संत एक दूसरे को देखा , दोनों की आँखें नम थी । श्री गुरु नानक जी चले गए लेकीन कबीरजी का एक भक्त बोल पडा - गुरूजी यह कैसा मिलन था ? न आप कुछ बोले न नानकजी कुछ बोले । कबीरजी मुस्कुराकर बोले - भक्त ! जो उनको कहना था वह वे कहे और मैं सूना , जो मुझे कहना था वह मैं कहा और वे सुनें , यदि तुम न सुन पाए तो मैं क्या कर सकता था ?
दो परम पवित्र आत्माएं जब मिलते हैं तब वहाँ वार्ता लाप नहीं होता , वहाँ ऊर्जा का लेंन - देंन होता है जिसको वह देख सकता है जो देखनें लायक होता है ।
सूफियों में प्रवचन नहीं होता मूक संबाद होता है जहां एक परम सिद्ध फकीर अपनें शिष्य के अन्दर
परम रस भरता है जिस रस में वह कस्तूरी मृग की तरह उस परम गंध की अलमस्ती में नाचता रहता है ।

श्री नानकजी साहिब और श्री कबीरजी साहिब परम सिद्ध संत थे , उनके पास होता ही क्या है जिसका लेंन - देंन
करें - दोनों के पास एक ही होता है -----
एक ओंकार ।

==== एक ओंकार सत नाम =======

Sunday, March 21, 2010

श्री गुरु ग्रन्थ साहिब एवं गीता - 5

जपजी साहिब एवं गायत्री

[क] मूल मंत्र का प्रारम्भ एक ओंकार से है और ....
[ख] गायत्री का प्रारम्भ ॐ है .....
[ग] एक ओंकार [ॐ] वेदों का आत्मा है ......
[घ] मूल मंत्र आदि गुरु नानकजी साहिब के ह्रदय में भरे अब्यक्त भाव का वह अंश हैं .....
जो ब्यक्त हो पाया है
[च] मूल मंत्र को समझनें के लिए आदि गुरु जैसा ह्रदय चाहिये न की .......
संदेह से भरी बुद्धि
[छ] मूल मंत्र गीता में परम श्री कृष्ण के उन 200 श्लोकों का सारांश है .....
जिनको परम प्रभु अर्जुन को मोह मुक्त करानें के लिए बोले हैं
आइये अब कुछ सूत्रों को देखते हैं - गीता में .......
[क] सूत्र - 10.35 ....प्रभु कहते हैं -- गायत्री , मैं हूँ ।
[ख] सूत्र - 7.8, 9.17, 10.25, 17.23 -- प्रभु कहते हैं ॥ एक ओंकार और ॐ , मैं हूँ ॥
[ग] सूत्र - 10.22 .... प्रभु कहते हैं ॥ सामवेद , मैं हूँ ॥
[घ] सूत्र - 9.17 ...... प्रभु कहते हैं ... ऋग्वेद , सामवेद एवं यजुर्वेद , मैं हूँ ॥
जपजी साहिब का मूल मंत्र , जप यज्ञ है जहां जप करता की यह स्थिति होती है .....
## न तन होता है ....
## न मन होता है ....
## ह्रदय भावातीत में होता है .....
## जहां वह स्वयं को संसार का द्रष्टा देखता है और .....
## जहां वह स्वयं को शरीर से बाहर देखता है और .....
ऐसे भक्त आदि गुरु नानक जी साहिब जैसे होते हैं , लेकीन .....
ऐसे भक्त सदियों बाद अवतरीत होते हैं ॥

====एक ओंकार सत नाम ======

Saturday, March 20, 2010

श्री गुरु ग्रन्थ साहिब एवं गीता - 4

परम धाम का मार्ग - श्री जपजी साहिब



[क] जपजी साहिब आदि गुरु श्री नानक जी द्वारा तैयार किया गया एवं गुरु श्री अंगद जी साहिब द्वारा सवारा गया अमृत कलश है ।

[ख] जपजी साहिब का आदि ही अनंत से होता है फिर आप सोचिये इसका अंत कैसा होगा ?

[ग] गीता में प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं ...... जप यज्ञ , मैं हूँ [ गीता - 10.25 ] और यह भी कहते हैं .....

सृष्टि के प्रारभ में वेदों , यज्ञों एवं ब्राह्मण को ,मैनें बनाया [ - 17.23 ] , ब्राह्मण वह है ...........[ गीता - 2.46 ] जो ब्रह्म से परिपूर्ण हो ।

जप जी के पाठ करनें से क्या मिलेगा , यह तो बताया नहीं जा सकता लेकीन हमारे पास खोनें ले किये है भी क्या ? हम जीवन भर जो कूड़ा - करकट इकट्ठा करते हैं वह हमें तनहाई के अलावा और क्या देता है ? क्या पल भर का सुख जिसमें दुःख का बीज पल रहा हो , वह सुख है ? सुखी कौन होता है ?

सुखी थे ------

आदि गुरु श्री नानकजी .....
राम कृष्ण परमं हंस .........
चैतन्य ......
कबीर जी साहिब .....
और मीरा जैसे भक्त , हम तो भोग के सुख में परम सुख की एक हलकी सी छाया देख कर अहंकार से भर उठते हैं ।

भक्त के पास भाषा का अभाव होता है लेकीन परा भक्ति में पहुंचा भक्त जब भी बोलता है तब उसकी

वाणी सुननें वाले के ह्रदय में सीधे पहुंचती है और सारे तन - मन में प्रभु की तरंगों से भर देती है ।

टीवी चैनलों पर आप गुरु वाणी को सुनें , आँखें बंद हों और गुरु वाणी के साथ आप बहते रहें। श्री गुरु अंगद जी साहिब , आदि गुरु श्री नानक जी के साथ रहे , उनको आदि गुरु खूब अमृत चखाया और देह छोड़ते समय अपने आत्मा को उनके अन्दर स्थापित कर के अपनी परम रोशनी से उनको भर कर बोला -
जा अब तूं जा और औरों को प्रकाशित कर ।

अंगद जी साहिब जप जी के माध्यम से श्री ग्रन्थ साहिब के प्रथम पृष्ठ से आठवें पृष्ठ तक जो परम ज्योतिओं की ज्योति , स्वप्रकाषित ज्योति डाली है उसके परे और कुछ भी नहीं है ।

आगे हम मूल मंत्र पर ध्यान करनें वाले हैं और आप सादर आमंत्रित हैं ।



======ॐ======

Thursday, March 18, 2010

श्री गुरु ग्रन्थ साहिब एवं गीता - 3

आदि गुरु की परम पवित्र यात्रा

आदि गुरु श्री नानकजी साहिब द्वारा परम की भक्ति का गाया हुआ परम भाव का नामकरण किया श्री गुरु अंगद जी साहिब - जपजी और परम श्री कृष्ण गीता में कहते हैं -- यज्ञों में जप यज्ञ मैं हूँ अर्थात .....आदि श्री ग्रन्थ साहिब का प्रारम्भ ही यज्ञों का यज्ञ है ।

आदि गुरु श्री नानक जी साहिब , मीरा और श्री कबीर जी साहिब सन 1498 - 1518 तक पंजाब से जेरुसलेम्म तक , मथुरा से द्वारिका तक एवं काशी से काबा तक की धरती परम प्यारों की गुनगुनाहट को पीती रही और हम - आप उस परम धुन के एक - एक कण के लिए प्यासे एक जगह से दूसरी जगह भाग रहे हैं , यदि इतना जान लेते की वह गुनगुनाहट आज भी है - गुरु की वाणियों में तो हम सब की भाग - दौर का अंत हो जाता ।
क्या आप कभी सोचते हैं , नानक जी पंजाब से काबा तक की यात्रा क्यों किया ?
परम पवित्र ऊर्जा से परिपूर्ण सिद्ध योगी यात्रा नहीं करता , परम ऊर्जा से परिपूर्ण सिद्ध योगियों के क्षेत्र ऐसे गुनातीत परम प्यारे सिद्ध योगियों को बुलाते हैं जैसे आदि श्री गुरु नानक जी थे ।
ऊर्जा क्षेत्र जहां भूत काल में सिद्ध - योगी लोग तप , जप और ध्यान किये हुए होते हैं , वह क्षेत्र उनकी उर्जाओं से परिपूर्ण हो गया होता है लेकीन भोगी लोग ऐसे परम पवित्र क्षेत्रों की निर्विकार ऊर्जा के ऊपर विकार ऊर्जा की चादर डालते रहते हैं , फल स्वरुप ऐसे क्षेत्र आनें वाले खोजिओं के ऊपर कोई गहरा प्रभाव नहीं डाल पाते । ऐसे क्षेत्र सिद्ध योगियों को अपनी ओर खीचते हैं और सिद्ध योगी वहाँ - वहाँ जा कर उन - उन
क्षेत्रों को चार्ज करते हैं ।

आदि गुरु नानक जी की काशी से कर्बला , पूरी से काबा आदि यात्राएं , सिद्ध योगी के उनके साधना का एक भाग है ।
आप आदि गुरु नानक जी की यात्रा के मार्ग को देखें आप देखेंगे -----
काशी , जहां पांच सिद्ध योगियों की आत्माएं हर वक्त रहती हैं जो ध्यानियों की मदद
करती हैं , कर्बला हुसेन साहिब की जगह है और वह क्षेत्र अल कुफा का क्षेत्र है जो सूफी फकीरों की आत्माओं का अति सघन क्षेत्र है और जो आज भी एक राज है । नानक जी ईराक में जिस मार्ग से गुजरे हैं वह भाग बैबीलोंन - सुमेरु सभ्यता का क्षेत्र है जहां से ज्योतिष - गणित का जन्म हुआ है । मक्का , मदीना एवं जेरुसलेम में मोहम्मद साहिब , जेसस क्रिष्ट एवं मूसा जी का क्षेत्र है और दुनिया का अति प्राचीनतम ऐतिहाहिक क्षेत्र है ।
भारत भूमि पर गुरुबानियों को गुनगुनाते हुए आप अमृतसर - हरमंदर साहिब से काशी तक की यात्रा करें
हो सकता है आप को रास्ते में कहीं आदि गुरु नानक जी साहिब का दर्शन हो जाए ।
गुरु आप के साथ हर पल है लेकीन -----
क्या आप भी उसका नमन करते हैं ?

=====एक ओंकार सत नाम =====

Wednesday, March 17, 2010

श्री गुरु ग्रन्थ साहिब एवं गीता - 2

श्री जप जी साहिब

श्री गुरु अंगद जी साहिब [ दुसरे गुरु ] आदि गुरु श्री नानक जी साहिब द्वारा रचित एवं गायी गयी कृतियों जो नाद - आधारित हैं , को संकलित करके एक नाम दिया , जिसको श्री जपजी साहिब नाम से जाना जाता है ।
श्री जपजी साहिब श्री गुरु ग्रन्थ साहिब में पृष्ठ - 1 से पृष्ठ - 8 तक में स्थित हैं ।
जपजी का अर्थ है - जप , गीता में परम श्री कृष्ण कहते हैं - यज्ञों में जप यज्ञ मैं हूँ अर्थात श्री गुरु ग्रन्थ साहिब का प्रारम्भ जप - यज्ञ से होता है ... यह भी एक सोचनें का बिषय है ।

गंगा , हिमालय से सागर तक की यात्रा का नाम है, जिसकी धारा गायत्री से प्रारभ हो कर एक ओंकार में [ सागर की शुन्यता ] पहुँच कर परम की ओर इशारा करती है और श्री ग्रन्थ साहिब की वानियाँ नाद से परम धुन ॐ में पहुंचा कर कहती हैं - देख ले बश यही सत्य है ।
श्री जप जी साहिब की धुनें परम धुनें हैं और जो इन धुनों में अपने को घुला दिया वह पहुँच जाता है , उसमें जो महशूश तो किया जाता है लेकीन ब्यक्त नहीं किया जा सकता।
गीता कहता है - कर्म - योगी कर्म सिद्धि पर ज्ञान योग की परा निष्ठा में पहुँच कर प्रभु से परिपूर्ण हो जाता है [ गीता - 18.49 , 18.50, 18.54, 18.55] और जपजी साहिब अपरा भक्ति से परा भक्ति में पहुंचकर कहते हैं - अब तूं जान ले उस एक ओंकार को जो सत नाम है ।
गीता यज्ञ के सम्बन्ध में [ गीता सूत्र - 4.29, 4.30, 4.24 ] कहता है -
यज्ञ वह सब है जिसका केंद्र परमात्मा हो अर्थात परमात्मा जिस कर्म में एवं कर्म सामग्रियों में हर पल यज्ञ करता को दीखता हो वह सब कर्म , यज्ञ हैं और यज्ञ अज है - गीता 17.23
जब आप गुरु वाणी सुन रहे हो तो यह भाव अपनें मन में बनाए रखें की आप यज्ञ में बैठे हैं क्योंकि
गुरु वाणी - यज्ञ हैं ।
दिन भर के कर्म का रस यदि लेना हो तो रात्री में सोते संमय आप जपजी का पाठ जरुर करें ।

==== एक ओंकार ======

Tuesday, March 16, 2010

श्री ग्रन्थ साहिब - 1

श्री गुरु ग्रन्थ साहिब , ज्ञान का परम श्रोत है



[क] दस गुरुओं के साधनाओं का फल ......
[ख] सत्रह भक्तों की अनुभूतियों का रस ....
[ग] पंद्रह परमं भक्तों की वाणियों का सुर ...
[घ] भाई मरदाना जैसे परम भक्त की धुनें ........
[च] दो सौ उन्तालिश वर्षों के भक्तों की अनुभूतियाँ .....
[छ] 1430 पृष्ठों में फैला ......
[ज] जिसमें नौ सौ चौहत्तर तीसरे गुरु श्री अमर दास की वानियाँ हैं ....
[झ] जिसमें दुसरे गुरु श्री अंगद जी साहिब की 63 वानियाँ हैं .......
जो आखिरी गुरु श्री गोबिंद जी साहिब के निर्देशन भाई मणि सिंह द्वारा लीपी बद्ध हो ..

वह है -----

परम पवित्र श्री ग्रन्थ साहिब - जिसका प्रारम्भ आदि गुरु श्री नानक जी साहिब के मूल मंत्र से होता है ।

आगे के अंकों में हम गीता के आधार पर श्री गुरु ग्रन्थ साहीब के कुछ अंशों को देखनें जा रहे हैं , जिसमें आप आमंत्रित हैं ।
श्री गुरु ग्रन्थ साहिब में हमें जो गीता के लगभग 200 सौ श्लोक दीखते हैं , जिनको आप आगे देखेंगे ।


परम ऊर्जा का श्रोत , परम पवित्र श्री गुरु ग्रन्थ साहिब में दस गुरुओं की आत्माएं बसती हैं और अन्य और कोई ऐसा ग्रन्थ नहीं जहां एक नहीं अनेक दुर्लभ गुनातीत योगियों की अनुभूतियों का संग्रह हो । आप को श्री ग्रन्थ साहिब के माध्यम से एक में अनेक की झांकी आगे देखनें को मिलेगी ।


आगे आप को मिलेगा श्री जपजी साहिब , उम्मीद है आप जपजी साहिब के माध्यम से आदि गुरु नानक जी साहिब के प्रसाद को प्राप्त करनें में सफल होंगे ।





==== एक ओंकार सत नाम =====

Wednesday, March 10, 2010

गीता ज्ञान - 100

आप को गीता ज्ञान श्रंखला के अंतर्गत सौ बातें गीता के आधार पर दी गयी जो संभवतः आदि - अंत रहित , अनंत गीता को सीमाबद्ध करनें की एक असफल कोशिश थी , अब आप इस कोशिश के सम्बन्ध में निम्न बातों को देखें -----
[क] बुद्ध - महाबीर राज महल को त्याग कर कठिन तप के जो पाया उसे लोगों में बाटनें के लिए अपना - अपना पूरा जीवन लगा दिया , लेकीन परिणाम क्या रहा ?
[ख] आदि गुरु शंकराचार्य से ओशो तक , बोधी धर्म से जद्दू कृष्णामूर्ति तक - बुद्धत्व प्राप्ति के बाद भोगी
लोगों को क्या बताना चाहा ?
[ग] विष्णु शहत्र नाम लोगों को क्या बताना चाहते हैं ?
[घ] गीता में लगभग 80 श्लोकों में लगभग 100 से भी कुछ अधिक परमात्मा को ब्यक्त करनें के लिए दिए गए उदाहरण हमें क्या बताना चाहते हैं ?
[च] गीता में लगभग 21 श्लोक जो आत्मा को ब्यक्त करते हैं वे लोगों को क्या देना चाहते हैं ?
गीता एक अनंत - यात्रा है जिसमें मनुष्य के -----
## जन्म से मृत्यु तक का रहस्य है ....
## भोग से ब्रह्म तक का राज है ...
## काम से राम तक के बिभिन्न तत्वों को ब्यक्त किया गया है .....
और जो परा भक्ति के द्वार को खोल कर कहता है -----
अब तू जो देख रहा है उसे मात्र देखो , समझनें की कोशिश न करना नहीं तो चुक जाओगे ।

====ॐ=====

Tuesday, March 9, 2010

गीता ज्ञान - 99

गीता के 11 श्लोक

गीता सूत्र - 7.4 - 7.6 , 13.5 - 13.6 , 14.3 - 14.4
सूत्र कहते हैं ...... प्रभु से प्रभु में तीन गुणों की माया है , माया से माया में दो प्रकृतियाँ हैं - अपरा एवं परा ।
अपरा में आठ तत्त्व हैं - पञ्च महाभूत , मन , बुद्धि एवं अहंकार और चेतना , परा प्रकृति है ।
जब अपरा - परा आपस में मिलते हैं और वहाँ ऐसी ऊर्जा बनती है जो आत्मा - परमात्मा को अपनें में
कैद कर सके , तब जीव का होना संभव होता है ।
गीता सूत्र - 7.12 - 7.15
सूत्र कहते हैं ....... तीन गुण प्रभु से हैं , उनके भाव भी प्रभु से हैं लेकीन प्रभु गुनातीत - भावातीत है ।
गीता सूत्र - 7.20
सूत्र कहता है ....... मायामुक्त योगी दुर्लभ होते हैं ।
अब हम सोच सकते हैं -------
गीता - योगी के पास कोई क्यों नहीं रुकता ?
जहां न तन हो , न मन हो , बुद्धि प्रभु पर स्थिर हो वहाँ कोई क्यों और कैसे रुकेगा ?
गीता - योगी किसी को ........
न कुछ देता है ----
न कुछ लेता है ----
वह तो द्रष्टा होता है ।

=====ॐ=====

Monday, March 8, 2010

गीता ज्ञान - 98

गीता के पांच श्लोक

[क] गीता श्लोक - 2.62 - 2.63
चिंतन से आसक्ति , आसक्ति से कामना , कामना खंडित होनें का भय क्रोध उत्पन्न करता है ।
[ख] गीता श्लोक - 3.37
क्रोध काम का रूपांतरण है और काम राजस गुण का मुख्य तत्त्व है ।
[ग] गीता श्लोक - 4.10
राग , क्रोध एवं भय रहित ब्यक्ति प्रभु में निवास करता है ।
[घ] गीता श्लोक - 2.55
कामना रहित स्थिर बुद्धि वाला होता है ।

गीता के ऊपर दिए गए पांच श्लोक गीता के उन 200 श्लोकों में से हैं जिनमें भोग तत्वों को ब्यक्त किया गया है एवं कर्म - योग , ज्ञान - योग , क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ के सम्बन्ध को और गुणों के माध्यम से गुनातीत तक पहुंचनें का मार्ग दिखाया गया है ।

गीता जब हाँथ में हो तो पांच मिनट अपनीं आँखे बंद करें , एकांत में बैठ कर जैसे ऊपर पांच सूत्रों की एक माला बनाई गई है वैसे आप अपनी आवश्यकता के अनुकूल कुछ श्लोकों का चयन करें , उन्हें एक जगह बैठाएं और फिर उन पर गहन मनन करें , ऐसा करनें से आप के ---------
[क] तन - मन में निर्विकार ऊर्जा का संचार होगा ......
[ख] तन - मन से जब विकार निकलते हैं तब दुःख तो होता है लेकीन वह दुःख नरक छोडनें का दुःख है ।
[ग] धीरे - धीरे ......
न मन होगा
न बुद्धि में संकल्प - बिकल्प होंगे और आप जहां होंगे वह होगा .....
परम श्री कृष्ण का आयाम ।

====ॐ======

गीता ज्ञान - 97

गीता के आठ श्लोक

[क] गीता सूत्र - 7.20 , 18.72
कामना - मोह [ राजस गुण - तामस गुण ] अज्ञान की जननी हैं ।
[ख] गीता सूत्र - 4.10
राग , भय एवं क्रोध रहित ब्यक्ति , ज्ञानी है ।
[ग] गीता सूत्र - 2.52
मोह बैराग्य में कदम नहीं रखनें देता ।
[घ] गीता सूत्र - 14.7, 14.17
कामना राजस गुण से और मोह तामस गुण से उत्पन्न होते हैं ।
[च] गीता सूत्र - 6.27
राजस गुण प्रभु मार्ग का मजबूत अवरोध है ।
[छ] गीता सूत्र - 5.13
मनुष्य के देह में नौ द्वार हैं ।
गीता के आठ श्लोक हमें कौन सी राह दिखा रहे हैं ?
हम गीता के श्लोकों पर कोई अपना मत देना नहीं चाहते क्योंकि हमारे पास इतनी क्षमता नहीं है , लेकीन दिन भर गीता में ढूढनें पर हमें जो मिलता है , हम चाहते हैं उन्हें आप तक
पहुचाना । आदि शंकराचार्य से आइन्स्टाइन तक को आप गौर से देखें , ऐसा करनें से एक बात सामनें आती है ---
मनुष्य अनजानें में प्रभु को खोज रहा है और जिस दिन उसे प्रभु का होना एह्शाश हो जाता है उस दिन वह परम आनंद में आजाता है , लेकीन उसकी यह स्थिति ज्यादा देर तक रुक नहीं पाती क्योंकि उसके मन - बुद्धि पर गुणों का प्रभाव छा जाता है ।
गीता कहता है --- करनें के बाद क्या सोचते हो , करनें के पहले सोच की तुम क्या और क्यों करनें जा रहे हो ?

=====ॐ=======

Friday, March 5, 2010

गीता ज्ञान - 96

गीता सूत्र - 18.78

यह श्लोक संजय का है और गीता का आखिरी श्लोक भी है । संजय ध्रितराष्ट्र के सहयोगी हैं और गीता के अंत में कह रहे हैं ------
विजय वहा है जहां श्री कृष्ण एवं अर्जुन हैं - अब आप सोचिये , अभी युद्ध प्रारम्भ भी नहीं हुआ है और परिणाम संजय पहले दे रहे हैं , इस स्थिति में अपने सहयोगी की बात सुन कर ध्रितराष्ट्र किस भाव में होंगे ?
अब कुछ और बातों को देखते है ------
[क] सत्य ब्यक्त करनें पर असत्य हो जाता है ....... लाउत्सू कहते हैं ।
[ख] गुणों की होश ही सत्य है ..... गीता - 18.40
[ग] भावों से भाषा है और सत्य भावातीत है .... गीता - 2.16
[घ] जो भी ब्यक्त हैं वह सब उसकी ओर इशारा मात्र हैं , लेकीन सत्य नहीं हैं .... लाउत्सू कहते हैं ।
[च] आज जो गीता उपलब्ध है वह संजय की देंन है जो उस गीता में पहुंचा सकता है जो प्रभु के मुख से बोला गया था ।
[छ] गीता को बुद्धि से नहीं ह्रदय से पकड़ना चाहिए ।
[ज] संजय का गीता संजय तक पहुंचाता है और जो संजय बना , वह परम गीता में हो सकता है ।

आज विज्ञान , आयुर्वेद एवं अन्य इस बात पर काम कर रहे हैं की तन - मन की बीमारियों पर विजय कैसे प्राप्त हो , एक मर्ज की दवा बनती है , दूसरा मर्ज आ पहुंचता है , विज्ञान वह अमरत्व की दवा क्या बना भी पायेगा ? यह प्रश्न सनातन प्रश्न है ।
गीता कहता है ----- काम , क्रोध , लोभ , मोह , भय एवं अहंकार रहित अमरत्व की दवा नहीं खोजता , वह अमरत्व में रहता है और परम आनंदित होता है ।
गीता सभी मर्जों की दवा देता है और बाजार में मात्र कुछ पैसों में उपलब्ध भी है , लोग अपने - अपनें घरों में रखे भी हैं लेकीन उसे खोल कर कोई अपनें मर्ज की दवा नहीं निकालता ।
गीता पिछले पांच हजार साल से लोगों के मध्य है लेकीन कितनें लोग इस को अभी तक अपनाया होगा ?
आप इस प्रश्न पर सोचना । राजस एवं तामस गुणों की पकड़ ही वह बैक्टेरिया पैदा करते हैं जीनसे तरह - तरह के मर्ज आते हैं ।
## कृष्ण को प्रभु का दर्जा देना आसान है लेकीन उनकी बातों पर यकींन करना....... ?
## कृष्ण को पूजना अति आसान है लेकीन कृष्ण मय होना ...... ?
## रास लीला करना अति आसान है लेकीन मन से राधा बनना ..... ?

=======ॐ=======

गीता ज्ञान - 95

गीता श्लोक - 18.63


श्री कृष्ण इस श्लोक के माध्यम से अर्जुन को कहते हैं --- मुझे जो बताना था वह बता दिया है अब तूं

जैसा उचित समझे वैसा कर


श्री कृष्ण इस श्लोक से पहले कहते हैं -- जा तूं उस परमेश्वर की शरण में , वहीं तेरे को शांति मिलेगी और यहाँ

कह रहे हैं - मुझे जो बताना था वह बता दिया अब तूं जो चाहे वैसा कर - यहाँ संदेह हो रहा है की शायद

अर्जुन प्रभु की बातों की अनसुनी तो नहीं कर रहे ?

अर्जुन को मोह मुक्त करानें के समंध में श्री कृष्ण के 556 श्लोक हैं और अब इन श्लोकों में मात्र नौ और श्लोक

शेष हैं और प्रभु ऐसी बात कह रहे हैं , आखिर बात क्या है ?

अर्जुन को मोह से मुक्ति दिलानें के सम्बन्ध में श्री कृष्ण क्या - क्या नहीं किये : कर्म - ज्ञान , कर्म - योग ,

ज्ञान - योग , संन्यास , त्याग , प्रकृति - पुरुष सम्बन्ध , गुण विभाग एवं कर्म विभाग , आत्मा और

परमात्मा से सम्बंधित सभी बातों को तो बता दिया है लेकीन संभवतः गीता का अर्जुन अभी भी मोह में ही है

अर्जुन को [गीता - 11.8 ] दिब्य नेत्र दे कर अपनें ऐश्वर्य रूप को भी दिखा दिया है लेकीन अर्जुन पत्थर की

तरह मोह में स्थिर से दीखते हैं


गीता सूत्र - 18.62 से गीता सूत्र - 18.73 तक को जब आप गंभीरता से देखेंगे तो आप को जो मिलेगा वह

इस प्रकार से होगा -----

जब श्री कृष्ण को यह लगनें लगता है की मेरे ज्ञान का असर अर्जुन के मोह को समाप्त करनें में सफल नहीं हो रहा तब श्री कृष्ण अर्जुन पर मनोवैज्ञानिक दबाव बना रहे हैं - कभी कहते हैं - मैं ब्रह्म हूँ , तूं मुझे समर्पित कर दे , कभी कहते हैं - जा तूं उस परमेश्वर की शरण में , वहीं तेरे को शान्ति मिलेगी , कभी अपनी खीचते हैं तो कभी

टूर फेकते हैं , अबहीं कहते हैं - बेकार है ऐसे ब्यक्ति को गीता ज्ञान देना जो नास्तिक हो आदि - आदि

मोह में फसा ब्यक्ति सहारा खोजता है और जब मिला हुआ सहारा टूटता दीखता है तो वह हिल जाता है और

अपनी सोच में बदलाव ले आना चाहता हैश्री कृष्ण जब यह देखते हैं की अब अर्जुन कुछ बदला है तब

पूछते हैं - क्या तूने [ गीता - 18.72 ] स्थीर मन से गीता ज्ञान सूना , क्या तेरा मोह जनित अज्ञान समाप्त हुआ ?

और अर्जुन कहते हैं [ गीता - 8.73 ] - जी हाँ , मेरा अज्ञान समाप्त हो गया है , मीन अपनी स्मृति पा ली है और अब मैं आप की शरण में हूँ , आप जैसा कहेगे मैं वैसा ही करूंगा


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