Friday, August 14, 2009

हम अतृप्त ही रहेंगे क्या ?

छोटा बच्चा निर्विकार प्यार की मूरत होता है , खोजनें पर शायद ही कोई ऐसा मिले जो एक अबोध छोटे बच्चे से सम्मोहित न होता हो ।

बच्चे के कण-कण से प्यार की किरणें निकलती रहती हैं जो एक भार रहित नयूत्रिनों [neutrino ] कण की तरह हमारे शरीर में प्रवेश करती हैं और बिना संकेत देये हमारे अंदर की निर्विकार ऊर्जा के माध्यम को गतिशील कर देती हैं । हमारा मन-बुद्धि तंत्र सक्रीय होनें में कुछ समय लगता है लेकिन ये कण उसके पहले ही अपना प्रभाव डाल चुके होते हैं ।
मनुष्य अपनें को तृप्त करनें के लिए घर बनाता है, परिवार बनाता है और मन्दिर भी बनाता है लेकिन इतना करनें के बाद भी क्या तृप्त होता है ? ----अगर तृप्त नही है तो जरुर कोई बुनियादी कारण होगा । मनुष्य जिस प्यार के लिए परिवार्बनाता है वह प्यार नहीं वासना होता है , जो घर बनाता है उसका कारण भय होता है --वह सुरक्षा के लिए घर बनाता है और मन्दिर निर्माण के पिहे भी भक्ति-भाव न हो कर भय ही होता है ।
गुणों के प्रभाव में जो भी कर्म होगा उसकी निष्पत्ति अतृप्त ही होगी क्यों की ऐसे कर्म भोग कर्म होते हैं जिनके सुख में दुःख का बिज होता है । भोग कर्म के सुख-दुःख धुप-छाव की तरह आते - जाते रहते हैं अतः ऐसी स्थिति में त्रिप्तता का आनंद कैसे मिल सकता है ?
बचपन का समय प्यार से प्यार में गुजरता है और प्यार की मूल त्रिप्तता है , बचपन के बाद युवा अवस्था आती है जिसकी बुनियाद बासना होती है , बासना में मन-बुद्धि तंत्र अस्थिर होते है अतः ऐसी स्थिति में त्रिप्तता आ कैसे सकती है ?
तिप्तता का आना तब संभव होता है जब इन्द्रीओं से बुद्धि तक की ऊर्जा निर्विकार हो और ऐसा तब संभव है जब स्व के प्रति होश हो और स्व से जो होरहा हो उसके प्रति होश हो । गीता का सांख्य - योग की साधना से समत्व भाव का उदय होता है जिसके माध्यम से त्रिप्तता आती है न की भौतिक साधनों को इकट्ठा करनें से ।
साधन साद्य नहीं हैं साध्य के माध्यम हो सकते हैं ।
======ॐ=========

Tuesday, August 11, 2009

क्या तेरा और क्या मेरा

जहाँ दो हैं वहाँ संदेह होगा ही । संदेह रहित मन-बुद्धि समत्व - योगी की पहचान है । जिस बुद्धि से प्रश्न उठता है उस बुद्धि में उस प्रश्न का उत्तर नहीं होता--यह बात बीसवी शताब्दी का महान वैज्ञानिक आइंस्टाइन कहते हैं ।
अब हमें - आप को सोचना चाहिए की हमलोगों की स्थिति कैसी है ?
हमलोग अकेले में रह नहीं सकते और दो के साथ सत की पहचान संभव नहीं फ़िर ऐसे में हमें क्या करना चाहिए ?
जब तक भक्त और भगवान् आमने - सामनें होते हैं तब तक परा भक्ति का द्वार नहीं खुलता और जब तक ऐसा नहीं होता परमात्मा की अनुभूति नहीं मिलती , चाहे हम कुछ भी युक्ति क्यों न करलें लेकिन जब तक हम स्व पर केंद्रित नहीं होते तब तक परमात्मा हमसे दूर ही रहेगा।
तूं स्व से नहीं मिलने देता और मैं तूं तक पहुंचनें नही देता फ़िर ऐसे में क्या करें ?
स्व से मैं[अंहकार] को अलग करना चाहिए और ऐसा करनें के लिए इन्द्रीओं से मन तक की साधना करनी जरुरी है।
गीता कहता है ---गुन कर्म करता हैं और करता भाव अंहकार की छाया है अतः इस छाया से बचनें का नाम ही ममन साधना है।
इन्द्रीओं से मैत्री , मनन की समझ और च्वायस लेस अवेरनेस [choiceless awareness ] की स्थिति का नाम ही
समत्व - योग है।
क्या आप समत्व-योगी बनना चाहते हैं ?

=======ॐ======

Tuesday, August 4, 2009

गीता श्लोक - 2.11

गीता श्लोक 2.11 में परम श्री कृष्ण कहते हैं-------
तूं शोक करनें लायक लोगों के लिए शोक नहीं करता और प्रज्ञावान की तरह बांते करता है ।
जो हैं तथा जो गुजर गएँ हैं दोनों पर पंडित लोग नहीं सोचते ।
गीता श्लोक 2.2 में परम श्री कृष्ण कहते हैं.............................
असमय में तुझे मोह कैसे हो गया है ? अब यहाँ देखना होगा की गीता श्लोक 2.4 से गीता श्लोक 2.10 तक में अर्जुन ऎसी कौन सी बात कहते हैं जिसके आधार पर परम श्री कृष्ण अर्जुन को श्लोक 2.11 में प्रज्ञावान एवं पंडित शब्दों से संबोधित करते हैं ?
यहाँ अर्जुन कहते हैं-----
मैं भीष्म पितामह एवं द्रोणाचार्य के साथ युद्ध कैसे कर पाउँगा ?
गुरुजनों की ह्त्या करनें से तो उत्तम है भीख मांग कर गुरारा करना ।
मैं तो यह भी नहीं समझ पा रहा हूँ की युद्ध करना उत्तम होगा या न करना उत्तम होगा ।
धर्म-बिषयों से मेरा मन मोहित ही गया है [ गीता श्लोक 2।7 ] , मैं आप का शिष्य हूँ तथा आप की शरण में हूँ, आप कृपया मुझे उचित मार्ग दिखाएँ ।
यहाँ आप नें अर्जुन की बातों को देखा इन बातों में ऐसी कोई बात नहीं है जिस के आधार पर उनको प्रज्ञावान या पंडित कहा जा सके फ़िर श्री कृष्ण क्यों ऐसा कहते हैं ?
अर्जुन का गीता में पहला प्रश्न गीता श्लोक 2.54 के माध्यम से जो है उसमें प्रज्ञावान की पहचान पूछी गयी है ,
यदि अर्जुन प्रज्ञावान होते तो-------
१- वे मोह में क्यों होते ?
२- वे प्रज्ञावान की पहचान क्यों पूछते ?
प्रज्ञावान के लिए आप गीता के श्लोक 2.55 से 2.72 तक को देख सकते हैं , ब्रह्मण , पंडित शब्दों को समझनें के लिए आप देखिये गीता श्लोक 2.46 एवं 18।42 ।
प्रज्ञावान , स्थिर बुद्धि , पंडित , ब्राह्मण , समभाव - ये सभी शब्द एक ब्यक्ति के संबोधन हैं जिसका केन्द्र
परमात्मा होता है ।
मन-योग , बुद्धि- योग , समत्व - योग तथा सम भाव योग वह योग है जिसके माध्यम से इन्द्रीओं से बुद्धि
तक की ऊर्जा को विकार रहित किया जाता है ।
Prof. Einstein कहते हैं-------
जिस बुद्धि से प्रश्न उठता है उस बुद्धि में उस प्रश्न का हल नही होता ।
गीता कहता है ----------
स्थिर बुद्धि प्रश्न रहित होती है और अस्थिर बुद्धि प्रश्न एवं संदेह से भरी होती है , क्या आप को इन दो बातों में कोई अंतर नजर आता है ?अर्जुन मोह में डूब चुके हैं , यह बात श्री कृष्ण को अच्छी तरह से मालूम है । श्री कृष्ण अर्जुन को मोह मुक्त करनें के लिए गीता में नाना प्रकार का प्रयोग करते हैं उनमें से एक प्रयोग गीता श्लोक 2.11 भी है ।
गीता सांख्य - योग की खान है इसमें आप जितनी गहराई में पहुंचेंगे आप को उतना ही अधिक रस मिलेगा ।
जो भाग गया वह भाग गया जो अंदर गया वह पा लिया।

=====ॐ===========

Monday, August 3, 2009

सत पुरूष क्यों सताए जाते हैं?

गीता-श्लोक 4 . 7 - 4 . 8 कहते हैं-------
धर्म के उपर से अधर्म की चादर उठानें के लिए एवं साधू-पुरुषों की रक्षा करनें के लिए परमात्मा निराकार
से साकार रूप में प्रकट होता है।
मीरा को मथुरा में रूकनें नहीं दिया गया, सुकरात को जहर दिया गया, महाबीर के कानों में कीलें ठोकी गयी, बुद्ध के उपर जूते फेके गए, जेसस को शूली पर चढाया गया, गलीलियो को घर में कैद किया गया, श्री राम की सीता का हरण हुआ और श्री कृष्ण को ब्रज-भूमि छोड़ कर द्वारका जाना पडा .....आखिर यह सब किसनें और क्यों किया? यह सब करनें वाले कोई और न थे , हम - आप ही थे।
लोगोंको साधू पुरुषों से क्या परेशानी है? क्यों लोग उनको देखना नहीं चाहते? साधू पुरूष तो किसी को
कुछ नहीं कहते।
सत पुरूष राज धर्मी पदार्थ की तरह होते हैं जिनके रोम-रोम से चेतन मय विकिरण होता रहता है जो लोगों के अंदर पहुँच कर उन्हें बेचैन करता है।
भोग एवं अंहकार से सम्मोहित लोग सत के विकिरण को सह नहीं पाते उन्हें बेचैनी होती है और यह बेचैनी उनको विवश करती है - सत पुरुषों को पेशान करनें के लिए ।
सत पुरूष के पैर से पैर मिलाकर चलना कठिन काम है लेकिन सत पुरूष के न रहनें पर उनको पूजना अति आसान होता है ।
सत की राह संसार से लम्बवत यात्रा है जो भोग के गुरुत्वाकर्षण के बिपरीत की यात्रा है अतः इस पर चलना कठिन है और संसार की यात्रा समानांतर यात्रा है जो अति आसान यात्रा है ।
समानांतर यात्रा को लम्बवत यात्रा में बदलना ही साधना है ।

======ॐ========

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