चित्त की 5 भूमियां
क्षिप्ति , मूढ़ , विक्षिप्त , एकाग्रता और निरु ।
सम्प्रज्ञात समाधि में चित्त एकाग्रता भूमि में होता है लेकिन ज्योंही चित्त निरु अवस्था में आता है असम्प्रज्ञात समाधि घटित हो जाती है । असम्प्रज्ञात समाधी तक संस्कार शेष रहते हैं । धर्ममेघ समाधि से संस्कारों का प्रतिप्रसव हो जाता है । यह अवस्था कैवल्य का द्वार खोलती है ।
चित्त की भूमियों को चित्त की अवस्थाएं भी कहते हैं । चित्त माध्यम से चित्ताकार पुरुष की यात्रा भोग से वैराग्य , वैराग्य में समाधि और समाधि से कैवल्य की है । पुरुष की इस यात्रा में चित्त की भूमियों की प्रमुख भूमिका होती है अतः अब चित्त की 05 भूमियों को समझते हैं ।
1- क्षिप्ति : चित्त की यह भूमि योगमें एक बड़ी रुकावट
है । विचारों का तीव्र गति से बदलते रहना , चित्त की क्षिप्त अवस्था होती है । यह अवस्था तामस गुण प्रधान होती है शेष दो गुण दबे हुए रहते हैं ।
2 - मूढ़ : मूर्छा या नशा जैसी अवस्था मूढ़ अवस्था होती है । यह अवस्था राजस गुण प्रधान अवस्था होती है जिसमें ज्ञान - अज्ञान , धर्म - अधर्म , वैराग्य - राग और ऐश्वर्य - अनैश्वर्य जैसे 08 भावों से चित्त बधा रहता है । आसक्ति , काम , कामना , क्रोध , लोभ , भय आदि जैसी रस्सियों से चित्त जकड़ा हुआ होता है ।
3 - विक्षिप्त : इस भूमि में चित्त सतोगुण में होता है पर रजो गुण भी कभीं - कभीं सतोगुण को दबाने की कोशिश करता रहता है। इस प्रकार रजोगुण के प्रभाव से उत्पन्न होने वाली चित्त की चंचलता अवरोध उत्पन्न करती रहती है लेकिन इस अवस्था में भी कभीं - कभीं सम्प्रज्ञात समाधि लग जाया करती है ।
4 - एकाग्रता : एकाग्रता भूमि में चित्त में निर्मल सतगुण की ऊर्जा बह रही होती है । किसी एक सात्त्विक आलंबन पर चित्त का समय से अप्रभावित रहते हुए स्थिर रहना , एकाग्रता है । एकाग्रता में चित्त तो एक सात्त्विक आलंबन पर टिक तो जाता है पर चित्त में उस आलंबन से सम्बंधित नाना प्रकार की वृत्तियाँ बनती रहती हैं और बन - बन कर समाप्त भी होती रहती हैं अर्थात विभिन्न प्रकार की सात्त्विक वृत्तियों का आना - जाना बना रहता है
5 - निरु : एकाग्रता का गहरा रूप निरु है जो समाधि का द्वार है । जब सम्प्रज्ञात समाधि के बाद असम्प्रज्ञात समाधि मिलती है तब चित्त निरु भूमि में होता है । सम्प्रज्ञात समाधि आलंबन आधारित होती है और असम्प्रज्ञात समाधि आलंबन मुक्त समाधि होती है । असम्प्रज्ञात समाधि को ही निर्विकल्प या निर्बीज समाधि भी कहते हैं यहां आलंबन नहीं होता पर संस्कार शेष रह जाते हैं जो धर्ममेघ समाधि मिलते ही नष्ट हो जाते हैं और ऐसा योगी कैवल्य में प्रवेश कर जाता है । यह अवस्था सिद्ध योगियों की होती हैं और इस अवस्था को चित्त की पूर्ण शून्यावस्था भी कहते हैं । कर्म फलों का बीज रूप में कर्माशय ( चित्त ) में रहना , संस्कार हैं ।