जहाँ दो हैं वहाँ संदेह होगा ही । संदेह रहित मन-बुद्धि समत्व - योगी की पहचान है । जिस बुद्धि से प्रश्न उठता है उस बुद्धि में उस प्रश्न का उत्तर नहीं होता--यह बात बीसवी शताब्दी का महान वैज्ञानिक आइंस्टाइन कहते हैं ।
अब हमें - आप को सोचना चाहिए की हमलोगों की स्थिति कैसी है ?
हमलोग अकेले में रह नहीं सकते और दो के साथ सत की पहचान संभव नहीं फ़िर ऐसे में हमें क्या करना चाहिए ?
जब तक भक्त और भगवान् आमने - सामनें होते हैं तब तक परा भक्ति का द्वार नहीं खुलता और जब तक ऐसा नहीं होता परमात्मा की अनुभूति नहीं मिलती , चाहे हम कुछ भी युक्ति क्यों न करलें लेकिन जब तक हम स्व पर केंद्रित नहीं होते तब तक परमात्मा हमसे दूर ही रहेगा।
तूं स्व से नहीं मिलने देता और मैं तूं तक पहुंचनें नही देता फ़िर ऐसे में क्या करें ?
स्व से मैं[अंहकार] को अलग करना चाहिए और ऐसा करनें के लिए इन्द्रीओं से मन तक की साधना करनी जरुरी है।
गीता कहता है ---गुन कर्म करता हैं और करता भाव अंहकार की छाया है अतः इस छाया से बचनें का नाम ही ममन साधना है।
इन्द्रीओं से मैत्री , मनन की समझ और च्वायस लेस अवेरनेस [choiceless awareness ] की स्थिति का नाम ही
समत्व - योग है।
क्या आप समत्व-योगी बनना चाहते हैं ?
=======ॐ======
Tuesday, August 11, 2009
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