Saturday, July 31, 2010

श्लोक - 6.3

यहाँ प्रभु कहते हैं ------
जब कर्म , योग बन जाता है तब कर्म स्वयं समाप्त हो जाता है ।
कर्म का सीधा सम्बन्ध इन्द्रियों से है । इन्द्रिया प्रभु की ओर ले आ सकती हैं और नरक में भी पहुंचाती हैं ।

कर्म मनुष्य के लिए एक माध्यम है - साधना का , इन्द्रिय - बिषय के सहयोग से जो होता है उसे भोग कर्म
कहते हैं , जिसके होनें के पीछे कोई कारण होता है जैसे राग , कामना , क्रोध , भय , मोह , अहंकार आदि ।
भोग कर्म में जब भोग तत्वों की पकड़ न हो तो वह कर्म योग बन जाता है । प्रभु कहते हैं - कर्म जब योग
बन जाता है तब उस योगी के कर्म स्वयं समाप्त हो जाते हैं - जब कर्म होनें के पीछे कोई कारन न हो तो कर्म
जिससे हो रहा है वह उसे क्रिया कैसे समझ सकता है ?
गीता में प्रभु श्री कृष्ण अर्जुन से युद्ध करवाना चाहते हैं लेकीन यह युद्ध भोग युद्ध न हो कर योग बिधि होनी चाहिए ।
प्रभु बार - बार आहते हैं - मनुष्य जो भी करता है उसके पीछे कोई कारण न हो जैसे कामना , अहंकार , मोह आदि ।
योग और भोग में कोई ख़ास फर्क नही है , दोनों एक सिक्के के दो पहलू हैं । भोग वह है जिसमे गुण - तत्वों की
पकड़ रहती है और योग में इन की पकड़ की अनुपस्थिती होती है ।
भोग कर्म में कही सुख तो कभी दुःख का अनुभव होता रहता है लेकीन योग कर्म में चिर स्थाई सुख होता है ।
अपनें दैनिक कर्मों में उनके पीछे जो कारण हो उन्हें आप साधें , उनके प्रति होश बनाएं और जब आप को
सफलता मिलेगी तो आप जो अनुभव करेंगे उसे ब्यक्त नहीं कर पायेंगे ।

===== श्री कृष्ण =======

Followers