यहाँ प्रभु कहते हैं ------
जब कर्म , योग बन जाता है तब कर्म स्वयं समाप्त हो जाता है ।
कर्म का सीधा सम्बन्ध इन्द्रियों से है । इन्द्रिया प्रभु की ओर ले आ सकती हैं और नरक में भी पहुंचाती हैं ।
कर्म मनुष्य के लिए एक माध्यम है - साधना का , इन्द्रिय - बिषय के सहयोग से जो होता है उसे भोग कर्म
कहते हैं , जिसके होनें के पीछे कोई कारण होता है जैसे राग , कामना , क्रोध , भय , मोह , अहंकार आदि ।
भोग कर्म में जब भोग तत्वों की पकड़ न हो तो वह कर्म योग बन जाता है । प्रभु कहते हैं - कर्म जब योग
बन जाता है तब उस योगी के कर्म स्वयं समाप्त हो जाते हैं - जब कर्म होनें के पीछे कोई कारन न हो तो कर्म
जिससे हो रहा है वह उसे क्रिया कैसे समझ सकता है ?
गीता में प्रभु श्री कृष्ण अर्जुन से युद्ध करवाना चाहते हैं लेकीन यह युद्ध भोग युद्ध न हो कर योग बिधि होनी चाहिए ।
प्रभु बार - बार आहते हैं - मनुष्य जो भी करता है उसके पीछे कोई कारण न हो जैसे कामना , अहंकार , मोह आदि ।
योग और भोग में कोई ख़ास फर्क नही है , दोनों एक सिक्के के दो पहलू हैं । भोग वह है जिसमे गुण - तत्वों की
पकड़ रहती है और योग में इन की पकड़ की अनुपस्थिती होती है ।
भोग कर्म में कही सुख तो कभी दुःख का अनुभव होता रहता है लेकीन योग कर्म में चिर स्थाई सुख होता है ।
अपनें दैनिक कर्मों में उनके पीछे जो कारण हो उन्हें आप साधें , उनके प्रति होश बनाएं और जब आप को
सफलता मिलेगी तो आप जो अनुभव करेंगे उसे ब्यक्त नहीं कर पायेंगे ।
===== श्री कृष्ण =======
Saturday, July 31, 2010
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सुन्दर आलेख
ReplyDeleteकिसी भी तरह की तकनीकिक जानकारी के लिये अंतरजाल ब्लाग के स्वामी अंकुर जी, हिन्दी टेक ब्लाग के मालिक नवीन जी और ई गुरू राजीव जी से संपर्क करें ।
ब्लाग जगत पर संस्कृत की कक्ष्या चल रही है ।
आप भी सादर आमंत्रित हैं,
http://sanskrit-jeevan.blogspot.com/ पर आकर हमारा मार्गदर्शन करें व अपने सुझाव दें, और अगर हमारा प्रयास पसंद आये तो हमारे फालोअर बनकर संस्कृत के प्रसार में अपना योगदान दें ।
धन्यवाद
वाह शर्मा जी, अद्भुत ज्ञान को आप कितने ही सरल शब्दों में जनसुलभ बना रहे हैं.
ReplyDeleteआप सच में बहुत-बहुत बधाई के पात्र हैं.
हिंदी ब्लाग लेखन के लिए स्वागत और बधाई
ReplyDeleteकृपया अन्य ब्लॉगों को भी पढें और अपनी बहुमूल्य टिप्पणियां देनें का कष्ट करें
पढ़ कर अच्छा लगा, रामायण में भी कहा है...कर्म प्रधान विश्व रचि राखा,जो जस करहिं सो तस फल चाखा..धन्यवाद
ReplyDeleteधन्यवाद् - सादर
ReplyDelete'कर्म किये जा' से प्रभु का आश्य भोग कर्म नहिं,योग कर्म था?
ReplyDeleteऔर अन्तिम लक्षय तो सभी कर्मों का समाप्त होना है।
great work keep it up.
ReplyDeleteइस सुंदर से नए चिट्ठे के साथ आपका हिंदी ब्लॉग जगत में स्वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!
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