गीता में अर्जुन अपनें आठवें प्रश्न में तीसरा उप प्रश्न कुछ इस प्रकार करते है :------
किम् कर्मः ? गीता सूत्र – 8.1
और उत्तर रूप में प्रभु कहते हैं … ...
भूतभावोद्भवकर : विसर्गः कर्मसज्ज्ञितः … . गीता सूत्र – 8.3
अर्थात
भूतों में भाव उत्पन करनें के त्याग को कर्म कहते हैं
गीता के इस आंशिक सूत्र का अर्थ श्रीधराचार्य , आदि शंकर , रामानुज , सर्वपल्ली राधाकृष्णन एवं अन्य सभी लोग अलग अलग ढँग से लगाते हैं लेकिन इस सुत्रांश को समझनें के लिए कर्म से सम्बंधित गीता में दिए गए 180 श्लोकों को ध्यान से देखना होगा / कुछ लोग इस सुत्रांश का अर्थ यह भी लगाते हैं कि जीव उत्पन्न करनें की देह में जो ऊर्जा है उसे बनाए रखनें के लिए मनुष्य जो भी करता है उसे कर्म कहते हैं
लेकिन गीता-साधना से जो गुजरेगा वह कर्म की परिभाषा कुछ इस प्रकार से करेगा-------
भावों के माध्यम से निर्भाव की स्थिति में पहुंचनें के लिए मनुष्य को जो कुछ भी तन,मन एवं बुद्धि के सहयोग से करना होता है उसे कर्म कहते हैं/
गीता में कर्म को समझनें के लिए गीता के निम्न सूत्रों को एक साथ अवश्य देखना चाहिए … ......
8.3 | 3.5 | 18.11 | 18.48 |
3.27 | 3.28 | 3.33 | 18.59 |
1860 | 7.12 | 4.13 | 18.50 |
18.41 | 18.19 | 2.45 | 14.5 |
3.4 | 4.18 | 18.49 | 13.21 |
5.10 | 4.38 | - | - |
कर्म इन्द्रियाँ एवं मन गुण तत्त्वों के प्रभाव में जो करते हैं उसे भोग - कर्म कहते हैं , सभी भोग कर्मों में दोष होते हैं लेकिन उनमें सहज कर्मों को करते हुए उनमें स्थिति गुण ऊर्जा को समझनें की साधान को कर्म - योग कहते हैं / गुण तत्वों के प्रभाव में बिषय एवं इंद्रिय के सहयोग से जो भी होता है वह भोग है और सभी भोग कर्म करते समय सुख का अनुभव कराते हैं लेकिन उनका अंत परिणाम दुःख देता है अर्थात भोग कर्म के सुख में दुःख का बीज पल रहा होता है /
कर्म साधना जब अपनें आखिरी सीढ़ी को पार करती है तब -----
कर्म में अकर्म दिखनें लगता है और अकर्म में कर्म दिखनें लगता है
कर्म स्वतः होते हैं और उन कर्मों का द्रष्टा भावातीत स्थिति में मन होता है और इन्द्रियाँ समभाव में रहती है/
==== ओम् ======
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