मन - बुद्धि और भगवान
गीता में प्रभु कहते हैं :-----[क] दो प्रकार की बुद्धि है ....
[ख] जिस बुद्धि में भोग बसता है उस बुद्धि में मैं नहीं बसता ...
[ग] भोग और भगवान एक साथ एक बुद्धि में नहीं बसते .....
और
भागवत पुराण के प्रारम्भ में कुंती कहती है :---
इंद्रियों के माध्यम से हम जहां तक पहुँचते हैं उसके तह में परमात्मा बसता है
एवं
गीता में प्रभु यह भी कहते हैं :----
बुद्धिमानों की बुद्धि , मैं हूँ //
ऊपर दी गयी बातें हमें किधर संकेत दे रही हैं ?
मूलतः बुद्धि तो एक है ....
बुद्धि जब बासना से प्रभावित होती है तब उस बुद्धि को प्रभु कृष्ण गीता में अनिश्चयामिका बुद्धि कहते हैं / यह बुद्धि गुणों के प्रभाव में भोग को परम समझनें लगती है और वह ब्यक्ति योग नहीं भोग आश्रित हो जाता है /
दूसरी स्थिति ठीक इसके विपरीत की है जहाँ बुद्धि निश्चयात्मिका बुद्धि होती है जो भोग में भी भगवान की झलक देखती है /
निर्विकार और गुणों से अप्रभावित बुद्धि , बुद्धिमानों की बुद्धि होती है जिसका केंद्र भोग नहीं भगवन होता है /
बिषय ...
से इंद्रियों का नियंत्रण
इंद्रियों के प्रति होश ....
मन के प्रति होश बनाता है
और मन का होश निर्विकार बुद्धि के होनें का कारण है
तथा ...निर्विकार बुद्धि का केन्द्र भगवान होता है //
=== ओम् ====