Saturday, December 25, 2021
Sunday, December 19, 2021
प्रश्न उपनिषद् सार
🕉️ प्रश्न - उपनिषद् अथर्व वेद - उपनिषद् है 🕉️
अथर्ववेद में 20 काण्ड हैं और श्लोकों की संख्या 5987 बताई जाती है । 5987 श्लोकों में से 730 श्लोक ऋग्वेदीय श्लोक हैं अतः इस प्रकार अथर्ववेद के अपने मूल श्लोकों की संख्या 5,257 बनती है ।
अथर्वेदके 31 उपनिषद् बताये जाते हैं जिनमें से एक प्रश्नोपनिषद् भी है ।
💐 अथर्व वेद में ब्रह्मज्ञान, देवताओं की स्तुतियाँ , और विभिन्न प्रकारके रोगोंके उपचार हेतु विभिन्न प्रकार की जड़ी - बूटियोंके प्रयोग की विधियों को बताया गया है ।
💐 आयुर्विज्ञान , शल्य चिकित्सा , टोना - टोटका और जंत्र - तंत्र भी इस वेद् के प्रमुख बिषय हैं ।
💐 राजनीतिके गुह्य सूत्र भी यहाँ मिलते हैं ।
💐 अथर्ववेद की 09 शाखायें हैं जिनमें से 07 लुप्त हो चुकी हैं ।
⚛ प्रश्नोपनिषद् अथर्ववेदीय पिप्लाद शाखा के ब्राह्मण द्वारा 06 ऋषियों द्वारा पूछे गए 06 प्रश्न और उनके उत्तर दिए गए हैं ।
☸ यहाँ प्रवक्ता आचार्य पिप्पलाद हैं जो कदाचित् पीपल के गोदे खाकर जीते थे , और ..
💐 निम्न 06 विद्यार्थी हैं ⤵️
1 - कात्यायन कवंधी
2 - भार्गव वैदर्भि
3 - कौशल्य अश्वालयन
4 - सौरयनिन गर्ग्य
5 - सैब्य सत्यकाम
6 - सुकेसन भारद्वाज हैं
प्रश्न: 01
ऋषि कात्यायन कवन्धी का प्रश्न ⤵️
प्रजा ( सृष्टि ) - उत्पत्ति करता कौन है ?
उत्तर
प्रजा वृद्धि की इच्छा वाले प्रजापति ब्रह्मा मिथुन - कर्म माध्यम से रयि - प्राण नामक एक युगल द्वारा प्रजा की उत्पत्ति करायी ।
यहाँ प्राण गति प्रदान करनेवाला चेतन तत्त्व है । रयि , प्राण को धारण करके विविध रूप देने में समर्थ है जिसे प्रकृति कहते हैं ।
अर्थात
प्रकृति ( रयि ) और प्राण के संयोग से प्रजा की उत्पत्ति हुयी
👉 सांख्य योग और पतंजलि योग दर्शन में सृष्टि रचना का आधार प्रकृति - पुरुष संयोग को माना गया है ।
प्रश्न : 2
ऋषि भार्गव वैदर्भि का प्रश्न ⤵️
➡️ प्रजा धारण करनेवाली देवताओं की संख्या कितनी है ? और उनमें वरिष्ठ कौन है ?
उत्तर
🌷 पञ्च महाभूत , 11 इन्द्रियाँ और प्राण , प्रजा धारण करने वाले देवता हैं और इनमें वरिष्ठ प्राण है । प्राण इन सभीं देवताओं का आश्रय है ।
प्रश्न : 3
ऋषि कौसल्य आश्वलायन का प्रश्न ⤵️
☸ प्राण की उत्पत्ति कहाँ से होती है ?
☸ यह शरीर में कैसे प्रवेश करता है ?
☸ यह कैसे शरीर से निकल जाता है ?
☸ और दोनों के मध्य कैसे रहता है ?
उत्तर
👌 प्राण की उत्पत्ति आत्मा से है ।
जैसे शरीर की छाया शरीर से निकलती हैं और शरीर में समा जाती है वही स्थिति प्राण की आत्मा के संग है ; प्राण आत्मा से निकलता है और आत्मा में समा जाता है ।
👌 मन के संकल्प से यह शरीर में प्रवेश करता है ।
👌 अंत समय मे आत्मामें समाकर बाहर निकल जाता है और दूसरी योनि में चला जाता है ।
प्रश्न : 4
ऋषि सौरयनिन गर्ग्य👇
👆शरीर में कौन सी इन्द्रिय शयन करती है ?
👆 कौन सी जाग्रत रहती है ?
👆 कौन सी इन्द्रिय स्वप्न देखती है ?
👆 और कौन सी इन्द्रिय सुख अनुभव करती है ?
👆और ये सब ( इंद्रियाँ ) किस में स्थित हैं ?
उत्तर
👉 जैसे सूर्य रश्मियां सूर्य उदय के समय सूर्य से निकलती हैं और सूर्यास्त के समय उसी में समा जाती हैं वैसे ही इन्द्रियां मनसे निकलती हैं और मन में ही समा जाती हैं ।
👉 इन्द्रियाँ मन आश्रित हैं । जब तक वे फैली हुई है तब तक उनके माध्यम से हमें उनके बिषयों का पता चलता है । जब वे सिकुड़ कर परम् देव मन में केंद्रित हो जाती है तब हम बिषय मुक्त हो जाते हैं । ऐसे मनुष्य की स्थिति सोये हुए व्यक्ति जैसी हो जाती है ।
👉 सोये हुए में प्राण अग्नि जाग्रत रहता है ।
👉 प्राण से सोई हुयी इन्द्रियाँ बिषयों का केवल अनुभव मात्र करती हैं जबकि वे सोई रहती हैं ।
प्रश्न : 5
ऋषि सैब्य सत्यकाम
जीवन भर ॐ का ध्यान करनेवाला किस लोक को प्राप्त करता है ?
उत्तर
⚛️ ॐ का ध्यानी ब्रह्मलोक को प्राप्त करता है । ⚛️ तेजोमय सूर्यलोक ही ब्रह्मलोक है ।
⚛️ ओंकार ही परब्रह्म है ।
प्रश्न : 6
ऋषि सुकेसन भारद्वाज
हे भगवान पिप्लाद ! कौशल देश के नरेश राज पुरुष हिरण्यनाभ जी मुझसे 16 कलाओं से युक्त पुरुष के सम्बन्ध में जानना चाहा था पर मैं उन्हें न बता पाया ।
क्या आप ऐसे पुरुष की जानकारी रखते हैं ?
🕉️ यहाँ आगे बढ़ने से पूर्व हिरण्यनाभ को समझते हैं ⤵️
🌷 भगवान श्री राम के पुत्र कुश बंश में कुश से आगे 13 वें बंशज हुए हिरण्यनाभ । ऋषि याज्ञवल्क्य हिरण्यनाभ के शिष्य थे । याज्ञवल्क्य सूर्य पर बहुत से वैज्ञानिक खोजे की थी । महाभारत युद्ध से थीक पूर्व में जब कुरुक्षेत्र में सर्वग्रास सूर्य ग्रहण के समय प्रभु श्री कृष्ण के पिता वसुदेव जी यज्ञ का आयोजन किये थे उस समय वहां उपस्थित 29 ऋषियों में से एक थे , याज्ञवल्क्य ऋषि ( भागवत : 10.84.3 - 5 ) ।
उत्तर
💐 जिस पुरुष से 16 कलाएं उत्पन्न होती हैं ,
वह 16 कलाओं से युक्त पुरुष इस शरीर में विद्यमान है ।
💐 उस पुरुषने सर्व प्रथम प्राण का सृजन किया । 💐 प्राणसे श्रद्धा , आकाश , वायु , ज्योति ,
पृथ्वी , इन्द्रियां , मन और अन्न का सृजन किया ।
💐 अन्नसे वीर्य , तप , मन्त्र , कर्म , लोक एवं नाम आदि 16 कलाओं का सृजन किया ।
🌷अब इस संदर्भ में श्रीमद्भगवत पुराण में 16 कलाओं के सम्बन्ध में निम्न सन्दर्भों को देखें ⤵️
1 - भागवत : 1.3.1
यहाँ 11 इन्द्रियाँ + 05 महाभूतों को प्रभु की 16 कलाओं के रूप में बताया गया है ।
2 - भागवत : 2.4.23
यहाँ 11 इंद्रियों और 05 प्राणों ( प्राण , अपान , उदान , व्यान और समान ) को 16 कलाओं के रूप में बताया गया है ।
🌷 05 प्राणों को निम्न प्रकार से बताया गया है ⤵️
1 - प्राण - हृदयमें रहने वाला वायु को कहते हैं।
2 - अपान - गुदा में रहने वाले वायु को कहते है ।
3 - उदान - कंठ में रहने वाले वायु को कहते हैं ।
4 - व्यान - संपूर्ण देह में स्थित वायु को व्यान कहते हैं। 5 - समान - वह वायु है जो नाभि में रहता है ।
~~◆◆ ॐ ◆◆~~
Wednesday, December 15, 2021
Friday, December 10, 2021
गीता अध्याय - 11 एक झलक
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय : 11
◆ सम्पूर्ण गीता में अर्जुन के कुल 86 श्लोक हैं
जिनमें से 33 श्लोक इस एक अध्याय में हैं ।
● गीता के 700 श्लोकों में से अध्याय - 10 तक 414 श्लोक हैं , और ⤵️
◆ गीता में अर्जुन के 16 प्रश्न हैं जिनमे से 3 प्रश्न इसी अध्याय में हैं और अर्जुन कह रहे हैं कि आपके परम गोपनीय वचनों से मेरा मोह समाप्त हो गया है , अब मैं स्थिर चित्त हूँ और प्रश्न के बाद प्रश्न पूछ रहे हैं ।
◆ मनुष्य लोगों को धोखा देते - देते इतना आदी हो जाता है कि वह स्वयं को धोखा देने लगता है ।
☸ प्रश्न संदेह युक्त बुद्धि , अशांत मन और अहँकार से उपजता है फिर अर्जुन स्थिर चित्त कैसे हुए !
अर्जुन , प्रभु श्री कृष्ण को सखा और परमात्मा कहते तो हैं लेकिन दिल से नहीं , अन्यथा उनकी बुद्धि शांत और संदेहमुक्त होनी चाहिए थी पर अभीं तक ऐसा हुआ दिखता नहीं।
~~◆◆ ॐ ◆◆~~
Thursday, December 9, 2021
गीता अध्याय - 7 की एक झलक
श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय - 7
1 -इस अध्याय में 30 श्लोक हैं ।
2 -इस अध्याय में प्रभु वक्ता हैं , अर्जुन श्रोता हैं ।
3 - इस अध्याय के 30 श्लोकों में 22 श्लोक प्रभु से सम्बंधित हैं जैसा ऊपर स्लाइड में दिखाया गया है।
गीता अध्याय : 7 के कुछ ज्ञान सूत्र ⤵️
🌷 ज्ञानी दुर्लभ हैं ।
●सभीं भूत अपरा प्रकृति के 08 तत्त्वों एवं चेतना के योगसे हैं।
🌷 हजारों लोगों में कोई एक सिद्धि हेतु यत्न करता है और इन यत्नशील योगियों में कोई एक मुझे तत्त्वसे जानता है ।
🌷 गुणोंके भाव मुझसे हैं पर उन भावों में मैं नहीं ।
◆ सभीं प्राणी तीन गुणों से सम्मोहित रहने के कारण मुझ गुणातीत को नहीं समझ पाते ।
🌷 अनेक जन्मों की तपस्यायों का फल ज्ञान है और ज्ञान से मुझे जाना जाता है ।
● त्रिगुणी दुस्तर माया मोहित असुर होता है ।
● अर्थार्थी , आर्त ( दुःख निवारण हेतु ) ,जिज्ञासु और ज्ञानी ये 04 प्रकार के उत्तम कर्म करने वाले भक्त मुझे भजते हैं ।
~~◆◆ ॐ ◆◆~~
Thursday, December 2, 2021
प्रभु श्री कृष्ण और संख्या - 18
प्रभु श्री कृष्ण और संख्या - 18
● महाभारत में 18 पर्व हैं
★ श्रीमद्भागवत पुराण में 18,000 श्लोक हैं
◆ जरासंध मथुरा पर 18 बार आक्रमण किया
● गीतामें 18 अध्याय हैं
◆ महाभारत युद्ध 18 दिन चला
● युद्ध में 18 अक्षौहिणी सेनाएं भाग ली
और अब आगे ⬇️
● एक अक्षौहिणी में 21870 रथ और इतने ही हाँथी थे ।
● ऊपर की संख्या 21870 के अंकों के जोड़ को देखिये ( 2 + 1 + 8 +7 + 0 = 18 ) ; है , न मजेदार गणित !
● घुड़सवारों की संख्या 65,610 थी अब इस सांख्य के अंकों के योग को देखें ( 6 + 5 + 6 + 1 + 0 = 18 ) , यह गणित भी कैसी लगी , आपको !
● पैदल योद्धाओं की संख्यस 1, 09, 350 थी , अब इस संख्या के अंकों के जोड़ को देखिये ( 1 + 0 + 9 + 5 + 0 = 18 ) ; है , न मजेदार गणित !
🌷रथ , हांथी , घुड़सवार और पैदल सैनिकों की संख्यायों में 1:1:3:5 का अनुपात था ।
अब इसे भी देखें ⤵️
🌷 महाभारत युद्ध में 18 अंक के गहरे राज में 1 + 8 = 9 अर्थात 9 ग्रह की छाया को भी समझ लें 🌷
~~◆◆ ॐ ◆◆~~
Tuesday, November 30, 2021
गीता अध्याय - 15 हिंदी भाषान्तर
गीता अध्याय : 15 का सार …
◆ प्रभुका परमधाम स्व प्रकाशित है , उसे सूर्य - चंद्र प्रकाशित नहीं करते ।
◆ जीवात्मा प्रभुका अंश है ।
◆ देह त्यागके समय देहके ईश्वर ( अर्थात जीवात्मा ) के संग मन सहित इन्द्रियाँ भी होती हैं ( गीता : 15.8 ) । ★ मन सहित ज्ञान इंद्रियोंको लिंग शरीर कहते हैं
( भागवत : 11.22.36 ) ।
● भागवत : 3.25 > मन बंधन मोक्षका माध्यम है।
<> गीता श्लोक : 15.8 के साथ गीता श्लोक : 8.5 और 8.6 को भी देखें ।
● यत्नशील योगी आत्माकी अनुभूति अपने हृदयमें करता है।
◆ सूर्य , चन्द्रमा और अग्निका तेज प्रभु श्री कृष्ण हैं ।
● पृथ्वी की धारण शक्ति , भोजन पचाने की ऊर्जा वैश्वानर भी प्रभु हैं ।
◆ सबके हृदय में स्थित प्रभु स्मृति , ज्ञान एवं सभीं प्रकार के भाव उत्पन्नके की ऊर्जा पैदा करते हैं ।
सनातन ऊर्ध्वमूल अश्वत्थम् बृक्ष के सम्बन्ध में गीता श्लोक : 15 .1 - 15.4 हैं ।
सनातन ऊर्ध्वमूल अश्वत्थम् बृक्ष क्या है ?
1 - भागवत : 10.2.26 - 30
जब देवकी का गर्भ रोहिणी के गर्भ में स्थानांतरित कर दिया गया था तब अन्य देवताओं - ऋषियों रहित नारद कंस के कारागार में आये और प्रभु की जो प्रार्थना की उसमें संसार बृक्ष के सम्बन्ध में निम्न बातें कही हैं ⤵️
👉प्रकृति सनातन ऊर्ध्वमूल अश्वत्थम् बृक्ष का आश्रय है ।
👉 इसके सुख - दुःख दो फल हैं ।
👉तीन गुण इसकी तीन जड़े हैं ।
👉 काम , अर्थ , धर्म और मोक्ष ( पुरुषार्थ ) चार रस हैं ।
👉 05 ज्ञान इन्द्रियां इस बृक्ष के जानने के माध्यम हैं ।
👉 इसके 06 स्वभाव ( पैदा होना , रहना , बढ़ना , बदलना , घटना , नष्ट होना ) हैं ।
👉 इसकी 07 धातुएं ( रस , रुधिर , मांस , मेद , अस्थि , मज्जा , शुक्र ) हैं ।
👉 इसकी 08 शाखाये ( 05 महाभूत , मन , बुद्धि , अहँकार ) हैं ।
👉 इसके 09 द्वार हैं - गीता : 5.13 में भी 09 द्वारों की बात कही गयी है ( 09 द्वार > 2 कान , 2 आँख , 2 नासिका छिद्र , 1 मुख , 1 मल द्वार , 1 जननेन्द्रिय )
👉 10 प्राण ( प्राण , अपान , व्यान , उदान , समान , नाग , कूर्म , कृकल , देवदत्त , धज्जय ) इसके पत्ते हैं ।
गीता अध्याय - 15 के बिषय ⤵️
श्लोक | बिषय | योग |
1 - 4 | ऊर्ध्व मूल अश्वत्थ वृक्ष | 04 |
5 - 6 | समभाव , परम पद | 02 |
7 - 11 | आत्मा | 05 |
12 - 15 + 18 - 20 | कृष्ण से सम्बंधित | 07 |
16 - 17 | ◆ दो प्रकार के पुरुष ◆ उत्तम पुरुष | 02 |
योग ➡️ | ➡️ | 20 |
गीता अध्याय : 15 के श्लोकों का हिंदी भाषान्तर ⤵️
श्लोक : 1 - 4 तक अश्वत्थ वृक्ष का वर्णन⤵️
श्लोक : 1 अश्वत्थ वृक्ष ⤵️
संसार एक ऊर्ध्व मूल अश्वत्थबृक्ष जैसा है जिसकी शाखायें ब्रह्मा रूप हैं , जो अव्यय है ,जिसके पत्ते छंद हैं , इसे जो समझता है , वह वेदवित् होता है ।
अश्वत्थ वृक्ष क्रमशः ⤵️
श्लोक : 2अश्वत्थ वृक्ष⤵️
अधः च ऊर्द्धम् प्रसृता : तस्य शाखा : गुणप्रवृद्धा :
विषयप्रवाला : अधः च मूलानि अनुसंततानि ..
कर्मानुबंधीनि मनुष्यलोके ।।
➡️ संसार वृक्ष की जल रूप तीन गुणों द्वारा सिंचित विषय - भोग रूपी कोंपलों वाली देव , मनुष्य और तिर्यक अदि रूपी शाखाएं ऊपर - नीचे - सर्वत्र फैली हुई हैं । कर्मानुसार बांधने वाली अहंता , ममता और वासना रूप उसकी जड़ें नीचे - ऊपर सभीं लोकों में व्याप्त हैं ।
अश्वत्थ वृक्ष क्रमशः ⤵️
श्लोक : 3 अश्वत्थ वृक्ष ⤵️
➡️ इसका रूप जैसा है , वैसा यहाँ नहीं मिलता । यह आदि - अंत रहित है और अच्छी प्रकारसे इसकी स्थिति भी नहीं है । अतः इसकी सुविरुढमूलों ( अति दृढ ) को दृढ़ असङ्गशस्त्र ( वैराग्य ) से काट कर …
अश्वत्थ वृक्ष क्रमशः ⤵️
श्लोक : 4 अश्वत्थ वृक्ष ⤵️
➡️ उस परमपदको खोजना चाहिए जिसकी प्राप्ति से आवागमन से मुक्ति मिल जाती है । अतः जिस परमेश्वर से यह संसाररूपी उर्ध्वमूल वृक्ष है , उसे हमें मनन करना चाहिए ।
श्लोक : 5 >समभाव
➡️ जो अध्यात्म में लीन हैं और ऐसे जो मान - मोह , आसक्ति , कामना , द्वन्द्व और दोष से विमुक्त हैं , वे अमूढ़ ( ज्ञानी ) अव्यय परम पद को प्राप्त होते हैं ।
श्लोक : 6 >समभाव
➡️ जिस परम पद की प्राप्ति से आवागमन से मुक्ति मिलती है , उसे सूर्य , चंद्रमा और अग्नि प्रकाशित नहीं कर सकते और वही मेरा परम धाम है ।
श्लोक : 7 > जीवात्मा
➡️जीव लोक में ( देह में ) सनातन जीवभूत (जीवात्मा ) मेरा ही अंश है जो षष्ठ इन्द्रियों ( मन सहित 05 ज्ञान इन्द्रियों ) को आकर्षित करता है
श्लोक : 8 > लिंग शरीर
➡️ जैसे वायु गंध के स्थान से गंध को ग्रहण करके अपनें साथ ले जाता है वैसे ईश्वर ( जीवात्मा ) जिस देह का त्याग करता है , वह उस देह से षष्ठ इन्द्रियों को अपनें साथ ले जाता है और दूसरे शरीर को धारण करता है ।
यहाँ गीता श्लोक : 8.5 - 8.6 को भी देखे जिनका सार कुछ इस प्रकार से है ⤵️
⚛ जो अंत समय में मुझे अपनी स्मृति में बनाये रखते
हैं , वे मुझमें पहुँचते हैं ।
⚛ अंत समय का गहरा और स्थिर भाव , उसके अगली योनि को निर्धारित करता है ।
श्लोक : 9 >जीवात्मा ( ईश्वर )
🕉️ यह ईश्वर (जीवात्मा ) 06 इन्द्रियों ( मन + 05 ज्ञान इंद्रियों ) के माध्यम से बिषयों का उपसेवन करता है।
🐧यहाँ उपसेवन शब्द को समझें
श्लोक : 10 >जीवात्मा
➡️अज्ञानी जन शरीर छोड़ कर जाते हुए को अथवा शरीर में स्थित रहनेवाले को अथवा बिषय भोक्ताको अथवा तीन गुणों से युक्तहुए को नहीं जानते ।
(अर्थात मूढ़ ब्यक्ति पुरुष - प्रकृति को नहीं समझता )
श्लोक : 11> जीवात्मा
➡️ यत्नशील योगी अपनें हृदय में स्थित जीवात्मा को देखते हैं किंतु अचेतन यत्न करने पर भी नहीं देख पाते ।
श्लोक : 12- 15 >कृष्ण से सम्बंधित
श्लोक : 12
➡️ सूर्य - चंद्रमा - अग्निके तेज को मेरा ही तेज जान ।
श्लोक : 13
◆ मैं पृथ्वीमें प्रवेश करके अपनीं ऊर्जा से सभीं भूतोंको धारण करता हूँ ।
◆ रसात्मक चंद्रमा होकर ओषधियों को पुष्ट करता हूँ ।
श्लोक : 14
➡️ सभीं प्राणियों के देह में स्थित प्राण - अपानयुक्त वैश्वानर अग्नि हूँ जो 04 प्रकारके अन्नको पचाता हूँ ।
04 प्रकार का अन्न
1 - भक्ष्य > चबाकर जो खाये जाते हैं ।
2 - भोज्य > जिन्हें निगल कर खाते हैं जैसे दूध आदि ।
3 - लेह्य > जिनको चाट कर खाते हैं जैसे चटनी ।
4 - चोष्य > जिन्हें चूसा जाता है जैसे ईंख
श्लोक : 15
◆ मैं सबके हृदय में अंतर्यामी रूपसे स्थित हूँ ।
◆ मुझसे स्मृति , ज्ञान , अपोहन ( संदेह आदि दोषों को निर्मूल करनें की ऊर्जा ) है ।
◆ मैं सब वेदों से जानने योग्य हूँ ।
यहाँ देखें > गीता : 18.61 , 7.12 को भी देखें जो निम्न प्रकार हैं ⏬
● ईश्वर सबके हृदय में स्थित हैं ।
● तीन गुणों के भाव मुझसे हैं लेकिन उन भावों में मैं नहीं होता ।
श्लोक : 16 > पुरुष
संसार में दो प्रकार के पुरुष हैं ; क्षर और अक्षर ;
देह क्षर है और जीवात्मा ( कूटस्थ ) अक्षर है ।
श्लोक : 17 > पुरुष
उत्तम पुरुष अन्य है जो तीनों लोकों में प्रवेश करके सबका धारण - पोषण ( बिभर्ति ) करता है । इसे अव्यय , ईश्वर एवं परमात्मा कहा जाता है ।
श्लोक : 18 - 20 > कृष्ण सम्बंधित
श्लोक : 18
क्योंकि मैं क्षर से अतीत , अक्षर से भी उत्तम हूँ अतः लोकमें और वेदों में मुझे पुरुषोत्तम कहा जाता है ।
श्लोक : 19
जो ज्ञानी मुझे पुरुषोत्तम समझता है वह सर्वज्ञ पुरुष मुझे ही भजता है ।
श्लोक : 20
हे निष्पाप अर्जुन !
मेरे द्वारा यह अति गोपनीय शास्त्र कहा गया , इसको तत्त्व से जानकार मनुष्य ज्ञानी और कृतार्थ हो जाता है ।
कृतार्थ कौन है ? इसे पतंजलि योग में देखें ⬇️
पतंजलि साधन पाद सूत्र : 22
सूत्र : 22 >कृतार्थ कौन है ?
कृत + अर्थ , प्रति , नष्टम् +अपि +अनष्टम् + तत + अन्य + साधारण + त्वात
अपने प्रयोजन को प्राप्त मुक्त पुरुष के लिए जो पाना था
( अपने मूल स्वभाव को पाना था ) , उसे पा लिया हो , जो जानना था ( प्रकृति - पृरुष अलग - अलग हैं यह जानना था ) , उसे जान लिया है और जो करना था (कैवल्य तक कि यात्रा करनी थी ) , वह कर लिया है ऐसा पुरुष कृतार्थ होता है । ऐसा पुरुष प्रकृति से अप्रभावित रहता है ।
★ कृतार्थ के लिए प्रकृतिका कोई स्वरुप नहीं , सामान्य ब्यक्ति के लिए प्रकृति का स्वरुप है ।
★ तीनों गुणों से अछूता , कृतार्थ कहलाता है अर्थात
कृतार्थ गुणातीत प्रभुतुल्य होते हैं ।
~~◆◆ ॐ ◆◆~~