Wednesday, September 10, 2025

कर्म , उपासना और ज्ञान


वेद के तीन खंड हैं ; कर्म , उपासना और ज्ञान। वैदिक कर्म दो प्रकार के हैं ; प्रवृत्ति परक और निवृत्ति परक। कर्म बंधनों के प्रभाव में जो कर्म होते हैं , वे प्रवृत्ति परक कर्म है और बंधन मुक्त कर्म निवृत्ति परक कर्म हैं। तीन गुणों की वृत्तियों को कर्म बंधन कहते हैं जैसे आसक्ति , कामना , क्रोध , लोभ , मोह , भय , आलस्य और अहंकार आदि। सकाम यज्ञ कर्मों को निष्काम यज्ञ कर्मों में रूपांतरित करना , उपासना है जो वेदों के ब्राह्मण एवं आरण्यक ग्रंथों से उपजती है । जब उपासना सघन हो जाती है तब वैराग्य घटित होता है और वेद साधक स्व केंद्रित एकांतवासी रहते हुए उपनिषद् केंद्रित रहता हुआ कैवल्यमुखी हो जाता है। 

 यज्ञ , अनुष्ठान और बाह्य कर्मकांड केंद्रित 04 वेद ( ऋग्वेद , यजुर्वेद , सामवेद , अथर्ववेद ) हैं । इच्छित कामना पूर्ति के लिए देवताओं की स्तुति , मंत्र , यज्ञ विधियां एवं सामाजिक - धार्मिक नियम आदि भी वेदों में विस्तार से व्यक्त किए गए हैं । उपनिषदों का केंद्र ब्रह्म एवं जीवात्मा एकत्व की अनुभूति है।

हर वेद के अपने देवता हैं जिनमें अग्नि , इंद्र , वरुण , सोम , पृथ्वी , वायु , सूर्य , रुद्र  आदि जैसे देवताओं की स्तुतियां, यज्ञों का विधान, प्रकृति की उपासना एवं समाज के लिए नैतिक उपदेशों को स्पष्ट किया गया है ।

 अज्ञान से ज्ञान की ओर की यात्रा , अंधकार से प्रकाश की  ओर की यात्रा. जीवात्मा एवं ब्रह्म संबंध , मोक्ष रहस्य , माया रहस्य , प्रवृत्ति  परक एवं निवृत्ति परक कर्मों का रहस्य, आवागमन एवं पुनर्जन्म रहस्य और ॐ रहस्य आदि उपनिषदों के मूल विषय हैं ।

बाह्य कर्मकांड में संलग्न लोग वेद पाठक होते हैं जबकि उपनिषद  केंद्रित सत्य जिज्ञासु होते हैं ।

वेदके 04 अंग हैं : संहिता,ब्राह्मण,आरण्यक और उपनिषद्। संहिता मूल सूत्रों का संग्रह है जिनके आधार पर निर्मित ब्राह्मण , आरण्यक और उपनिषद् हैं। ब्राह्मण ग्रन्थ बहुत जर्म कांडों को स्पष्ट करते हैं । आरण्यक ब्राह्मण ग्रंथों की अनुभूति पर चिंतन करने की राह दिखाते हैं और उपनिषद् कैवल्य मुखी बनाते हैं। वेदके ब्राह्मण एवं आरण्यक ग्रन्थ बाह्य अनुष्ठानों को महत्व देते हैं, जबकि उपनिषद आंतरिक चिंतन और आत्मा-परमात्मा के एकत्व रहस्य को स्पष्ट करते हैं ।

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय - 2 श्लोक : 42 - 47 को यहां समझना चाहिए जिनका सार कुछ निम्न प्रकार से है …

भोग आसक्त , कर्म फल प्रशंसक वेद वाक्यों से आकर्षित, स्वर्ग प्राप्ति को ही परम लक्ष्य रूप में देखने वाले , अविवेकी लोग होते हैं, जो वेद की उन वाणियों से सम्मोहित रहते हैं जो कर्म फल प्राप्ति , भोग प्राप्ति एवं ऐश्वर्य प्राप्ति को बहुत आकर्षित रूप से प्रस्तुत करती हैं। ऐसे लोगों की बुद्धि निश्चयात्मिका बुद्धि नहीं होती। वेद त्रिगुणी भोगों एवं उनको प्राप्ति करने के साधनों का प्रतिपादन करते हैं और प्रभु श्री कृष्ण आगे कहते  हैं , हे अर्जुन ! तूं ऐसा समझ कि जैसे एक सब ओर से परिपूर्ण जलाशय के प्राप्त हो जाने पर मनुष्य का छोटे जलाशय से जितना प्रयोजन रह जाता है उतना ही तत्त्व ज्ञानी का प्रयोजन समस्त वेदों से रह जाता है । तुम कर्म करने के अधिकारी हो न कि इच्छित कर्म फल प्राप्ति के अधिकारी हो अतः तुम निष्काम कर्म  केंदित रहने का अभ्यास करते रहो।

।। ॐ ।।


No comments:

Post a Comment

Followers