जिसको भौरों की गुंजन एवं समुद्र की लहरों में ॐ सुनाई पड़ता हो-------
जो हर पल प्रकृत को मुस्कुराता देखता हो -------
जिसको हिमालय की शून्यता में परम शून्यता सुनाई पड़ती हो-------
जिसको गंगा की लहरों में गायत्री की धुन मिलती हो ------
जिसको यह संसार एक रंग शाला सा दीखता हो -------
जिसको कोई पराया न दीखता हो ------
वह परमात्मा को खोजता नहीं स्वयं परमात्मातुल्य होता है ।
आज परमात्मा की खोज का बहुत बड़ा ब्यापार चल रहा है; कोई स्वर्ग का रास्ता दिखा रहा है तो कोई स्वर्ग का टिकट बेच रहा है लेकिन ज़रा सोचना --खोज किसकी संभव हो सकती है ?खोज उसकी संभव है
जो खो गया हो
जिसके रूप-रंग, ध्वनि , आकार-प्रकार एवं गंध तथा संवेदना का कोई अनुमान हो।
क्या हमें परमात्मा को पहचाननें वाले तत्वों का पता है ? सीधा उत्तर है--नहीं फ़िर हम कैसे उसे खोज रहें हैं ?
क्या पता परमात्मा हमारे ही घर में हो ?
क्या पता परमात्मा हमारे साथ-साथ रहता हो ?
क्या पता हम पमात्मा से परमात्मा में हों ?
क्या कभीं हम इन बातों पर सोचे हैं ? यदि उत्तर है-नहीं तो आप अपनी बाहर की खोज के रुख को बदलिए
अंदर की ओर और खोजिये अपनें केन्द्र को । जिस दिन एवं जिस घड़ी आप अपनें केन्द्र पर पहुंचेंगे उस घड़ी आप के अंदर इन्द्रीओं से बुद्धि तक बहनें वाली ऊर्जा का रूपांतरण हो जाएगा और तब जो दिखेगा वह होगा -------
परमात्मा ।
परमात्मा मन-बुद्धि की शून्यता का दूसरा नाम है और इसकी अनुभूति अब्याक्तातीत होती है।
भाषा बुद्धि की उपज है और भाव ह्रदय में बहती लहरें हैं जो भावातीत से उठती हैं --भावों के माध्यम से भावातीत
की अनुभूति ही परमात्मा है।
======ॐ====
Tuesday, September 29, 2009
Monday, September 28, 2009
ध्यान से नहीं ध्यान में----भाग-२
यहाँ आप देखिये गीता के निम्न श्लोकों को ----------------
4.38 10.20 13.2 13.17 13.22 13.24 13.33 15.7 15.11 15.15 18.61
यहाँ गीता कहता है ................
मनुष्य के ह्रदय में स्थित आत्मा ही परमात्मा है जिस की अनुभूति योग सिद्धि पर मिले ज्ञान से होती है । ज्ञान वह है जिस से क्षेत्र-क्षेत्रग्य का बोध हो । उठाइये गीता और रमजाइए इन श्लोकों में यदि आप अपनें ह्रदय-कपाट को खोलना चाहते हैं ।
गीता गणित को समझनें के लिए बुद्धि चाहिए न की मात्र पढनें की औपचारिता । आज हम जिसको भक्ति की संज्ञा देते हैं ऐसी भक्ति से गीता के श्लोकों में छिपे परम श्री कृष्ण के स्वरों को पकड़ना असंभव होगा।
ध्यान विधियों से गुजरनें से सत की झलक मिलती hai - ऐसी बात सत्य नहीं हैं , ध्यान में दूबनें से सत्य की झलक अवश्य मिलती है , यह सत्य है । ध्यान में जब कोई पुरी गहराई में पहुंचता है तब उसके अंदर ऐसा क्या घटित होता है की वह जो देखता है उसको कोई अन्य सामान्य ब्यक्ति नहीं देख सकता।
अर्जुन को परम कृष्ण और संजय को वेद ब्यास जी दिब्य नेत्र दिए थे जिसके कारण अर्जुन उन्के ऐश्वर्य रूपों को देख पाए और संजय धर्म क्षेत्र कुरुक्षेत्र में जन्में गीता को देख एवं सुन पाए थे [gita 11।8, 18।75 ] .
गीता कहता है -ब्रह्म की अनुभूति मन-बुद्धि से परे की है [ गीता-12.3,12.4 ] तो क्या ध्यान में ध्यानी मन-बुद्धि से परे की स्थिति में होता है ?
विज्ञानं कहता है --मनुष्य की आँखें दो पिक्साल वाले डिजीटल बायो कैमरे की तरह हैं जिनमें देखनें का काम रोड तथा कोंन करते हैं । कोन दिन में देखते हैं जो रंगों को पहचानते हैं और राड्स [rods] रात में देखनें का काम करते है । राड्स सफ़ेद एवं काले रंगों में किसी को प्रतिबिम्ब की तरह से देख पाते है । ऐसा कहा जाता है की जानवरों को भुत-प्रेत एवं आत्माएं दिखाती हैं और अधिकाँश मंशाहारी जानवर रात में शिकार करते हैं अर्थात इनमें राड्स अधिक शक्तिशाली होते हैं । राड्स के देखनें की क्षमता कोन से हजारगुना अधिक होती है और ये फोटान को भी देख सकते हैं --ऐसी बात वैज्ञानिक बताते हैं ।
ध्यान में आँखें बंद रहती है और अधिकांश लोग गुफाओं आदि में ध्यान करते हैं जहा अँधेरा होता है । लंबे समय तक ध्यान में रहनें वालों की आँखों के राड्स ज्यादा सक्रीय हो जाते है और वे वह सब कुछ देख पाते हैं जो एक आम आदमी के लिए निराकार हैं । आत्मा-परमात्मा क्या हैं ? राम कृष्ण परम हंस के लिए परमात्मा साकार है और हम सब के लिए निराकार । आत्मा से आत्मा में केंद्रित ब्यक्ति के लिए कुछ भी निराकार नहीं होता और आम आदमी के लिए वह सब निराकार है जो उनके मन-बुद्धि से परे है ।
कहते हैं--ध्यान में इन्द्रीओं से बुद्धि तक बहनें वाली उर्जा निर्विकार हो जाती है जिस से उस ब्यक्ति को निराकार ब्रह्म साकार रूप में दिखानें लगता है और वह जो कुछ भी बोलता है उसकी बातों पर कोई यकींन नहीं करता।
क्या आप ध्यान के माध्यम से अपनी आंखों के राड्स को सक्रीय करके निराकार में पहुँचना चाहते हैं ?यदि हाँ तो देर किस बात की उठाइए गीता अभी और इसी वक्त।
Saturday, September 26, 2009
ध्यान से नहीं,ध्यानमें
ध्यानसे नहीं ध्यानमें परमात्मा की अनुभूति होती है । ध्यान में डूबा ब्यक्ति परिधि से केन्द्र की यात्रा पर होता है । भोगों एवं विकारों से परिपूर्ण संसार परिधि है और केन्द्र है परमात्मा। ध्यान में परमशून्यता की अनुभूति उस योगी को होती है जिसकी पीठ भोग-संसार की ओर होती है और मन-बुद्धि परमात्मा पर केंद्रित होती है[गीता २.६९]। बिषय संसार में हैं , बिषयों में छिपे राग-द्वेष मन-बुद्धि को केंन्द्र की ओर आनें नहीं देते क्योंकि इन्द्रीओं का स्वभाव है बिषयों में रमन करना [ गीता ३.३४ ]। ध्यान कोई मनोरंजन का बिषय नही , ध्यान जैसे-जैसे आगे बढ़ता है ,मन में भय आनें लगता है और मन की परतें जैसे-जैसे खुलती जाती हैं वैसे-वैसे मन में संच्चित
स्मृतियाँ ताज़ी हो उठती हैं। मन में उठते बिचारों से प्रभावित न हो कर ध्यान में रूकनें पर यात्रा आगे बढती है और ध्यान खंडित होनें पर यथावत स्थिति आ जाती है । ध्यान मनसे प्रारंभ होता है और मन की शून्यता में समाप्त होता है। मन में विचारों के उतार-चढाव से मन-ऊर्जा की आब्रितियाँ [frequencies] बढती एवं घटती रहती हैं फल स्वरुप अपांन वायु तथा प्राण वायु का संतुलन भी ख़राब हो जाता है। बिचारों को समझ कर निर्विचार होना ही ध्यान है [गीता ६.२६ ] ।
ध्यान करना एक माध्यम है जिस से मन-बुद्धि निर्विकार हो सकते है और जब ऐसा होता है तब .............
तन-मन एवं बुद्धि में बहनें वाली ऊर्जा रूपांतरित हो जाती है और मन की शून्यता पर ब्रह्म प्रतिबिंबित होता है ।
======ॐ=========
स्मृतियाँ ताज़ी हो उठती हैं। मन में उठते बिचारों से प्रभावित न हो कर ध्यान में रूकनें पर यात्रा आगे बढती है और ध्यान खंडित होनें पर यथावत स्थिति आ जाती है । ध्यान मनसे प्रारंभ होता है और मन की शून्यता में समाप्त होता है। मन में विचारों के उतार-चढाव से मन-ऊर्जा की आब्रितियाँ [frequencies] बढती एवं घटती रहती हैं फल स्वरुप अपांन वायु तथा प्राण वायु का संतुलन भी ख़राब हो जाता है। बिचारों को समझ कर निर्विचार होना ही ध्यान है [गीता ६.२६ ] ।
ध्यान करना एक माध्यम है जिस से मन-बुद्धि निर्विकार हो सकते है और जब ऐसा होता है तब .............
तन-मन एवं बुद्धि में बहनें वाली ऊर्जा रूपांतरित हो जाती है और मन की शून्यता पर ब्रह्म प्रतिबिंबित होता है ।
======ॐ=========
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