Saturday, September 26, 2009

ध्यान से नहीं,ध्यानमें

ध्यानसे नहीं ध्यानमें परमात्मा की अनुभूति होती है । ध्यान में डूबा ब्यक्ति परिधि से केन्द्र की यात्रा पर होता है । भोगों एवं विकारों से परिपूर्ण संसार परिधि है और केन्द्र है परमात्मा। ध्यान में परमशून्यता की अनुभूति उस योगी को होती है जिसकी पीठ भोग-संसार की ओर होती है और मन-बुद्धि परमात्मा पर केंद्रित होती है[गीता २.६९]। बिषय संसार में हैं , बिषयों में छिपे राग-द्वेष मन-बुद्धि को केंन्द्र की ओर आनें नहीं देते क्योंकि इन्द्रीओं का स्वभाव है बिषयों में रमन करना [ गीता ३.३४ ]। ध्यान कोई मनोरंजन का बिषय नही , ध्यान जैसे-जैसे आगे बढ़ता है ,मन में भय आनें लगता है और मन की परतें जैसे-जैसे खुलती जाती हैं वैसे-वैसे मन में संच्चित
स्मृतियाँ ताज़ी हो उठती हैं। मन में उठते बिचारों से प्रभावित न हो कर ध्यान में रूकनें पर यात्रा आगे बढती है और ध्यान खंडित होनें पर यथावत स्थिति आ जाती है । ध्यान मनसे प्रारंभ होता है और मन की शून्यता में समाप्त होता है। मन में विचारों के उतार-चढाव से मन-ऊर्जा की आब्रितियाँ [frequencies] बढती एवं घटती रहती हैं फल स्वरुप अपांन वायु तथा प्राण वायु का संतुलन भी ख़राब हो जाता है। बिचारों को समझ कर निर्विचार होना ही ध्यान है [गीता ६.२६ ] ।
ध्यान करना एक माध्यम है जिस से मन-बुद्धि निर्विकार हो सकते है और जब ऐसा होता है तब .............
तन-मन एवं बुद्धि में बहनें वाली ऊर्जा रूपांतरित हो जाती है और मन की शून्यता पर ब्रह्म प्रतिबिंबित होता है ।

======ॐ=========











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