गीता में अर्जुन के आठवें प्रश्न का दूसरा भाग इस प्रकार है-----
अर्जुन पूछ रहे हैं … ......
किम् अध्यात्मम्?
अर्थात अध्यात्म क्या है ?
उत्तर में प्रभु श्री कृष्ण कहते हैं -----
स्वभाव:अध्यात्मम् उच्यते …........गीता श्लोक –8.3
अर्जुन पूछ रहे हैं , “ अध्यात्म किसको कहते हैं ? “ और प्रभु उत्तर में मात्र इतना कह रहे हैं , “ मनुष्य का स्वभाव ही उसका अध्यात्म है / “ अब प्रश्न यह उठता है कि आखिर मनुष्य का स्वभाव क्या है ?
गीता में यदि आप गीता सूत्र – 18..59 , 18.60 , 3.5 , 3.27 एवं 3.33 को देखें तो यह बात सामनें आती है … ......
"तीन गुणों की ऊर्जा से मनुष्य का स्वभाव बनता है और स्वभाव से कर्म होता है/ “
गुण साधना में गुणों के प्रति होश बना कर जब साधक गुणातीत स्थिति में पहुँचता है तब उसे वह सब अकर्म दिखनें लगता है जिसे वह अभीं तक कर्म समझता रहा होता है और अभीं तक जिनको अकर्म समझता रहा होता है वह कर्म के रूप में दिखनें लगता है[यहाँ आप गीता सूत्र –4.18को भी देखें] /
गीता की साधना मूलतः गुण साधना है जहाँ --------
भोग से योग में प्रवेश करना होता है
योग में वैराज्ञ से उनका सम्बन्ध जुड़ता है
वैराज्ञ में उसे ज्ञान की प्राप्ति मिलती है
ज्ञान वह है जिससे क्षेत्र – क्षेत्रज्ञ का बोध होता है
ज्ञानी कर्म में अकर्म एवं अकर्म में कर्म देखता है
और इस प्रकार …...
गुणातीत में पहुँच कर वह साधक कुछ इस प्रकार का हो जाता है … ...
या निशा सर्वभूतानां तस्याम् जागर्ति संयमी
यस्याम् जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुने:
और इस प्रकार के योगी का स्वभाव अध्यात्म होता है //
==== ओम्========
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