Sunday, October 28, 2012

गीता के तीन सूत्र

गीता सूत्र - 5.26
काम - क्रोध विमुक्त ब्रह्म निर्वाण प्राप्त करता है
गीता सूत्र - 3.37
काम - क्रोध राजस गुण के तत्त्व हैं
गीता सूत्र - 2.62
ध्यायतः बिशायान् पुंसः संग तेषु उपजायते
संगात् संजायते कामः कामात् क्रोधः अभिजायते
बिषय का चिंतन आसक्ति की जननी है
आसक्ति से काम [ कामः उपजायते ] उपजता है
काम से [ कामात् ] क्रोध उत्पन्न होता है
इस सूत्र में काम शब्द का अर्थ कामना लगभग सभीं टीकाकार लगाते हैं लेकिन काम , कामना , क्रोध एवं लोभ एक ऊर्जा से हैं जिसको राजस गुण कि ऊर्जा कहते हैं /
विमुक्त  का अर्थ यह नहीं कि काम -  क्रोध को त्यागा जाए , जहाँ त्याग कृया के रूप में प्रयोग किया जाता है वहाँ अहँकार सघन होनें का मार्ग मिलता है और जब होश में काम - क्रोध स्वतः विसर्जित होते हैं वहाँ ब्रह्म निर्वाण की ओर रुख हो जाता है /
अब आप गीता के इन तीन सूत्रों को मिला कर एक सोच पैदा करे जो आप को ब्रह्म निर्वाण की ओर ले जाए जो मनुष्य योनि का परम लक्ष्य है /
==== ओम् =====

Thursday, October 18, 2012

कर्म - योग समीकरण [ 1 ]

गीता श्लोक - 2.60

" मन आसक्त इंद्रिय का गुलाम  है "

गीता श्लोक - 2.67

" बुद्धि आसक्त मन का गुलाम है "

प्रकृति से प्रकृति में मनुष्य परम् पुरुष को खोज रहा है और इस खोज में उसका भौतिक अस्तित्व तो प्रकृति में बिलीन हो जाता है पर उसकी यह खोज भीर भी जारी रहती है /
 गीता में प्रभु श्री कृष्ण कह रहे हैं :-----
" आत्मा जब देह त्यागता है तब अपनें साथ इंद्रियों को एवं मन को ले जाता है "
------ गीता - 15.8 -------
" मनुष्य जब आखिरी श्वास भर रहा होता है उस समय की गहरी सोच उसके अगले योनि को निर्धारित करती है "
----- गीता - 8.5 , 8.6
यहाँ दो श्लोक उस खोज को समझनें के सम्बन्ध में दिए गए हैं / आखिरी श्वास भरते समय यदि मन - बुद्धि रिक्त हों तो उस ब्यक्ति को परम गति मिलती है और परम गति का अर्थ है उसकी आत्मा का अपनें मूल श्रोत परम आत्मा में विलीन हो जाना /
इंद्रियों का स्वभाव है अपनें - अपने बिषयों में भ्रमण करना और बिषयों में भरे राग - द्वेष [ गीता - 3.34 ] उनको सम्मोहित करते रहते हैं और यः सम्मोहन मनुष्य को योग से भोग में ला खडा करता है /
गीता श्लोक - 2.64 के माध्यम से प्रभु कहते हैं , राग - द्वेष से अछूता ब्यक्ति हमारा अनन्य भक्त होता है , अनन्य भक्त वह जो प्रभु जैसा ही होता है और अपनें मृत्यु का द्रष्टा होता है /

कर्म - योग का पहला चरन है ----
बिषयों के स्वभाव को हर पल समझते रहना
और
ज्ञानेन्द्रियों की चाल पर नजर रखना
==== ओम् =====

Tuesday, October 9, 2012

गीता श्लोक - 2.64 , 2.65


रागद्वेषवियुक्तै : तु विषयां इन्द्रियै : चरन्
आत्मवश्यै : विधेयात्मा प्रसादं अधिगच्छति //
गीता - 2.64

प्रसादे सर्व दु : खानां हानि : अस्य उपजायते
प्रसन्न चेतसः हि आश बुद्धि : पर्यतिष्ठते //
गीता - 2.65

जिसकी इन्द्रियाँ राग - द्वेष रहित हैं उसकी इन्द्रियाँ बिषयों का द्रष्टा होती है और वह प्रभु - प्रसाद प्राप्त ब्यक्ति होता है

ऐसा ब्यक्ति प्रसन्न चित्त वाला  सभीं प्रकार के दुखों से परे प्रभु केंद्रित होता है

 यहाँ गीता के दो सूत्र कर्म - योग एवं ज्ञान - योग के प्रारंभिक  चरण  को ब्यक्त कर रहे हैं /
प्रभु अर्जुन से कह रहे हैं , हे अर्जुन ! ऐसा ब्यक्ति जिसकी इन्द्रियाँ
अपनें - अपनें बिषयों में  भ्रमण करती हों  पर बिषयों में उपस्थित राग - द्वेष कि ऊर्जा से यदि [ यहाँ आप देखें गीता सूत्र - 3.34 ; जो कहता है , सबहीं बिषयों में राग - द्वेष की उर्जा होती है ] आकर्षत न होती हों तो ऐसा ब्यक्ति सभीं दुखों से दूर रहता है और उसके जीवन का केंद्र मैं होता हूँ /

यहाँ गीता बहुत गहरी बात कह रहा है , इसे एक बार और समझलें -----
मनुष्य की इन्द्रियाँ अपनें - अपनें बिषयों में भ्रमण तो करें लेकिन उनसे सम्मोहित न हो , बिषयों का मात्र द्रष्टा बनी रहें /
प्रभु की यह बात सुननें में जितनी सरल दिख रही है साधना में उतनी ही कठिन भी है और जो इस साधना की सीढ़ी को पार कर गया , वह हो गया ब्रह्मवित् /
=== ओम् ======

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