रागद्वेषवियुक्तै : तु विषयां इन्द्रियै : चरन्
आत्मवश्यै : विधेयात्मा प्रसादं अधिगच्छति //
गीता - 2.64
प्रसादे सर्व दु : खानां हानि : अस्य उपजायते
प्रसन्न चेतसः हि आश बुद्धि : पर्यतिष्ठते //
गीता - 2.65
जिसकी इन्द्रियाँ राग - द्वेष रहित हैं उसकी इन्द्रियाँ बिषयों का द्रष्टा होती है और वह प्रभु - प्रसाद प्राप्त ब्यक्ति होता है
ऐसा ब्यक्ति प्रसन्न चित्त वाला सभीं प्रकार के दुखों से परे प्रभु केंद्रित होता है
यहाँ गीता के दो सूत्र कर्म - योग एवं ज्ञान - योग के प्रारंभिक चरण को ब्यक्त कर रहे हैं /
प्रभु अर्जुन से कह रहे हैं , हे अर्जुन ! ऐसा ब्यक्ति जिसकी इन्द्रियाँ
अपनें - अपनें बिषयों में भ्रमण करती हों पर बिषयों में उपस्थित राग - द्वेष कि ऊर्जा से यदि [ यहाँ आप देखें गीता सूत्र - 3.34 ; जो कहता है , सबहीं बिषयों में राग - द्वेष की उर्जा होती है ] आकर्षत न होती हों तो ऐसा ब्यक्ति सभीं दुखों से दूर रहता है और उसके जीवन का केंद्र मैं होता हूँ /
यहाँ गीता बहुत गहरी बात कह रहा है , इसे एक बार और समझलें -----
मनुष्य की इन्द्रियाँ अपनें - अपनें बिषयों में भ्रमण तो करें लेकिन उनसे सम्मोहित न हो , बिषयों का मात्र द्रष्टा बनी रहें /
प्रभु की यह बात सुननें में जितनी सरल दिख रही है साधना में उतनी ही कठिन भी है और जो इस साधना की सीढ़ी को पार कर गया , वह हो गया ब्रह्मवित् /
=== ओम् ======
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