गीता श्लोक - 2.60
" मन आसक्त इंद्रिय का गुलाम है "
गीता श्लोक - 2.67
" बुद्धि आसक्त मन का गुलाम है "
प्रकृति से प्रकृति में मनुष्य परम् पुरुष को खोज रहा है और इस खोज में उसका भौतिक अस्तित्व तो प्रकृति में बिलीन हो जाता है पर उसकी यह खोज भीर भी जारी रहती है /
गीता में प्रभु श्री कृष्ण कह रहे हैं :-----
" आत्मा जब देह त्यागता है तब अपनें साथ इंद्रियों को एवं मन को ले जाता है "
------ गीता - 15.8 -------
" मनुष्य जब आखिरी श्वास भर रहा होता है उस समय की गहरी सोच उसके अगले योनि को निर्धारित करती है "
----- गीता - 8.5 , 8.6
यहाँ दो श्लोक उस खोज को समझनें के सम्बन्ध में दिए गए हैं / आखिरी श्वास भरते समय यदि मन - बुद्धि रिक्त हों तो उस ब्यक्ति को परम गति मिलती है और परम गति का अर्थ है उसकी आत्मा का अपनें मूल श्रोत परम आत्मा में विलीन हो जाना /
इंद्रियों का स्वभाव है अपनें - अपने बिषयों में भ्रमण करना और बिषयों में भरे राग - द्वेष [ गीता - 3.34 ] उनको सम्मोहित करते रहते हैं और यः सम्मोहन मनुष्य को योग से भोग में ला खडा करता है /
गीता श्लोक - 2.64 के माध्यम से प्रभु कहते हैं , राग - द्वेष से अछूता ब्यक्ति हमारा अनन्य भक्त होता है , अनन्य भक्त वह जो प्रभु जैसा ही होता है और अपनें मृत्यु का द्रष्टा होता है /
कर्म - योग का पहला चरन है ----
बिषयों के स्वभाव को हर पल समझते रहना
और
ज्ञानेन्द्रियों की चाल पर नजर रखना
==== ओम् =====
" मन आसक्त इंद्रिय का गुलाम है "
गीता श्लोक - 2.67
" बुद्धि आसक्त मन का गुलाम है "
प्रकृति से प्रकृति में मनुष्य परम् पुरुष को खोज रहा है और इस खोज में उसका भौतिक अस्तित्व तो प्रकृति में बिलीन हो जाता है पर उसकी यह खोज भीर भी जारी रहती है /
गीता में प्रभु श्री कृष्ण कह रहे हैं :-----
" आत्मा जब देह त्यागता है तब अपनें साथ इंद्रियों को एवं मन को ले जाता है "
------ गीता - 15.8 -------
" मनुष्य जब आखिरी श्वास भर रहा होता है उस समय की गहरी सोच उसके अगले योनि को निर्धारित करती है "
----- गीता - 8.5 , 8.6
यहाँ दो श्लोक उस खोज को समझनें के सम्बन्ध में दिए गए हैं / आखिरी श्वास भरते समय यदि मन - बुद्धि रिक्त हों तो उस ब्यक्ति को परम गति मिलती है और परम गति का अर्थ है उसकी आत्मा का अपनें मूल श्रोत परम आत्मा में विलीन हो जाना /
इंद्रियों का स्वभाव है अपनें - अपने बिषयों में भ्रमण करना और बिषयों में भरे राग - द्वेष [ गीता - 3.34 ] उनको सम्मोहित करते रहते हैं और यः सम्मोहन मनुष्य को योग से भोग में ला खडा करता है /
गीता श्लोक - 2.64 के माध्यम से प्रभु कहते हैं , राग - द्वेष से अछूता ब्यक्ति हमारा अनन्य भक्त होता है , अनन्य भक्त वह जो प्रभु जैसा ही होता है और अपनें मृत्यु का द्रष्टा होता है /
कर्म - योग का पहला चरन है ----
बिषयों के स्वभाव को हर पल समझते रहना
और
ज्ञानेन्द्रियों की चाल पर नजर रखना
==== ओम् =====
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