Tuesday, April 9, 2013

गीता ज्ञान - 17

गीता श्लोक -12.9 + +  6.23 + 8.8

श्लोक - 12.9 

अथ चित्तं समाधातुं न् शक्नोषि मयि स्थिरं 
अभ्यासयोगेन ततः माम् इच्छा आप्तुम् धनञ्जय 

" यदि तुम मुझ में अपनें मन को अचल स्थापित करनें में समर्थ नहीं तो अभ्यास - योग से मुझे प्राप्त करनें की इच्छा कर "

श्लोक - 6.23 

तम्  विद्यात् दुःख संयोग वियोगम् योग सञ्ज्ञितम् 
सः निश्चयेन योक्तब्यः योगः अनिर्विंण्णचेतसा 

" दुःख संयोग रहित होना , योग है , इस बाट को समझते हुए धर्य मन से योग में उतरना चाहिए "

श्लोक - 8.8 

अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना 
परमं पुरुषं दिब्यम् याति पार्थ अनुचितयन् 

" अभ्यास योग में स्थिर चित्त से परम दिब्य पुरुष की अनुभूति होती है "

देखिये गीता में योग की परिभाषा - दुःख संयोग वियोगः इति योगः अर्थात वह जो दुःख से आजाद करे ,
 योग है /
प्रभु युद्ध - क्षेत्र में अर्जुन को कह रहे हैं कि अभीं तुम अपनें चित्त को मेरे ऊपर केंद्रित करनें में सफल यदि नहीं हो रहे तो कोई बात  नहीं , तुम अभ्यास योग में उतरो जिसमें तुम मुझे परम दिब्य पुरुष के रूप में देख सकेगा / 
योग और कर्म का गहरा सम्बन्ध है ; कर्म दो प्रकार के हैं , एक कर्म वह जिसके होनें के पीछे किसी न् किसी गुण की ऊर्जा होती है और दूसरा कर्म वह है जो स्वतः होता है , बिना करण और जिसका केन्द्र भोग नहीं भगवान होता है / वह कर्म जिसका केन्द्र भगवान है , उसे कर्म योग कहते हैं और जिस कर्म के पीछे भोग भाव होता है उसे भोग कहते हैं / 
चाह से साथ हो रहा कर्म भोग है ...
चाह रहित हो रहा कर्म कर्म योग है ....

=== ओम् ======


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