गीता श्लोक -12.9 + + 6.23 + 8.8
श्लोक - 12.9
अथ चित्तं समाधातुं न् शक्नोषि मयि स्थिरं
अभ्यासयोगेन ततः माम् इच्छा आप्तुम् धनञ्जय
" यदि तुम मुझ में अपनें मन को अचल स्थापित करनें में समर्थ नहीं तो अभ्यास - योग से मुझे प्राप्त करनें की इच्छा कर "
श्लोक - 6.23
तम् विद्यात् दुःख संयोग वियोगम् योग सञ्ज्ञितम्
सः निश्चयेन योक्तब्यः योगः अनिर्विंण्णचेतसा
" दुःख संयोग रहित होना , योग है , इस बाट को समझते हुए धर्य मन से योग में उतरना चाहिए "
श्लोक - 8.8
अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना
परमं पुरुषं दिब्यम् याति पार्थ अनुचितयन्
" अभ्यास योग में स्थिर चित्त से परम दिब्य पुरुष की अनुभूति होती है "
देखिये गीता में योग की परिभाषा - दुःख संयोग वियोगः इति योगः अर्थात वह जो दुःख से आजाद करे ,
योग है /
प्रभु युद्ध - क्षेत्र में अर्जुन को कह रहे हैं कि अभीं तुम अपनें चित्त को मेरे ऊपर केंद्रित करनें में सफल यदि नहीं हो रहे तो कोई बात नहीं , तुम अभ्यास योग में उतरो जिसमें तुम मुझे परम दिब्य पुरुष के रूप में देख सकेगा /
योग और कर्म का गहरा सम्बन्ध है ; कर्म दो प्रकार के हैं , एक कर्म वह जिसके होनें के पीछे किसी न् किसी गुण की ऊर्जा होती है और दूसरा कर्म वह है जो स्वतः होता है , बिना करण और जिसका केन्द्र भोग नहीं भगवान होता है / वह कर्म जिसका केन्द्र भगवान है , उसे कर्म योग कहते हैं और जिस कर्म के पीछे भोग भाव होता है उसे भोग कहते हैं /
चाह से साथ हो रहा कर्म भोग है ...
चाह रहित हो रहा कर्म कर्म योग है ....
=== ओम् ======
श्लोक - 12.9
अथ चित्तं समाधातुं न् शक्नोषि मयि स्थिरं
अभ्यासयोगेन ततः माम् इच्छा आप्तुम् धनञ्जय
" यदि तुम मुझ में अपनें मन को अचल स्थापित करनें में समर्थ नहीं तो अभ्यास - योग से मुझे प्राप्त करनें की इच्छा कर "
श्लोक - 6.23
तम् विद्यात् दुःख संयोग वियोगम् योग सञ्ज्ञितम्
सः निश्चयेन योक्तब्यः योगः अनिर्विंण्णचेतसा
" दुःख संयोग रहित होना , योग है , इस बाट को समझते हुए धर्य मन से योग में उतरना चाहिए "
श्लोक - 8.8
अभ्यासयोगयुक्तेन चेतसा नान्यगामिना
परमं पुरुषं दिब्यम् याति पार्थ अनुचितयन्
" अभ्यास योग में स्थिर चित्त से परम दिब्य पुरुष की अनुभूति होती है "
देखिये गीता में योग की परिभाषा - दुःख संयोग वियोगः इति योगः अर्थात वह जो दुःख से आजाद करे ,
योग है /
प्रभु युद्ध - क्षेत्र में अर्जुन को कह रहे हैं कि अभीं तुम अपनें चित्त को मेरे ऊपर केंद्रित करनें में सफल यदि नहीं हो रहे तो कोई बात नहीं , तुम अभ्यास योग में उतरो जिसमें तुम मुझे परम दिब्य पुरुष के रूप में देख सकेगा /
योग और कर्म का गहरा सम्बन्ध है ; कर्म दो प्रकार के हैं , एक कर्म वह जिसके होनें के पीछे किसी न् किसी गुण की ऊर्जा होती है और दूसरा कर्म वह है जो स्वतः होता है , बिना करण और जिसका केन्द्र भोग नहीं भगवान होता है / वह कर्म जिसका केन्द्र भगवान है , उसे कर्म योग कहते हैं और जिस कर्म के पीछे भोग भाव होता है उसे भोग कहते हैं /
चाह से साथ हो रहा कर्म भोग है ...
चाह रहित हो रहा कर्म कर्म योग है ....
=== ओम् ======
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