Tuesday, August 27, 2013

सृष्टि प्रलय सृष्टि

●● सृष्टि - प्रलय - सृष्टि ●●
°° सन्दर्भ - भागवत :-- 2.5+3.5+3.6+3.25-3.27+11.24+11.25 * ब्रह्मा , मैत्रेय , कपिल और कृष्णके सांख्य तत्त्व ज्ञानका सार :----
^ माया पर कालका प्रभाव हुआ फलस्वरुप
^ 03 अहंकार उपजे
> सात्त्विक अहंकारसे कालके प्रभावसे  मन + 10 इन्द्रियोंके अधिष्ठाता 10 देवता उपजे
> राजस अहँकारसे कालके प्रभावसे ---
10 इन्द्रियाँ + बुद्धि + प्राण उपजे
> तामस अहंकारसे कालके प्रभावसे ----
° शब्द उपजा
° शब्दसे आकाश उपजा
° आकाशसे स्पर्श उपजा
° स्पर्शसे वायु उपजी
° वायुसे रूप उपजा
° रूपसे तेज उपजा
° तेजसे रस की उत्पत्ति हुयी
° रससे जल बना
° जल से गंध की उत्पत्ति हुयी
° गंधसे पृथ्वी उपजी
अर्थात तामस अहंकारसे ---
** 05 तन्मात्र और 05 बिषय उपजे
और जब तत्त्व प्रलय होती है तब -----
* वायु पृथ्वीसे गंध छीन लेती है
* पृथ्वी जलमें बदल जाती है
# जलका रस वायु ले लेती है
# जल अग्निमें बदल जाता है
¢ अँधकार अग्निसे रूप ले लेता है
¢ अग्नि वायुमें वदल जाती है
^ आकाश वायुसे स्पर्श छीनता है
^ वातु आकाशमें विलीन हो जाती है
> काल आकाशसे शब्द ले लेता है
> आकाश तामस अहंकारमें बदल जाता है
* राजस अहंकारमें 10 इन्द्रियाँ , बुद्धि , प्राण विलीन हो जाते हैं
** सात्त्विक अहंकारमें मन और इन्द्रियोंके अधिष्ठाता देवता विलीन हो जाते हैं
° तीन अहंकारको काल महत्तत्त्वमें विलीन कर देता है ° महत्तत्त्वको काल मायामें विलीन कर देता है
° माया ब्रह्ममें सिमट जाती है ।
इस तत्त्व प्रलयको प्रकृति या महा प्रलय कहते हैं । °°°° ॐ °°°°

Thursday, August 22, 2013

मैत्रेयका सृष्टि दर्शन

●●मैत्रेयका सृष्टि सांख्यदर्शन
●● सन्दर्भ : भागवत : 3.5+3.6
°° मैत्रेयका आश्रम गंगाके तट पर हरिद्वारके निकट था जिसका नाम कुशावर्त था ।महाभारत युद्ध समाप्त हो गया था , यह सनाचार विदुर को प्रभास क्षेत्र में मिला और विदुर अपनी तीएथ यात्रा समाप्त कर वापिस चल पड़े । विदुर पहले बृंदावनमें उद्धवसे ज्ञान प्राप्ति की फिर हस्तिनापुर बी जा कर सीधे मैत्रेय के पास पहुंचे । मैत्रेयजी जब द्वारकाके अंत और यदुकुलके अन्तके समय प्रभु के पास प्रभास क्षेत्रमें
थे । ओरभु को परमधाम जाते हुए मैत्रेयजी देखे थे । >> मैत्रेयका सृष्टि सांख्य दर्शन ब्रह्माके सांख्य दर्शनसे कुछ भिन्न है ,आइये ,  पहले इस सांख्य -गणित को देखते हैं :------
            [ माया ]
                 |
         माया + काल
                 |
             महत्तत्त्व ^
                  |
         महत्तत्त्व + काल
                   |
            तीन अहंकार ^
                    |
          तीन अहंकार + काल
                     |
    [1] सात्त्विक अहंकार + काल
                     |
            [इन्द्रियोंके देवता + मन ]^

    [2]     राजस अहंकार  + काल
                     |
     [10 इन्द्रियाँ + बुद्धि + प्राण]^

    [3]       तामस अहंकार + काल
                        |
                    [ शब्द ] ^
                        |
                 शब्द + काल
                        |
                    आकाश ^
                         |
                आकाश + काल
                          |
                        स्पर्श ^
                          |
                °° स्पर्श + काल °°
                          |
                     [ वायु ] ^
                         |
                    वायु + काल
                          |
                      [ रूप ]^
                          |
                    रूप + काल
                          |
                      ( तेज )^
                          |
                    तेज + काल
                          |
                       (रस )^
                          |
                      रस+ काल
                          |
                       [ जल ] ^
                           |
                      जल + काल
                           |
                        [ गंध ]^
                           |
                     गंध + काल
                           |
                     °° पृथ्वी °° ^
● मैत्रेय की सांख्य गणितमें महाभूतोकी उत्पत्ति उनके विषयों( तन्मात्रों ) से हो रही है जैसे शब्द से आकाश ,स्पर्श से वायु ,रूप से तेज ( अग्नि ) , रस से जल और गंध से पृथ्वी ।
● प्रकृत प्रलयमें क्या होता है ? वायु पृथ्वी की गंध खीच लेती है और पृथ्वी जल बन जाती है । जल जा रस जब वायु ले लेती है तब जल अग्नि बन जाता है । अग्नि से उसका रूप अन्धकार द्वारा ले लिया जाता है और अग्नि वायु में बदल जाती है । अब सर्वत्र वायु ही वायु है और वातु से काल स्पर्श छीन लेता है , फलस्वरूप वायु आकाशमें विलीन हो जाता है और आकाशसे काल शब्द ले लेता है और आकाश तामस अहंकार में लीं हो जाता है ।
● इसी प्रकार राजस एवं सात्त्विक अहंकारों से उसके तत्त्वों को छीन किया जाता है और तब तीन अहंकार रह जाते हैं ।
● तीन अहंकार कालके प्रभावसे महत्तत्त्वमें विलीन हो जाते हैं और महत्तत्त्व मायामें और माया ब्रह्म का फैलाव है अतः वह सिकुड़ कर ब्रह्ममें समाजाती है । °°° ॐ °°

Wednesday, August 14, 2013

ज्ञान और विज्ञान

गीता श्लोक - 6.8
ज्ञानविज्ञानतृप्त आत्मा कूटस्थ : विजितेन्द्रिय :
युक्तः इति उच्यते योगिः सम्लोष्टाश्म्काज्चन :

" ज्ञान - विज्ञानसे तृप्त निर्विकार नियोजित इंद्रियों वाला समभावसे युक्त , योगी होता है "

ज्ञान - विज्ञान शब्द गीता में श्लोक  -6.8 ,  7.2, 9.1 ,13.2 ,14.1 में मिलता है / 

श्लोक - 13.2 में ज्ञान की परिभाषा कुछ इस प्रकार से दी गयी है -----
" क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का बोध , ज्ञान है " पर विज्ञान की परिभाषा गीता में नहीं है / 

भागवत - 11.19 में ज्ञान विज्ञान की परिभाषा कुछ इस प्रकार से है ----
ज्ञान : 
05 विषय , अहँकार , महत्तत्त्व , प्रकृति , पुरुष , 11 इन्द्रियाँ , 03 गुण और 05 महाभूतों का बोध ज्ञान है
विज्ञान :
ज्ञान में 28 तत्त्वों को जिनको उपर बताया  गया है , उनको ब्रह्मसे हुआ देखना , विज्ञान  है 

भागवत और गीता में ज्ञान से विज्ञान की यात्रा बतायी गयी है अर्थात बिना ज्ञान विज्ञान में कदम रखना संभव नहीं / ज्ञान अर्जित करनें के लिए हमारे पास पांच ज्ञान इन्द्रियाँ हैं लेकिन यह ज्ञान निर्विकार नहीं होता / 
इंद्रियों एवं बिषयों के संयोग से जो मिलता है वह भोग है , ऐसी बात गीता - 5.22 कहता है फिर हम ज्ञान से विज्ञान में कदम कैसे रख सकते हैं ? 
ज्ञान से विज्ञान में कदम रखनें के लिए -----
पहला कदम : ध्यान माध्यम से गुण तत्त्वोंके बंधन से इंद्रियों एवं मन को मुक्त कराना
दूसरा कदम : ध्यान की गहराई में पहुँच कर प्रकृति - पुरुष का द्रष्टा बनना जो किया नही जा सकता , यह एक स्थिति है जो ध्यान के पकनें पर  स्वतः मिलती है /
तीसरा कदम : वह जिसकी इन्द्रियाँ एवं मन निर्विकार रहनें लगता है वह समभाव में होता है / समभाव द्रष्टा की स्थिति पैदा करता है और द्रष्टा ज्ञान से परिपूर्ण विज्ञान में होता है /

ध्यान एक पाठशाला है जहाँ कर्म बंधनों को समझना और उनके कुप्रभावों  का अनुभव करना तो मनुष्य के बश में है लेकिन आगे की  यात्रा इस बात पर निर्भर करती है कि यह प्रारंभिक ध्यान का चरण कितना मजबूत है /
वह जिसका पहला चरण अर्थात इंद्रिय - बिषय का बोध मजबूत हो जाता है उनकी ध्यान की यात्रा राज पथ की यात्रा हो जाती है और वे शीघ्र विज्ञान में पहुंचते हैं जहाँ से परम गति का द्वार दिखनें लगता है /
ज्ञान विज्ञान की यात्रा का नाम है ध्यान 
विषयों का बोध ....
इंद्रियों की बृत्तियों के प्रति होश ...
मन को अब्यक्त की खोज पर केंद्रित करता है 
और
 यह खोज अपनें आप विज्ञान से परम गति तक का मार्ग तय करती है लेकिन ....
विज्ञान में पहुंचा योगी सिद्धि प्राप्ति भी करता है , सिद्धि प्राप्ति के बाद अहँकार मजबूत हो उठाता है और   पुनः भोग में वापिस पहुंचा सकता है , पर होश मजबूत  हो तो सिद्धियों से आगे की यात्रा संभव है
 जो परम गति की यात्रा है /
=== ओम् =====



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