1- गीता :3.27
" तीन गुण कर्म करता हैं ,करता भाव अहंकार की छाया है "
2 - गीता : 18 . 17
" कर्म होने में करता भाव का न होना , कर्मबंधन मुक्त करता है "
<> कृष्ण जो कह रहे हैं वह कर्म - योग का फल है और हम भोग को ही परम समझनें वाले उनकी बात का भाव समझना चाहते हैं भला यह कैसे संभव हो सकता है ?
होने काम्य कर्म करता का समय धन इकठ्ठा करनें और स्त्री प्रसंग में कटता
है ,यह बात भागवत में शुकदेव जी परीक्षित को बता रहे हैं ।
* कर्म एक सहज माध्यम है ।
कर्म दो प्रकार के होते हैं :---
* प्रबृत्ति परक कर्म निबृत्ति परक कर्म के माध्यम बन सकते हैं । गुणों के प्रभाव में जो कर्म होते हैं उहें भोग कर्म या प्रबृत्ति परक कर्म कहते हैं और ऐसे कर्म जिसके होनें में गुणों का कोई प्रभाव नहीं होता , निबृत्ति परक कर्म होते हैं।
निबृत्ति परक कर्म का केंद्र भगवान होता है और प्रबृत्ति परक का केंद्र भोग होता है ।
* अहंकार भोग का मूल तत्त्व है और श्रद्धा परमात्मा के द्वार को खोलती है तथा ये दोनों तत्त्व एक साथ नहीं रहते ।
* अहंकार के न होने पर श्रद्धा पैदा होती है ।
~~~ ॐ ~~~
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