Tuesday, February 17, 2015

गीता के मोती - 39

* कान्हा )की बासुरी तो निरंतर बज रही है पर उसे सुननेंकी गहरी चाह किसको है ?
* कन्हैया ! मैं तो जो -जो लकीरें खीची , वे सारी की सारी गलत थी पर तुमनें उन्हें सही आकार देते
रहे ---
* जब सोचता हूँ कि पच्चास सालों में कितनी लकीरे खीची होगी , और कभीं यह सोच भी न उभड़ी कि आखिर यह मैं क्या कर रहा हूँ ?
* क्योंकि उस समय मेरे पास अहंकारकी कलम , मोहकी स्याही और कामनाका कागज़ जो था ।
* अब महसूस हो रहा है कि मैं क्या कर रहा था , क्या करना था और क्याकिया ?
* एक मैं था जो मैं और मेराके मद में डूबा उन लकीरों से बेहोशी में नर्क जानेंकी एक सकरी कांटो भरी गली बना रहा था और ---
* एक तूँ है कि उन टेढ़ी - मेढ़ी लकीरों से बन रही गली को स्वर्ग जानें का राज पथ बना दिया ? वाह ! , कान्हा वाह !
* हे मेरे कान्हा जी ! आपनें इतना सब कुछ मेरे लिए किया और मुझे भनक भी न लगनें दी ?
* कान्हाकी बासुरी तो निरंतर बज रही है लेकिन वह सुनाई उनको देती है जिनका मन संसारसे मुक्त और चेतनासे भर जाता है ।
* जहाँ कान्हा की बासुरी बजनी बंद हुयी , कल्प के अंत का घंटी बजनें लगेगी और नैमित्तिक प्रलय आ टपकेगी ।
~~~ ॐ ~~~

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