हम स्वयं को कितना जानते हैं या जाननें की कोशिश करते हैं ?
हम उसको भी जानते तो नही हैं पर जाननें की कोशिश जरुर करते रहते हैं ।
हम कभी यह नही समझाना चाहते की हमारे दुःख का कारन मैं स्वयं हूँ , न की कोई और ।
जिस दिन यह पता चलनें लगता है की दुःख का कारन मैं हूँ उस दिन से हम रूपांतरित होनें लगते हैं ,ध्यान की किरण निकलनें लगाती है , हमारी दृष्टि बदलनें लगाती है , सभी ग्यानेंद्रिओं से मिलनें मिलनें वाली सूचनाओं से सुख की किरण निकलती दिखाई देनें लगतीहै और वह जो हमारे दुःख का कारण था वह सुख का माध्यम बन जाता है ।
बुद्ध कहते हैं .....हम दूसरे की गलती पर स्वयं को दंड देते हैं , आप एक काम करें , जब कभी दुखी हों तो दुःख के कारन को तलाशें , दुःख का कारण आप नही होंगे और कोई होगा, आप हो भी कैसे सकते हैं ? ऐसा क्यों होता है ?
मन का स्वाभाव है परिधि पर चक्कर काटना वह स्वयं कभीं भी केन्द्र पर नही रहता । परिधि है संसार जो बिषयों का माध्यम है तथा जो मन में भ्रम पैदा करता है । भ्रमीत मन तब तक शांत नहीं हो सकता जब तक वह परिधि पर होगा । मन की परिधि का केन्द्र है जीवात्मा जहाँ आकर मन निर्मल हो जाता है , भ्रम रहित हो जाता है और शांत हो जाता है ।
बिषय से जीवात्मा पर मन को ले आनें का प्रयाश ध्यान विधियां है और जब प्रयाश सफल होता है तब सत्य क्या है? का पता चल जाता है - हम कुछ और हो चुके होते हैं । मन का निवाश जब जीवात्मा बन जाता है तब वैराग्य मिलता है , वैराग्य में ज्ञान मिलता है जो ब्यक्त नही हो सकता । ज्ञान वह माध्यम है जिससे परमात्मा की अनुभूति होती है ।
अपने मन को बाहर से अंदर की ओर घुमाओ --यह तब सम्भव है जब मन का पीछा करनें की आदत पड़ जाए ।
=======ॐ=======
Tuesday, June 16, 2009
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