पिछले कुछ दिनों से हमारी यात्रा गीता अध्याय – 05 कि थी और अब हम इस अध्याय को समाप्त कर रहे हैं / गीता अध्याय – 05 का प्रारम्भ अर्जुन के सूत्र से है जिसमे अर्जुन कहते हैं ----
सूत्र –5.1
संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनः योगं च शंससि/
यत् श्रेयः एतयो: एकं तत् मे ब्रूहि सु- निश्चितं//
आप कभीं संन्यास की तो कभीं कर्म – योग की प्रशंसा करते हैं , आप मुझे स्पष्ट करें कि इन दो में मेरे लिए कौन श्रेष्ठ है ? कर्म – संन्यास एवं कर्म – योग में मेरे लिए कौन उत्तम है ? यह जानना चाहते हैं अर्जुन //
अर्जुन का यह प्रश्न अध्याय – 05 तक सीमित नहीं है , जो अध्याय – 05 तक अपनें को सीमित रख लिया वह कभीं नहीं समझ सकता कि कर्म संन्यास एवं कर्म – योग दोनों क्या हैं ? और दोनों का आपसी क्या सम्बन्ध है ?
गीता में कभी प्रभु कहते हैं, कर्म – योग में बिना उतरे कर्म – संन्यास की बात सोचना ब्यर्थ है
क्योंकि बिना कर्म – योग कर्म संन्यास की स्थिति में पहुँचना संभव नहीं और कभीं कहते हैं दोनों मुक्ति पथ हैं लेकिन सम्पूर्ण गीता की यात्रा बताती है------
कर्म करो , कर्म में आसक्ति की साधना से गुजरो और आसक्ति रहित कर्म समत्व – योग में
पहुचाता है , जहां नैष्कर्म्य – सिद्धि मिलती है जो ज्ञान योग की परा निष्ठा है /
निष्कर्म – सिद्धि में--------
जिसे हम कर्म समझते हैं वह अकर्म दिखनें लगता है
और
जिसको हम अभीं तक अकर्म समझते रहे थे वह कर्म दिखनें लगता है//
कर्म में भोग – तत्त्वों के प्रभाव से संन्यास लेना कर्म – संन्यास है और यह संभव तब होता है जब
भोग कर्म योग कर्म बन जाता है //
===== ओम=========