Sunday, March 31, 2013

गीता ज्ञान - 16

गीता श्लोक - 4.41

योग संन्यस्तकर्माणाम् ज्ञानसज्छिन्नसंशयम् /
आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय //


  • कर्म योग से कर्म संन्यास ...
  • कर्म - संन्यास में संदेह की अनुपस्थिति ...
  • कर्म सन्यास के साथ ज्ञान की प्राप्ति का होना //


प्रभु एक सूत्र में कर्म योग - कर्म संन्यास का गहरा समीकरण दे दिया , जो कर्म को योग में रूपांतरित करना चाहते हों उनको यह सूत्र पारस का कम कर सकता है / अब देखिये गीता की कुछ और बातों को जो इस कर्म - योग एवं कर्म संन्यास समीकरण को और स्पष्ट करते हैं :------

कोई जीव धारी एक पल के लिए भी कर्म रहित नहीं हो सकता , क्योंकि ...
कर्म गुणों की उर्जा से होते हैं , और ...
तीन गुण हर पल देह में परिवर्तित होते रहते हैं ; जब एक गुण ऊपर उठाता है तब अन्य दो को वह दबा देता है /
वेदों में गुण विभाग एवं कर्म विभाग की गहरी गणित दी गयी है जो बताती है कि ....
गुणों में हो रहे परिवर्तन एवं अहँकार के योग से कर्म होते हैं /

कर्म तो सभीं कर रहे हैं , कर्म मनुष्य को एक सहज माध्यम मिला हुआ है जो -----

भोग से योग में पहुंचा सकता है ...
योग की सिद्धि पर ज्ञान मिल सकता है ....
ज्ञान प्राप्ति पर .....
कर्म अकर्म सा और अकर्म कर्म सा दिखनें लगता है , और ...
कर्म बंधन नहीं रह पाते , ये मार्ग बन  जाते हैं जो ....

सीधे वैराज्ञ में पहुँचता है , जहाँ ....
से परम गति की यात्रा प्रारम्भ होती है // 

==== ओम् ====

Tuesday, March 19, 2013

गीता ज्ञान - 15

गीता श्लोक - 2.39 

एषा ते अभिहिता सांख्ये बुद्धिः , योगे तु इमाम् श्रृणु /
बुद्ध्या युक्तः यया पार्थ कर्मबंधनम् प्रहास्यसि       //

एषा [ यह ] ते [ तेरे लिए ] अभिहिता [ कही गयी ] सांख्ये [ सांख्य योग के सन्दर्भ में ] 
योगे [ कर्म योग के सन्दर्भ में ] तु [ और ] इमाम् [ इसको ] श्रृणु [ सुन ] 
बुद्ध्या [ बुद्धि से ] युक्तः [ युक्त हुआ ] यया [ जिस ] 
पार्थ  [ हव अर्जुन ] कर्मबंधनम् [ कर्म बंधनों को ] प्रहास्यसि [ त्याग देगा ] 

प्रभु यहाँ कह रहे हैं : 

हे अर्जुन अभीं तक मैं जो कुछ भी तुमको बताया हूँ वह सब सांख्य - योग का बिषय था लेकिन उसे तुम
 कर्म - योग के माध्यम से तब समझ सकता है जब तुम अपनीं  बुद्धि को कर्म बंधनों से मुक्त करा देगा //

कर्म बंधन क्या हैं ? 

" गुण - तत्त्व कर्म बंधन हैं और निर्गुण स्थिति में किया गया कर्म कर्म योग है "

गुण तत्त्व क्या हैं ? 

आसक्ति , काम , कामना , क्रोध , लोभ , मोह , भय , आलस्य , ये तत्व हैं राजस एवं तामस गुण - तत्त्व और इन सबके साथ अहँकार किसी न किसी रूप  में रहता है / अहँकार अपरा प्रकृति के आठ तत्त्वों में से एक प्रमुख तत्त्व है जो राजस , तामस एवं सात्त्विक गुण में किसी न किसी रूप  में तबतक रहता है जबतक साधक समाधि की स्थिति में नहीं पहुंचता / 

प्रभु यहाँ परम की अनुभूति के दो मार्ग बताए ; एक है बुद्धि आधारित जिसे बुद्धि योग कह सकते है या फिर
 सांख्य - योग कह सकते हैं जहाँ तर्क - वितर्क - संदेह की साधना से बुद्धि को स्थिर करना होता है जो अति कठिन काम है और दूसरा मार्ग है सहज मार्ग जिसे कर्म योग कहते हैं / कर्म योग में कर्म तत्त्वों के प्रति होश साधना होता है / जब कर्म बिना किसी कारण हो जिसके होनें के पीछे कोई चाह न हो तब वह कर्म कर्म योग होता है और कर्म योग की सिद्धि आसक्ति रहित कर्म से होती है जो ज्ञान [  बुद्धि ] योग की परा निष्ठा है / 

आज इतना ही 

==== ओम् =====

Saturday, March 9, 2013

गीता ज्ञान - 14

गीता श्लोक - 7.20 , 7.22

श्लोक - 7.20 
भोग  कामना सम्मोहन में मनुष्य देव पूजन से आकर्षित  होता है 
श्लोक - 7.22
देव - पूजन से कामना की पूर्ति संभव है यदि उस पूजन में समर्पण - श्रद्धा हो 

मनुष्य , देवता और परमात्मा ....
भोग , वैराज्ञ और परम गति .....
भोग से भोग में मनुष्य है ----
भोग से योग में पहुंचनें की सोच मनुष्य के अंदर है -----
योग  में भोग से वैराज्ञ प्राप्त करना मनुष्य का लक्ष्य है ---

वैराज्ञ में ज्ञान प्राप्ति से आत्मा , परमात्मा , जीव , गुण , माया , भोग - योग , संसार और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की सभीं सूचनाओं के आदि , मध्य तथा अंत का रहस्य , मनुष्य को मिलता है /
जिस घडी मनुष्य अपनें प्राण के रहस्य को समझता है , वह अपनें को अपनें तन से अलग देखनें लगत है और यह स्थिति होती है द्रष्टा की जो परम धाम की यात्रा की ऊर्जा देती है / 
परम धाम कोई स्थान नहीं , परम धाम निर्मल मन - बुद्धि की स्थिति है जहाँ मन - बुद्धि में वह परम निर्विकार ऊर्जा बहती रहती है जो ब्रह्माण्ड के रचना की मूल ऊर्जा है / 
द्रष्टा स्वयं के तन , मन , बुद्धि , श्वास , प्राण और आत्मा के माश्यम से पररमात्मा का द्रष्टा होता है /

===== ओम् ======

Friday, March 1, 2013

गीता ज्ञान - 13

गीता श्लोक - 7.2 
गीता श्लोक - 9.1, 9.2 

गीता श्लोक - 7.2 में प्रभु श्री कृष्ण कह रहे हैं - - - - -
" अब मैं तुमको वह सविज्ञान ज्ञान बता रहा हूँ जिसको जाननें वाले को और कुछ जाननें को नहीं बचता "

गीता श्लोक - 9.1 , 9.2 कह रहे हैं  - - - - - -
" प्रभु कह रहे हैं : अब मैं तुमको वह सविज्ञान ज्ञान बता रहा हूँ जो परम गोपनीय है , बड़ा सुगम है ,  सभीं ज्ञानों का राजा है और जिसको समझनें वाला अशुभ से मुक्त रहता है " 

अब आप गीता अध्याय - 7 एवं अध्याय - 9 को समझें और यह समझें कि सविज्ञान ज्ञान क्या है ?

[ क ] अध्याय - 7 

इस अध्याय में कुल 30 श्लोक हैं जिनमें 24 श्लोकों में प्रभु श्री कृष्ण 35 उदाहरणों से स्वयं के सम्बन्ध में बता  रहे हैं और अन्य 06 श्लोकों में भूतों की रचना के सम्बन्ध में कहते हैं कि भूतों की  रचना अपरा - परा प्रकृतियों के 09 तत्त्वों से है , अन्य दो श्लोकों [ 7.20 + 7.27 ] में कहते हैं , इंद्रिय सुख - दुःख का इच्छा - द्वेष - अज्ञान से जुड़ा हुआ है तथा कामना पूर्ति देव पूजन से संभव है / 
अब आप सोचें कि अध्याय -07 में सविज्ञान ज्ञान क्या है ?
एक ज्ञान उसे कहते हैं जो इंद्रिय - मन - बुद्धि के सहयोग से होता है और जिसको ब्यक्त किया जा सकता है , कुछ सीमा तक और दूसरा ज्ञान वह है जिससे ब्यक्त करना कठिन है लेकिन जिसके अस्तित्व को नक्कारना भी संभव नहीं /
 अब देखिये एक उदाहरण : प्रभु कहते हैं , तीन गुण हैं और तीनों के अपनें - अपनें भाव हैं , ये गुण एवं इनके भाव मुझसे हैं पर मैं भावातीत - गुणातीत हूँ / प्रभु के इन बचनों को ब्यक्त करना तो संभव है लेकिन इसका अनुभव इंद्रिय - मन - बुद्धि को नहीं हो सकता / 

दूसरा उदाहरण : प्रभु कहते हैं , सूर्य - चन्द्रमा का प्रकाश मैं हूँ ; इस बचन को हमारी इन्द्रियाँ और मन - बुद्धि समझते हैं लेकिन इस प्रकाश के होनें का श्रोत क्या है , को हम नहीं समझ सकते और यह भी नही कह सकते कि ये बिना श्रोत के हैं / मैक्स प्लांक , सी वी रमण , श्रोडिंगर और आइन्स्टाइन जैसे वैज्ञानिक इसे जानन चाहा लेकिन पूर्ण रूप से न जान पाए / 
वह ज्ञान जिसे मन - बुद्धि स्तर पर जाना जा सके उसे स्विज्ञान ज्ञान कह सकते हैं और वह ज्ञान जीको नक्कारना कठिन हो और जिसे मन - बुद्धि पर स्वीकारना भी कठिन हो उसे परम ज्ञान कह सकते हैं / 

अगले अंक में अध्याय - 09 में छिपे सविज्ञान - ज्ञान को देखेंगें /

===== ओम् ======

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