गीता श्लोक - 4.41
योग संन्यस्तकर्माणाम् ज्ञानसज्छिन्नसंशयम् /आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय //
- कर्म योग से कर्म संन्यास ...
- कर्म - संन्यास में संदेह की अनुपस्थिति ...
- कर्म सन्यास के साथ ज्ञान की प्राप्ति का होना //
प्रभु एक सूत्र में कर्म योग - कर्म संन्यास का गहरा समीकरण दे दिया , जो कर्म को योग में रूपांतरित करना चाहते हों उनको यह सूत्र पारस का कम कर सकता है / अब देखिये गीता की कुछ और बातों को जो इस कर्म - योग एवं कर्म संन्यास समीकरण को और स्पष्ट करते हैं :------
कोई जीव धारी एक पल के लिए भी कर्म रहित नहीं हो सकता , क्योंकि ...
कर्म गुणों की उर्जा से होते हैं , और ...
तीन गुण हर पल देह में परिवर्तित होते रहते हैं ; जब एक गुण ऊपर उठाता है तब अन्य दो को वह दबा देता है /
वेदों में गुण विभाग एवं कर्म विभाग की गहरी गणित दी गयी है जो बताती है कि ....
गुणों में हो रहे परिवर्तन एवं अहँकार के योग से कर्म होते हैं /
कर्म तो सभीं कर रहे हैं , कर्म मनुष्य को एक सहज माध्यम मिला हुआ है जो -----
भोग से योग में पहुंचा सकता है ...
योग की सिद्धि पर ज्ञान मिल सकता है ....
ज्ञान प्राप्ति पर .....
कर्म अकर्म सा और अकर्म कर्म सा दिखनें लगता है , और ...
कर्म बंधन नहीं रह पाते , ये मार्ग बन जाते हैं जो ....
सीधे वैराज्ञ में पहुँचता है , जहाँ ....
से परम गति की यात्रा प्रारम्भ होती है //
==== ओम् ====