गीता श्लोक - 7.20 , 7.22
श्लोक - 7.20
भोग कामना सम्मोहन में मनुष्य देव पूजन से आकर्षित होता है
श्लोक - 7.22
देव - पूजन से कामना की पूर्ति संभव है यदि उस पूजन में समर्पण - श्रद्धा हो
मनुष्य , देवता और परमात्मा ....
भोग , वैराज्ञ और परम गति .....
भोग से भोग में मनुष्य है ----
भोग से योग में पहुंचनें की सोच मनुष्य के अंदर है -----
योग में भोग से वैराज्ञ प्राप्त करना मनुष्य का लक्ष्य है ---
वैराज्ञ में ज्ञान प्राप्ति से आत्मा , परमात्मा , जीव , गुण , माया , भोग - योग , संसार और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की सभीं सूचनाओं के आदि , मध्य तथा अंत का रहस्य , मनुष्य को मिलता है /
जिस घडी मनुष्य अपनें प्राण के रहस्य को समझता है , वह अपनें को अपनें तन से अलग देखनें लगत है और यह स्थिति होती है द्रष्टा की जो परम धाम की यात्रा की ऊर्जा देती है /
परम धाम कोई स्थान नहीं , परम धाम निर्मल मन - बुद्धि की स्थिति है जहाँ मन - बुद्धि में वह परम निर्विकार ऊर्जा बहती रहती है जो ब्रह्माण्ड के रचना की मूल ऊर्जा है /
द्रष्टा स्वयं के तन , मन , बुद्धि , श्वास , प्राण और आत्मा के माश्यम से पररमात्मा का द्रष्टा होता है /
===== ओम् ======
श्लोक - 7.20
भोग कामना सम्मोहन में मनुष्य देव पूजन से आकर्षित होता है
श्लोक - 7.22
देव - पूजन से कामना की पूर्ति संभव है यदि उस पूजन में समर्पण - श्रद्धा हो
मनुष्य , देवता और परमात्मा ....
भोग , वैराज्ञ और परम गति .....
भोग से भोग में मनुष्य है ----
भोग से योग में पहुंचनें की सोच मनुष्य के अंदर है -----
योग में भोग से वैराज्ञ प्राप्त करना मनुष्य का लक्ष्य है ---
वैराज्ञ में ज्ञान प्राप्ति से आत्मा , परमात्मा , जीव , गुण , माया , भोग - योग , संसार और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की सभीं सूचनाओं के आदि , मध्य तथा अंत का रहस्य , मनुष्य को मिलता है /
जिस घडी मनुष्य अपनें प्राण के रहस्य को समझता है , वह अपनें को अपनें तन से अलग देखनें लगत है और यह स्थिति होती है द्रष्टा की जो परम धाम की यात्रा की ऊर्जा देती है /
परम धाम कोई स्थान नहीं , परम धाम निर्मल मन - बुद्धि की स्थिति है जहाँ मन - बुद्धि में वह परम निर्विकार ऊर्जा बहती रहती है जो ब्रह्माण्ड के रचना की मूल ऊर्जा है /
द्रष्टा स्वयं के तन , मन , बुद्धि , श्वास , प्राण और आत्मा के माश्यम से पररमात्मा का द्रष्टा होता है /
===== ओम् ======
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