गीता श्लोक - 2.39
एषा ते अभिहिता सांख्ये बुद्धिः , योगे तु इमाम् श्रृणु /बुद्ध्या युक्तः यया पार्थ कर्मबंधनम् प्रहास्यसि //
एषा [ यह ] ते [ तेरे लिए ] अभिहिता [ कही गयी ] सांख्ये [ सांख्य योग के सन्दर्भ में ]
योगे [ कर्म योग के सन्दर्भ में ] तु [ और ] इमाम् [ इसको ] श्रृणु [ सुन ]
बुद्ध्या [ बुद्धि से ] युक्तः [ युक्त हुआ ] यया [ जिस ]
पार्थ [ हव अर्जुन ] कर्मबंधनम् [ कर्म बंधनों को ] प्रहास्यसि [ त्याग देगा ]
प्रभु यहाँ कह रहे हैं :
हे अर्जुन अभीं तक मैं जो कुछ भी तुमको बताया हूँ वह सब सांख्य - योग का बिषय था लेकिन उसे तुम
कर्म - योग के माध्यम से तब समझ सकता है जब तुम अपनीं बुद्धि को कर्म बंधनों से मुक्त करा देगा //
कर्म बंधन क्या हैं ?
" गुण - तत्त्व कर्म बंधन हैं और निर्गुण स्थिति में किया गया कर्म कर्म योग है "
गुण तत्त्व क्या हैं ?
आसक्ति , काम , कामना , क्रोध , लोभ , मोह , भय , आलस्य , ये तत्व हैं राजस एवं तामस गुण - तत्त्व और इन सबके साथ अहँकार किसी न किसी रूप में रहता है / अहँकार अपरा प्रकृति के आठ तत्त्वों में से एक प्रमुख तत्त्व है जो राजस , तामस एवं सात्त्विक गुण में किसी न किसी रूप में तबतक रहता है जबतक साधक समाधि की स्थिति में नहीं पहुंचता /
प्रभु यहाँ परम की अनुभूति के दो मार्ग बताए ; एक है बुद्धि आधारित जिसे बुद्धि योग कह सकते है या फिर
सांख्य - योग कह सकते हैं जहाँ तर्क - वितर्क - संदेह की साधना से बुद्धि को स्थिर करना होता है जो अति कठिन काम है और दूसरा मार्ग है सहज मार्ग जिसे कर्म योग कहते हैं / कर्म योग में कर्म तत्त्वों के प्रति होश साधना होता है / जब कर्म बिना किसी कारण हो जिसके होनें के पीछे कोई चाह न हो तब वह कर्म कर्म योग होता है और कर्म योग की सिद्धि आसक्ति रहित कर्म से होती है जो ज्ञान [ बुद्धि ] योग की परा निष्ठा है /
आज इतना ही
==== ओम् =====
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