Sunday, July 28, 2013

गीता अध्याय - 03

गीता अध्याय - 03 Content :
श्लोकों की स्थिति
अर्जुन > 03
कृष्ण > 40
योग > 43
अध्याय में दो प्रश्न हैं ; 3.1-3.2 और 3.36 से  * 3.1+3.2 > अर्जुन पूछ रहे हैं :
हे जनार्दन , यदि कर्म से उत्तम बुद्धि ( ज्ञान ) है फिर आप मुझे घोर कर्म में क्यों लगाना चाह रहे हैं ?
> यह प्रश्न प्रभु के सूत्र * 2.49 पर आधारित है ; यह सूत्र कहता है : बुद्धि योग से , कर्म निम्न स्तर का है अतः तुम बुद्धि योग की शरण लो क्योंकि कर्म फल सोची कृपण होते हैं ।
>> संदेहयुक्त अनिश्चयात्मिका बुद्धि वाले की स्थिति gross hopper जैसी होती है । देखिये यहाँ इस बुद्धि का यह रूप ; अर्जुन का प्रश्न - 01(2.54) प्रभु के सूत्र - 2.53 पर आधारित है और यह दूसरा प्रश्न प्रभु के सूत्र - 2.49 पर आश्रित है अर्थात अर्जुन एक कदम आगे चलते हैं फिर दो कदम पीछे लौटने की बात सोचने लगते हैं ।
* 3.3 > प्रभु : दो मार्ग हैं ; सांख्य लोगों के लिए ज्ञान और अन्यों के लिए कर्म योग ( ज्ञान योगेन सांख्यानां कर्म योगेन योगिनां ) यहाँ देखें सूत्र -- 2.39,2.49,13.24,18.54,18.55
ये सूत्र सांख्य , कर्म , ध्यान और भक्ति की ओर इशारा करते हैं ।
>> 2.49 को देखिये :---- दूरेण हि अवरं (निम्न) कर्म , बुद्धियोगात
* 3.4 > कर्म किये बिना कर्म निष्कर्मता नहीं मिलती और न ही कर्म संन्यास से सिद्धि ।यहाँ देखें सूत्र - 18.49 , 18.50 , 4.18
* 3.5 > प्रकृति जनित तीन गुण कर्म करते हैं अतः क्षण भर के लिए भी कर्म मुक्त होना संभव नहीं।देखिये सूत्र-2.45,3.27,3.33,18.11,18.48,13.23,13.29,5.7
* 3.6 > कर्म इन्द्रियों का संयम और मन से बिषयों में आसक्त रहना मिथ्याचारी बनाता है । देखिये सूत्र - 3.7,2.59- 2.64 , 3.34,5.7
* 3.7 > इन्द्रियों का नियोजन मन से होना चाहिए देखिये सूत्र - 2.60,2.67,6.24-6.27,3.34 *3.8 से 3.16 तक यज्ञ से सम्बंधित
* 3.9 > यज्ञ कर्म के अलावा सभी कर्म बंधन
हैं ।अतः आसक्ति रहित हो कर युद्ध कर्म करो । *3.10 > कल्प के आदि में प्रजापति यज्ञ एवं प्रजा को उत्पन्न किया और बोले , यज्ञों के माध्यम से तुम सब की बृद्धि हो और यज्ञ तुम सब के लिए कामना पूर्ति के लिए कामधेनु का काम करें ।
*3.11 > यज्ञ से देव उन्नति , देव उन्नति से तुम सब की उन्नति ।
*3.12 > यज्ञ से देवता तुम्हारे इष्ट भोगों को देते रहेंगे और तुम सब इन प्राप्त इष्ट भोगों को देवताओं को समर्पित कर के स्वयं भोगते रहो।
*3.13 > यज्ञ के लिए बना भोजन पाप मुक्त करता है और अपनें लिए बना भोजन में पाप उर्जा होती है। *3.14 - 3.15 > प्राणी अन्न आधारित हैं , अन्न बृष्टि आधारित हैं , बृष्टि यज्ञ आधारित है , यज्ञ कर्म आधारित हैं , कर्म वेद आधारित हैं और वेद परम अक्षर ब्रह्म आधारित अतः सभीयज्ञों में ब्रह्म की उपस्थिति होती है ।
* 3.16 > ऊपर बताये गए प्रचलित सृष्टि चक्र से जो जीवन गुजारत है वह पाप मुक्त जीता है और अन्य ढंग का जीवन ब्यर्थ भोगी का जीवन है ।
*3.17> आत्मा केन्द्रित ब्यक्ति के लिए कोई कर्तब्य नहीं ( यहाँ देखें - 2.55,3.43,5.7,6.30,5.26  *3.18 > आत्मा केन्द्रित का कर्म - अकर्म में कोई प्रयोजन नहीं रहता ।
*3.19-3.20 > आसक्ति रहित कर्म प्रभु का द्वार है *3.21> सभी श्रेष्ठ पुरुष का आचरण करते हैं । *3.22 > मुझे तीन लोकों में कोई कर्तब्य नहीं और कोई बस्तु अप्राप्त भी नहीं देखो :- 11.20, 15.17 *3.23 > सभी मनुष्य मेरे मार्ग का अनुसरण करते हैं अतः मैं सावधानी से कर्मों से जुड़ता हूँ ।
* 3.24 > यदि मैं कर्म न करू तो सभी नष्ट हो जाये *3.25 > जैसे अज्ञानी आसक्ति युक्त कर्म करते हैं वैसे ज्ञानी को भी बिना आसक्ति कर्म करना चाहिए *3.26 > पर्मात्मायुक्त बिद्वान को , भोगी को उसके कर्म से बिचलित नहीं करना चाहिए , देखो सूत्र -  3.29
*3.27 > तीन गुण कर्म करता हैं और करता भाव अहंकार की छाया है।देखो >3.5, 3.33, 2.45, 13.29, 13.23, 18.11, 18.48
*3.28 > कर्म विभाग और गुण बिभाग को तत्त्व वित् जानते हैं ।
*3.29 > गुणों से सम्मोहित ब्यक्तियों को ग्यानी लोग विचलित न करें देखो सूयर - 3.26
* 3.30 > पूर्ण समर्पण भाव से युद्ध करो ।
*3.31 > श्रद्धा से परिपूर्ण मेरे भक्त कर्म मुक्त हो जाते हैं ।
*3.32 > जो मेरे बिचारों से सहमत बिना हुए चलते हैं वे अज्ञानी हैं ।
*3.33 > सभी अपनें अपनें प्रकृति के अनुसार कर्म करते हैं ।
*3.34 > बिषयो में राग - द्वेष की उर्जा होती है  *3.35 > श्रेयां स्वधर्मः विगुणः पर धर्मात स्वनुष्ठितात स्वधर्मे निधनं श्रेयः पर धर्मः भयावह: देखो सूत्र -18.47 जिसकी पहली लाइन सूत्र 3.35 की है है लेकिन दूसरी लाइन इस प्रकार है :----- स्वभाव नियतम कर्मः कुर्वन न आप्नोति किल्बिषम *3.36 > अर्जुन पूछ रहे हैं :----
मनुष्य न चाहते हुए भी पाप क्यों करता है ?
उत्तर : 3.37 से 3.43 तक और सूत्र- 5.23,5.26,16.21,7.11,10.28,14.12 को भी देखें
*3.37 > काम का रूपांतरण क्रोध है , काम राजस गुण का केंद्र है ।
*3.38 +3.39 > काम का सम्मोहन अज्ञानी बना देता है।
* 3.40 > इन्द्रिय मन एवं बुद्धि काम के वासना स्थल हैं । इन्हें सम्मॊहित करके काम आत्मा को आकर्षित करता है।
*3.41 > अर्जुन! तुम इन्द्रियों को बश मे रख और इस प्रकार ज्ञान - विज्ञान का नाह करता काम को मार डाल।
*3.42 > इन्द्रियों से परम मन है मन से बुद्धि है और बुद्धि से परम आत्मा है ......
*3.43 > अतः बुद्धि से परम आत्मा का बोध बुद्धि माध्यम से मन के सहयोग से काम नियंत्रण होना चहिये ।
==== ॐ =====

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